Sunday 2 April 2017

सृजन के फूल

मैं चिर प्रणय की प्रात लाली/
तू छलना निर्वात आली//
मैं पुष्प प्रीत पराग वेणु/
स्वाति सुधा संग सीप रेणु//

मैं चमकता स्वर्ण शबनम/
दूध सी तू रजत पूनम//
ब्रह्माण्ड के आकाश में/
तू रासे विश्व लास में//   

प्रणय विजय में तुम्हारी/
प्रीत का पय पान कर//
प्रेम तरल अधर रस से/
अमर जल को छानकर//

घोल हिय के पीव अपना/
पान करता थारकर//
तू हार जाती जीतकर/
मैं जीत जाता हारकर!//

जब सहज यह प्रकृति /
अंतर्द्वंद्व है किस बात का//
भाव अभाव, सत असत/
जीव-ब्रह्म, असमानता //


 भावों की असमानता से/
 बीज रचना के बटोरूँ //
 आंसू के फिर नयन घट में /
उर्वरक वो प्रीत घोरुं //

मै समर्पित, मौन प्रिये /
 विरह विगलित गरल पीलें//
चल न मन एकांत में तू/
 जहां सृजन के फूल खिले//

Friday 31 March 2017

चैता की तान

समीर शरारत सों सों करता/
अमराई की आहट में//
सरमाती सुस्ताती धरती/
चुलबुल चैत की चाहत में//

शीत तमस ने किया पलायन/
सूरज ने ऊष्मा घोली//
कोकिल कुंजित चित चितवन में/
हारिल की हरी डाली डोली//

रेतों की चादर को ओढ़े/
अलसाई मुरझाई दरिया//
सरसों के पीले फूलों को/
सूंघती उंघती धुप दुपहरिया//

तिल तिल कर दिन पांव पसारे/
शरमाई सकुचाई रातें//
नयी नवेली दुल्हनिया की/
रही अधूरी प्यार की बातें// 

गिलहरियों की कानाफुसी/
मंजरी महके बाग़ बगान//
पंचम में आलाप गुंजरित/
स्वर लहरी चैता की तान// 

Monday 27 March 2017

महादेवी वर्मा : जन्मदिवस स्मृति

चन्द्रमा मन की भावनाओं का प्रतिनिधि देवता माना गया है. पूर्णिमा तिथि को राकेश अंतरिक्ष में अपनी सम्पूर्ण कलाओं में विराजमान होते हैं. मान्यता है इस तिथि को जन्मे जीव में वह अपने भाव सौष्ठव की अद्भुत भंगिमा घोल देते हैं. २५ मार्च १९०७, फाल्गुन पूर्णिमा, को अद्भुत भाव गंगोत्री को अपने में समाहित किये एक विलक्षण कली ने वसुधा के अंक को सुशोभित किया . इस बिटिया का जन्म उस कुल  के लिए एक अद्भुत वरदान था क्योंकि इससे पिछले २०० वर्षों में इस परिवार ने किसी बेटी की मुस्कराहट का सौभाग्य नहीं भोगा था. जाहिर है पुत्री के लालन पालन और लाड़ प्यार में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी.पितामह फारसी और उर्दू ही जानते थे . उन्होंने अपने पुत्र को अंग्रेजी पढ़ाई . अंग्रेजी एम ए में विश्वविद्यालय में उन्होंने प्रथम स्थान पाया. उन्हें हिंदी नहीं आती थी. नन्ही बिटिया की पढ़ाई लिखाई का पूरा ख्याल रखा इस फर्रुखाबादी परिवार ने. प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा इंदौर में हुई. संस्कृत, चित्रकला, संगीत आदि की शिक्षा दी गयी. ९ वर्ष की अल्प आयु में हाथ पीले कर दिए गए. अल्प व्यवधान के अंतराल के पश्चात् पुनः १९१९ में इलाहबाद से फिर पढाई ने पटरी पकड़ी . १९३२ में प्रयाग विश्वविद्यालय ने संस्कृत में स्नाकोत्तर की उपाधि प्रदान की. माँ वीणापाणी की यह श्वेत पद्म-कली भारतीय वांगमय की वाक्देवी रूप में महादेवी वर्मा के नाम से प्रतिष्ठित हुई.
धुर सनातनी परिवेश में पनपी महादेवी के बाल स्वर में रुढिवादिता के प्रति विद्रोह के ज्वार फूटे.अपने जीवन के सप्तम वसंत में उनको परिवार के पंडितजी ने राधा द्वारा कृष्ण से बांसुरी मांगने के प्रसंग को समझाकर " बोलिहै नाहीं " समस्या की पूर्ति करने को कहा. महादेवी ने व्यंग्य उद्घोष कर दिया :-
    "मंदिर के पट खोलत का ,
    ये देवता तो दृग खोलिहै नाहीं.
    अक्षत फूल चढाऊं भले ,
    हर्षाये कबौं अनुकुलिहैं नाहीं.
    बेर हज़ार शंखहि फूंक ,
    पै जागिहैं ना अरु डोलिहैं नाहीं .
    प्रानन में नित बोलत हैं
    पुनि मंदिर में ये बोलिहैं नाही.
प्रत्यक्षतः ठाकुरजी के विरोधी स्वर पर माँ और पंडितजी की अप्रसन्नता झेलने के प्रसंग पर महादेवी ने खुद स्वीकारा है "संभवतः मेरे अवचेतन मन में मेरे दर्शन या विचार की दिशा बन रही होगी ".


Wednesday 22 March 2017

यादों के गलियारे

अभी सड़क मार्ग से कटिहार और पूर्णिया की दो दिवसीय लम्बी यात्रा पर   निकला हूँ .गतिशीलता में लिखने का जोखिम उठाने का एक अलग आनंद है. मुझे सड़क मार्ग से यात्रा बहुत पसंद है. बिहार और झारखण्ड , ये दो राज्य मेरे प्रभार में हैं.इनका चप्पा चप्पा मैं घूम लेता हूँ.प्राचीन भारत का इतिहास इन्ही क्षेत्रों का इतिहास है. पश्चिम में हड़प्पा और मोहेंजोदड़ो के अवशेष को छोड़कर इतिहास की प्राचीनता का लगभग सर्वांग इन्ही क्षेत्रों में बिखरा है.पाटलिपुत्र करीब १००० वर्षों तक लगातार सर्वोच्च राजनितिक सत्ता और संप्रभुता का अक्षुण्ण केंद्र बना रहा. वैशाली लोकतांत्रिक गणराज्य की अवधारणा का उत्स है.
अभी लिखते लिखते मेरी नजरे खिड़की के बाहर के नजारे पर चली गयी. मोकामा पुल पर गाडी ने धावा बोल दिया है . गंगा की छाती को नापता विशाल रेल सह सड़क पुल -दो मंजिला. मै जय जय काली के जय घोष के साथ धुंआ उगलती रेल गाडी पर सवार होकर भी इस पुल को पार कर चुका हूँ.अब तो बिजली के पों पों वाले रेल इंजिन आ गए हैं. इस पुल का डिजाइन मेरे संस्थान आई आई टी रूड़की के स्नातक इंजिनियर और प्रोफेसर घनानंद पांडे ने किया था.उन्हें पद्म बिभूषण से अलंकृत किया गया था. यह तब का ज़माना था जब इस देश में शुचिता थी और क्लर्क छाप नौकरशाहों की राजनितिक चमचागिरी परवान नहीं चढ़ी थी. मेरे शाही नौकर मित्र इस कटु सत्य पर बिफरकर अपना समय जाया न करे.
     हाँ, सामने साफ़ साफ़ दिख रहा है पतित पाविनी माँ भागीरथी की ममता की अपार जल राशि का अपरिमेय विस्तार. सूरज की किरणों में चमचमाता विशाल स्वर्णिम तरल थाल! दूसरे छोर पर आलसी की मानिंद लेटा सिमरिया घाट. और हमारी माँ की अंत्येष्टि भूमि. कर्क रोग(ब्लड कैंसर) के आगोश में काल की वक्र कुटिल नज़रो से घिरी माँ को टाटा मेमोरियल अस्पताल मुंबई  के कर्तव्यनिष्ठ चिकित्सको की लाख कोशिशें नहीं बचा सकी.१९९२ में मेरी माँ ने सिमरिया के इसी घाट पर अपनी ममता मञ्जूषा के साथ मेरा संरक्षण भगवान शिव की जटा वासिनी  गंगा को सौंप दिया था और अपने गंगा जल भरे लोचन से माँ को मुखाग्नि देकर मैंने उसे अंतिम अग्नि स्नान कराया था. तरल आँखों से निःसृत अश्रु वेग रोम रोम को प्रकम्पित कर रहा था. जीवन का रहस्य आहिस्ता आहिस्ता मन में रास्ता बना रहा था. तुलसी का 'क्षिति ,जल, पावक ,गगन, समीरा ' समझ में आने लगा था. यह मेरे जीवन का सबसे अद्वितीय महत्वपूर्ण काल था जहां से जीवन दर्शन और आध्यात्मिक सूझ का ' मेटा मौर्फोसिस ' होना शुरू हो गया है और यह प्रक्रिया शायद मेरे अग्नि स्नान के उपरांत भी घटित होता रहे- यह भविष्य के गर्भ में है. मेरी ' माँ ' कविता उसका स्मृति आख्यान है.तब मेरी शादी हुए चार साल ही हुए थे.........दृगजल थोड़े विराम की याचना कर रहे हैं........
          ...................
          ..... हाँ , अब सिमरिया गाँव के करीब से गुजर रहे हैं. भारतीय साहित्य का पालना. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्म भूमि. वह पवित्र वसुधा जिसकी हर रेणु देशभक्ति की सिंदूर से सजी धजी सुहागन है. जहां का हर किशोर ताल ठोकता है "पर फिरा हमें गांडीव गदा , लौटा दे अर्जुन भीम वीर." दूर से ही उनकी आदमकद प्रतिमा और दिनकर द्वार को प्रणाम करता हूँ. सीढ़ी चढ़ते वक़्त लड़खड़ाते नेहरु को अपनी बलिष्ठ भुजाओं में थामकर दिनकर ने कहा था " जब राजनीति लड़खड़ाती  है तो साहित्य उसे थाम लेता है." ये तब की बात है जब साहित्य में मूल्यों का मूल्य था और 'दाम-वाम' के नाम पर साहित्य में पुरस्कार खरीदे और लौटाए नहीं जाते थे. 



          ..........गाडी तेलशोधक कारखाना ,बरौनी अब छोड़ रही है. यहाँ एक विद्युत् ताप घर भी है. स्वतंत्रता के उपरांत सोवियत संघ के सहयोग से आधुनिक भारत के ये मंदिर बने थे. यहाँ पूर्वोतर रेलवे का डिवीज़न और बहुत बड़ा जंक्शन है. बेगुसराय जिला के क्षेत्र उपजाऊ और भूमिपतियों के क्षेत्र हैं. आश्चर्य है कि यह मार्क्सवाद की भी बड़ी उर्वर भूमि है. कौमुनिस्टों के इस गढ़ को भारत का लेनिनग्राद भी कहते हैं. जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में "भारत तेरे तुकडे होंगे, इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह " के नारे के आरोपित उद्घोषक छात्र संघ अध्यक्ष ' कन्हैया ' भी इसी क्षेत्र के हैं. चुनाव में  ' बूथ कैप्चरिंग ' की विचारधारा ने यही मूर्त अभिव्यक्ति पायी थी. मेरे पिताजी यहाँ के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी और अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश थे.तब मै नया नया नौकरी में आया था और यदा कदा यहाँ आया करता था. तब बिहार मंडल आन्दोलन की आग में जल रहा था और मेरी अगडी जाति , भूमिहार, (बेगुसराय जिला भूमिहार भूपतियों के वर्चस्व वाला जिला है.) से होने के कारण यह क्षेत्र सुरक्षित था.
          हां, तो मैं बिहार की गौरव गाथा गा रहा था.संभवतः रोम के सिवा दुनिया में कोई दूसरा पाटलिपुत्र नहीं जो करीब १००० वर्षों तक लगातार ऐसे विशाल शक्तिशाली भारत की सत्ता और संप्रभुता का केंद्र रहा हो, जिसके बारे में प्रसिद्द इतिहासकार ' बाशम ' का कहना है कि इतना विशाल, वैभवशाली एवं शक्तिशाली भारत भविष्य के लिए कल्पना मात्र है. कला. साहित्य, विज्ञान , गणित, दर्शन, अध्यात्म  सभी  विधाओं का सिरमौर. ध्रुव, माँ सीता , लव् ,कुश, राजा जनक, गौतम ऋषि,अहल्या, ऋतंभरा, रम्भा, कालिदास, हिन्दू षडदर्शन ,विद्यापति, समुद्रगुप्त,  बिम्बिसार, अजातशत्रु , अशोक, चन्द्रगुप्त मौर्य , धन्वन्तरी, सुश्रुत, चरक, चाणक्य, कौटिल्य, वात्स्यायन , विष्णुगुप्त, भास्कर, आर्यभट, कालिदास , बुद्ध ,महावीर  और न जाने कितने अनगिनत भारत माँ के विलक्षण लाल रत्नों की जन्म भूमि और कर्मभूमि! नालंदा विश्वविद्यालय , विक्रमशिला विश्व विद्यालय जैसे शिक्षा के गौरव संस्थान इसी धरती पर खड़े हुए थे. फाह्यान, ह्वेन सांग जैसे विश्व भ्रमणकारियों की विश्रामस्थली बिहार नेपाल की तराई से सटा वैदिक ऋचाओं का वह रचना स्थल है जो  'कवि  जय शंकर प्रसाद' के शब्दों में:
          "हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार
          उषा ने हँस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरक हार."
         जननी, जन्मभूमि स्वर्गादपि च गरीयसी. आज शायद इस बिहार यात्रा में ये बाते याद आनी  इसलिए भी लाजिमी है कि आज बिहार दिवस है.
         २२ मार्च १९१२ को बंगाल से काटकर बिहार अलग हुआ था . राजधानी पटना और ग्रीष्म राजधानी पुरी. बाद में १ अप्रैल १९३६ को ओडिशा अलग प्रान्त बना. सबको बिहार दिवस की शुभकामनाएं.
          गाडी धीरे धीरे बेगुसराय छोड़ने को तत्पर है. मेरे नयनो के कोर  नमकीन होकर चुपके से राष्ट्रिय राज मार्ग के किनारे उस घर पर अटक गए जहां हमने अपने समय कभी अपनी माँ के साथ गुजारे थे . मेरी टकटकी निगाहों ने गाडी की गति में तेजी से ओझल होते हुए उस मंदिर को भरे रुंधे मौन स्वर से प्रणाम किया जहां मैंने अपनी माँ को उसके अल्पकालीन पृथ्वी प्रवास का अंतिम छठ व्रत कराया था.
          इससे पहले वह मेरे साथ ही तेजपुर ,असम में रह रही थी. मेरी ज़िन्दगी के आनंद  और उत्कर्ष का वह स्वर्ण काल था. मै एन टी पी सी से त्यागपत्र देकर भारतीय इंजीनियरी सेवा में आया था और असम में तैनाती हुई थी . तेजपुर में रेडियो स्टेशन बनाना था. मै, मेरी पत्नी और छोटी नन्ही बिटिया ने माँ के साथ मिलकर अपनी बड़ी बेटी का दूसरा जन्मदिन साथ साथ मनाया था. फिर पिताजी माँ को वापस ले गए थे. विदा लेती माँ रिक्शे पर पीछे मुड़कर अपलक मूसलाधार बरसाती आँखों से मुझे निहारे जा रही थी और मै हतशून्य , धुंधली आँखों से उसकी आकृति को बिंदु से बिन्दुतर बनाता चला गया. स्मृति पटल पर वे ताज़े बिंदु अभी भी ज्यों के त्यों तैर रहे हैं. लेखनी थम गयी है यादों के उन गलियारों में!........!!!
   

Monday 20 March 2017

सपनों के साज

दुःख की कजरी बदरी करती , 
मन अम्बर को काला . 
क्रूर काल ने मन में तेरे , 
गरल पीर का डाला . 
ढलका सजनी, ले प्याला , 
वो तिक्त हलाहल हाला// 

मुख शुद्धि करूं ,तप्त तरल 
गटक गला नहलाऊं , 
पीकर सारा दर्द तुम्हारा , 
नीलकंठ बन जाऊं . 
खोलूं जटा से चंदा को, 
पूनम से रास रचाऊं // 

चटक चाँदनी की चमचम 
चन्दन का लेप लगाऊं , 
हर लूँ हर व्यथा थारी 
मन प्रांतर सहलाऊं . 
आ पथिक, पथ में पग पग 
सपनों के साज सजाऊं //

Friday 17 March 2017

तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

मीत मिले न मन के मानिक
सपने आंसू में बह जाते हैं।
जीवन के विरानेपन में,
महल ख्वाब के ढह जाते हैं।
टीस टीस कर दिल तपता है
भाव बने घाव ,मन में गहरे।

तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

अंतरिक्ष के सूनेपन में
चाँद अकेले सो जाता है।
विरल वेदना की बदरी में
लुक लुक छिप छिप खो जाता है।
अकुलाता पूनम का सागर
उठती गिरती व्याकुल लहरें।

तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

प्राची से पश्चिम तक दिन भर
खड़ी खेत में घड़ियाँ गिनकर।
नयन मीत में टाँके रहती,
तपन प्यार का दिनभर सहती।
क्या गुजरी उस सूरजमुखी पर,
अंधियारे जब डालें पहरे।

तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

वसुधा के आँगन में बिखरी,
मैं रेणु अति सूक्ष्म सरल हूँ।
जीव जगत के माया घट में,
मैं प्रकृति भाव तरल हूँ।
बहूँ, तो बरबस विश्व ये बिहँसे
लूँ विराम,फिर सृष्टि ठहरे।

तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

Friday 10 March 2017

जुलमी फागुन! पिया न आयो.

जुलमी फागुन! पिया न आयो!


बाउर बयार, बहक बौराकर
तन मन मोर लपटायो.
शिथिल शबद, भये भाव मवन
सजन नयन घन छायो.


मदन बदन में अगन लगाये
सनन  सनन  सिहरायो
कंचुकी सुखत नहीं सजनी
उर, मकरंद  बरसायो .


बैरन सखियन, फगुआ गाये
बिरहन  मन झुलसायो.
धधक धधक, जर जियरा धनके
अंग रंग सनकायो.


जुलमी फागुन! पिया न आयो!


टीस परेम-पीर, चिर चीर 
चित चोर चितवन  सहरायो
झनक झनक पायल की खनक
सौतन, सुर ताल सजायो


चाँद गगन मगन यौवन में
पीव  धवल  बरसायो
चतुर चकोरी चंदा चाके
प्रीत अमावस, छायो


कसक-कसक मसक गयी अंगिया
बे हया,  हिया  हकलायो
अंग अनंग, मारे पिचकारी
पोर पोर भींज जायो


जुलमी फागुन! पिया न आयो!


बलम नादान, परदेस नोकरिया
तन  सौ-तन, रंगायो
सरम,धरम, मरम, नैनन नम
मन मोर, पिया जग जायो.


कोयली कुहके,पपीहा पिहुके
पल पल अँखियाँ फरके
चिहुँक-चिहुँक मन दुअरा ताके
पिया, न पाती कछु पायो


बरसाने मुरझाई राधा
कान्हा, गोपी-कुटिल फंसायो
मोर पिया निरदोस हयो जी
फगुआ मन भरमायो


जुलमी फागुन! पिया न आयो!

Friday 24 February 2017

पाथर कंकड़

लमहे-दर-लमहे, कहे अनकहे
फलित अफलित, घटित अघटित
सत्व-तमस, तत्व-रजस
छूये अनछूये,दहे ढ़हे
हद-अनहद, गरल वेदना का,
प्रेम तरल, सृष्टि-प्रवाह बन
बूँद-दर-बूँद,
गटकते रहे
नीलकंठ मैं !

अपलक नयन, योग शयन
गुच्छ-दर-गुच्छ विचारों की जटायें
लपेटती भावनाओं की भागीरथी
उठती गिरती, सृजन विसर्जन
चंचल लहरें घुलाती
चाँदनी की शांत मीठास
जगन्नाथ की ज्योत्स्ना
से जगमग
चन्द्रशेखर मैं !

स्थावर जंगम, तुच्छ विहंगम
कोमल कठोर, गोधूली भोर
साकार निराकार, शून्य विस्तार
अवनि अम्बर, श्वेताम्बर दिगम्बर 
ग्रह विग्रह, शाप अनुग्रह
प्रकृष्ट प्रचंड, प्रगल्भ अखंड
परिव्राजक संत, अनादि अनंत
पाथर कंकड़
शिवशंकर मैं !

















Tuesday 21 February 2017

नर- नारी.

तू रामायण, मैं सीता,
तू उपनिषद, मैं गीता.

मैं अर्थ, तू शब्द,
तू वाचाल, मैं निःशब्द.

तू रूप, मैं छवि,
तू यज्ञ, मैं हवि.

मैं वस्त्र, तू तन
तू इन्द्रिय, मैं मन.

मैं त्वरण, तू गति
तू पुरुष, मैं प्रकृति.

तू पथ, मैं यात्रा
मैं ऊष्मा, तू मात्रा.

मैं काल, तू आकाश
तू सृष्टि, मैं लास.


मैं चेतना, तू अभिव्यक्ति,
तू शिव, मैं शक्ति.

तू रेखा, मैं बिंदु,
तू मार्तंड, मैं इंदु.

तू धूप, मैं छाया,
तू विश्व, मैं माया.

मैं दृष्टि, तू प्रकाश
मैं कामना, तू विलास.

तू आखर, मैं पीव
मैं आत्मा, तू जीव.

मैं द्रव्य, तू कौटिल्य,
मैं ममता, तू वात्सल्य.

तू जीवन, मैं दाव,
तू भाषा, मैं भाव.

मैं विचार, तू आचारी,
तू नर, मैं नारी.  
      

   

Wednesday 8 February 2017

ज्ञाता,ज्ञान और ज्ञेय


     (१)
चटकीली चाँदनी की
दुधिया धार में धुलाई,
बांस की ओरी में टंगी सुतली.  
हवा की सान पर
झुलती, डोलती
रात भर खोलती,  
भ्रम की पोटली
मेरी अधजगी आँखों में.
किसी कृशकाय कजराती  
धामिन सी धुक धुकाकर,
बँसवारी सिसकारती रही
मायावी फन की फुफकार.

       (२)
कुतूहल, अचरज, भय, विस्मय
की गठरी में ठिठका मेरा 'मैं'.
बदस्तूर उलझा रहा,
माया चित्र में, होने तक भोर.
उषा के  अंजोर ने
उसे फिर से, जब
सुतली बना दिया.
सोचता है मेरा 'मैं'
इस भ्रम भोर में,
वो सुतली कहीं 
मेरे होने का
वजूद ही तो नहीं?


   (३)
दृश्यमान जगत
की बँसवारी में
मन की बांस
से लटकी सुतली
अहंकार की.
सांय सांय सिहरन
प्राणवंत पवन  
बुद्धि की दुधिया चांदनी
में सद्धःस्नात,
भर विभावरी
भरती रही भ्रम से
जीवन की गगरी.
    
     (४)
परमात्मा प्रकीर्ण प्रत्युष
चमकीली किरण
की पहली रेख  
मिटा वजूद, प्रतिभास सा,
जो सच नहीं!
शाश्वत सत्य का
सूरज चमक रहा था
साफ साफ दिख रहे थे
बिम्ब अनेक,
ज्ञाता,ज्ञान और ज्ञेय
हो गए थे किन्तु

सिमटकर एक!      

Tuesday 7 February 2017

सजीव अहंकार

मेरी उचाट आत्मा
भर नींद जागती रही.
सपनों में ही सही!
और ये बुद्धिमान मन
जागे जागे सोया रहा.
अहंकार फिर भी सजीव था!

एक रात की नींद में जगना
खोये में जागना
न हो के होना
अभाव में भाव
और मौन में संवाद,
जहां स्थूल से सूक्ष्म सरक जाता है!

दूसरा, दिन का सपना
जगे जगे खोना
हो के न होना
भाव में अभाव
और आलाप में मौन  
जहां सूक्ष्म स्थूल में समा जाता है!

Saturday 10 December 2016

जय नोटबंदी!


--------------------
भीड़ भाड़, कशमकश!
धक्कामुक्की, ठेलाठेली।
जिनगी की लाइन मे खड़ा मैंं
नए 'अर्थ' ढूंढते संगी सहेली !

जिनगी जीता , पंक्तिबद्ध!
खुद को आड़े तिरछे हारकर।
मीठे भरम में जीता ज़िन्दगी ,
गिरवी रखकर  दिहाड़ी पर।

लाइन संसरती, कछुए सी, लेकर
मेरा सफ़ेद श्रम, उसका काला धन।
करते कौड़ी कौड़ी स्याम श्वेत
मेरे मेहनत कश स्वेद कण।

दुखता, बथता, टटाता
प्रताड़ित पैर,पीड़ित पोर पोर!
पुराने नोट, ढलती काली शाम
उगती दुहज़ारी गुलाबी नरम भोर!

नयी परिभाषाएं रचता
वैशाली का लिच्छवी गणतंत्र।
नकली-काला-आतंकी!धन तंगी.
कौटिल्य कुटिल अर्थ मौर्य मन्त्र।

कैशलेस , डिजिटल समाज,
मंदी.....फिर ... आर्थिक बुलंदी।
जन धन आधार माइक्रो एटीएम
आर्थिक नाकेबंदी! जय नोटबंदी!!

Saturday 19 November 2016

" गली में दंगे हो सकते हैं "

" गली में दंगे हो सकते हैं " भारत के न्याय निकाय के मुखिया का यह वक्तव्य न्याय के मूल दर्शन (जुरिस्प्रुदेंस) के अनुकुल नहीं प्रतीत होता है. एक गतिशील और स्वस्थ लोकतंत्र में संस्थाओं को अपनी मर्यादाओं के अन्तर्गत अपने दायित्व का निर्वाह करना अपेक्षित होता है.न्याय तंत्र संभावनाओं पर अपना निर्णय नहीं सुनाता. 'हेतुहेतुमदभुत' का न्याय दर्शन में निषेध है.
'दंगाइयों को यह आभास दिलाना की यह अवसर उनकी क्षमता के अनुकूल है' कहीं से भी और किसी भी प्रकार एक स्वस्थ, सुसंकृत एवं सभ्य समाज में किसी भी व्यक्ति को शोभा नहीं देता . ऐसी गैर जिम्मेदार बातों से वह व्यक्ति जाने अनजाने स्वयं उस संस्था की अवमानना कर बैठता है जिसकी गरिमा की रक्षा करना उसका प्रथम, अंतिम एवं पवित्रतम कर्तव्य होता है.
समाज में कार्यपालिका को उसकी त्रुटियों का बोध कराना, उसके कुकृत्यों को अपनी कड़ी फटकार सुनाना, असंवैधानिक कारनामों को रद्द करना और प्रसिद्द समाज शास्त्री मौन्टेस्क्यु के 'शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत ' के आलोक में अपनी स्वतंत्र सत्ता को कायम रखना एक संविधान चालित लोकतंत्र में न्यायपालिका का पवित्र एकाधिकार है.भारत की न्यायपालिका का चरित्र इस मामले में कुछेक प्रसंगो को छोड़कर त्रुटिहीन, अनुकरणीय एवं अन्य देशों के लिए इर्ष्य है.यहीं कारण है कि भारत की जनता की उसमे अपार आस्था और अमिट विश्वास है और यहीं आस्था और विश्वास न्याय शास्त्र में वर्णित न्यायशास्त्री केल्सन का वह 'ग्रंड्नौर्म' है जिससे भारत की न्यायपालिका अपनी शक्ति ग्रहण करती है.
संस्थाओं का निर्माण मूल्यों पर होता है और उन मूल्यों के संवर्धन, संरक्षण और अनुरक्षण उन्हें ही करना होता है. अतः इन संस्थाओं को लोकतंत्र में सजीव और स्वस्थ बनाए रखना सबकी जिम्मेदारी है. ऐसे में व्यक्तिगत तौर पर मैं भारत के वर्त्तमान महामहिम राष्ट्रपतिजी के आचरण से काफी प्रभावित हूँ.
आशा है मैंने संविधान प्रदत्त अपने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अतिक्रमण नही किया है, यदि भूल वश कही चुक गया होऊं तो क्षमा प्रार्थी.

Saturday 12 November 2016

आह नाज़िर और बाह नाज़िर!!

थी अर्थनीति जब भरमाई,
ली कौटिल्य ने अंगड़ाई ।

पञ्च शतक सह सहस्त्र एक
अब रहे खेत, लकुटिया टेक।

जहां राजनीति का कीड़ा है,
बस वहीं भयंकर पीड़ा है ।

जनता  खुश,खड़ी कतारों में,
मायूसी मरघट सी, मक्कारो में ।

वो काले बाजार के चीते थे
काले धन में दंभी जीते थे।

धन कुबेर छल बलबूते वे,
भर लब लबना लहू पीते थे।

मची हाहाकर उन महलो में,
लग गए दहले उन नहलों पे।

हैं तिलमिलाए वो चोटों से,
जल अगन मगन है नोटों से।

भारत भाल भारतेंदु भाई,
दुरजन  देखि हाल न जाइ।

जय भारत, जय भाग्य विधाता,
जनगण मनधन खुल गया खाता।

तुग़लक़! बोले तो कोई  शाह नादिर!
कोई 'आह नाज़िर'! कोई  ' वाह नाज़ीर '!

आह नाज़िर! और बाह नाज़ीर !!










Saturday 5 November 2016

बन्दे दिवाकर,सिरजे संसार

अनहद ‘नाद’
ॐकार, टंकार,
‘बिंदु’-विस्फोट,
विशाल विस्फार।

स्मित उषा
प्रचंड मार्तण्ड,
पीयूष प्रत्युषा,
प्रसव ब्रह्माण्ड।

आकाशगंगा
मन्दाकिनी,
ग्रह-उपग्रह
तारक-चंद्रयामिनी।

सत्व-रजस-तमस
महत मानस व्यापार,
त्रिगुणी अहंकार,
अनंत अपार।

ज्ञान-कर्म-इंद्रिय
पंच-भूत-मात्रा सार,
अपरा-परा
चैतन्य अपारावार।

निस्सीम गगन
प्रकम्पित पवन,
दहकी अगिन
क्षिति जलमगन।

अहर्निशं
अज अविनाश,
शाश्वत, सनातन
सृजन इतिहास।

जीव जगत
भेद अथाह,
अविरल अनवरत
काल प्रवाह।

वेद पुराण
व्यास कथाकार,
बन्दे दिवाकर
सिरजे संसार।

Thursday 13 October 2016

एकोअहं,द्वितीयोनास्ति

   
       (१)
ऊँघता आसमान,
टुकुर टुकुर ताकता चाँद।
तनहा मन,मौन पवन।
सहमे पत्ते,सोयी रात।
सुबकता दिल।
आँखे,उदास झील।
उस पर पसरती
अवसाद की
स्याह परत।
और!
एकांत को तलाशता
मेरा अकेला
अकेलापन।

       (२)
आया अकेला,
चला अकेला,
चल भी रहा हूँ
अकेला,और अब
जाने की भी तैयारी!
अकेले।
पर न कभी एकांत हुआ,
न तुम मिले।
न जाने,
कितनी ज़िन्दगियाँ
पार करके,
ढूंढता एकांत
पहुँचा हूँ यहाँ।


        (३)
पथ अनवरत है ये!
मिलूंगा,जब कभी तुमसे।
तो, एकांत में ही!
तसल्ली से लिखूंगा
तभी, मुक्ति का गीत।
पूरी होगी साध
तब जा के,
मिलने की तुमसे,
 मेरे मीत।
धुल जाती,धूल स्मृति की।
सरकने में बार बार,
भ्रूण के एक कोख से
दूसरे गर्भ के बीच।


           (४)
आह्लादित,मर्माहत
माया की कुटिया में
ज़िन्दगी की कथा
बांचते बाँचते,
फिर! सो जाता हूँ।
अकेले।
भटकने को
योनि दर योनि,
अकेले।
एकांत की तलाश में।
आज
ज़मीन पर लेटा,
आसमान को निहारता।


         (५)
टिमटिमाते तारों में,
अकेलेपन को उकेरता।
उदासियों की आकाशगंगा
सुगबुगाया फिर ,
मेरा अकेलापन।
और, मचल उठा है
मन।
पाने को एकांत!
नींद के जाते ही
हो गयी हैं अकेली
आँखे।
परंतु, मन की मन्नत है,
नितांत एकांत!


       (६)
मन को एकांत आते ही
बन जायेगी मेरी आत्मा
परमात्मा!
पंचमात्रिक इंद्रियों
से भारित पंचभूत,
होगा मुक्त।
योनियों के झंझट से।
फिर, हम दोनों
होंगे एक ,
और गूंजे ब्रह्माण्ड
समवेत प्रशस्ति
एकोअहं
द्वितीयोनास्ति!