Monday 5 October 2015

जनता जनार्दन की जय !

समय की सांकल पर
संसरती सियासत
          फांस मे फँसी रियासत
          बाज़ीगर और ज़म्हूरे
            रु-ब-रु होते हैं
            हर पाँचवे साल !  

लावण्यमयी ललना
क्रूर दमन दामिनी
शासन यामिनी
लहू से मुँह लाल
    दलित महादलित
पदमर्दित फटेहाल !

छलना चुनाव मदिरा
गिरता मधुरस
उदर के छालों पर
निवाले की तरह
जठराग्नि के फफोले
अनारदानों से लाल,विकराल !

होती है गुदगुदाहट 
झिनझिनाती नशों में
उठता है मादक नशा
छाता दिलो दिमाग पर
  जम्हुरियत का जयकारा
   जनता जनार्दन की जय !  

मद्धिम-सा होता
भविष्य का भोर
जनता! अभागन प्रेयसी
नेता, कुटील चितचोर!
फिर से रचा लिया है रास 
अपनी भ्रम-लीला में फाँस !

भोली भाली आत्माओं को
आत्म मुग्धावस्था में खोने को  
तन्द्रिल सा सोता जनमानस
तत्पर हिप्टोनाइज़ होने को
पाँच साल को तय
जनता जनार्दन की जय !   

नागपंचमी ! चुनाव की
प्रजातंत्र पय-पावन पर्व
डँसने को आतुर तत्पर
फन काढ़े विषधर
गूँजे फुफकारों की लय

जनता जनार्दन की जय ! 

Tuesday 22 September 2015

प्लेटलेट्स की पतवार फंसी 'डेंगी' में।

प्लेटलेट्स की पतवार फंसी 'डेंगी' में।
उलझती अटकती साँसे,
फकफकाहट।
'अविनाश' मासूमियत,
मद्धिम सी आँखों में झूलता
बेबस बाप की अकबकाहट!
आरोग्य चौखट से दुत्कारी गयी
लाचार माँ ,नम नयन,
कातर कोख
हदस ! थरथराहट !!
सिकुड़े 'आकाश' से
क्षुद्र 'मैक्स' तक
मज़दूरों के पसीने और
'खैराती टैक्स' पर
एम्बुलेंस की आपाधापी।
पर, निरीह की ज़िंदगी
जोड़ने को कुछ पल,
'उजली कोट' ओढ़े
कोई भी 'काली रूह'
नहीं काँपी!
सिक्को के खनकते
बटखरे में,इंसानी जिंदगी,
तौलते सुश्रुत-सूत।
धन्वन्तरी के धनिक अनुयायी।
चिकित्सा की दुकान
पर बैठे व्यवसायी।
कुत्सित-चित्त
धिक्-धिक् ,पतित।
संवेदनहीन,कुविचारी,
श्वेताम्बर शिक्षाधारी।
तुमसे श्वेत तो वो ' एडिस'
काल-दंश-धारी!
चाहे हो राजा या रंक
बिना भेद के मारता डंक।
जिससे भी सटता,
मुखशुद्धि करता
सबमें जहर भरता।
बाकी जिम्मा तेरी
'कजरी' आत्मा का,
कोई जीता, कोई मरता।

और न लिखूंगा

मन को थोड़ा सिखला दूँगा
दुनियादारी दिखला दूँगा
आदर्शों में भटक गया तो 
पग यथार्थ पर फिसला दूँगा

बोलूँगा , मन पत्थर हो जा
प्रतिकूल घर्षण में सो जा
अनुकूलन का दर्पण न हो
पल भर को खुद में ही खो जा

साम दाम दंड भेद की दुनिया
सब कुछ जाली सब कुछ छलिया
दिग्भ्रम है समतल सपाट का
अंतस्थल में कपट कपाट-सा
छल-प्रपंच के माया-महल में
रंग रोग का अब न लीपूँगा
मिथ्या लेखन बहुत रचा अब

सोच लिया है और न लिखूंगा    

Monday 27 July 2015

आशा का बीज

टुकड़े का टकराना टुकड़े से
अपनी ही काया का !

जब भी टकराते दो सहोदर
हो जाती माँ की कोख जर्जर

धरती की धुकधुकी
ऊर्जा का उछाह
भूडोल,विध्वंस
धराशायी आशियाने
बनते कब्रगाह

मंजिल-दर-मंजिल
झड़ते  परत-दर-परत
दबती मासूम चीत्कार
शहतीरों की चरमराहट
नर कंकालों की मूक कराह

 करीने से काढ़ी गयी
 नक्काशियाँ
गढ़े गये प्रस्तर
अब जमीन्दोज़
खंडित
जीर्ण-शीर्ण
बनते मौत के बिस्तर!

लाशों पर कंक्रीट का आवरण
अब भला चील बैठे तो कहाँ
कुत्ते भौंके तो क्यों
गिलहरी रोये तो कैसे
चमगादड़ चिचियाये तो कब

सब कुछ मौन
निस्तब्ध, जड़
सिर्फ काल
चंचल , गतिमान !

बीच बीच में टपकते
सीमेंटी शहतीरों के शोर
‘कंक्रीट-कटर’ मशीनों की घर्र-घर्र
नेपथ्य से चीखती चीत्कार

फिर फाटी माटी     
थरथरायी पूरी घाटी
फेंका लावा
धरती की छाती ने
हिला देवालय
इंच भर धंसा हिमालय
जलजला बवंडर
मचा हड़कम्प
भूकम्प! भूकम्प!! भूकम्प!!!

स्खलित चट्टानों
 एवम हिम से
दबी वनस्पति, 
कुचले जीव
मरा मानव

पर, जागी मानवता
दम भर
छलका करुणा का अमृत
थामने को बढ़े आतुर हाथ
पोंछने को आँसू
और बाँटने को
आशा का नया बीजन
समवेत स्वर

सृजन! सृजन!! सृजन!!!  

सृजन

काल प्रवाह में स्वाहा
कतिपय शब्दों के बोल

स्थान-निरपेक्ष , कालातीत
गढ़ लेते हैं गूढ़ अर्थ
शाश्वत , अनमोल
आत्मा को झकझोरते
वे कालजयी वाक्य

छूते हैं मन को

करते

 चेतना का स्फुरण
सत्य के आलोक में
नवजीवन का प्रस्फुटन
यहीं है सृजन !
                                  

                                    ’मैं तो ठहर गया
भला तू कब ठहरेगा’

इस वाक्य की चोट
भला लुटेरे का मर्म सहेगा? 
गौतम की वाणी ने मचाया
अंगुलिमाल के भीतर हाहाकार

चौंधियाये चक्षु बौद्ध तेज से
मचला भीतर करुणा का पारावार

पखारे पांव, निकली आह!
बोधिसत्व ने दिया पनाह

 चेतना का स्फुरण
सत्य के आलोक में
नवजीवन का प्रस्फुटन
यहीं है सृजन !





संत बाबा भारती की लाचारी
ठगने को उद्धत डाकू छलनाचारी

बोले संत, खड्ग सिंह सुन
घटना यह औरों से न गुन

अभी तो बना सिर्फ मैं बेचारा
पर न बने दीन दुखिया बेसहारा

बाबा की बात का घात
डाकू न सह पाया
घोड़ा छोड़ अस्तबल में आया

 चेतना का स्फुरण
सत्य के आलोक में
नवजीवन का प्रस्फुटन
यही है सृजन !


                       
अब लाठी टेकती बुढ़िया लाचार
लगी प्रपंची पंच से करने विचार

हकलायी गिड़गिड़ायी – बोलो
मन की गाँठ खोलोगे?

बेटा! क्या बिगाड़ के डर से
ईमान की बात नहीं बोलोगे

बहे आँखों से आँसू
धुला मैल मन का
हुआ उँचा न्याय का आसन

चेतना का स्फुरण
सत्य के आलोक में
नवजीवन का प्रस्फुटन
                                    यहीं है सृजन !

सृजन! सृजन!! सृजन!!! 

भूचाल

सतही दरारों में सरक-सरक भरती है
समय की रेत हर पल
फिर सब कुछ दिखता
सपाट, सीधा और धूसर


पर भीतरी मन की दरारें
होती हैं आर-पार
उस पर नहीं रुकती
वक़्त की धूल


फिसल जाते हैं, ज़िन्दगी के किरदार
रिश्तों के दरख्त नहीं जमाते जड़
बन जाते कोयला माटी में सड़

ज़िन्दगी की खटास से
फटती बढ़ती  भावनाओं की दरारें

निराश-हताश फटे दिल में
 धुकधुकाती ऊर्जा के बेसुरे ताल

इन्ही ‘भू-गर्भीय फौल्टों’ में


डोलता है ज़िन्दगी का भूचाल  

Tuesday 23 June 2015

हार की जीत्

भारतीय साहित्य में कुछ कहानियो के अनमोल वचन समय और स्थान से परे सत्य की शाश्वतता से लबरेज़ हैं। यथा बुद्ध के वचन डाकू अंगुलिमाल को-"मैं तो ठहर गया, भला तू कब ठहरेगा।" 
'पञ्च परमेश्वर ' में खाला जान की झकझोरु आवाज-" बेटा, क्या बिगाड़ की डर से ईमान की बात नहीं कहोगे।" 
इसी परम्परा में संत बाबा भारती के स्वर गूंजते हैं-".....नहीं तो लोगो का दीन-दुखियों से विश्वास उठ जायगा।"
सुदर्शन की यह कालजयी कथा वस्तुतः उस दर्शन का चित्रण है जहां सत्य प्रारम्भ में प्रताड़ित तो होता है परंतु पराजित कदापि नहीं होता। पूर्व प्रताड़ित हार अंततः जीत बनकर ' सत्यमेव-जयते' का उद्घोष करती है।
कहानी तो है बड़ी सरल। एक संत , बाबा भारती, और उनका सुघड़ घोड़ा, सुल्तान। उस घोड़े में जान बसती है उस संत की।प्रेम समर्पण की अतल गहराई में डूबकर संत की कमजोरी और भय बन जाता है।ठीक वैसे, जैसे माँ के लिए उसकी आँखो का तारा उसका राज दुलारा या किसान की जिंदगी की प्यारी ग़ज़ल उसके पसीने से भींगी उसकी लहलहाती फसल ।
इलाके का आतंक डाकु खडग सिंह। उसकी नज़रे लग जाती हैं उस अभिराम अश्व पर।उसे हड़पने के लिए वह बल और छल में छल का सहारा लेता है।किन्तु संत की निर्बल काया में एक बलवान आत्मा निवास कराती है।उस ज्योतिर्मय रूह से एक नैसर्गिक नसीहत निकलती है-" यह घटना दूसरों को मत बताना, नही तो लोगों का दीन-दुखियों से विश्वास उठ जाएगा।" दीन-दुखी के छद्म वेष में प्रवंचना का सहारा लिए डाकू अंदर से हिल जाता है।प्रताड़ित सत्य के सम्मुख अहंकारी असत्य घुटने टेक देता है।अँधेरे में वापस वह घोड़े को संत के अस्तबल में छोड़ जाता है।संत की पदचाप और घोड़े की हिनहिनाहट मानों सत्य के आलोक में नवजीवन का प्रस्फुटन हो।