Sunday 14 August 2016

स्वतंत्रता-एक सनातन संस्कार।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी पर गहराई से नज़र डालें तो इस बात का स्पष्ट आभास मिलता है कि यह संघर्ष यात्रा भी पूरी तरह इस देश के सनातन माटी के संस्कार से सिक्त होकर ही निकली है।वैचारिक विभिन्नताओं की अनगिनत धाराओं का अद्भुत समागम है- हमारी आज़ादी की प्राप्ति यात्रा। कोई नरम, कोई गरम। कोई उदार, कोई उग्र। कोई दाम, कोई वाम। कोई नेशनल, कोई सोशलिस्ट। कोई स्वराजी, कोई इम्पेरिअलिस्ट। कोई पूंजीवादी, कोई मार्क्सिस्ट। तो कोई गांधियन मार्क्सिस्ट। कोई धर्म निरपेक्ष, तो कोई कम्युनल। कोई सेक्युलर, तो कोई वर्नाकुलर! मुझे तो लगता है कि इस दुनिया में विचारो की जितनी लताएं पनपी हैं, सबका 'क्रॉस-सेक्शन स्टडी' यदि करना है तो हिंदुस्तान की आज़ादी की गाथा के माइक्रोस्कोप में झांकिए। इन सारी वैचारिक धाराओं के समवेत दर्शन होंगे, पूरे सनातनी तेवर में।
भाई, मेरे शब्द ' सनातनी तेवर' को अपनी ओछी सांप्रदायिक नज़र मत लगाइये। सनातनी तेवर इसलिए कि हिमालय के आंगन इस आर्यावर्त की जीवन यात्रा भी सांस्कारिक स्तर पर सनातन ही है।
न जाने कितने विचार, कितने दर्शन, कितने आध्यात्म, कितने संप्रदाय, जीवन के कितने रंग इस संस्कृति में पनपे, पले, लड़े, बिछुड़े, गले मिले, पर साथ साथ ही चले। विचारों का शास्त्रार्थ हुआ। शस्त्रार्थ नहीं।  ज्ञानमार्गी, भक्तिमार्गी,हठयोगी, सिद्धपंथी, नाथपंथी,कबीरपंथी, दैववादी, कर्मयोगी, द्वैतवादी, अद्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी, सगुण, निर्गुण,सूफी, वहाबी - पर मूल में सभी एक ही सत्य के अन्वेषक। सबका उद्देश्य एक। उस परम सत्य को पाना। विचारों की आज़ादी। आत्मा की मुक्ति। वाजश्रवा को नचिकेता की चुनौती। सर्वदर्शानाम एकमेव लक्ष्य- मुक्ति। मुक्तोअहं।
ठीक वैसे ही स्वतंत्रता संग्राम में भी, चाहे 'नरम' या ' 'गरम', 'गाँधी' या 'भगत', उद्देश्य एक ही- 'आज़ाद' होना। हम आजाद ही जनमे हैं, आज़ाद ही मरेंगे।
             इसी का नाम सनातन संस्कार है जो सर्वसमावेशी है। और इसीलिए हम संसार के सबसे प्राचीन ,सर्वकालीन सहिष्णु, सबसे कामयाब और सबसे टिकाऊ लोकतंत्र हैं।' सर्वे भवन्तु सुखिनः' और 'वसुधैव कुटुम्बकम' यही भारतीय राष्ट्रवाद की आत्मा है। इसकी स्वतंत्रता सनातन है। थी, है और रहेगी।
 ऐसे, 'स्वतंत्रता' से ज्यादा सटीक शब्द  ' स्वाधीनता ' प्रतीत होता है. अंग्रेजी के आत्म- निर्भरता का भाव लेकर 'स्वतंत्रता' शब्द अपने राजनीतिक अर्थ और स्वरुप मात्र को परिलक्षित करता है. दूसरी ओर भारतीयता के कलेवर में स्वाधीनता आत्म-सत्ता का पर्याय है. ऐसी आत्मा जो अज है, नित्य है, चिरंतन है, अविकार है,  न जलती है, न भींगती है, न सुखती  है,अबध्य है, न जनमती है, न मरती है, न मारती है और वह अक्षय परमाणु बीज है जो असीम विराट के महा विस्तार का अविच्छिन्न अंश है.
             तंत्र, मन्त्र और यंत्र ! तन को नियंत्रित करने की विधा तंत्र. मन को नियंत्रित करने की विधि मन्त्र. और , यत्न को नियंत्रित करने की युक्ति यंत्र. यानि  तन , मन और यतन (उपाय) को परिचालित , संचालित और काबू में रखने की भारतीय प्रावैधिकी हैं- तंत्र, मन्त्र और यंत्र. जहां इन तीनो की लगाम आ जाए हाथो में - वही सच्ची स्वाधीनता है. वही आत्मा की सत्ता प्रतिष्ठित होती है और ज्ञान का आलोक फूटता है. चेतना के चिन्मय आलोक में प्रकाशमान आत्मा जब चलायमान हो, तब वह मुक्तावस्था के शाश्वत श्रृंगार से सजती है. यही योनी भ्रमण के कीचक पथ में धंसे जीव की मोक्ष उत्कंठा का पान्चजन्य उद्घोष है. इस दृश्य जगत के समस्त चर अचर के परिचालन का नियंत्रण ज्ञान दीप्त आत्मा के हाथों ही होता है जहाँ योग की साधना से मन अनुशासित होता है और तन नियंत्रित! इस अवस्था को पा लेना ही सत्य से साक्षात्कार है और इस साक्षात्कार के उपरांत ही आहार, विचार और आचार में स्वाधीनता का समाहार होता है. अपने इर्द गिर्द के चतुर्दिक वातावरण से उपयुक्त अवयवों का आहरण ही हमारे मन में पुष्ट विचारों का ताना बाना बुनता है . उसकी पोषक छाया में हमारे निर्मल आचरण का विकास होता है  और हम इस जीव जगत के अन्तर्द्वन्द्वो के उदघाटन में तल्लीन होते हैं . स्वाधीन आत्मा मुक्तोंमुखता को सचेष्ट रहती है. जब सारे बाह्य कारकों का आग्रह निष्क्रिय हो जाए,  बल- प्रतिबलों, एवं क्रिया-प्रतिक्रियायों  का आरोप निष्फल हो जाय और अपने से इतर किसी अन्य आकर्षण-विकर्षण  का लेश मात्र भी प्रभाव न हो तो आत्मा स्वयं आत्मा में ही स्थित हो जाती है. इसे गीता में स्थित प्रज्ञता की स्थिति कहा गया है. स्थित प्रज्ञ मनुष्य ही स्वाधीन आत्मा का उपभोक्ता होता है. स्वाधीन आत्मा और परम स्वाधीन उपभोक्ता! परम चैतन्य! स्वाधीनता की सम्पूर्णता! स्वावलंबन का चरमोत्कर्ष! 'स्व' के स्वरुप का शाश्वत सत्य से समीकरण! तुम वहीं 'वह' हो. "तत त्वम् असि"!
  कहीं कुछ ऐसे ही विचारों से प्रभावित होकर  राजनैतिक पराधीन भारत में स्वाधीन विवेकानंद ने वेदान्त दर्शन का अलख तो नहीं जगाया ? या फिर, आज़ादी के आन्दोलन के समर वीर महर्षि अरविंद स्वाधीनता की इसी आध्यात्मिक सुरभि से सराबोर तो नहीं हो गए? या फिर, मोहनदास करमचंद गांधी की रूह में सत्याग्रही महात्मा का यहीं दर्शन तो समा नहीं गया? क्यों न हम भी अपनी स्वाधीन आत्मा को सत्य के इसी आलोक में टटोलें!  

Monday 1 August 2016

पानी पानी


      (1)
धनकती धरती को देख
फटा कलेजा बादल का
बदमिजाज हवायें मचायें धमाचौकड़ी
करे शोर गाये मल्हार
घटाओं की गीदड़ भभकी
भागा सूरज
बिजली चमकी
दामिनी दम भर
घनश्याम से उलझी
औंधे मुँह जमीन पर गिरी


   (2)
भींगी पत्तियाँ, गीले पेड़
कानन में बदरी करियाई
दरिया उड़ेला
अकुलाये आसमान ने
नदी का पेट फूला
मदन मगन पवन मचाये उधम
खुसुर-फुसुर सोंसियाता सीटी बजाता
लताओं को सहलाता
लतायें इठलायी शरमायी


      (3)
नटखट टहनियाँ उलझी
पत्तियाँ लरजीं
गिलहरियों की बंद हुइ गश्ती
ढ़ाबुस बेंगो पर छायी मस्ती
बरसात के वेग की आहट
रुक रुक आती
चिरई की चहचहाहट
झूम के नाची बरखा रानी

धरती गीली नंगी

शरम से हुई पानी पानी

Tuesday 26 July 2016

बाबूजी




कल्पना की भीत में
शब्दों से परे
आज भी बाबूजी दिखते
बच्चों को बनाने की ज़िद में
वैसे ही अड़े खड़े।



धागों से बँधे चश्मे
दोनों कानों को
यूँ पकड़े जैसे
तक़दीर को खूँटों में
जकड़ रखा हो वक़्त ने



बुढ़ायी, सिकुची, केंचुआयी
ढ़िबरी सी टिमटिमाती
छोटी आँखें, ऐनक के पार
पाती विशाल विस्तार, यूँ
ज्यों, उनके सपने साकार!



कफ और बलगम नतमस्तक!
अरमान तक घोंटने में माहिर  
जेब की छेद में अँगुली नचाते
पकता मोतियाबिन्द, और पकाते,
सपनो के धुँधले होने तक


पाई-पाई का हिसाब
टीन की पेटी को देते
उखड़े हैन्डिल को फ़ँसा
मोटे ताले को लटका
चाभी जनेऊ को पहनाते


मिरजई का पेबन्द
और ताकती फटी गंजी
अँगौछे के ओहार में
यूँ ढ़क जाती जैसे दीवाली की रात
मन का मौन ,बिरहा की तान में.



कफ, ताला, बलगम, जेब, अँगोछा
पेटी, ,जनेऊ, चाभी, मोतियाबिन्द
मिरजई, बिरहे की तान- सब संजोते
बाबूजी आँखों में, रोशन अरमान
बच्चों के बनने का सपना!

गौरैया






भटक गयी है गौरैया
रास्ता अपने चमन का
सूने तपते लहकते
कंक्रीट के जंगल में
आग से उसनाती
धीरे से झाँकती
किवाड़ के फाफड़ से

वातानुकुलित कक्ष
सहमी सतर्क
न चहचहाती न फुदकती
कोठरी की छत को
निहारती फद्गुदी
अपनी आँखों मे ढ़ोती
घनी अमरायी कानन की......

....टहनियों के झुंड मे
झूलते घोंसले
जहां चोंच फैलाये
बाट जोह रहे हैं
चिचियाते चूजे!
भटक गयी है गौरैया


रास्ता अपने चमन का !

मृत्यु!

                      

अपनी जीवन यात्रा का द्रष्टा हमेशा अपने से इतर दर्शक से एक पृथक धरातल पर खड़ा होता है. इस यात्रा के अवसान  बिन्दु पर जीवन के अवयव अनुपस्थित होकर मृत्यु की संज्ञा धारण कर लेते हैं, सही मायने में, मृत्यु का यह संस्कार उसी जीवन यात्री के प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है जिसने उसको भोगा है. बाकी के लिये तो यह मात्र एक घटना है, जिसके बाह्य रुप मात्र का वह अवलोकन करता है. इसीलिये अबतक मृत्यु की अवधारणा उस द्रष्टा की परिकल्पना पर टिकी है जिसने इस प्रक्रिया को स्वयं नहीं भोगा है. अस्तु, यह परिकल्पना मात्र है. सत्य का उल्लेख नहीं. निरा अटकलबाजी! सत्य को भाषित तो वह करेगा जिसने स्वयं मरने की इस प्रक्रिया को जीया है. अब भला ‘मरने’ को जीने वाला इसका उल्लेख करे तो कैसे? न चेतना , न वाणी, न इशारे, न कोई हरकत! सब कुछ पर लग गया विराम. इस विराम बिन्दु का तो कोई पता नहीं, आगे की सुध भला कैसे मिले .
             
               मरने के साथ ही अभिव्यक्ति तो मर गयी , लेकिन विचार? यह यक्ष प्रश्न है. विचारों का मरना और विचारों से मुक्त हो जाना, ये दो अलग अलग बातें हैं. विचार तो जीते जी भी मर सकते हैं, लेकिन मरने के बाद ‘मृतक’ विचारों से मुक्त हुआ है या नहीं. ये भी वो ‘मृतक’ ही जाने!

            हाँ, एक बात तो तय है कि नवजात शिशु विचारों से मुक्त होता है, जैविक संस्कारों से नहीं. कष्ट में रोना और खुशी में हँसना, ये जैविक संस्कार हैं. जैसे जैसे शिशु बड़ा होता है, विचारों का उद्भव और विकास होता है. इसका कारक बहिर्भूत जगत है. यानि विचारों के जन्म लेने की क्षमता अन्दर होती है और उनको जन्म देने के आवश्यक कारक बाहर. अब इस आधार पर मृत्यु रुपी विराम स्थल से प्रारम्भ होने वाली यात्रा को ही यदि जन्म मान लिया जाय, तो मृत्यु विचारों से मुक्ति प्रतीत होती है न कि विचार क्षमता और जैविक संस्कारों से. नवजात जैसे जैसे विकसीत होता है,
विचारो की वेलि लता फनफनाने लगती है. एक लता के सुखते ही कई नयी लतायें पनप जाती हैं. सुखने और पनपने की प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती है. विचारों का आना और जाना ही जीवन को सम्वेग देता है. एक विचार मरता है, कई नये जन्म ले लेते हैं. जीवन समाप्त, विचार समाप्त. जीवन से मुक्ति, विचारों से मुक्ति. सम्भवतः, मरने के क्षण भी वह अपने अंतिम विचार से जुझ रहा होगा. वह अंतिम विचार क्या होगा, बड़ा दिल्चस्प और रहस्यमय है.

             एक तरल प्रवाह बहकर एक बिन्दु पर थम जाये .  फिर, कुछ समय और स्थान के अंतराल पर एक पूर्णरुपेण नवीन तरल प्रवाह का प्रारम्भ हो जाये. नये तरल का स्वरुप, उसकी ऊर्जा, उसकी मात्रा, उसकी गति; सबकुछ नवीन सबकुछ अलग! जो प्रवाह थमा उसे तो देख लिया पर उसके आगे का अज्ञात है.  या जो अभी जन्मा है उसके वर्तमान प्रवाह की नवीनता तो दिख रही है लेकिन प्रवाह शुरु होने के विराम स्थल के पीछे के पुराने प्रवाह की कहानी अज्ञात है. तो फिर मरने के बाद और जनमने के पहले की पाण्डुलिपि अप्राप्त और अज्ञात है.

                 ठीक वैसे ही जैसे, दिन भर का थका श्रमिक रात को सुध बुध खोकर सो जाये. नींद की गहरायी में उसे किसी तेज गाड़ी मे सुला दिया जाय . फिर हज़ारो किलोमीटर दूर किसी दूसरी जगह गाढ़ी नींद में ही गाड़ी से उतारकर रख दिया जाय, जगने पर वह पुरानी स्मृति खोकर नये जगह पर नये लोगों के बीच एक नये वातावरण में एक नया दिन बिताये नयी मजूरी में. जहाँ बीते कल से दूर दूर तक उसका कोई सम्बन्ध न हो – विचार से लेकर स्मृति के स्तर तक. यही क्रम अनवरत जारी हो जहां पीछे और आगे के दिन अज्ञात हो, वहीं दिन मात्र याद हो जो जी रहा हो,
ज्ञात, अज्ञात, ज्ञात, अज्ञात और क्रमशः! ज्ञात को हम जीवन और अज्ञात को मृत्यु कह लेते हैं , हम इसे उल्टा भी कह लें तो क्या फर्क पड़ता है. अर्थात ज्ञात को मृत्यु और अज्ञात को जीवन. यानि हम जीवन मरें और मृत्यु जीयें. यह तो हमारी अपनी शब्द संरचना है, चाहे जो नाम दे दें.  किंतु इस नामकरण से परे जो प्रक्रिया है, वह बिल्कुल सत्य है. जन्म के पहले और मृत्यु के बाद – यहीं वह पड़ाव है जो अनंत प्रवाह (?) का  व्यवधान स्थल है जहाँ प्रवाह की निरंतरता टूट जाती है. इस अद्यतन दृश्यमान प्रवाह को भी यदि आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति में अगणित सूक्ष्म से सूक्ष्मतम तंतुओं मे सूक्ष्मदर्शी पैमाने पर विभाजित कर दें तो इस प्रवाह यात्रा में ही ह्में अनंत जीवन और मृत्यु के दर्शन होंगे.

             कोशिकाओं से शरीर का गठन तथा मानसिक तंतुओं का निर्माण होता है. कोशिकायें दीर्घजीवी नहीं होती. एक कोशिका कुछ ही दिनों में नष्ट हो जाती है और नयी कोशिका का निर्माण होता है. यह प्रक्रिया अनवरत जारी रहती है. यानि ‘जंतु-शरीर’ की मूल इकाई ‘कोशिका’ की भी वही दशा और दिशा है जो उस सम्पूर्ण ‘जंतु-शरीर’ की. इस प्रक्रिया की निरंतरता इतनी घनीभूत होती है कि छोटी अवधि में शरीर की असंख्य कोशिकाओं, उत्तकों एवम अंगों के विनष्ट और पुनः नवनिर्मित होने की क्रिया और उसके प्रभाव की सघनता का आभास मात्र भी नहीं होता. किंतु अवलोकन के अंतराल को यदि बढ़ाया जाय तो शरीर की अवस्थाओं का अंतर स्पष्ट हो जाता है. हर क्षण शरीर परिवर्तनशील है. तो, एक बड़े पैमाने पर हम मृत्यु को भी परिवर्तन की कला का एक अमिट बिन्दु क्यों न मानें जिसके पार का सन्धान हम नहीं कर पाते.
विचार-प्रणाली के स्तर पर मृत्यु विचारों के अनवरत प्रवाह का आकस्मिक विराम है. अर्थात, मन के संचय करने की प्रवृति नहीं बल्कि प्रक्रिया का पड़ाव है- मृत्यु.   

            
            अब हम तीन अवस्थाओं पर विचार करें. निद्रा, समाधि और मृत्यु. निद्रा अवचेतन से अचेतन तक की स्थिति है. दिल धड़कता है, साँसें चलती हैं, पसीना चलता है, कभी कभी तो पूरा शरीर भी भ्रमण करता है. चेतना का अभाव है निद्रा. शरीर के बाकी अंग पूरी तरह से सक्रिय रहते हैं. बस नींद आते ही मन सबकुछ छोड़ के विश्राम की मुद्रा में आ जाता है और नींद के जाते ही फिर सबकुछ वापस पकड़ लेता है. नींद में विचार बन्द लेकिन शरीर चालु. चेतना सुषुप्त. शरीर भी सुषुप्त. सुषुप्त, लेकिन जैविक रुप से गतिशील. अर्थात नींद में शरीर का जैविक विकस या क्षरण की प्रक्रिया नहीं रुकती. यानि ऐसा नहीं की बहुत दीर्घ काल तक सोकर कोई व्यक्ति अपने शरीर को दीर्घजीवी बना ले या वृद्धावस्था की ओर भ्रमणशील शरीर की गति पर रोक लगा ले.
 
             साधना में शरीर सुषुप्त नहीं, बल्कि मृतप्राय. लेकिन, चेतना जाग्रत, वो भी अपने सर्वोच्च स्तर पर. नींद और साधना में विचार के स्तर पर बस यहीं अंतर है कि नींद में विचार मर जाते हैं जबकि साधना में साधक ध्यान में आते ही विचार मुक्त हो जाता है. नींद से जागने पर निद्रा-पूर्व विचारों का विकार वापस आ जाने की गुंजाइश रहती है. साधना में ध्यान से पहले के विचारों का विकार पीछे ही छूट जाता है, मन निर्विकार हो जाता है और ध्यान से लौटने के बाद उन विकारों का लेश मात्र भी नहीं लौटता. शरीर भी वहीं रहता है, अर्थात समाधि से पहले शरीर को छोड़कर जहाँ जाता है , ध्यान से लौटते ही वही पकड़ लेता है. यहाँ शरीर सुषुप्त के साथ साथ जैविक आस्तित्व के स्तर पर लुप्त भी हो जाता है. इसीलिये यह मृतप्राय की स्थिति है.  समाधि की अवधि तक शरीर का समय रुक जाता है, उसकी जैविक आयु थम जाती है. समाधि के पहले से समाधि के टूटने तक शरीर कोई जैविक यात्रा तय नहीं करता. समाधि से शरीर की दीर्घजीविता को लम्बा किया जा सकता है. समाधि में शरीर समय निरपेक्ष हो जाता है.शरीर की जैविक प्रक्रियाएं चलाती रहती हैं लेकिन एक अलग 'टाइम सूट' में. प्रक्रिया की गति बदल जाती है. रसायन शास्त्र में प्रतिक्रिया की दर प्रतिकारकों के सक्रिय द्रव्यमान, मास कंसंट्रेशन, के गुणनफल का समानुपाती होता है. चूँकि समाधि में द्रव्यमान का महत भाग चेतन ऊर्जा में बदल गयी होती है, इसलिए शरीर के क्षरण की प्रतिक्रया में प्रतिकारक द्रव्यमान सांद्रता यानि एक्टिव मास कंसंट्रेशन घट जाने से प्रतिक्रिया धीमी हो जाती है और शरीर के क्षरण की प्रक्रिया काफी धीमी हो जाती है. कहीं यहीं वैज्ञानिक आधार तो नहीं है इस बात के पीछे की प्राचीन काल के साधक ऋषि हज़ारों साल तक तपश्चर्या निर्वाह कर जीवित रहते थे.  
मृत्यु की स्थिति इन दोनों से इतर चरम स्थिति है जहाँ शरीर अपनी जैविक यात्रा समाप्त कर देता है और उस शरीर का सवार अपनी सवारी के नष्ट होने की चरम अवस्था में अपने को विचारों से मुक्त कर लेता है अन्यथा विचारों के मरने के सिवा अन्य कोई रास्ता नहीं! मृत्यु में चेतना की ऊर्जा शून्य होते ही द्रव्यमान घटक अपनी महत्तम मात्रा को प्राप्त हो जाता है और क्षरण की रासायनिक प्रतिक्रिया अपने तीव्रतम दर को प्राप्त कर लेती है.और चेतना के लुप्त होते ही विचारों से भी मुक्ति मिल जाती है.
                                     

गरमी की छुट्टी

गरमी की छुट्टी
   (1)

थपेड़े लू के
थपथपाती गरमी
थम जाती है हवा
करने को गुफ्त-गु
बुढ़ी माँ से
झुर्रियों के कोटर में
थिरके दो पुलकित नयन
अर्थपूर्ण, गोल चमकदार
लोर से सराबोर!
निहारते शून्य को

    (2)

उठती गिरती लकीरें
मनभावन कल्पना की
सिसियाती हवा
माँ के आँचल में डोल
सोहर-से-स्वर
थरथराते होठ
काँपते कपोल
अर्ध्य-सामग्री सी अस्थियाँ
कलाई की, बन
वज्र सा कठोर....

  (3)

बुहार रही हैं
पथ उम्मीदों का
पसीने से धुली
आँखों में चमकती
धुँधली, गोधुली रोशनी 
उभरती तैरती
आकृतियाँ,
बेटे-बहू-पोते
एक एक को सहेजती
बाँधती वैधव्य के आँचल में

    (4)
कोर के गाँठ खोलती
फटी साड़ी की
निकालती
खोलती पसारती
सिकुड़ी अधगली
स्याह चिट्ठी
डरते-डरते,
न  जाने
कब सरक जाये

मुआ, ये गरमी की छुट्टी! 

Monday 25 July 2016

नर नपुंसक



दलित छलित मदमर्दित होती
दर-दर मारे फिरती नारी
कैसा कुल कैसी मर्यादा
लोक लाज ललना लाचारी

लंका का कंचन कानन ये
देख दशानन दम भरता है
छली बली नर बाघ भिखारी
अबला का यह अपहरता है

छल कपट खल दुराचार से
सती सुहागन हर जाती हो
देवी देती अगिन परीछा, 
पुरुषोत्तम का घर पाती हो


पतिबरता परित्यक्ता लांछित
कुल कलंकिनी घोषित होती
राम-राज का रजक और राजा
दोनों की लज्जा शोषित होती

राजनीति या राजधरम यह
कायर नर की आराजकता है
सरयू का पानी भी सूखा
अवध न्याय का स्वांग रचता है



हबस सभा ये हस्तिनापुर में
निरवस्त्र फिर हुई नारी है
अन्धा राजा, नर नपुंसक
निरलज ढीठ रीत जारी है !


Saturday 28 May 2016

बैक-वाटर

           (१)

अल्हड़, नवयौवना नदी
फेंक दी गयी! या कूदी।
पिता पहाड़ की गोदी से,
सरकती, सरपट कलकल
छलछल, छैला समंदर
 की ओर।
पथ पर पसरा पथार,
खाती, पचाती,
घुलाती मिलाती।
ऊसर अंचल थाती
आँचल फैलाती।
कूल संकुल मूल,
नमी का बीज बोती
संगी साथी सबको धोती।
स्वयं पापो की गठरी ढोती!

         (२)

गाँव- गँवई,शहर नगर
ज़िंदा-मुर्दा, लाश,ज़हर
टूटे फूटे गन्दे नालों
का काला पानी,
सल्फर सायनाइड की बिरयानी।
सबकुछ चबाती चीखती।
प्रदुषण के नए भेद सीखती,
हहकारती, कुलबुलाती,
पसरती, सूखती
जवानी लुटाती!
कभी नहरें पी जाती
फिर निगोड़ा सूरज
सोखने लगता।
दौड़ती, गिरती पड़ती
अपने समंदर से मिलती।

          (३)

समंदर!
उसे बाँहों में भरता।
लोट लोट मरता।
लहरों से सजाता।
सांय सांय की शहनाई बजाता
अधरों को अघाता
और रग रग पीता।
फिर दुत्कार देता
वापस ‘ बैक-वाटर’ में।
जैसे, राम की सीता!
वेदना से सिहरती
बेजान, परित्यक्ता
आँसुओं में धोती, पतिता।
सरिता, यादों को
अपने पहाड़ से पिता की!

Friday 13 May 2016

मोर अँगनैया

बावरी बयार बाँचे
आगी लागी बगिया.
जोहे जोहे  बाट जे
बिलम गयी अँखिया .
सुरज धनक गये
झुलस गयी भुँइया.
दुबकी दुपहरी
बरगद के छैंया .

गौरैया,
ले रे बलैया,
मोर अँगनैया.

चप चप कंचुकी
चिपक गयी अँगिया.
छुइमुइ छतिया
सरम गयी सखियाँ.
मोंजरे अमवा के
पतवा पतैया.
टपके पसीनवा
चट चट चटैया.

गौरैया,
ले रे बलैया,
मोर अँगनैया.

पिआसे परान फाटे,
उमस कसैया.
पनघट तरसत
ताल तलैया.
जिअरा जोआर जारे
हिअरा हुकार मारे.
सगरो गोहार करे
आव पुरवइआ.

गौरैया,
ले रे बलैया,
मोर अँगनैया.

सागर हिलोरा ले
घटवा अकोरा ले.
घन घरसन करे
मेघ बरसइआ.
चेतन जगत भयो
हरी हरीअइआ.
गुलशन गुलज़ार
चहके चिरैया.

गौरैया,
ले रे बलैया,
मोर अँगनैया. 

Monday 18 April 2016

नयन-नीर

    
    (1)
डेरा डाले पलकों में
 पल-पल तुम्हारी,
गिनूँ थरथराहट
 पुतलियों की,
गोल-चन्द्राकार-पनैला,
तैरूँ, नील गगन में !
अगणित सपनों के मोती.
डूबते,तैरते,उतराते
और बन्ध जाते
ख्वाहिशों के रेशमी सूत में.


   (2)
निमिष मात्र भी नहीं
ठहरती पुतलियाँ
अपनी जगह पर,
 उठती गिरती
जैसे सपनों का
उठना और ढ़हना,
और फिर
 बह जाना
निःशेष!
आँखों के पानी में.


     (3)
उतरा जल नीचे
धरती की छाती का.
कलमुँहे सुरज ने सोखा
पानी, कमर से
छरहरी नदी का.
समेटे सारे शर्मो हया
व ज़िन्दगी की रवानी
तू अनवरत रोती
और ढ़ोती
आँखों में पानी !

     (4)
नयन नीर से तुम्हारे
उझक उझक झाँकती
नारी की लज्जा
सदियों से संचित,
उसी में घुलता
नंगा, निर्लज्ज !  
नरपशु समाज !!
और अगोरती अस्मिता
तुम, फिर भी दाबे
उन्हीं पलकों में !

बेटी-बिदा

बेटी विदा, विरह वेला में
मूक पिता ! क्या बोले?
लोचन लोर , हिया हर्षित
आशीष की गठरी खोले.

अंजन-रंजित,कलपे कपोल
कंगना,बिन्दी और गहना,
रोये सुबके सखी सलेहर्
बहे बिरह में बहना.

थमा पवन, सहमा सुरज!
हर अँखियन बदरी छायी,
पपीहा पी के पीव पली ,
कुहकी कोयल करियायी.

शक्ति शिव के संग चली
मुरछित माहुर् मन मैना,
सुबके सलज सजल सुकुमारी
ममता मातु नीर नयना.

सत्य-संजीवन चिर चिरंतन
वेदांत उपनिषद गाते,
भयी आत्मा बरहम की
अब छूटे रिश्ते-नाते ! 

मृग-मरीचिका

तपोभूमि में तप-तप माँ ने
ममता का बीज बोया,
 वत्सल जल से बड़ॆ जतन से
पुनः पिता ने उसे भिगोया.

शिशु तरु वो विकसित होकर
तनुजा तेरा रुप पाया है,
देव पितर के पीपल तल में
कुसुमित किसलय तुम छाया है.

जीवन के मेरे मरुस्थल में
मृग मरीचिका सी तुम आयी,
चकाचौंध चमत्कृत चक्षु ,
चारु चन्द्र चंचल चित्त छायी.

दृग नभ से झर झर कर अविरल
भावों की अमृत वारीश,
अमरावती श्री शैल शिखर से
निःसृत सिक्त अखंड आशीष.

मृदंग ढ़ोल शिव डमरु बाजे
सुन शहनाई सुरीले ताल ,
वीथि सुवास यूथि विलास
हुआ निहाल यह विश्व-विशाल

Friday 6 November 2015

बापू

उठ न बापू! जमुना तट पर,
क्या करता रखवाली ?
तरणि तनुजा काल कालिंदी,
बन गयी काली नाली।
राजघाट पर राज शयन!
ये अदा न बिलकुल भाती।
तेरे मज़ार से राज पाठ,
की मीठी बदबू आती।
वाम दाम के चकर चाल,
में देश है जाके भटका।
ब्रह्मपिशाच की रण भेरि
शैतान गले में अटका।
'हे राम'की करुण कराह,
में राम-राज्य चीत्कारे।
बजरंगी के जंगी बेटे,
अपना घर ही जारे।
और अल्लाह की बात,
न पूछ,दर दर फिरे मारे।
बलवाई कसाई क़ाफ़िर,
मस्ज़िद में डेरा डारे।
छद्म विचार विमर्श में जीता,
बुद्धिजीवी, पाखंडी।
वाद पंथ की सेज पर,
सज गयी ,विचारों की मंडी।
बनते कृष्ण, ये द्वापर के,
राम बने, त्रेता के।
साहित्य कला इतिहास साधक,
याचक अनुचर नेता के।
गांधीगिरी! अब गांधीबाजी!
बस शेष है, गांधी गाली।
उठ न बापू!जमुना तट पर,
क्या करता रखवाली?

Monday 26 October 2015

परम ब्रह्म माँ शक्ति सीता

मातृ शक्ति, जनती संतति
चिर चैतन्य, चिरंतन संगति।
चिन्मय अलोक, अक्षय ऊर्जा
सृष्टि सुलभ सुधारस सद्गति।।
सृजन यजन, मृदु मंगलकारी
जीव जगत की तंतु माता।
वाणी अधर अमृत रस घोले
सुगम बोधमय, जीवन दाता।।
भेद असत् कर सत् उद्घाटन
ज्ञान गान मधु पावन लोरी।
करुणाकर अमृत रस प्लावन
वेद ऋचा मय पोथी कोरी।।
धन्य जनक धन जानकी तोरी
और धन्य! वसुधा का भ्रूण।
अशोक वाटिका कलुषित कारा
जग जननी पावन अक्षुण्ण।।
प्रतीक बिम्ब सब राम कथा में
कौन है हारा और कौन जीता।
राम भटकता जीव मात्र है
परम ब्रह्म माँ शक्ति सीता।।