शोणित-सागर में सिंदूरी,
सोने-सा सूरज ढ़लका।
नील गगन ललित अम्बर में,
लाल रंग है छलका।
चिरई-चिरगुन नीड़ चले,
अब चकवा-चकई आ रे।
प्रेम सुधा दृग अंचल धारे,
राही राह निहारे।
दो पथिक किनारे !
अस्ताचल,लहरें चंचल,
कलकल है किल्लोलें।
श्याम सलोनी, सन्ध्यारानी,
मदन मगन, पट खोले।
शनैः-शनैः सरकाये घूंघट,
राग अनंत सिंगार की चूनट।
प्रणय-पाग का नीर नयन में धारे,
राही राह निहारे
दो पथिक किनारे!
सनन-सनन पागल है पवन,
अब मीठी बतियाँ बोले।
बाउर-बयार, बिहँस-बिहँस कर
नशा भंग का घोले।
द्रुम-लता पुलककर डोले
मतवाले,अब आ सागर में खो लें।
उछली ऊर्मि, चाँद पलक में धारे,
राही राह निहारे।
दो पथिक किनारे !
सागर-से वक्षस्थल पर,
पसरा चिर सन्नाटा।
उर-अंतर्मन के स्पन्दन ने,
रचा ज्वार और भाटा।
पुरुष-प्रकृति प्रीत परायण,
प्रवृत्त नर, निवृत्त नारायण।
मिलन-चिरंतन का मन, मंगल-गीत उचारे,
राही राह निहारे
दो पथिक किनारे !