Saturday 26 August 2017

ताड़ना के अधिकारी

शिशु की हरकत और  उसके हाव भाव देख माँ ने उसके अन्दर के हलचल को अनायास ताड़ लिया कि भूख लगी है और उसे दूध पिलाने लगी. दूध पिलाने से पहले माँ द्वारा किये जाने वाले उपक्रम और चेष्टाओं की गतिविधियों से शिशु ने भी ताड़ लिया कि उसके स्तन पान की तैयारी चल रही है और शिशु शांत हो गया.एक दूसरे को समझने में जच्चा और बच्चा पारंगत है. उनका पारस्परिक तादात्म्य मनोवैज्ञानिक और आत्मिक स्तर पर है, जिसकी अभिव्यक्ति  'हम'  'आप'  इस पयपान की प्रक्रिया में देख पाते हैं. एक दूसरे को समझने के इस टेलीपैथिक समीकरण को हम ' ताड़ना ' शब्द से अभिहित करते हैं.

                                             ताड़ने की यह प्रक्रिया मनोविज्ञान के सूक्ष्मातिसूक्ष्म धरा पर सम्पन्न होती है. यहाँ कर्ता और कर्म एक दूसरे से ऐसे घुल मिल जाते हैं कि उनमे स्वरूपगत कोई मानसिक भेद नहीं रह पाता. दोनों चेतना के स्तर पर एकाकार हो जाते हैं. कर्ता और कर्म का भेद मिट जाता है. कर्ता कर्म और कर्म कर्ता बन जाता है. दोनों की चेतना का समाहार हो जाता है. दोनों का एक दूसरे के प्रति समर्पण का भाव तरल होकर साम्य की ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है कि किसके भाव का प्रवाह किसकी ओर हो रहा है, इस भाव का अभाव हो जाता है और दोनों की चेतनाओं का समागम एक स्वाभाविक निर्भाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है. यहाँ एक का संकेत दूसरे में चेष्टा का स्फुरण और दूसरे का संकेत पहले में चेष्टा का स्फुरण कर देता है. दोनों एक स्वचालित समभाव की स्थिति में आ जाते हैं और भावों की यह एकरूपता इतनी गाढ़ी होती है कि भौतिक संवाद के सम्प्रेषण की कोई गुंजाइश शेष नहीं रह जाती. कर्म के समस्त अवयव कर्ता में और कर्ता के समस्त तंतु कर्म में समा जाते हैं. भावों की प्रगाढ़ता का  यौगिक घोल सहज साम्य की ऐसी विलक्षणता का रसायन पा लेता है कि भाषा गौण नहीं, प्रत्युत मौन हो जाती है.अंगों की झटक, नैनों की मटक, हाव-भाव, स्वर की तीव्रता या मंदता, गात का प्रकंपन , होठों की थिरकन, चेहरे का विन्यास और भावों के सम्प्रेषण के समस्त तार - ये अभिव्यक्ति के तमाम लटके झटके हैं जो मनश्चेतना के महीनतम स्तर पर संचरित होकर अंतर मन से आत्यंतिक संवाद स्थापित कर लेते हैं और एक लय, एक सुर और एक ताल बिठा लेते हैं.

                                                पदार्थ विज्ञान का यह सत्य है कि प्रत्येक पदार्थ की अपनी एक चारित्रिक मूल आवृति होती है, जो उसकी परमाण्विक संरचना का फलन होती है. साथ ही, प्रत्येक पदार्थ अपनी प्रकृति में पदार्थ और उर्जा का द्वैत स्वभाव धारण करता  है. अर्थात, वह स्वरुप  पदार्थ के द्रव्यमान और उर्जा की आवृति रूप में द्वैत आचरण करता है. ऊर्जा उसकी सूक्ष्म आवृति है, तो पदार्थ स्थूल आकृति.  जब दो अलग पदार्थों की अपनी संरचनात्मक स्वाभाविक आवृति समान या समानता के आस पास होती है और दोनों प्रकम्पन की समान कला में होते हैं तो दोनों के मध्य रचनात्मक व्यतिकरण  (constructive interference ) होता है और दोनों के आयाम जुड़ जाते हैं. प्रकम्पन का प्रभाव द्विगुणित हो जाता है. सुर, ताल, लय सभी मिल जाते हैं. इसे अनुनाद की स्थिति कहते हैं. यहाँ दोनों पदार्थ आपस में पूर्ण तादात्म्य या यूँ कह लें,  कि  "कम्पलीट हारमनी" में होते हैं .

                                                  मेरा मानना है कि यहीं ऊर्जा मनोविज्ञान में अपनी सूक्ष्मता और स्वरुपगत वैविध्य के अलोक में चेतन , अवचेतन या निश्चेतन मन का उत्स होती है. ' कम्पलीट  हारमनी '  की स्थिति में चेतना , अवचेतना और निश्चेतना की  तीनों कलाओं में दोनों पदार्थ अभेद की स्थिति में आ जाते हैं. दोनों सर्वांग  भाव  से एक दूसरे के प्रति ' चेत ' गए होते हैं. अर्थात,  यहीं वह बिंदु है जहां एक पदार्थ की चेतना दूसरे की चेतना के प्रति ' चेतना ' आरम्भ कर देती है और फिर दोनों एक दूसरे की  " 'ताड़ना' के अधिकारी" बन जाते हैं.वादक वाद्य की और वाद्य वादक की, सुर गाने की और गाना सुर की, गायक वादक की और वादक गायक की, वैज्ञानिक उपकरण की और उपकरण वैज्ञानिक की, रचनाकार रचना की और रचना रचनाकार  की, कवि श्रोता की और श्रोता कवि की,चरवैया गाय की और गाय चरवैया की, माँ शिशु की और शिशु माँ की, पत्नी पति की और पति पत्नी की, गुरु शिष्य की और शिष्य गुरु की, स्वामी भक्त की और भक्त स्वामी की ...........  आत्मा परमात्मा की और परमात्मा आत्मा की; इस जीव-ब्रह्म  द्वैत के दोनों तत्व एक दूसरे की 'ताड़ना के अधिकारी ' बनकर एक दूसरे को ताड़ने लगते है और उनके आपसी विलयन की प्रक्रिया पूर्ण होने लगती है,  जिसका गंतव्य है 'अनुनाद' की स्थिति को प्राप्त करना, दोनों के स्वरूपगत भेद का मिट जाना. परमात्म विभोर हो जाना !

                                             ठीक वैसे जैसे ढोलकिया ढोलक के रस्से को तबतक तान तानकर अपनी थाप से  तारतम्य मिलाता है जबतक उसे अपने संगीत का अनुनाद न सुनाई दे. ढोलक के ताड़ते ही ढोलकिया भंगिमा की  चेतना में उससे एकाकार हो जाता है.चेतना के सूक्ष्म स्तर पर जुड़ते ही संवेदना के महीन महीन धागे मोटे मोटे दिखने लगते हैं और आस्तित्व का द्वैत संवेदना के अद्वैत में परिणत हो जाता है. समर्पण, सरलता और निःस्वार्थ अभिव्यक्ति का मौन एक दूसरे में ऐसे समा जाता है कि सजीव निर्जीव हो जाता है और निर्जीव सजीव, विद्वान् गंवार बन जाता है और गंवार विद्वान, सेवक स्वामी बन जाता है और स्वामी सेवक, राम हनुमान बन जाते हैं और हनुमान राम, शिव शक्ति बन जाते हैं और शक्ति शिव !  निश्छल, निर्विकार और योगस्थ आत्म समर्पण की पराकाष्ठा ही ताड़ने की इस प्रक्रिया को प्रभावी बनाती है और उच्च परिमार्जित आत्मसंस्कार से ही इन्हे ताड़ा जा सकता है.

                                            हाँ,  जहां कलुषित आत्म संस्कार हों और भावों का मनोविज्ञान विकृत हो तो तत्वों की पारस्परिक कलाएं प्रतिद्वान्दत्मकता  से पीड़ित हो उठती हैं . फिर व्यतिकरण भी विध्वंसात्मक (destructive interference) ! और, जीवन के चित्रपट का स्पेक्ट्रम काले धब्बों से भर जाता है. ताड़ना प्रताड़ना बन जाती है!

                                          आइये, अब हम तुलसी के इन  दोहों के मर्म तलाशने की वर्जिश करें!

" ढ़ोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी,
   सकल ताड़ना के अधिकारी !!!"

Thursday 24 August 2017

ब्रह्म योग

सपनों की सतरंगी सिंदूरी,
सुघड़ नयन घट घोले .
छन-छन छाया छवि की
क्षण-क्षण, मन-पनघट में डोले.

अभिसार-आँचल-अनुराग,
आरोह-अनंत अवनि का,
अंग-अनंग , अम्बर-सतरंग
अनावृत    यवनिका.

छाये क्षितिज अवनि और अम्बर,
अनहद आनंद आलिंगन.
सनन सनन कण पवन मदन बन,
चटक चाँदनी चन्दन .

दुग्ध-धवल अंतरिक्ष समंदर,
चारु चंद्र चिर चंचल चहके.
चपल चकोरी चातक चितवन,
प्रीत परायण पूनम महके .

नवनिहारिका नशा नयन मद,
प्रेम अगन सघन वन दहके .
सुभग सुहागन अवनि अम्बर,
बिहँस विवश बस विश्व भी बहके.

क्रीड़ा-कंदर्प कण-कण-प्रतिकम्पन,
उदान  अपान  समान .
व्यान परम पुरुष प्रकृति भाषे,
ब्रह्म योग  चिर प्राण .


Sunday 20 August 2017

उत्सर्ग उत्सव

तारसप्तक  मन्द्र सा
चिर प्रीत पूनम चन्द्र सा
सरित स्मित धार सा
तू शब्द मै ॐकार सा

मै मार्तंड तू ताप सा
मै मृदंग तू थाप सा
मै नींद तू नीरव निशा
तू जीवन मै जिजीविषा

ये प्रीत पथ अनंत का,
अदृश्य दिग दिगंत सा .
विश्व मै तू जीव सा,
बस ढाई आखर पीव का.

है न दैहिक और न भौतिक,
परा, अपार, पारलौकिक.
अश्रु के प्रवाह में,
भाव तरल अथाह ये.

डूबते यूँ जाएँ हम,
न तू-तू मै-मै और ख़ुशी गम.
दूर क्यों होना है गुम,
आ, हो समाहित हममें तुम

हो आहुति मेरे ' मैं ' की,
और तुम्हारे ' तू ' का क्षय.
आत्म का उत्सर्ग उत्सव,
चिर समाधि अमिय अक्षय. 

Sunday 16 July 2017

अहल्या अस्थान- अहियारी

बिसपी गाँव से वापस सीतामढ़ी की ओर बढ़े मुश्किल से आठ या दस किलोमीटर भी नहीं हुए थे कि सड़क की बायीं ओर कमतौल स्टेशन जाने की दिशा में लगी एक पट्टिका ने अचानक मेरे मन को खींच लिया. पट्टिका पर तीर के दिशा-निर्देशक चिन्ह के साथ लिखा था ' अहल्या अस्थान'. दिशा सन्देश पढ़ते ही बरबस हमें महाकवि तुलसी की इन पंक्तियों का स्मरण हो आया :-
'गौतम नारी श्राप वश उपल देह धरी धीर,
चरण कमल राज चाहति कृपा करहु रघुबीर.'
                ताड़का, मारीच और सुबाहु का संहार करने के पश्चात मुनि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को धनुष यज्ञ दिखाने मिथिला नरेश राजर्षि जनक की राजधानी जनकपुर इसी रास्ते से ले जा रहे थे. अत्यंत रमणीक यह वन प्रांतर निरभ्र, शांत, पशु-पक्षी विहीन और निर्जन था. एक सुनसान आश्रम था जहाँ एक भी मुनि दृष्टिगोचर नहीं होने पर राम ने कुतूहल वश विश्वामित्र से निर्जनता के इस रहस्य के विषय में प्रश्न किया. गाधि पुत्र विश्वामित्र ने फिर उस सुनसान आश्रम की कहानी सुनाई. बहुत वर्ष पूर्व यह गौतम ऋषि का आश्रम था जहाँ वह अपनी पतिव्रता यशस्विनी पत्नी अहल्या के साथ तपश्चर्या कर्म करते थे. देवराज इंद्र  चन्द्रमा के साथ मिलकर छल से गौतम का वेश बनाकर रात्रि प्रहर में अहल्या के समक्ष समागम को प्रस्तुत हुए. समागम के पश्चात गौतम के द्वारा पकडे जाने पर इंद्र और अहल्या दोनों उनके शापभाजन बने. अहल्या को उन्होंने शाप दिया कि वह कई हज़ार वर्षों तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाते हुए राख में समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर पड़ी रहेगी. जब राम का इस आश्रम में पदार्पण होगा उस समय वह पवित्र होगी और उनके आतिथ्य सत्कार से उसके समस्त ऐन्द्रिक और मानसिक दोष दूर हो जायेंगे. फिर वह अपना पूर्व शरीर धारण कर लेगी. ऐसा शाप भंजन कर कुपित गौतम हिमालय पर तपस्या करने चले गए.
अब राम और लक्ष्मण ने विश्वामित्र के साथ उस आश्रम में प्रवेश किया. मनुष्य, देव और असुरों को अदृश्य अहल्या को राम ने देखा - महासौभाग्यशालिनी अहल्या अपनी तपस्या से देदीप्यमान हो रही थी. श्री राम का दर्शन हो जाने से जब उनके शाप का अंत हो गया तो वह सबको दिखाई देने लगी. राम और लक्ष्मण ने उनके चरण स्पर्श किये. अहल्या ने उनका आतिथ्य-सत्कार किया और शापमुक्त होकर अपने दिव्य रूप में अपने पति गौतम का साहचर्य ग्रहण किया.
               ये कहानी मैंने वाल्मीकि रामायण में पढ़ी थी. हालांकि तुलसी के रामचरितमानस तक आते आते अहल्या पत्थर की बन चुकी थी और वाल्मीकि रामायण में उनका चरण स्पर्श करने वाले राम यहाँ अब अपने चरणों के स्पर्श से उनका उद्धार करने लगे थे. यह आदि काल से मध्य कल तक की हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक यात्रा के प्रदुषण की प्रक्रिया की राम गाथा है. हालांकि, इस विषय पर न मेरा कभी वाल्मीकि से मतैक्य रहा और न तुलसी से ही; और न उन तमाम अहल्या-इंद्र-गौतम प्रसंगो से जो पद्मपुराण , विष्णु पुराण या अन्य पौराणिक ग्रंथो में यत्र तत्र कपोल कल्पित मिथ्या मिथकों का गाल बजा रहे हैं. अपनी अटूट आध्यात्मिक और पावन परंपरा में हम जिन पञ्चकन्यायों को पूजते हैं वे सभी- कुंती, तारा, मंदोदरी, द्रौपदी और अहल्या - अपने समय की फेमिनिस्ट थी . उन्होंने तत्कालीन नारी विरोधी मान्यताओं को चुनौती दी तथा वे सारे कार्य संपन्न किये जो पुरुष समाज के मिथ्या अहंकार को तार तार कर देते हों. हमें तो यही लगता है कि वैदिक युग के बाद जब मर्यादाओं का अवनयन काल आया तो कुटिल प्रवंचकों ने पुराण की रचना करते समय अपनी थोथी दलीलों को अपने ग्रंथों में थोप दी. नारी को पुरुष से नीचा रखने का सारा कुचक्र रच दिया. बातों को तोड़ मरोड़कर कुतर्कों का जाल फैला दिया. परम पूजनीय पञ्चकन्यायों को प्रपंच पूर्ण प्रसंगों के प्रकारांतर में पातकी प्रमाणित कर दिया और प्रताड़ित भी किया. और तो और , शाप के प्रकोप के निवारण में भी ऐसा विधान रचा कि पुरुष इंद्र का शाप अंग प्रत्यारोपण से छू मंतर हो गया ! जबकि, नारी अहल्या को अप्रमेय प्रक्रिया से पाषाण में परिवर्तित कर दिया !
              प्रमाण , प्रमेय , अनुमान , सिद्धांत आदि ... ये सब न्याय दर्शन के आवश्यक अंग हैं. और न्याय दर्शन के जनक मुनि अक्षपाद गौतम अपनी पत्नी को पत्थर बना देने में स्वयं अप्रमेयता का आखेट बन जाते हैं ! कैसी बिडम्बना है हमारे पौराणिक कथाकारों के साथ! इंद्र देवराज हैं. परस्त्रीगमन करते हैं. इंद्र अहल्या के पास गए थे न! अहल्या तो अपने आश्रम में ही थी. सह षड्यंत्रकारी चन्द्रमा है. इंद्र पुरुष! चन्द्रमा पुरुष! न्यायी पति गौतम पुरुष! और पुरुषार्थ के प्रतीक-पुरुष इंद्र को शाप से मुक्ति की तरकीब सिखाने वाले सारे पंडित, ब्रह्माजी भी, पुरुष! इन सब पुरुषों के बीच एक पाषाणी नारी- अहल्या!
              थाईलैंड में प्रचलित रामकथा, रामकिन, में तो यहाँ तक रच दिया गया है कि सूर्य और इंद्र के समागम से अहल्या ने सुग्रीव और बाली को जन्म दिया जिसका भांडा अहल्या की पुत्री अंजनी ने अपने पिता के सामने फोड़ा. उससे कुपित होकर गौतम ने दोनों पुत्रों को बन्दर बनाकर घर से निकाल दिया. फिर अहल्या के शाप से अंजनी को भी बन्दर रूप पुत्र हनुमान हुए. कुल मिलाकर, नारी इन समस्त प्रपंचों की प्रयोगशाला बनी रही. पुरुष प्रयोग करता रहा!
                विश्वामित्र और राम लक्ष्मण के जनकपुर पहुचते ही अहल्या के बेटे शतानन्दजी जो राजा जनक के राजपुरोहित हैं, पहला प्रश्न यहीं पूछते हैं - " मुनिवर! मेरी यशस्विनी माता अहल्या बहुत दिनों से तपस्या कर रही थी. क्या आपने राजकुमार श्री राम को उनका दर्शन कराया? क्या मेरी महातेजस्विनी एवं यशस्विनी माता अहल्या ने वन में होने वाले फल फूल आदि से समस्त देह धरियों के लिए पूजनीय श्री रामचन्द्रजी का पूजन किया? क्या अपने श्री राम से वह प्राचीन वृतांत कहा था , जो मेरी माता के प्रति देवराज इंद्रा द्वारा किये गए छल-कपट एवं दुराचार द्वारा घटित हुआ था?"
              तो छल इंद्र का! सहषड्यंत्र चन्द्रमा का! दण्ड गौतम के न्याय का! और पत्थर की प्रतिमा अहल्या की! और तो और, ये आँखों देखा हाल सुनाने वाले विश्वामित्रजी ने भी एक अन्य धारावाहिक में इंद्र की ही छल क्रीडा में रम्भा को दस हज़ार वर्षों तक पत्थर की प्रतिमा बना कर खडा करा चुके थे!
              हमने इन प्रसंगों के बाद आधुनिक युग में यशस्वी लोगों की लन्दन में तुशाड की प्रतिमा के बारे में जरुर सुना है लेकिन अभी तक किसी ऐसी प्रावैधिकी से मेरा साक्षात्कार नहीं हुआ जहां सजीव प्राणी को निर्जीव पाषण प्रतिमा में परिवर्तित कर पुनः उसे वापस पूर्ववत सजीव रूप में ला दिया जाय. अर्थात पहले रासायनिक परिवर्तन, और फिर दूसरा प्रतिगामी रासायनिक परिवर्तन और दोनों मिलकर एक पूर्ण भौतिक परिवर्तन! बीच का काल हरिकीर्तन! प्रसिद्द बंगाली फिल्मकार सुजय घोष ने अपनी कल्पनाओं की अहल्या कथा पर चौदह मिनट का एक लघु वृत्त चित्र 'अहल्या' भी बनाया है.
              मेरा अभिप्राय इन मिथकों का मज़ाक उडाना नहीं, प्रत्युत उनकी अवैज्ञानिकता, नारी विरोधी कुत्सित कुसंस्कारों और  सामंती मान्यताओं  को अस्वीकार करना भर है.                
              इस बार हमें गाडी वापस लौटाने की नौबत नहीं आयी क्योंकि हमारे वाहन चालक महोदय ने पहले से ही हमारी भावनाओं को ताड़ लिया था. उन्होंने गाड़ी को अहियारी गाँव की ओर मोड़ दिया था. और जितनी देर तक हम अपने विचारों में डूबते उतराते रहे हमारी गाड़ी घनघोर विशाल वृक्ष की सघन शीतल छाया तले तपस्विनी अहल्या के 'अस्थान' में प्रवेश कर चुकी थी. वहाँ हमें एक आत्यंतिक नैसर्गिक सुख का आभास हुआ. हमने मंदिर के प्रशांत प्रांगण में चबूतरे पर थोड़ी देर  तक 'शांत अमिताभ' मुद्रा में विश्राम किया. मंदिर का जालीदार द्वार यहाँ भी बंद था जिसके पार माँ अहल्या की प्रतिमा दृश्यमान थी. एक धातु पट टंगा था जिसपर लिखा था - " ' अहल्या कुटी ', ऐसा प्रमाणित है कि यहीं पर माँ अहल्या ऋषि गौतम के शाप से पाषाणी हुई थी, जो श्री राम के चरण स्पर्श से शाप मुक्त हुई थी." मंदिर की दीवार रामचरितमानस की अहल्या विषयक चौपाइयों और दोहों से पटी थी.
                मुख्य मंदिर के ठीक सामने आँगन में एक स्तम्भ गड़ा था जिस पर लिखा था - " संस्थापक , गुंटूर आंध्र प्रदेश के श्री श्री श्री त्रिदंडी श्रीमन्नारायण स्वामी. इस श्री राममहाक्रतु: स्तम्भ में एक करोड़ राम यंत्र और मूल रामायण विद्यमान है. इसकी स्थापना  १९६० के दशक में की गयी. यह स्थान वैष्णव मतावलंबियों के द्वारा विवाह , अनुष्ठान , रामार्चा, सत्यनारायण एवं श्राद्ध कर्म के लिए मंगलकारी है ." इन पंक्तियों ने वैष्णव दर्शन के इस मर्म का साक्षात्कार कराया कि श्राद्ध का भी मंगलकारी होना इस बात का प्रतीक है कि जीवात्मा का जन्म-मरण के भवसागर से मुक्त होकर परमात्म विलय की मोक्षवास्था को प्राप्त हो जाना ही समस्त मंगल का मूल है.
                समीप के कमरे में भोजन बना रही एक महिला पुजारी ने आग्रह करने पर बड़ी आत्मीयता से मन्दिर का दरवाज़ा खोलकर दर्शन कराया. वहीँ पर एक बालक अपनी माँ के साथ पूजा सामग्री की दुकान लगाये बैठा था जिसपर अन्य सामग्रियों के साथ चूड़ी और बैगन रखे थे. पूछने पर पता चला कि ' अईला ' नमक एक विशेष प्रकार के दानेदार चर्मरोग के रोगी यहाँ माँ अहल्या का पुजन कर यहाँ की मिट्टी अपने रोग ग्रस्त भाग पर लगाते हैं जिससे यह बीमारी दूर हो जाती है. रोगमुक्त होने पर बैगन को चढ़ावे के रूप में अर्पित किया जाता है. मैंने मन ही मन मिट्टी की मरहमी ताकत को नमन किया. इसी बीच सजी संवरी महिलाओं के एक झुण्ड ने एक नवविवाहित वर वधु के जोड़े के साथ सुमधुर स्वर में समवेत विवाह के गीत गाते प्रवेश किया. हमने माँ अहल्या को प्रणाम किया और उनकी उसी छवि की आभा को अपनी आँखों में बसाये वहां से विदा लिया जो छवि भगवान राम ने अदिकवि वाल्मीकि के वर्णित इन छंदों में की थी :-

"स तुषार आवृताम् स अभ्राम् पूर्ण चन्द्र प्रभाम् इव |
मध्ये अंभसो दुराधर्षाम् दीप्ताम् सूर्य प्रभाम् इव ||

अर्थात
 " तप से देदीप्यमान रूप वाली, बादलों से मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान तथा प्रदीप्त अग्नि

 शिखा और सूर्य से तेज के समान अहिल्या तपस्या में लीन थी।"

Thursday 1 June 2017

अदृश्य दोलन

           (१)
काल प्रवाह नही यह दृश्य चित्रपट,
अदृश्य दोलन है, समय के साथ।
(यदि हो समय  का
कोई अस्तित्व तो!)
विराट ब्रह्मांड , बिंदुवत कण
और स्थूल तत्व , सूक्ष्म मन।

               (२)
आकाशगंगा , सौरमंडल,
निर्वस्त्र तिमिर ,
अजस्त्र प्रभामंडल।
खगोल से भूगोल
और अनुभूत सत्य से
रहस्यमय ब्लैकहोल तक।

        (३)
प्रसार, संकुचन
सरल, आवर्त, दोलन!
अपनी गति, अपना काल।
अपना दोलन विस्तार।
अपनी कला दुहराता
अनवरत , बार  बार।

          (४)
उदय से प्रलय और
क्षय से विलय तक
डोलता सृष्टि संसार।
बाहर और अंदर
लहरों की लय पर
स्पंदित समंदर समाहार!

               (५)
प्रशांत पुरुष की खूंटी से लटकी,
गोलक प्रकृति! दोलन में भटकी।
सारा व्यापार, मिलाने को साम,
आवृति की, आत्मा का।
गुनगुनाने को अनहद अनुनाद,
महसूसते परम का अनंत आह्लाद!

Thursday 18 May 2017

प्रेम पंथ के पाथेय!

पता नही क्यों भावुक बनकर,
सपनो में, मैं खो जाता हूँ।
स्वप्न लोक में, स्वप्न सखा संग,
बीज प्यार के बो जाता हूँ।

परम ब्रह्म के भरम विश्व में,
पीव जीव उसकी माया है।
दृश्य जगत के सत चेतन की
सपना अपरा प्रच्छाया है।

सपनो के अंदर सपनो में
कभी मचलता कभी सिसकता।
अभीप्सा ये जिजीविषा की
माया डोर में कसा खिसकता।

प्रेम पुरुष अनुराग तुम्हारा
जीवन रस से कर आपूरित।
प्रकृति रानी सजे तुम्हारी
प्राणों के कण होकर पुलकित ।

प्राण पाश, हे प्राण! तुम्हारे,
श्वासों में सुरभि  घोल गए।
दे अंग अंग ऊष्मा चेतन ,
बंधन ग्रंथि के खोल गए।

घोल रही मधु रास रागिनी
प्रीत वसंत की अमराई जो,
ज्ञात प्रिये यह माया चित्र है,
परम सत्य की परछाई वो!

प्रीत समाधि में उतरेंगे,
प्रेम पंथ के पाथेय हम।
कर स्वाहा सर्वस्व विसर्जन,
द्वितीयोनास्ति, एकोअहम।



Sunday 14 May 2017

माँ मेरा उद्धार करो!

वसुधा के आंगन में गुंजी किलकारी,
पय पान सुधा संजीवन दात्री महतारी।
साँसों मे घोली माँ ने वत्सल धारा,
मैं प्राणवंत पुलकित नयनो का तारा।

सब अर्पण तर्पण किये तूने न्यौछावर,
जननी जीव जगत जंगम चेतन स्थावर।
शीश समर्पण माँ तेरे अंको को,
सह न पाये विश्व विषधर डंकों को।

मञ्जूषा ममता की, माँ, अमृत छाया,
निमिष निमिष नित प्राण रक्त माँ पाया।
क्रोड़ करुणा कर कण कण जीवन सिंचित,
दृग कोशों से न ओझल हो तू किंचित।

पथ जीवन माँ, मैं पगु अनथक, तेरी शीतल छाया,
पा लूँ मरम मैं भेद सत्य का , जीव, ब्रह्म और माया।
अब जननी गोदी में तेरे, प्यार करो, मनुहार करो,
मैं शरणागत, कुक्षी में तेरी, माँ मेरा उद्धार करो।

Wednesday 10 May 2017

ज़म्हुरियत : हिन्दुस्तानी तर्ज़-ए-हुकूमत

ज़म्हुरियत
हिन्दुस्तानी तर्ज़-ए-हुकूमत
अवाम और सियासी दल
अबला और सबल
यूं , जैसे
बेगम और बादशाह !
एक बेदम 'वाम'
दूसरा दमदार 'दाम'

बेदम बेगम!
बिस्तर की बांयी कोर पर
कुंथती, कराहती बांयी करवट,
स्वघोषित क्रांतिदूत.....वामांगी!
आँखों से तापती सेकुलर आगि!

और दमदार बादशाह!
दांयी छोर पर,
दक्षिणपंथी करवट लिए,
दहाड़ता बहुरंगी
राष्ट्रदूत भक्त  बजरंगी!

दोनों मज़बूर करवटें बदलने को,
सिर्फ सियासी सहूलियतों के खातिर.
वैशाली की विरासत ले, प्रगतिवादी पंथ,
इज्म एवं वाद की टकसाल में ढलते
अवसर की तलाश में
लोकशाही के खातिर
तथागत और आम्रपाली से 
साथ साथ चलते !

Friday 28 April 2017

मौन !

 मैं राही, न ठौर ठिकाना,
जगा सरकता मैं सपनो में ।
डगर डगर पर जीवन पथ के
छला गया मैं बस अपनो से ।

भ्रम विश्व में, मैं माया जीव!
अपने कौन, बेगाने कौन?
संसार के शोर गुल में
सृष्टि का स्पंदन मौन।

मौन नयन, मौन पवन,
मौन प्रकृति का नाद।
मौन पथ और मौन पथिक
मौन यात्रा का आह्लाद।

मन की बाते निकले मन से
मौन मौन मन भाती।
और मन की भाषा मे,
मन मौन मीठास बतियाती।

मौन हँसी है, मौन है रुदन
मौन है मन की तृष्णा।
दुर्योधन की द्युत सभा मे,
मौन कृष्ण और कृष्णा।

जन्म क्रंदन और मौन मरण,
मौन है द्वैत का वाद।
मन ही मन मे मन का मौन,
मौन पुरुष प्रकृति संवाद।

Friday 21 April 2017

विभ्रम 'क्रम-भ्रम' का!

सनसनाती हवाओं का श्मशानी सीना,
धू धूआता धुंआ, धनकती चिता,
नाक के नथुनों में भरती
मांसल गंध, अर्द्ध झुलसी लाश,
कानों को खटकाती
'चटाक' सी चटकती
टूटती उछलती हड्डी

खड़ी-पड़ी आकृतियाँ
इंसानी सी शक्लों की
झोंकें हैं अपने को
अपनी अपनी लय में,
भर भर आँखों से
कराने को निर्जीव देह
का अग्नि स्नान चिता पर

और इस धधकते शरीर का ' मैं '
निमग्न, निहारने में निर्निमेष!
कभी दहकती अपनी निर्जीव देह
आग की थिरकती लपटों में, और
कभी सिहुरती निहुरती इर्द गिर्द
सजीव सी श्लथ लाशों को
जगत की जिजीविषा की ज्वाला में

अब जाके जगती हैं ज्ञान की इन्द्रियाँ,
जैसे जैसे, जर्रा जर्रा, झुलसता है इसका.
छूता हूँ प्रकम्पित पवन, तिल तिल कर
अश्मों में बदलते अंग,उनको झुलसाती लपटें,
छिड़के अभिमंत्रित जल की शीतलता,
जलती लकड़ियों के घहराकर गिरने का स्वर
और चंद कदम दूर चकराती चीलों की चीत्कार!

अब जाके अघाई हैं अपलक पलकें!
निहारता हूँ पल पल मन भर
सोचता हूँ 'बुद्ध' बन बुद्धि भर
और भरता हूँ अंतस अहंकार भर
पर मन, बुद्धि, अहंकार मिलकर
सब फलित हो जाते हैं महाशून्य में
समाहित होकर आत्मा के उत्स में

.......................सत्ता हीन 'सत' में,
जहां मैं अविकार, सूक्ष्म, शांत, अज,
अनादि, नित्य, अनंत, शाश्वत चित्त!
समाहित, परम आनंद के महाशून्य में  
और अहसासता, शून्य का चेतन आनंद!
'नहीं होने' से 'होते हुए', 'नहीं होना' हो जाना
भोगता इसी 'क्रम का भ्रम' और ' भ्रम का क्रम'!

Thursday 20 April 2017

स्पंदन

 (१)
तूने अपनी सोच बताई।
मैं नही सोच पाता,
तुम्हारे लिए!
अब सोच रहा हूँ,
सोच के किस स्तर पर
सोच रहे हैं हम ?
मन, बुद्धि या अहँकार!
आत्मा तो अज अविकार।
सोच के संकुचन से रीता।

           (२)
अच्छा हुआ, नही किया,
तूने अध्यारोप
कि,  घोलूँ मैं तुममें
विकार।
अंतस की आत्यंतिक
रूहानियत में रचे बसे,
मेरे प्यार।
निर्गुण, निरीह, निराकार।
अनंत, अपार।

             (३)
गूँज, विसरित स्वर-सुरों की मेरी
विस्फारित, पाती विस्तार।
आशा की भुकभुकाती ढ़िबरी
कि सुन रही होगी सूनेपन में,
अगणित प्रक्षिप्त छवियों
में से ही तुम्हारी कोई एक!
इस अनहद नाद को मेरे,
सरियाने को साम,
स्पंदन की शाश्वतता का!

Tuesday 18 April 2017

'तुम' और 'मैं'

तुम्हारी ' शाश्वतता।
तिल तिल घुलती
'मेरी' सत्ता।
और विश्वात्मकता,
में होता विलीन,
विलंबित ताल में
'मेरा' विश्व!

भटकता, 'मैं'  सांत!
विराट अनंत में 'तुम्हारे'।
विस्मृत कर कि
'तुम्हारे' असीम,अखंड
अनंत, अनगढ़ विस्तार
की ज्योतिर्मयी क्षिप्र छाया
और 'तुम्हारे' निर्गुण  की
'मैं' सगुण माया!

प्रभु, मुक्त करो
इस भेद से!
'तुम' और 'मैं' के!


क्षिप्र
अव्यय
  1. 1.
    शीघ्र, जल्दी।
  2. 2.
    तुरंत।
विशेषण
  1. 1.
    अस्थिर, चंचल।

Sunday 16 April 2017

भारत में ब्रितानी साम्राज्य का तिमिर काल !


आज २०१७ में हम गाँधी के चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष मना रहे हैं. यह ब्रितानी हुकूमत के पैरों तले पिसती कराहती चंपारण की कृषक जनता की सिसकियों को स्मरण करने का समय है और उस अत्याचार से सत्य और अहिंसा के शस्त्र से त्राण दिलाने वाले गाँधी की वीर गाथा को नमन करने का मुहूर्त है. अब प्रश्न यह उठता है कि क्या यह समय उस शासन परम्परा के उत्तराधिकारी ब्रिटेन के वर्तमान शासकों के अपने अत्याचारी पूर्वजों के पाप कर्म के प्रायश्चित करने का नहीं है ! आज से दो वर्ष बाद हम २०१९ में जालियांवाला बाग़ में जनरल डायर के क्रूर कुकृत्यों से ढेर अपनी हुतात्माओं की सौंवी बरसी मनाएंगे. क्या उस ब्रितानी बेशर्मी पर पश्चाताप करने अँगरेज़ प्रधानमंत्री उस बाग में घुटनों के बल बैठेंगे और भारतीय जनमानस से माफ़ी की गुहार लगायेंगे! और शनैः शनैः काल प्रवाह में ऐसे कितने जयन्ती शतकों का हम साक्षात्कार करेंगे जब हमारा स्वतंत्र राष्ट्रीय मानस उस तथाकथित सभ्य अँगरेज़ प्रजाति से प्रायश्चित की परम्परा के निर्वाह के रूप में क्षति पूर्ति की आशा करेगा. इन्ही भावनाओं को अपनी ओजस्वी वाणी दी है शशि थरूर ने अपने बहुचर्चित व्याख्यान में ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन के समक्ष. और उससे भी धारदार ढंग से परोसा है अपनी पुस्तक ' AN ERA OF DARKNESS: THE BRITISH EMPIRE IN INDIA' अर्थात " भारत में ब्रितानी साम्राज्य के तिमिर काल " में ! इस पुस्तक का ताना बाना उपरोक्त बहुचर्चित 'ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन व्याख्यान' की पृष्ठभूमि में बुना गया है अद्भुत आंकडों और ऐतिहासिक घटना क्रम के आलोक में. श्री थरूर ने बड़ी विद्वतापूर्ण ढंग से ब्रितानी हुकूमत के कदमो में कुचलते औपनिवेशिक हिन्दुस्तान के अद्यतन शोषण का सर्वांग चित्र खींचा है और यह भली भांती प्रमाणित कर दिया है कि अब समय माकूल है जब ब्रिटेन की वर्तमान सरकार कम से कम अपने पुराने कुकर्मों पर लज्जा की अनुभूति, प्रायश्चित सम्प्रेषण और क्षमा याचना का ही मुआवजा  दे. थरूर ने पुस्तक की प्रस्तावना में स्पष्ट किया है कि उनकी प्रस्तुति ब्रिटिश उपनिवेश के रूप में भारत के अनुभवों की दास्तान है.
अपनी पुस्तक की भूमिका में थरूर ने थोड़ा आत्म निरीक्षण और आत्मावलोकन भी किया है कि क्या स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरांत उन तमाम विसंगतियों से हम उबर पाए हैं जिसका दोषारोपण हम बड़ी सरलता से अंगरेज़ प्रभुओं पर थोपते रहे हैं! 'टाइम ' पत्रिका  में शिखा डालमिया की टिपण्णी ' शास्त्रार्थ में विजय-श्री संभवतः शशि थरूर को शिरोधार्य हो किन्तु नैतिक विजय ने भारत को सर्वदा छला ही है.' को थरूर ने बड़ी आत्मीयता से अंगीकार किया है. साथ ही वह इस तथ्य से भी सहमत नज़र आते हैं कि चाहे हर्जाने का कितना भी बड़ा मूल्य भारत को सौंप दिया जाय , उसके समुचित उपयोग एवं जरुरतमंदो तक उसकी पहुँच की आशा स्वतंत्र भारत के अद्यतन सत्ता संचालकों की कर्तव्यनिष्ठा के आलोक में धूमिल ही है. उदाहरण के तौर पर भारतीय खाद्य निगम के भंडारों से २०१० में दस हज़ार लाख टन खाद्यान्नों की बरबादी  इस बात की पुष्टि करती है कि अतीत के अकाल इन अभिजात्य सत्ताधीशों की जाहिलता और अक्षमता की ही अभिव्यक्ति थे. राजनितिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर थरूर ने स्वातंत्र्योत्तर शासकों की जम कर खिंचाई की है कि मुलभुत शिक्षा व साक्षरता की अवहेलना, समाजवाद की सनक, लाइसेंस राज की खनक और चुनिंदे धनकुबेर औद्योगिक घरानों की गोद में उनकी सर्व समर्पित अपवित्र प्रेम क्रीड़ा ने देश को दुर्दशा की ऐसी दिशा में धकेल दिया कि १९५० से १९८० के बीच सकल घरेलु उत्पाद के पैमाने पर यह मेक्सिको और दक्षिण कोरिया से भी पिछड़ गया.
किन्तु, महज़ इन असफलताओं की बुनियाद पर निस्संदेह हम ब्रितानी हुकूमत को उनके अतीत के काले कारनामों से न तो बरी कर सकते है और न ही हमारे शासकों की अकर्मण्यता के अंगोछे से ब्रिटिश कलंक को पोंछा जा सकता है. दीगर है कि आप बीस से भी अधिक दशकों के शोषण से दहकते घाव को छः सात दशकों में तो नहीं ही भर सकते. इतिहास के भिन्न भिन्न कालखंडो का मूल्यांकन भी उस काल की अपनी विशिष्टताओं और परिस्थितिजन्य कालगत विलक्षणताओं के विस्तार में ही किया जा सकता है. फौरी तौर पर ब्रितानी हुकूमत अतीत के अपने काले औपनिवेशिक कारनामो से मुंह नहीं मोड़ सकती और उसे प्रायश्चित का मूल्य चुकाना ही पड़ेगा. चाहे, वह सांकेतिक तौर पर २०० वर्षों तक एक पौंड प्रति वर्ष की दर से ही क्यों न हो!
पोलैंड में यहूदियों के सर्वनाशिक विध्वंस के लिए जर्मनी के चांसलर विलि ब्रांट ने वारसा की यहूदी बस्ती में घुटनों के बल बैठकर उस कुकृत्य के लिए क्षमा याचना की थी भले ही उस समय तक क्षमा देनेवाला न कोई यहुदी समुदाय वहाँ बचा था और न ही नाजियों के द्वारा स्वयं सताए गए समाजवादी ब्रांट का उस यहूदी सत्यानाश की प्रक्रिया से कोई सम्बन्ध था.  किन्तु, ब्रांट की मानवीय मूल्यों से ओत प्रोत यह तरल भाव-भंगिमा इतिहास की शुष्क बंज़र भूमि में एक ऐसी त्यागमयी ममतावात्सल भागीरथी का अनुपम अमृत प्रवाह था जो  इस वसुंधरा को सदियों तक आप्लावित करती रहेगी. यह तवारीख की एक अनोखी मिशाल थी जर्मनी की नैतिक जिम्मेदारी की विनम्र स्वीकारोक्ति की.
ब्रितानी हुकूमत का काल अर्वाचीन न सही, इतना प्राचीन भी नहीं है कि इसकी स्मृति भारतीय लोक मानस पटल से बिलकुल विलुप्त हो गयी हो! संयुक्त राष्ट्र संघ की जनगणना से सम्बंधित एक समिति के प्रतिवेदन में प्राप्त आंकड़े ये दर्शाते है कि हिन्दुस्तान में ८० वर्ष से अधिक वय के उन व्यक्तियों की संख्या साठ लाख है जिन्होंने विलायत की रानी के विध्वंस स्वरुप को अपनी बाल स्मृतियों में संजो कर रखा है. उनके बाद की पीढी की ५० से ६० की उम्र वाली उनकी जिन संततियों ने उनके मुंह से यह खौफनाक दास्तान सूनी है, यदि उनको भी जोड़ दिया जाय तो यह संख्या दस करोड़ के आसपास पहुँच जाती है जो स्वयं एक इंग्लैंड की आबादी के करीब है.
आज माकूल समय था जब इंग्लैंड के प्रधान मंत्री चंपारण की धरती पर जाते और सत्य और अहिंसा की इस पुण्यभूमि में सजदा कर सार्वजनिक क्षमा याचना करते अपने पूर्वजो के पातक कर्म का और अपनी आत्मा को पवित्र कर लौटते अपने देश को !  या  फिर दो बरस बाद ही सही, जालियांवाला बाग़ के रक्त रंजित रज का तिलक लगाकर उन शहीद हुतात्माओं की याद में दो मिनट के मौन से माफ़ी मांग लेते ! २०१३ में डेविड केमरून का कास्मेटिक कथन ' घोर शर्मनाक कुकृत्य ' और १९९७ में रानी एलिजाबेथ की औपचारिक यात्रा और दर्शक पुस्तिका पर उनका अनुष्ठानिक हस्ताक्षर पश्चाताप की प्रबल पीड़ा के सम्मुख ऊंट के मुंह में जीरा ही है. एक वृहत राष्ट्रीय सत्ता के रूप में वर्तमान ब्रितानी साम्राज्य उन क्रूर कारनामों के लिए अवश्य उत्तरदायी है जिनके विषैले दंशों से इसके अतीत के शासकों ने इस उपनिवेश को छलनी किया. और शायद इसी उत्तरदायित्व भाव से अनुप्राणित थे कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन टूड जब २०१६ में ' कामगार मारू' के मृत भारतीय अप्रवासियों के मामले में उन्होंने माफी माँगी. और नहीं तो कम से कम ब्रिटिश लेबर नेता जेरेमी कॉरवीन द्वारा सुझाए प्रायश्चित की प्रक्रिया को अमली जामा पहनाया जा सकता है. ब्रिटेन के विद्यालयों के पाठ्यक्रम में उपनिवेशों पर ब्रिटिश शासन के क्रूर कहर के इतिहास को शामिल किया जाय ताकि आज की अंगरेज़ पीढ़ी कम से कम अपनी आँखों में उन घटनाओं से कुछ पानी भर सके! कम से कम नैतिकता की भाव धरा पर ही सही थेम्स की धारा बह तो जाय !
थरूर अपने पुस्तक की प्रस्तावना में उन अभिजात भारत वंशियों का कान उमेठने से भी बाज नहीं आते जिन्होंने अंगरेजों के अत्याचार कर्म में उनके ताल से ताल मिलाकर अपने सहकार धर्म का पूरी स्वामी भक्ति से पालन किया.
विलायती प्रासाद के प्रसाद की छाया में पलने विचरने वाले भारतीय राज घराने अपनी शान ए शौकत के संरक्षण के एवज़ में शोषण तंत्र में शामिल हो गए. प्रथम विश्वयुद्ध में अपने राजकोष के पैसे से अंगरेजों का खजाना क्रिकेट कुमार राजा रंजित सिंह ने चापलूसी में इस बात की परवाह किये बिना भर दिया कि राज्य की जनता भयंकर दुर्भिक्ष में त्राहि त्राहि कर रही थी. और चाटुकारिता की पराकाष्ठा तो तब हो गयी जब ब्रिटिश विजयोल्लास की आतिशबाजी में उन्होंने जनता के एक महीने का राजस्व लुटा दिया !  नीरद सी चौधरी जैसे राजसी साहित्यकारों ने विलायत की बिरुदावली गाने में कोई कसर न छोड़ी. अंगरेजों के इस महा चारण ने भारत से राज के प्रस्थान पर शोक गीत तक गाया !

थरूर ने ब्रितानी प्रायश्चित की इस क्षतिपूर्ति प्रक्रिया में भारत के साथ साथ बांग्लादेश और पकिस्तान को भी साझेदार बनाकर एक अकाट्य सत्य का उद्भेदन किया है. आखिर औपनिवेशिक इतिहास के तो ये तीनो देश संयुक्त साझेदार हैं. और साथ साथ मेरी दृष्टि में यह भी विस्मृत नहीं होना चाहिए  कि आज़ादी की लड़ाई हमारी साझी विरासत है औए ये जयंती शतक भी हम तीनो का साझा त्यौहार है, चाहे वो चंपारण की सत्याग्रह शताब्दी हो . या जालियांवाला बाग़ की सौंवी बरखी ! ........ याद रखिये , "वह जो इतिहास को भूल जाते हैं इसे दुहराने को अभिशप्त हैं ( Those who forget the history are condemned to repeat it)"................! 
शुक्रिया, शशि थरूर ( Shashi Tharoor) ! सत्य के अन्वेषण के लिए !! यथार्थ के उदघाटन के लिए !!!

Wednesday 12 April 2017

अर्पण

संग संग रंग मेरे मन का,
तनिक सा तुम भी भर लो ना//
भले ' भले' हो तुम तनहा में,
यादों में निमिष ठहर लो ना//

मन की महकी गलियों में,
बस दो पल हमें भी घर दो ना//
लो चंद मोती मेरी पलकों के,
मुस्कान अधर में भर लो ना//

मन उच्छल प्रिय हलचल पल पल,
तल विकल लहर ज्यों मचल मचल//
हिय गह्वर भर भाव भंवर,
आकुल नयन घन आर्द्र तरल//

अवसाद हर्ष के पार प्रिये,
पथ पावन तू मैं, पथिक सरल//
निःशब्द, मौन मैं स्थावर,
रहूं राह निहारे, अनथक अविरल//

हे हृदय हारिणी हंसिनी,
तू रासे विलास, हँसे मुक्त दंत//
गूंजे स्वर-अर्चन दिग दिगंत,
कण कण अर्पण हे पथ अनंत//

Tuesday 4 April 2017

वशिष्ठजी : गणित की एक अबूझ पहेली!

आज अखबार में डा० बशिष्ठ नारायण सिंह के जन्मदिन की खबर पढ़कर नयन आर्द्र हो गए. बालपन में होनहार किरदारों के बारे में जो जानकारी मिलती है वह स्मृति पटल पर सदैव सजीव रहती है. उसमे कोई ऐसा व्यक्तित्व जो महानायक बनकर आपके दिलो दिमाग पर छा जाए, जिसकी अभ्यर्थना में आप अपनी निश्छल भावनाओं के समस्त प्रसून समर्पित कर दें और समय के प्रवाह में वही व्यक्तित्व कालसर्प के विषैले दंश का आखेट बन एक सामान्य सी जिन्दगी भी जीने को मुहताज हो जाय तो नियति की इस निष्ठुरता पर दृग जल का छलक  जाना अस्वाभाविक नहीं! बालपन की ड्योढ़ी पार कर  कैशोर्यावस्था के आलिंगन में समाने का ही तो समय होता है दसवीं पास करके ग्यारहवीं (तब इसे हम आई,एस,सी , यानी इंटरमीडिएट ऑफ़ साइंस कहते थे ) कक्षा में जाने का. ये वो वय होती है जब बड़े आपको बड़े नहीं मानते और छोटे आपको छोटे नहीं मानते. उम्र की ये त्रिशंकु अवस्था अदम्य ऊर्जा, जीवंत जीवट और जिज्ञासा का स्वर्ण काल होती है.जीवन मूल्यों के सही आकार लेने का काल होता है यह.  हमारा नामांकन पटना साइंस कॉलेज में हुआ था. कोआर्डिनेट ज्योमेट्री की कक्षा थी. ड़ा० डी पी वर्मा आये थे क्लास लेने. उन्हें अनुशासनहीनता का आभास हुआ. विद्वान् प्रोफेसर भावुक हो गए.
इस कथ्य को आगे बढाने से पहले आपको थोड़ा परिचय पटना साइंस कॉलेज का देना भी अपेक्षित होगा. १९२७ में पटना विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय के रूप में स्थापित पटना साइंस कॉलेज की नींव भारत के तत्कालीन वायसराय  लार्ड इरवीन ने  १५ नवम्बर १९२८ को डाली. यह महाविद्यालय अभी हाल के दशकों तक एक विश्व प्रसिद्द उत्कृष्ट विज्ञान संस्था के रूप में जाना जाता था, जहां बिहार के सुदूर गाँव की अनोखी प्रतिभाएं अपनी शैक्षणिक छवि तराशती थी. यहाँ आई एस सी में नामांकन हो जाना गौरव की बात मानी जाती थी.
असाधारण कोटि की प्रतिभा से संपन्न शिक्षकों की टोली स्नाकोत्तर से आई एस सी तक की कक्षाएं लेती थी. इसलिये छात्रों को अपनी प्रवेशिका स्तर के पठन पाठन विशेषकर विज्ञान की शिक्षा के शैशव काल में ही ऐसे कुशल शिक्षा शिल्पियों से तरासे जाने का सौभाग्य मिलता जो उन्हें समाज के भविष्य की अमूल्य धरोहर के रूप में गढ़ देता. फैराडे, कैवेंडिश, न्यूटन, रामानुजम औए सी वी रमण - ये पांच छात्रावास थे जो अपने अन्तेवासियों में अपने नाम के अनुरूप संस्कार गढ़ने का पर्यावरण सतत प्रस्तुत करते. मै  इंटर प्रथम वर्ष  (आज की ग्यारहवीं कक्षा) में रामानुजम भवन और द्वितीय वर्ष (बारहवीं कक्षा) में न्यूटन हाउस का अन्तेवासी था. न्यूटन हाउस में मै काशीजी के मेस में भोजन करता था. काशीजी बड़े चाव से छात्रों को उनके बेड के पूर्वज छात्रों की कहानी सुनाते. इस प्रक्रिया में जाने अनजाने संसकारों का संचरण पीढ़ी दर पीढ़ी होता रहता और प्रत्येक अन्तेवासी अपने बेड के गौरवशाली इतिहास की गरिमा बढाने की जुगत में सतत जुटा रहता. उस जमाने में कोचिंग संस्थानों की कुकुरमुत्ता संस्कृति का उद्भव नहीं हुआ था. शिक्षक और छात्रों की पारस्परिक प्रतिबद्धता अपनी पराकाष्ठा पर थी. प्रति वर्ष यह कॉलेज अकेले करीब  ६० से ७० छात्रों को देश के प्रतिष्ठित आई आई टी संस्थानों में भेजता.
अब हम इस संक्षिप्त परिचय के बाद उस घटना पर आते है जिसका हम जिक्र कर रहे थे. डी पी वर्मा गणित के उद्भट विद्वान् थे . उनके छोटे भाई, एच सी वर्मा, भी अभी नए नए फिजिक्स के लेक्चरर बने थे जो आजकल आई आई टी कानपुर में प्रोफेसर हैं तथा जिनकी फिजिक्स की पुस्तक पुरे देश के लडके आज कल पढ़ते हैं. तो, हमारे विद्वान् प्रोफेसर जैसे ही क्लास में थोड़े विलम्ब से पहुंचे उनकी नज़र ब्लैक बोर्ड पर पड़ी जिसपर किसी छात्र (वो छात्र भी आजकल आई आई टी कानपुर में प्रोफेसर है!) ने शरारत में उनके विलम्ब पर अपनी व्यग्र टिपण्णी दर्ज कर दी थी:- "This class will not take place due to sudden demise of our beloved coordinate teacher" अर्थात, 'कोआर्डिनेट ज्यामिति के हमारे प्रिय शिक्षक के आकस्मिक निधन के कारण यह कक्षा नहीं लगेगी.' और इससे पहले कि इस टिपण्णी को मिटाया जाता, प्राध्यापक महोदय का आकस्मिक आगमन हो गया ! सर अपनी आदत के अनुरूप हाथ में डस्टर उठा कर ब्लैक बोर्ड की ओर मुड़े और जडवत हो गए. सारे क्लास को तो मानो काठ मार गया.और फिर उनकी आहत भावनाओं की गंगा में वेदना की सरस्वती और करुणा की यमुना ने मिलकर जो त्रिवेणी धार बहायी वो छात्रो के नयनों को बहुत देर तक आप्लावित करती रही. रुंधे स्वर में कक्षा ने गुरु से क्षमा याचना की. गुरु के वात्सल्य का गौरव भी हिमालय की तरह उदात्त था. उसी 'एक दूसरे के आंसू पोछने' के भींगे माहौल में गुरु ने  छात्रों को उनकी विरासत की महिमा का भान दिलाने के क्रम में अपने पुराने छात्र वशिष्ठ की कहानी सुनायी और हम सभी छात्र पुरी तन्मयता से उस कथा गंगा में डूबकी लगाते रहे.
वशिष्ट नारायण सिंह ने अपने बैच में मैट्रिक की बोर्ड परीक्षा में प्रसिद्द नेतरहाट विद्यालय (मेरे अनुज यहाँ के छात्र रह चुके हैं) से  बिहार में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया था . जहां तक मुझे याद है , उनके  ८०३ अंको का कीर्तिमान १९७८ तक रहा था. प्रथम वर्ष में ही उनकी चमत्कारी प्रतिभा से शिक्षकों की आँखे चौधियाने लगी. नाथन-बासु-आइन्स्टीन  थ्योरी  की प्रसिद्धि वाले प्रसिद्द वैज्ञानिक  ड़ा० नागेन्द्र नाथन साइंस कॉलेज के प्राचार्य थे . देवकांत बरुआ बिहार के राज्यपाल और पटना विश्वविद्यालय के चांसलर थे. विशेष व्यवस्था के तहत वशिष्ठजी को इंटर प्रथम वर्ष में ही बी एस सी हौनर्स  की परीक्षा में बैठने की अनुमति दी गयी . प्रोफेसर वर्मा अपनी आँखों में एक अद्भुत चमक समेटे कक्षा में वशिष्ठजी के  व्यवहार का बखान कर रहे थे . वह छोटी छोटी गलतियों पर उग्र हो टोकाटाकी करते. गणित की किसी समस्या को सुलझाने का उनका अपना एक गैर पारंपरिक स्वतंत्र तरीका होता तथा वह समस्या के समाधान के लिए एक से अधिक रास्तों से एक साथ प्रयाण करते. उनकी सूझ विलक्षण होती तथा एक अलग प्रकार का नयापन होता.
 इस अर्जुन को एक द्रोणाचार्य प्रोफेसर केली के रूप में मिला जो इन्हें कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय ले गए. वहां 'साइकिल वेक्टर स्पेश थ्योरी' पर पीएचडी की और वाशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बने. नासा में काम करने का मौक़ा मिला. अमेरिका सरकार ने रोकने की कोशिश की तो भारत लौट आये. यहाँ आई आई टी कानपुर, , टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च और भारतीय सांख्यिकी संस्थान जैसे प्रसिद्द संस्थानों में काम किया. वशिष्ठ नारायण सिंह ने आंइस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धांत को चुनौती दी थी. उनके बारे में मशहूर है कि नासा में अपोलो की लांचिंग से पहले जब 31 कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए तो कंप्यूटर ठीक होने पर उनका और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन एक था. सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था. शादी भी वन्दना रानी के साथ हो गयी . लेकिन नियति की निष्ठुरता ने इस गणित नायक को धर दबोचा . वशिष्ठजी ' सिजोफ्रेनिया' के शिकार हो गए. उनका इलाज़ रांची में चल रहा था. १९८९ में बशिष्ठ्जी अचानक लापता हो गए. १९९३ में सारण के एक कस्बे, डोरीगंज,  में उन्हें भिखारियों के झुण्ड में पत्तल चाटते देखा गया, जहां से वापस घर लाया गया. इस कारुणिक प्रसंग को सुनकर हमें वाकई उनकी भाभी प्रभावतीजी  की बात कचोटती है कि:-
"हिंदुस्तान में मिनिस्टर का कुत्ता बीमार पड़ जाए तो डॉक्टरों की लाइन लग जाती है. लेकिन अब हमें इनके इलाज की नहीं किताबों की चिंता है. बाक़ी तो यह पागल खुद नहीं बने, समाज ने इन्हें पागल बना दिया."

वशिष्ठजी हाथ में पेंसिल लिए दीवारों में हलके से कुछ बुदबुदाते हुए लिखते नज़र आते. चिडचिडापन ने उनके स्वभाव में घर बना लिया था. २००४ मे मै प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली सरकार में ' मानव व्यवहार एवं सम्बद्ध विज्ञान संस्थान' में अधिशासी अभियंता के पद पर पदस्थापित हुआ था. पता चला कि एक साल पहले तक वह वहां इलाज़ के लिए भर्ती थे. मै उस वार्ड की कक्षा में जाता और अपने आदर्श नायक की याद में कुछ नम पल बिताता. उनकी सेवा मे लगे वार्ड बॉयज से उनकी हरकतों के बारे में कुतूहल से सुनता.. लेकिन उनको समीप से दर्शन करने की बलवती इच्छा फलवती हुई कुछ तीन एक साल पहले पटना के रविन्द्र रंगशाला में आयोजित विश्व भोजपुरी सम्मलेन में, जहां उनको सम्मानित करने के लिए बुलाया गया था. साथ में मालिनी अवस्थी, भरत व्यास, मनोज तिवारी  और अन्य लोग भी थे . पिछली पंक्ति में मेरे महानायक एक अबूझ  पहेली से अपने भाई के साथ निर्भाव रूप से खड़े थे. बिखरे बाल, चिथड़ी दाढ़ी,, क्लांत, बुझे बुझे, खोये खोये ! किन्तु, चहरे पर तैरती एक रहस्मय दार्शनिकता , मानो इस ब्रह्मांड में छिपे किसी गुह्यातगुह्यतम  आख्यान का मौन संधान कर रहे हों ! गणित की एक अबूझ पहेली !  मैं मंत्रमुग्ध ,हतशून्य निगाहों से उन्हें निहारे जा रहा था और मेरे कानों में अपने भाव विह्वल  प्रोफेसर वर्मा की आर्द्र वाणी फिर से गूंजने लगी थी............!     

Sunday 2 April 2017

सृजन के फूल

मैं चिर प्रणय की प्रात लाली/
तू छलना निर्वात आली//
मैं पुष्प प्रीत पराग वेणु/
स्वाति सुधा संग सीप रेणु//

मैं चमकता स्वर्ण शबनम/
दूध सी तू रजत पूनम//
ब्रह्माण्ड के आकाश में/
तू रासे विश्व लास में//   

प्रणय विजय में तुम्हारी/
प्रीत का पय पान कर//
प्रेम तरल अधर रस से/
अमर जल को छानकर//

घोल हिय के पीव अपना/
पान करता थारकर//
तू हार जाती जीतकर/
मैं जीत जाता हारकर!//

जब सहज यह प्रकृति /
अंतर्द्वंद्व है किस बात का//
भाव अभाव, सत असत/
जीव-ब्रह्म, असमानता //


 भावों की असमानता से/
 बीज रचना के बटोरूँ //
 आंसू के फिर नयन घट में /
उर्वरक वो प्रीत घोरुं //

मै समर्पित, मौन प्रिये /
 विरह विगलित गरल पीलें//
चल न मन एकांत में तू/
 जहां सृजन के फूल खिले//