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Saturday 3 September 2016

गरीबन के चूल्हा चाकी (बिहार की बाढ़ को समर्पित)

                                                  (१)
कमला बलान से बागमती
गंगा से गंडक मिल गयीI
चुई, चुई, चांचर झोपड़
भीत कोटर, मड़ई गील भईI
महापाश में महानंदा के
कमसीन सी, कोशी खिल गयीI
संग सोन पुन पुन रास में
गाँव गँवई घर झील भईI
बजरी बिजुरी, कपार किसान के!

(२)
गाँजे के दम
हाकिम की मनमानी।
दारू की तलाशी,
खाकी की चानी।
मिथिला मगह कोशी सारण
सरमसार अंग, चंपारण, पानी पानी !
लील गयी दरिया
जान धान गोरु खटिया
तहस नहस ख़तम कहानी।

     (३)
ये गइया के चरवैया!
ब्रह्मपिशाच! गोबर्द्धन-बिलास!
अबकी गले
का अटकाये हो!
भईया, का खाये हो?
जो गंगा मईया को
सखी सलेहर संग,
गरीबन के चूल्हा चाकी
दिखाने आये हो।



  

Sunday 22 June 2014

सोशल मीडिया और भारतीय नारी

कुछ हद तक विवाहेतर सम्बंधों के कवच एवम परिवार नियोजन के कल्याणकारी उपकरण कंडोम की निर्माता एक व्यावसायिक  कम्पनी का शोध रिपोर्ट पढ़ने का अवसर मिला.आम तौर पर ऐसी व्यावसायिक कंपनियों का शोध बाज़ार सर्वेक्षण और उनके अपने तिजारती हितों के अलोक में ज्यादा और समाजशास्त्रीय समीकरणों एवं संवेदनाओं के साम में कम होता है. कथित रिपोर्ट में भी मुझे मेरी इस अवधारणा के प्रतिकूल तत्व नहीं दिखे. यह विशुद्ध रूप से अपनी आर्थिक विवेचनाओं को एक स्व व्याख्यित अवैज्ञानिक सामाजिक दर्शन के छद्म भ्रान्ति जाल में लपेटता जुमला मात्र प्रतिभाषित हुआ. इसमें सोशल मीडिया और प्राद्यौगिकी  को मनोरंजन के साधन के रुप में खड़ा कर उसके समक्ष  दाम्पत्य  जीवन  को घुटने टेकते हुए दिखाया गया है, मानों दाम्पत्य जीवन भी मनोरंजन का कोइ मंजीरा हो. भारतीय परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में दाम्पत्य वैवाहिक जीवन का एक अविच्छिन्न अंग है,  यानि परिणय का प्रणय पक्ष! विवाह जीवन का दाव है. दाम्पत्य विवाह रुपी ऊर्जा  सागर में उठने गिरने वाली प्रेम क्रीड़ा की उत्ताल तरंगें हैं. प्रलय काल में मनु से की गयी श्रद्धा के प्रेम-मनुहार से समझा जा सकता है:-
कहा आगंतुक ने सस्नेह,
अरे, तुम हुए इतने अधीर.
हार बैठे जीवन का दाव,
मरकर जीतते जिसको वीर.
अतः वैवाहिक जीवन में दाम्पत्य-सहवास क्षणिक उच्छवासों का समागम मात्र नहीं, प्रत्युत सृजन की एक चिरंतन चेतना है. यह व्यष्टि-समास समष्टि को समर्पित यज्ञ है. यह दो देह का मिलन नहीं,बल्कि दो आत्माओं  का विस्तार है.
इस संदर्भ में यदि तकनीक तथा सोशल मीडिया की भूमिका का अवलोकन किया जाय तो यह भी व्यक्ति के समाज से सहकार होने की प्रक्रिया का उत्प्रेरक तत्व है, भले ही इसने एक मनोरंजक दंतमंजन का रुप ले लिया हो!  व्यक्ति के सम्पर्क और प्रभाव क्षेत्र के प्रसार का नियामक यंत्र है यह. आज इन वेबसाइट के माध्यम से लोगों के आपस में जुड़ने की प्रवृति और गति दोनों को पर लग गये हैं. पुराने मित्र एक दूसरे से जुट रहे हैं. मित्रता और परस्परिक सम्बंधों के विविध आयाम पुनर्परिभाषित हो रहे हैं. सारी दुनिया सिकुड़कर एक पृष्ठ पर आ गयी है. सूचना तंत्र की तीव्रता में सबकुछ बस एक पासवर्ड में सिमट गया है. नित्य नयी-नयी शख्सियत की तलाश, नये-नये दोस्तों की नयी दास्तान, मन में उमड़ी भावनाओं का चैटिंग के माध्यम से तात्क्षणिक प्रक्षेपण और शब्द एवम चित्रों की दुनिया में अपने स्व को बड़ी मासूमियत से किसी कल्पित विश्वास को पूर्ण रुप से दे देना, यह सोशल वेबसाइट पर प्रतिदिन घटने वाली दास्तान की झलकी मात्र है.
 सब कुछ यहाँ मिल जाता है. हर मर्ज़ की खुराक परोसी हुई है. दमित,छलित, शापित, प्रताड़ित एवम अनुप्राणित, सारी भावनायें यहाँ अंकुरती है, पल्लवित होती है, अपनी सुरभि बिखेरती है, राहगीरों को छलती हैं , दूकानों पर सजती हैं, अपनी चमक-दमक से आंखों को चकाचौंध करती है, मनचलो को इठलाती है , मासूमों को फुसलाती है, किसी के दिल में आशा का दीया जलाती है, किसी के अरमानों का गला घोंटती है , किसी का आशियाना बसाती है तो किसी की दुनिया उजाड़ती है.
यह नवयुग के सोशल  साहित्य का विस्तृत फलक है, जहाँ साहित्य के सभी काल, कविता के सभी रस और नाट्यशास्त्र के सभी अंग अपने श्रृंगार की समस्त कलाओं की सर्वोच्च सत्ता को बस एक लाइक पर आपके सामने  उड़ेल देते हैं. इसके मोह-पाश की महिमा अकथ्य है. इसके प्रेम फांस मे समय स्थिर हो जाता है और व्यक्ति उस जादूई टाइम-सूट को पहन लेता है जहां खगोलीय गुरुत्व, पारिवारिक आकर्षण और जन्म, उम्र, जाति ये सारे बंधन बेअसर हो जाते हैं. व्यक्ति ग्लोबल और कभी कभी कॉस्मिक हो जाता है. भावनाओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यहां निस्सीम हो जाती है. भावनायें अल्हड़ और व्यंजनायें अराजक. यहां कुछ रुकता नहीं, कुछ टिकता नही. प्रतीक्षा की वेदना नहीं. सबकुछ गत्यात्मक है. चरैवति- चरैवति का दर्शन अपने शाश्वत स्वरुप में विराजता है. यहाँ सबकुछ ताज़ा है, टटका है, बासी कुछ भी नहीं है. बाहर से सब कुछ खुला है. अंदर की गारंटी नहीं. अपीयरेंस महफूज़ है. एस्सेंस का खरीददार नहीं. वाद की फरियाद नहीं, ‘विचारधारा की मियाद नहीं. सारी क्रियायें, सारे व्यापार  अपने स्वाभाविक प्रवाह में घटित होते हैं. यहाँ किशन की वंशी की धुन भी है, गोपिकाओं के प्रेम उपालम्भ भी हैं, राधा रानी के प्रणय की खनक भी है, मीरा के नयनों से निःसृत अंसुअन की धार भी है और उद्धव की ज्ञान-पोटली भी है. सब कुछ मुफ्त! सब कुछ मुक्त! सर्वथा उन्मुक्त! मानों, भारतीय दर्शन में मीमांसित मोक्ष की प्राप्ति यहाँ अनायास ही हो जाती हो.

अब यदि भारतीय समाज में पुरुष के सापेक्ष नारी की स्थिति का इतिहास के भिन्न भिन्न काल-खंडों  में अवलोकन करे तो इतिहास का प्राचीन काल नारी वैभव और उसकी महिमा का उत्कर्ष काल है. मध्य काल आक्रान्ताओं के आगमन का काल है जहां से भारतीय मूल्यों की जमीन में कुसंस्कारों का ज़हर पटना शुरू होता है. मध्यकालीन सामंती परिवेश के प्रवेश के पश्चात से ही मानों दाम्पत्य उसके सहवास की सुकोमल भावनाओं का स्वछंद उच्छवास न होकर उसके सर्वभौमिक आस्तित्व का अनिवार्य कारावास हो. अब परिणय के सुवासित उपवन में उसके प्रणय राग की चहक नहीं सुनायी देती , प्रत्युत उसके भावी जीवन की आजीविका के साधन के रुप में उसका दाम्पत्य परम्परा के बोझ तले कराहता है. अब उसका दाम्पत्य बेबसी के समर्पण का पर्याय बनकर रह गया जहाँ उसके भर्तार का छद्म अहंकार कुलाचें मारता है और अबला औरत संतान जनने और चूल्हा झोंकने का मशीन बनकर रह गयी. वह पर्दानशीं, असूर्यपश्या और पुरुष के समतल जीवन में प्रवाहित होने वाली कृशकाय तन्वंगी धारा बनकर रह गयी. दहलीज के भीतर कैद औरत की मुक्त आकाश में उड़ान भरने की तमन्ना दमित भावना बनकर दिल की कसक में समा गयी. संयुक्त-परिवार प्रणाली में मध्ययुगीन संस्कारों  ने नारीत्व- नाशक मूल्यों का जहर पटाया. परम्परा से प्राप्त समस्त उदात्त संस्कार जो यत्रनार्यस्तु पुज्यंते, तत्र रमंते देवाः का शंखनाद करते थे, शनैः शनैः काल का ग्रास बनते गये. हिंदु स्त्री का पत्नीत्व में महदेवी वर्मा बड़ी साफगोइ से कहती हैं:-
“जैसे ही कन्या का जन्म हुआ, माता पिता का ध्यान सबसे पहले उसके विवाह की कठिनाइयों की ओर गया. यदि वह रोगी माता पिता से पैतृक धन की तरह कोई रोग ले आई तो भी उसके जन्मदाता अपने दुष्कर्म के उस कटु फल को पराई धरोहर कह-कह कर किसी को सौंपने के लिये व्याकुल होने लगे.”

युग आगे बढा. औद्योगिक क्रांति आयी. शहर बने . गांव टूटे. बाज़ारें सज़ी. गांव का कृषक दूल्हा नये सेट-अप में ऑफीस का नौकरीपेशा बाबू बना. संयुक्त पारिवारिक व्यवस्था के मूल्य घटे. दुल्हे का दाम बढा. खरीद-फरोख्त के तिज़ारत में औरत फिर परवान चढ़ी. हाँ, एक सकारात्मक असर ये हुआ कि गांव मे घूंघट काढ़े गुलामी करने वाली औरत शहर के उजाले में आ गयी. बाद के दिनों में वह, धीरे धीरे ही सही, संघर्ष मे अपने साथी की सहचरी नज़र आयी. समाज के परिवर्तन का पहिया घूमता रहा. आज़ादी की लड़ाई. आज़ाद हिंदुस्तान. सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जेहाद.

 हम पूरा इतिहास उकटना नहीं चाहते. हाँ, इतना जरुर जोड़ेंगे कि नारियों के उन्नयन की दिशा में जो सदियों की सामाजिक क्रांतियां सौ चोट सुनार के मारती रहीं, वो इक्कीसवीं सदी की सूचना क्रांति ने एक चोट लोहार के में तमाम कर दिया. अब सारी दुनिया उसकी उंगलियों में लिपट गयी.उसका वेबसाइट और ब्लॉग उसके सम्मुख था. उसके व्यक्तित्व को मुक्त गगन मिला और उसकी मुलायम भावनाओं ने पंचम में आलाप भरना शुरु कर दिया. उसे अपनी मौलिकता से साक्षात्कार हो गया. उसके अंतःस की रचनात्मकता कुसुमित होने लगी. उसे अपनी सृजनात्मकता के सौंदर्य की अभिव्यक्ति का विस्तृत वितान मिल गया. उसकी श्रृंगारिकता उसके सामजिक सरोकार की शोभा बन गयी. अपने प्रतियोगी पुरुष के आहत अहंकार और उसकी सहमी ठिठकी कुंठा को नज़रअंदाज़ करते उसकी मुक्ति की उत्कंठा अपने सच्चे मुकाम की ओर मुड़ गयी है. अब उसने नयी सम्भावनाओं की तलाश कर ली है. जाहिर है प्रजनन-उपकरणकी मानसिकता से स्वतंत्र होकर समाज में अपनी नयी भूमिका की तलाश में वह निकल पड़ी है. इस परिप्रेक्ष्य में उपरोक्त शोध के आंकड़ों की सूचना तो सही है लेकिन व्याख्या भ्रामक और तथ्यहीन.                             
हाँ, भिन्न-भिन्न सामाजिक संरचनाओं में सम्बंधों के बहुमुखी आयामों की उपस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता.इसकी पृष्टभूमि में होती है – सामाजिक सरोकारों  के संस्कार की संस्कृति, जहाँ दाम्पत्य के अंतरंग और सामाजिकता के विविध रंग पारस्परिक अवगुंठन में लयबद्ध भी हो सकते हैं या फिर एक दूसरे की लय में पारदर्शिता का प्रलयी विलय भी कर सकते हैं.
जरुरत है – सुसंस्कारों की, सम्बंधगत परिपक्वता की, विश्वास के सशक्त रेशमी बंधन की, समर्पण की और परिणय एवम प्रणय के संतुलन की. यह संक्रमण का काल है. अभी लम्बी यात्रा शेष है.