Monday 20 March 2017

सपनों के साज

दुःख की कजरी बदरी करती , 
मन अम्बर को काला . 
क्रूर काल ने मन में तेरे , 
गरल पीर का डाला . 
ढलका सजनी, ले प्याला , 
वो तिक्त हलाहल हाला// 

मुख शुद्धि करूं ,तप्त तरल 
गटक गला नहलाऊं , 
पीकर सारा दर्द तुम्हारा , 
नीलकंठ बन जाऊं . 
खोलूं जटा से चंदा को, 
पूनम से रास रचाऊं // 

चटक चाँदनी की चमचम 
चन्दन का लेप लगाऊं , 
हर लूँ हर व्यथा थारी 
मन प्रांतर सहलाऊं . 
आ पथिक, पथ में पग पग 
सपनों के साज सजाऊं //

Friday 17 March 2017

तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

मीत मिले न मन के मानिक
सपने आंसू में बह जाते हैं।
जीवन के विरानेपन में,
महल ख्वाब के ढह जाते हैं।
टीस टीस कर दिल तपता है
भाव बने घाव ,मन में गहरे।

तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

अंतरिक्ष के सूनेपन में
चाँद अकेले सो जाता है।
विरल वेदना की बदरी में
लुक लुक छिप छिप खो जाता है।
अकुलाता पूनम का सागर
उठती गिरती व्याकुल लहरें।

तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

प्राची से पश्चिम तक दिन भर
खड़ी खेत में घड़ियाँ गिनकर।
नयन मीत में टाँके रहती,
तपन प्यार का दिनभर सहती।
क्या गुजरी उस सूरजमुखी पर,
अंधियारे जब डालें पहरे।

तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

वसुधा के आँगन में बिखरी,
मैं रेणु अति सूक्ष्म सरल हूँ।
जीव जगत के माया घट में,
मैं प्रकृति भाव तरल हूँ।
बहूँ, तो बरबस विश्व ये बिहँसे
लूँ विराम,फिर सृष्टि ठहरे।

तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

Friday 10 March 2017

जुलमी फागुन! पिया न आयो.

जुलमी फागुन! पिया न आयो!


बाउर बयार, बहक बौराकर
तन मन मोर लपटायो.
शिथिल शबद, भये भाव मवन
सजन नयन घन छायो.


मदन बदन में अगन लगाये
सनन  सनन  सिहरायो
कंचुकी सुखत नहीं सजनी
उर, मकरंद  बरसायो .


बैरन सखियन, फगुआ गाये
बिरहन  मन झुलसायो.
धधक धधक, जर जियरा धनके
अंग रंग सनकायो.


जुलमी फागुन! पिया न आयो!


टीस परेम-पीर, चिर चीर 
चित चोर चितवन  सहरायो
झनक झनक पायल की खनक
सौतन, सुर ताल सजायो


चाँद गगन मगन यौवन में
पीव  धवल  बरसायो
चतुर चकोरी चंदा चाके
प्रीत अमावस, छायो


कसक-कसक मसक गयी अंगिया
बे हया,  हिया  हकलायो
अंग अनंग, मारे पिचकारी
पोर पोर भींज जायो


जुलमी फागुन! पिया न आयो!


बलम नादान, परदेस नोकरिया
तन  सौ-तन, रंगायो
सरम,धरम, मरम, नैनन नम
मन मोर, पिया जग जायो.


कोयली कुहके,पपीहा पिहुके
पल पल अँखियाँ फरके
चिहुँक-चिहुँक मन दुअरा ताके
पिया, न पाती कछु पायो


बरसाने मुरझाई राधा
कान्हा, गोपी-कुटिल फंसायो
मोर पिया निरदोस हयो जी
फगुआ मन भरमायो


जुलमी फागुन! पिया न आयो!

Friday 24 February 2017

पाथर कंकड़

लमहे-दर-लमहे, कहे अनकहे
फलित अफलित, घटित अघटित
सत्व-तमस, तत्व-रजस
छूये अनछूये,दहे ढ़हे
हद-अनहद, गरल वेदना का,
प्रेम तरल, सृष्टि-प्रवाह बन
बूँद-दर-बूँद,
गटकते रहे
नीलकंठ मैं !

अपलक नयन, योग शयन
गुच्छ-दर-गुच्छ विचारों की जटायें
लपेटती भावनाओं की भागीरथी
उठती गिरती, सृजन विसर्जन
चंचल लहरें घुलाती
चाँदनी की शांत मीठास
जगन्नाथ की ज्योत्स्ना
से जगमग
चन्द्रशेखर मैं !

स्थावर जंगम, तुच्छ विहंगम
कोमल कठोर, गोधूली भोर
साकार निराकार, शून्य विस्तार
अवनि अम्बर, श्वेताम्बर दिगम्बर 
ग्रह विग्रह, शाप अनुग्रह
प्रकृष्ट प्रचंड, प्रगल्भ अखंड
परिव्राजक संत, अनादि अनंत
पाथर कंकड़
शिवशंकर मैं !

















Tuesday 21 February 2017

नर- नारी.

तू रामायण, मैं सीता,
तू उपनिषद, मैं गीता.

मैं अर्थ, तू शब्द,
तू वाचाल, मैं निःशब्द.

तू रूप, मैं छवि,
तू यज्ञ, मैं हवि.

मैं वस्त्र, तू तन
तू इन्द्रिय, मैं मन.

मैं त्वरण, तू गति
तू पुरुष, मैं प्रकृति.

तू पथ, मैं यात्रा
मैं ऊष्मा, तू मात्रा.

मैं काल, तू आकाश
तू सृष्टि, मैं लास.


मैं चेतना, तू अभिव्यक्ति,
तू शिव, मैं शक्ति.

तू रेखा, मैं बिंदु,
तू मार्तंड, मैं इंदु.

तू धूप, मैं छाया,
तू विश्व, मैं माया.

मैं दृष्टि, तू प्रकाश
मैं कामना, तू विलास.

तू आखर, मैं पीव
मैं आत्मा, तू जीव.

मैं द्रव्य, तू कौटिल्य,
मैं ममता, तू वात्सल्य.

तू जीवन, मैं दाव,
तू भाषा, मैं भाव.

मैं विचार, तू आचारी,
तू नर, मैं नारी.  
      

   

Wednesday 8 February 2017

ज्ञाता,ज्ञान और ज्ञेय


     (१)
चटकीली चाँदनी की
दुधिया धार में धुलाई,
बांस की ओरी में टंगी सुतली.  
हवा की सान पर
झुलती, डोलती
रात भर खोलती,  
भ्रम की पोटली
मेरी अधजगी आँखों में.
किसी कृशकाय कजराती  
धामिन सी धुक धुकाकर,
बँसवारी सिसकारती रही
मायावी फन की फुफकार.

       (२)
कुतूहल, अचरज, भय, विस्मय
की गठरी में ठिठका मेरा 'मैं'.
बदस्तूर उलझा रहा,
माया चित्र में, होने तक भोर.
उषा के  अंजोर ने
उसे फिर से, जब
सुतली बना दिया.
सोचता है मेरा 'मैं'
इस भ्रम भोर में,
वो सुतली कहीं 
मेरे होने का
वजूद ही तो नहीं?


   (३)
दृश्यमान जगत
की बँसवारी में
मन की बांस
से लटकी सुतली
अहंकार की.
सांय सांय सिहरन
प्राणवंत पवन  
बुद्धि की दुधिया चांदनी
में सद्धःस्नात,
भर विभावरी
भरती रही भ्रम से
जीवन की गगरी.
    
     (४)
परमात्मा प्रकीर्ण प्रत्युष
चमकीली किरण
की पहली रेख  
मिटा वजूद, प्रतिभास सा,
जो सच नहीं!
शाश्वत सत्य का
सूरज चमक रहा था
साफ साफ दिख रहे थे
बिम्ब अनेक,
ज्ञाता,ज्ञान और ज्ञेय
हो गए थे किन्तु

सिमटकर एक!      

Tuesday 7 February 2017

सजीव अहंकार

मेरी उचाट आत्मा
भर नींद जागती रही.
सपनों में ही सही!
और ये बुद्धिमान मन
जागे जागे सोया रहा.
अहंकार फिर भी सजीव था!

एक रात की नींद में जगना
खोये में जागना
न हो के होना
अभाव में भाव
और मौन में संवाद,
जहां स्थूल से सूक्ष्म सरक जाता है!

दूसरा, दिन का सपना
जगे जगे खोना
हो के न होना
भाव में अभाव
और आलाप में मौन  
जहां सूक्ष्म स्थूल में समा जाता है!