Thursday 1 June 2017

अदृश्य दोलन

           (१)
काल प्रवाह नही यह दृश्य चित्रपट,
अदृश्य दोलन है, समय के साथ।
(यदि हो समय  का
कोई अस्तित्व तो!)
विराट ब्रह्मांड , बिंदुवत कण
और स्थूल तत्व , सूक्ष्म मन।

               (२)
आकाशगंगा , सौरमंडल,
निर्वस्त्र तिमिर ,
अजस्त्र प्रभामंडल।
खगोल से भूगोल
और अनुभूत सत्य से
रहस्यमय ब्लैकहोल तक।

        (३)
प्रसार, संकुचन
सरल, आवर्त, दोलन!
अपनी गति, अपना काल।
अपना दोलन विस्तार।
अपनी कला दुहराता
अनवरत , बार  बार।

          (४)
उदय से प्रलय और
क्षय से विलय तक
डोलता सृष्टि संसार।
बाहर और अंदर
लहरों की लय पर
स्पंदित समंदर समाहार!

               (५)
प्रशांत पुरुष की खूंटी से लटकी,
गोलक प्रकृति! दोलन में भटकी।
सारा व्यापार, मिलाने को साम,
आवृति की, आत्मा का।
गुनगुनाने को अनहद अनुनाद,
महसूसते परम का अनंत आह्लाद!

Thursday 18 May 2017

प्रेम पंथ के पाथेय!

पता नही क्यों भावुक बनकर,
सपनो में, मैं खो जाता हूँ।
स्वप्न लोक में, स्वप्न सखा संग,
बीज प्यार के बो जाता हूँ।

परम ब्रह्म के भरम विश्व में,
पीव जीव उसकी माया है।
दृश्य जगत के सत चेतन की
सपना अपरा प्रच्छाया है।

सपनो के अंदर सपनो में
कभी मचलता कभी सिसकता।
अभीप्सा ये जिजीविषा की
माया डोर में कसा खिसकता।

प्रेम पुरुष अनुराग तुम्हारा
जीवन रस से कर आपूरित।
प्रकृति रानी सजे तुम्हारी
प्राणों के कण होकर पुलकित ।

प्राण पाश, हे प्राण! तुम्हारे,
श्वासों में सुरभि  घोल गए।
दे अंग अंग ऊष्मा चेतन ,
बंधन ग्रंथि के खोल गए।

घोल रही मधु रास रागिनी
प्रीत वसंत की अमराई जो,
ज्ञात प्रिये यह माया चित्र है,
परम सत्य की परछाई वो!

प्रीत समाधि में उतरेंगे,
प्रेम पंथ के पाथेय हम।
कर स्वाहा सर्वस्व विसर्जन,
द्वितीयोनास्ति, एकोअहम।



Sunday 14 May 2017

माँ मेरा उद्धार करो!

वसुधा के आंगन में गुंजी किलकारी,
पय पान सुधा संजीवन दात्री महतारी।
साँसों मे घोली माँ ने वत्सल धारा,
मैं प्राणवंत पुलकित नयनो का तारा।

सब अर्पण तर्पण किये तूने न्यौछावर,
जननी जीव जगत जंगम चेतन स्थावर।
शीश समर्पण माँ तेरे अंको को,
सह न पाये विश्व विषधर डंकों को।

मञ्जूषा ममता की, माँ, अमृत छाया,
निमिष निमिष नित प्राण रक्त माँ पाया।
क्रोड़ करुणा कर कण कण जीवन सिंचित,
दृग कोशों से न ओझल हो तू किंचित।

पथ जीवन माँ, मैं पगु अनथक, तेरी शीतल छाया,
पा लूँ मरम मैं भेद सत्य का , जीव, ब्रह्म और माया।
अब जननी गोदी में तेरे, प्यार करो, मनुहार करो,
मैं शरणागत, कुक्षी में तेरी, माँ मेरा उद्धार करो।

Wednesday 10 May 2017

ज़म्हुरियत : हिन्दुस्तानी तर्ज़-ए-हुकूमत

ज़म्हुरियत
हिन्दुस्तानी तर्ज़-ए-हुकूमत
अवाम और सियासी दल
अबला और सबल
यूं , जैसे
बेगम और बादशाह !
एक बेदम 'वाम'
दूसरा दमदार 'दाम'

बेदम बेगम!
बिस्तर की बांयी कोर पर
कुंथती, कराहती बांयी करवट,
स्वघोषित क्रांतिदूत.....वामांगी!
आँखों से तापती सेकुलर आगि!

और दमदार बादशाह!
दांयी छोर पर,
दक्षिणपंथी करवट लिए,
दहाड़ता बहुरंगी
राष्ट्रदूत भक्त  बजरंगी!

दोनों मज़बूर करवटें बदलने को,
सिर्फ सियासी सहूलियतों के खातिर.
वैशाली की विरासत ले, प्रगतिवादी पंथ,
इज्म एवं वाद की टकसाल में ढलते
अवसर की तलाश में
लोकशाही के खातिर
तथागत और आम्रपाली से 
साथ साथ चलते !

Friday 28 April 2017

मौन !

 मैं राही, न ठौर ठिकाना,
जगा सरकता मैं सपनो में ।
डगर डगर पर जीवन पथ के
छला गया मैं बस अपनो से ।

भ्रम विश्व में, मैं माया जीव!
अपने कौन, बेगाने कौन?
संसार के शोर गुल में
सृष्टि का स्पंदन मौन।

मौन नयन, मौन पवन,
मौन प्रकृति का नाद।
मौन पथ और मौन पथिक
मौन यात्रा का आह्लाद।

मन की बाते निकले मन से
मौन मौन मन भाती।
और मन की भाषा मे,
मन मौन मीठास बतियाती।

मौन हँसी है, मौन है रुदन
मौन है मन की तृष्णा।
दुर्योधन की द्युत सभा मे,
मौन कृष्ण और कृष्णा।

जन्म क्रंदन और मौन मरण,
मौन है द्वैत का वाद।
मन ही मन मे मन का मौन,
मौन पुरुष प्रकृति संवाद।

Friday 21 April 2017

विभ्रम 'क्रम-भ्रम' का!

सनसनाती हवाओं का श्मशानी सीना,
धू धूआता धुंआ, धनकती चिता,
नाक के नथुनों में भरती
मांसल गंध, अर्द्ध झुलसी लाश,
कानों को खटकाती
'चटाक' सी चटकती
टूटती उछलती हड्डी

खड़ी-पड़ी आकृतियाँ
इंसानी सी शक्लों की
झोंकें हैं अपने को
अपनी अपनी लय में,
भर भर आँखों से
कराने को निर्जीव देह
का अग्नि स्नान चिता पर

और इस धधकते शरीर का ' मैं '
निमग्न, निहारने में निर्निमेष!
कभी दहकती अपनी निर्जीव देह
आग की थिरकती लपटों में, और
कभी सिहुरती निहुरती इर्द गिर्द
सजीव सी श्लथ लाशों को
जगत की जिजीविषा की ज्वाला में

अब जाके जगती हैं ज्ञान की इन्द्रियाँ,
जैसे जैसे, जर्रा जर्रा, झुलसता है इसका.
छूता हूँ प्रकम्पित पवन, तिल तिल कर
अश्मों में बदलते अंग,उनको झुलसाती लपटें,
छिड़के अभिमंत्रित जल की शीतलता,
जलती लकड़ियों के घहराकर गिरने का स्वर
और चंद कदम दूर चकराती चीलों की चीत्कार!

अब जाके अघाई हैं अपलक पलकें!
निहारता हूँ पल पल मन भर
सोचता हूँ 'बुद्ध' बन बुद्धि भर
और भरता हूँ अंतस अहंकार भर
पर मन, बुद्धि, अहंकार मिलकर
सब फलित हो जाते हैं महाशून्य में
समाहित होकर आत्मा के उत्स में

.......................सत्ता हीन 'सत' में,
जहां मैं अविकार, सूक्ष्म, शांत, अज,
अनादि, नित्य, अनंत, शाश्वत चित्त!
समाहित, परम आनंद के महाशून्य में  
और अहसासता, शून्य का चेतन आनंद!
'नहीं होने' से 'होते हुए', 'नहीं होना' हो जाना
भोगता इसी 'क्रम का भ्रम' और ' भ्रम का क्रम'!

Thursday 20 April 2017

स्पंदन

 (१)
तूने अपनी सोच बताई।
मैं नही सोच पाता,
तुम्हारे लिए!
अब सोच रहा हूँ,
सोच के किस स्तर पर
सोच रहे हैं हम ?
मन, बुद्धि या अहँकार!
आत्मा तो अज अविकार।
सोच के संकुचन से रीता।

           (२)
अच्छा हुआ, नही किया,
तूने अध्यारोप
कि,  घोलूँ मैं तुममें
विकार।
अंतस की आत्यंतिक
रूहानियत में रचे बसे,
मेरे प्यार।
निर्गुण, निरीह, निराकार।
अनंत, अपार।

             (३)
गूँज, विसरित स्वर-सुरों की मेरी
विस्फारित, पाती विस्तार।
आशा की भुकभुकाती ढ़िबरी
कि सुन रही होगी सूनेपन में,
अगणित प्रक्षिप्त छवियों
में से ही तुम्हारी कोई एक!
इस अनहद नाद को मेरे,
सरियाने को साम,
स्पंदन की शाश्वतता का!