Thursday 24 August 2017

ब्रह्म योग

सपनों की सतरंगी सिंदूरी,
सुघड़ नयन घट घोले .
छन-छन छाया छवि की
क्षण-क्षण, मन-पनघट में डोले.

अभिसार-आँचल-अनुराग,
आरोह-अनंत अवनि का,
अंग-अनंग , अम्बर-सतरंग
अनावृत    यवनिका.

छाये क्षितिज अवनि और अम्बर,
अनहद आनंद आलिंगन.
सनन सनन कण पवन मदन बन,
चटक चाँदनी चन्दन .

दुग्ध-धवल अंतरिक्ष समंदर,
चारु चंद्र चिर चंचल चहके.
चपल चकोरी चातक चितवन,
प्रीत परायण पूनम महके .

नवनिहारिका नशा नयन मद,
प्रेम अगन सघन वन दहके .
सुभग सुहागन अवनि अम्बर,
बिहँस विवश बस विश्व भी बहके.

क्रीड़ा-कंदर्प कण-कण-प्रतिकम्पन,
उदान  अपान  समान .
व्यान परम पुरुष प्रकृति भाषे,
ब्रह्म योग  चिर प्राण .


Sunday 20 August 2017

उत्सर्ग उत्सव

तारसप्तक  मन्द्र सा
चिर प्रीत पूनम चन्द्र सा
सरित स्मित धार सा
तू शब्द मै ॐकार सा

मै मार्तंड तू ताप सा
मै मृदंग तू थाप सा
मै नींद तू नीरव निशा
तू जीवन मै जिजीविषा

ये प्रीत पथ अनंत का,
अदृश्य दिग दिगंत सा .
विश्व मै तू जीव सा,
बस ढाई आखर पीव का.

है न दैहिक और न भौतिक,
परा, अपार, पारलौकिक.
अश्रु के प्रवाह में,
भाव तरल अथाह ये.

डूबते यूँ जाएँ हम,
न तू-तू मै-मै और ख़ुशी गम.
दूर क्यों होना है गुम,
आ, हो समाहित हममें तुम

हो आहुति मेरे ' मैं ' की,
और तुम्हारे ' तू ' का क्षय.
आत्म का उत्सर्ग उत्सव,
चिर समाधि अमिय अक्षय. 

Sunday 16 July 2017

अहल्या अस्थान- अहियारी

बिसपी गाँव से वापस सीतामढ़ी की ओर बढ़े मुश्किल से आठ या दस किलोमीटर भी नहीं हुए थे कि सड़क की बायीं ओर कमतौल स्टेशन जाने की दिशा में लगी एक पट्टिका ने अचानक मेरे मन को खींच लिया. पट्टिका पर तीर के दिशा-निर्देशक चिन्ह के साथ लिखा था ' अहल्या अस्थान'. दिशा सन्देश पढ़ते ही बरबस हमें महाकवि तुलसी की इन पंक्तियों का स्मरण हो आया :-
'गौतम नारी श्राप वश उपल देह धरी धीर,
चरण कमल राज चाहति कृपा करहु रघुबीर.'
                ताड़का, मारीच और सुबाहु का संहार करने के पश्चात मुनि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को धनुष यज्ञ दिखाने मिथिला नरेश राजर्षि जनक की राजधानी जनकपुर इसी रास्ते से ले जा रहे थे. अत्यंत रमणीक यह वन प्रांतर निरभ्र, शांत, पशु-पक्षी विहीन और निर्जन था. एक सुनसान आश्रम था जहाँ एक भी मुनि दृष्टिगोचर नहीं होने पर राम ने कुतूहल वश विश्वामित्र से निर्जनता के इस रहस्य के विषय में प्रश्न किया. गाधि पुत्र विश्वामित्र ने फिर उस सुनसान आश्रम की कहानी सुनाई. बहुत वर्ष पूर्व यह गौतम ऋषि का आश्रम था जहाँ वह अपनी पतिव्रता यशस्विनी पत्नी अहल्या के साथ तपश्चर्या कर्म करते थे. देवराज इंद्र  चन्द्रमा के साथ मिलकर छल से गौतम का वेश बनाकर रात्रि प्रहर में अहल्या के समक्ष समागम को प्रस्तुत हुए. समागम के पश्चात गौतम के द्वारा पकडे जाने पर इंद्र और अहल्या दोनों उनके शापभाजन बने. अहल्या को उन्होंने शाप दिया कि वह कई हज़ार वर्षों तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाते हुए राख में समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर पड़ी रहेगी. जब राम का इस आश्रम में पदार्पण होगा उस समय वह पवित्र होगी और उनके आतिथ्य सत्कार से उसके समस्त ऐन्द्रिक और मानसिक दोष दूर हो जायेंगे. फिर वह अपना पूर्व शरीर धारण कर लेगी. ऐसा शाप भंजन कर कुपित गौतम हिमालय पर तपस्या करने चले गए.
अब राम और लक्ष्मण ने विश्वामित्र के साथ उस आश्रम में प्रवेश किया. मनुष्य, देव और असुरों को अदृश्य अहल्या को राम ने देखा - महासौभाग्यशालिनी अहल्या अपनी तपस्या से देदीप्यमान हो रही थी. श्री राम का दर्शन हो जाने से जब उनके शाप का अंत हो गया तो वह सबको दिखाई देने लगी. राम और लक्ष्मण ने उनके चरण स्पर्श किये. अहल्या ने उनका आतिथ्य-सत्कार किया और शापमुक्त होकर अपने दिव्य रूप में अपने पति गौतम का साहचर्य ग्रहण किया.
               ये कहानी मैंने वाल्मीकि रामायण में पढ़ी थी. हालांकि तुलसी के रामचरितमानस तक आते आते अहल्या पत्थर की बन चुकी थी और वाल्मीकि रामायण में उनका चरण स्पर्श करने वाले राम यहाँ अब अपने चरणों के स्पर्श से उनका उद्धार करने लगे थे. यह आदि काल से मध्य कल तक की हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक यात्रा के प्रदुषण की प्रक्रिया की राम गाथा है. हालांकि, इस विषय पर न मेरा कभी वाल्मीकि से मतैक्य रहा और न तुलसी से ही; और न उन तमाम अहल्या-इंद्र-गौतम प्रसंगो से जो पद्मपुराण , विष्णु पुराण या अन्य पौराणिक ग्रंथो में यत्र तत्र कपोल कल्पित मिथ्या मिथकों का गाल बजा रहे हैं. अपनी अटूट आध्यात्मिक और पावन परंपरा में हम जिन पञ्चकन्यायों को पूजते हैं वे सभी- कुंती, तारा, मंदोदरी, द्रौपदी और अहल्या - अपने समय की फेमिनिस्ट थी . उन्होंने तत्कालीन नारी विरोधी मान्यताओं को चुनौती दी तथा वे सारे कार्य संपन्न किये जो पुरुष समाज के मिथ्या अहंकार को तार तार कर देते हों. हमें तो यही लगता है कि वैदिक युग के बाद जब मर्यादाओं का अवनयन काल आया तो कुटिल प्रवंचकों ने पुराण की रचना करते समय अपनी थोथी दलीलों को अपने ग्रंथों में थोप दी. नारी को पुरुष से नीचा रखने का सारा कुचक्र रच दिया. बातों को तोड़ मरोड़कर कुतर्कों का जाल फैला दिया. परम पूजनीय पञ्चकन्यायों को प्रपंच पूर्ण प्रसंगों के प्रकारांतर में पातकी प्रमाणित कर दिया और प्रताड़ित भी किया. और तो और , शाप के प्रकोप के निवारण में भी ऐसा विधान रचा कि पुरुष इंद्र का शाप अंग प्रत्यारोपण से छू मंतर हो गया ! जबकि, नारी अहल्या को अप्रमेय प्रक्रिया से पाषाण में परिवर्तित कर दिया !
              प्रमाण , प्रमेय , अनुमान , सिद्धांत आदि ... ये सब न्याय दर्शन के आवश्यक अंग हैं. और न्याय दर्शन के जनक मुनि अक्षपाद गौतम अपनी पत्नी को पत्थर बना देने में स्वयं अप्रमेयता का आखेट बन जाते हैं ! कैसी बिडम्बना है हमारे पौराणिक कथाकारों के साथ! इंद्र देवराज हैं. परस्त्रीगमन करते हैं. इंद्र अहल्या के पास गए थे न! अहल्या तो अपने आश्रम में ही थी. सह षड्यंत्रकारी चन्द्रमा है. इंद्र पुरुष! चन्द्रमा पुरुष! न्यायी पति गौतम पुरुष! और पुरुषार्थ के प्रतीक-पुरुष इंद्र को शाप से मुक्ति की तरकीब सिखाने वाले सारे पंडित, ब्रह्माजी भी, पुरुष! इन सब पुरुषों के बीच एक पाषाणी नारी- अहल्या!
              थाईलैंड में प्रचलित रामकथा, रामकिन, में तो यहाँ तक रच दिया गया है कि सूर्य और इंद्र के समागम से अहल्या ने सुग्रीव और बाली को जन्म दिया जिसका भांडा अहल्या की पुत्री अंजनी ने अपने पिता के सामने फोड़ा. उससे कुपित होकर गौतम ने दोनों पुत्रों को बन्दर बनाकर घर से निकाल दिया. फिर अहल्या के शाप से अंजनी को भी बन्दर रूप पुत्र हनुमान हुए. कुल मिलाकर, नारी इन समस्त प्रपंचों की प्रयोगशाला बनी रही. पुरुष प्रयोग करता रहा!
                विश्वामित्र और राम लक्ष्मण के जनकपुर पहुचते ही अहल्या के बेटे शतानन्दजी जो राजा जनक के राजपुरोहित हैं, पहला प्रश्न यहीं पूछते हैं - " मुनिवर! मेरी यशस्विनी माता अहल्या बहुत दिनों से तपस्या कर रही थी. क्या आपने राजकुमार श्री राम को उनका दर्शन कराया? क्या मेरी महातेजस्विनी एवं यशस्विनी माता अहल्या ने वन में होने वाले फल फूल आदि से समस्त देह धरियों के लिए पूजनीय श्री रामचन्द्रजी का पूजन किया? क्या अपने श्री राम से वह प्राचीन वृतांत कहा था , जो मेरी माता के प्रति देवराज इंद्रा द्वारा किये गए छल-कपट एवं दुराचार द्वारा घटित हुआ था?"
              तो छल इंद्र का! सहषड्यंत्र चन्द्रमा का! दण्ड गौतम के न्याय का! और पत्थर की प्रतिमा अहल्या की! और तो और, ये आँखों देखा हाल सुनाने वाले विश्वामित्रजी ने भी एक अन्य धारावाहिक में इंद्र की ही छल क्रीडा में रम्भा को दस हज़ार वर्षों तक पत्थर की प्रतिमा बना कर खडा करा चुके थे!
              हमने इन प्रसंगों के बाद आधुनिक युग में यशस्वी लोगों की लन्दन में तुशाड की प्रतिमा के बारे में जरुर सुना है लेकिन अभी तक किसी ऐसी प्रावैधिकी से मेरा साक्षात्कार नहीं हुआ जहां सजीव प्राणी को निर्जीव पाषण प्रतिमा में परिवर्तित कर पुनः उसे वापस पूर्ववत सजीव रूप में ला दिया जाय. अर्थात पहले रासायनिक परिवर्तन, और फिर दूसरा प्रतिगामी रासायनिक परिवर्तन और दोनों मिलकर एक पूर्ण भौतिक परिवर्तन! बीच का काल हरिकीर्तन! प्रसिद्द बंगाली फिल्मकार सुजय घोष ने अपनी कल्पनाओं की अहल्या कथा पर चौदह मिनट का एक लघु वृत्त चित्र 'अहल्या' भी बनाया है.
              मेरा अभिप्राय इन मिथकों का मज़ाक उडाना नहीं, प्रत्युत उनकी अवैज्ञानिकता, नारी विरोधी कुत्सित कुसंस्कारों और  सामंती मान्यताओं  को अस्वीकार करना भर है.                
              इस बार हमें गाडी वापस लौटाने की नौबत नहीं आयी क्योंकि हमारे वाहन चालक महोदय ने पहले से ही हमारी भावनाओं को ताड़ लिया था. उन्होंने गाड़ी को अहियारी गाँव की ओर मोड़ दिया था. और जितनी देर तक हम अपने विचारों में डूबते उतराते रहे हमारी गाड़ी घनघोर विशाल वृक्ष की सघन शीतल छाया तले तपस्विनी अहल्या के 'अस्थान' में प्रवेश कर चुकी थी. वहाँ हमें एक आत्यंतिक नैसर्गिक सुख का आभास हुआ. हमने मंदिर के प्रशांत प्रांगण में चबूतरे पर थोड़ी देर  तक 'शांत अमिताभ' मुद्रा में विश्राम किया. मंदिर का जालीदार द्वार यहाँ भी बंद था जिसके पार माँ अहल्या की प्रतिमा दृश्यमान थी. एक धातु पट टंगा था जिसपर लिखा था - " ' अहल्या कुटी ', ऐसा प्रमाणित है कि यहीं पर माँ अहल्या ऋषि गौतम के शाप से पाषाणी हुई थी, जो श्री राम के चरण स्पर्श से शाप मुक्त हुई थी." मंदिर की दीवार रामचरितमानस की अहल्या विषयक चौपाइयों और दोहों से पटी थी.
                मुख्य मंदिर के ठीक सामने आँगन में एक स्तम्भ गड़ा था जिस पर लिखा था - " संस्थापक , गुंटूर आंध्र प्रदेश के श्री श्री श्री त्रिदंडी श्रीमन्नारायण स्वामी. इस श्री राममहाक्रतु: स्तम्भ में एक करोड़ राम यंत्र और मूल रामायण विद्यमान है. इसकी स्थापना  १९६० के दशक में की गयी. यह स्थान वैष्णव मतावलंबियों के द्वारा विवाह , अनुष्ठान , रामार्चा, सत्यनारायण एवं श्राद्ध कर्म के लिए मंगलकारी है ." इन पंक्तियों ने वैष्णव दर्शन के इस मर्म का साक्षात्कार कराया कि श्राद्ध का भी मंगलकारी होना इस बात का प्रतीक है कि जीवात्मा का जन्म-मरण के भवसागर से मुक्त होकर परमात्म विलय की मोक्षवास्था को प्राप्त हो जाना ही समस्त मंगल का मूल है.
                समीप के कमरे में भोजन बना रही एक महिला पुजारी ने आग्रह करने पर बड़ी आत्मीयता से मन्दिर का दरवाज़ा खोलकर दर्शन कराया. वहीँ पर एक बालक अपनी माँ के साथ पूजा सामग्री की दुकान लगाये बैठा था जिसपर अन्य सामग्रियों के साथ चूड़ी और बैगन रखे थे. पूछने पर पता चला कि ' अईला ' नमक एक विशेष प्रकार के दानेदार चर्मरोग के रोगी यहाँ माँ अहल्या का पुजन कर यहाँ की मिट्टी अपने रोग ग्रस्त भाग पर लगाते हैं जिससे यह बीमारी दूर हो जाती है. रोगमुक्त होने पर बैगन को चढ़ावे के रूप में अर्पित किया जाता है. मैंने मन ही मन मिट्टी की मरहमी ताकत को नमन किया. इसी बीच सजी संवरी महिलाओं के एक झुण्ड ने एक नवविवाहित वर वधु के जोड़े के साथ सुमधुर स्वर में समवेत विवाह के गीत गाते प्रवेश किया. हमने माँ अहल्या को प्रणाम किया और उनकी उसी छवि की आभा को अपनी आँखों में बसाये वहां से विदा लिया जो छवि भगवान राम ने अदिकवि वाल्मीकि के वर्णित इन छंदों में की थी :-

"स तुषार आवृताम् स अभ्राम् पूर्ण चन्द्र प्रभाम् इव |
मध्ये अंभसो दुराधर्षाम् दीप्ताम् सूर्य प्रभाम् इव ||

अर्थात
 " तप से देदीप्यमान रूप वाली, बादलों से मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान तथा प्रदीप्त अग्नि

 शिखा और सूर्य से तेज के समान अहिल्या तपस्या में लीन थी।"

Thursday 1 June 2017

अदृश्य दोलन

           (१)
काल प्रवाह नही यह दृश्य चित्रपट,
अदृश्य दोलन है, समय के साथ।
(यदि हो समय  का
कोई अस्तित्व तो!)
विराट ब्रह्मांड , बिंदुवत कण
और स्थूल तत्व , सूक्ष्म मन।

               (२)
आकाशगंगा , सौरमंडल,
निर्वस्त्र तिमिर ,
अजस्त्र प्रभामंडल।
खगोल से भूगोल
और अनुभूत सत्य से
रहस्यमय ब्लैकहोल तक।

        (३)
प्रसार, संकुचन
सरल, आवर्त, दोलन!
अपनी गति, अपना काल।
अपना दोलन विस्तार।
अपनी कला दुहराता
अनवरत , बार  बार।

          (४)
उदय से प्रलय और
क्षय से विलय तक
डोलता सृष्टि संसार।
बाहर और अंदर
लहरों की लय पर
स्पंदित समंदर समाहार!

               (५)
प्रशांत पुरुष की खूंटी से लटकी,
गोलक प्रकृति! दोलन में भटकी।
सारा व्यापार, मिलाने को साम,
आवृति की, आत्मा का।
गुनगुनाने को अनहद अनुनाद,
महसूसते परम का अनंत आह्लाद!

Thursday 18 May 2017

प्रेम पंथ के पाथेय!

पता नही क्यों भावुक बनकर,
सपनो में, मैं खो जाता हूँ।
स्वप्न लोक में, स्वप्न सखा संग,
बीज प्यार के बो जाता हूँ।

परम ब्रह्म के भरम विश्व में,
पीव जीव उसकी माया है।
दृश्य जगत के सत चेतन की
सपना अपरा प्रच्छाया है।

सपनो के अंदर सपनो में
कभी मचलता कभी सिसकता।
अभीप्सा ये जिजीविषा की
माया डोर में कसा खिसकता।

प्रेम पुरुष अनुराग तुम्हारा
जीवन रस से कर आपूरित।
प्रकृति रानी सजे तुम्हारी
प्राणों के कण होकर पुलकित ।

प्राण पाश, हे प्राण! तुम्हारे,
श्वासों में सुरभि  घोल गए।
दे अंग अंग ऊष्मा चेतन ,
बंधन ग्रंथि के खोल गए।

घोल रही मधु रास रागिनी
प्रीत वसंत की अमराई जो,
ज्ञात प्रिये यह माया चित्र है,
परम सत्य की परछाई वो!

प्रीत समाधि में उतरेंगे,
प्रेम पंथ के पाथेय हम।
कर स्वाहा सर्वस्व विसर्जन,
द्वितीयोनास्ति, एकोअहम।



Sunday 14 May 2017

माँ मेरा उद्धार करो!

वसुधा के आंगन में गुंजी किलकारी,
पय पान सुधा संजीवन दात्री महतारी।
साँसों मे घोली माँ ने वत्सल धारा,
मैं प्राणवंत पुलकित नयनो का तारा।

सब अर्पण तर्पण किये तूने न्यौछावर,
जननी जीव जगत जंगम चेतन स्थावर।
शीश समर्पण माँ तेरे अंको को,
सह न पाये विश्व विषधर डंकों को।

मञ्जूषा ममता की, माँ, अमृत छाया,
निमिष निमिष नित प्राण रक्त माँ पाया।
क्रोड़ करुणा कर कण कण जीवन सिंचित,
दृग कोशों से न ओझल हो तू किंचित।

पथ जीवन माँ, मैं पगु अनथक, तेरी शीतल छाया,
पा लूँ मरम मैं भेद सत्य का , जीव, ब्रह्म और माया।
अब जननी गोदी में तेरे, प्यार करो, मनुहार करो,
मैं शरणागत, कुक्षी में तेरी, माँ मेरा उद्धार करो।

Wednesday 10 May 2017

ज़म्हुरियत : हिन्दुस्तानी तर्ज़-ए-हुकूमत

ज़म्हुरियत
हिन्दुस्तानी तर्ज़-ए-हुकूमत
अवाम और सियासी दल
अबला और सबल
यूं , जैसे
बेगम और बादशाह !
एक बेदम 'वाम'
दूसरा दमदार 'दाम'

बेदम बेगम!
बिस्तर की बांयी कोर पर
कुंथती, कराहती बांयी करवट,
स्वघोषित क्रांतिदूत.....वामांगी!
आँखों से तापती सेकुलर आगि!

और दमदार बादशाह!
दांयी छोर पर,
दक्षिणपंथी करवट लिए,
दहाड़ता बहुरंगी
राष्ट्रदूत भक्त  बजरंगी!

दोनों मज़बूर करवटें बदलने को,
सिर्फ सियासी सहूलियतों के खातिर.
वैशाली की विरासत ले, प्रगतिवादी पंथ,
इज्म एवं वाद की टकसाल में ढलते
अवसर की तलाश में
लोकशाही के खातिर
तथागत और आम्रपाली से 
साथ साथ चलते !

Friday 28 April 2017

मौन !

 मैं राही, न ठौर ठिकाना,
जगा सरकता मैं सपनो में ।
डगर डगर पर जीवन पथ के
छला गया मैं बस अपनो से ।

भ्रम विश्व में, मैं माया जीव!
अपने कौन, बेगाने कौन?
संसार के शोर गुल में
सृष्टि का स्पंदन मौन।

मौन नयन, मौन पवन,
मौन प्रकृति का नाद।
मौन पथ और मौन पथिक
मौन यात्रा का आह्लाद।

मन की बाते निकले मन से
मौन मौन मन भाती।
और मन की भाषा मे,
मन मौन मीठास बतियाती।

मौन हँसी है, मौन है रुदन
मौन है मन की तृष्णा।
दुर्योधन की द्युत सभा मे,
मौन कृष्ण और कृष्णा।

जन्म क्रंदन और मौन मरण,
मौन है द्वैत का वाद।
मन ही मन मे मन का मौन,
मौन पुरुष प्रकृति संवाद।

Friday 21 April 2017

विभ्रम 'क्रम-भ्रम' का!

सनसनाती हवाओं का श्मशानी सीना,
धू धूआता धुंआ, धनकती चिता,
नाक के नथुनों में भरती
मांसल गंध, अर्द्ध झुलसी लाश,
कानों को खटकाती
'चटाक' सी चटकती
टूटती उछलती हड्डी

खड़ी-पड़ी आकृतियाँ
इंसानी सी शक्लों की
झोंकें हैं अपने को
अपनी अपनी लय में,
भर भर आँखों से
कराने को निर्जीव देह
का अग्नि स्नान चिता पर

और इस धधकते शरीर का ' मैं '
निमग्न, निहारने में निर्निमेष!
कभी दहकती अपनी निर्जीव देह
आग की थिरकती लपटों में, और
कभी सिहुरती निहुरती इर्द गिर्द
सजीव सी श्लथ लाशों को
जगत की जिजीविषा की ज्वाला में

अब जाके जगती हैं ज्ञान की इन्द्रियाँ,
जैसे जैसे, जर्रा जर्रा, झुलसता है इसका.
छूता हूँ प्रकम्पित पवन, तिल तिल कर
अश्मों में बदलते अंग,उनको झुलसाती लपटें,
छिड़के अभिमंत्रित जल की शीतलता,
जलती लकड़ियों के घहराकर गिरने का स्वर
और चंद कदम दूर चकराती चीलों की चीत्कार!

अब जाके अघाई हैं अपलक पलकें!
निहारता हूँ पल पल मन भर
सोचता हूँ 'बुद्ध' बन बुद्धि भर
और भरता हूँ अंतस अहंकार भर
पर मन, बुद्धि, अहंकार मिलकर
सब फलित हो जाते हैं महाशून्य में
समाहित होकर आत्मा के उत्स में

.......................सत्ता हीन 'सत' में,
जहां मैं अविकार, सूक्ष्म, शांत, अज,
अनादि, नित्य, अनंत, शाश्वत चित्त!
समाहित, परम आनंद के महाशून्य में  
और अहसासता, शून्य का चेतन आनंद!
'नहीं होने' से 'होते हुए', 'नहीं होना' हो जाना
भोगता इसी 'क्रम का भ्रम' और ' भ्रम का क्रम'!

Thursday 20 April 2017

स्पंदन

 (१)
तूने अपनी सोच बताई।
मैं नही सोच पाता,
तुम्हारे लिए!
अब सोच रहा हूँ,
सोच के किस स्तर पर
सोच रहे हैं हम ?
मन, बुद्धि या अहँकार!
आत्मा तो अज अविकार।
सोच के संकुचन से रीता।

           (२)
अच्छा हुआ, नही किया,
तूने अध्यारोप
कि,  घोलूँ मैं तुममें
विकार।
अंतस की आत्यंतिक
रूहानियत में रचे बसे,
मेरे प्यार।
निर्गुण, निरीह, निराकार।
अनंत, अपार।

             (३)
गूँज, विसरित स्वर-सुरों की मेरी
विस्फारित, पाती विस्तार।
आशा की भुकभुकाती ढ़िबरी
कि सुन रही होगी सूनेपन में,
अगणित प्रक्षिप्त छवियों
में से ही तुम्हारी कोई एक!
इस अनहद नाद को मेरे,
सरियाने को साम,
स्पंदन की शाश्वतता का!