Wednesday 5 June 2019

'लेख्य मञ्जूषा' में गद्य-पाठ : आलोचना की संस्कृति

'लेख्य मञ्जूषा' के गद्य-पाठ साहित्यिक समागम  कार्यक्रम में भारतीय साहित्य में आलोचना की संस्कृति पर मेरा उद्बोधन ! 

Saturday 1 June 2019

सेनुर की लाज ( चम्पारण सत्याग्रह के सूत्रधार राजकुमार शुक्ल से जुड़ी एक सत्य लघुकथा)

राम बरन मिसतिरि अपनी पगड़ी उतार के शुकुल जी के गोड़ पर रख दिये। सिसकते-सिसकते मुंह मे घिघ्घी बंध गयी थी। आवाज नहीं निकल पा रही थी। आंखों में उस जानवर एमन साहब की घिनौनी शक्ल घूम रही थी। बड़ी मुश्किल से रामबरन ने एक कट्ठा का कोला बन्धकी रख के बेटी का बिआह ठीक किआ था। रात ही हाथ पीले किये थे उसके।  बिदाग़री की तैयारी कर ही रहा था कि कलमुहें एमन का फरमान लेकर उसके जमदूत उतर  गए थे। उस पूरे जोवार में किसी गरीब की बेटी की डोली उठती तो वह पहले एमन की हवेली होकर जाती जहां रात कुंआरी तो चढ़ती  लेकिन उतरती नहीं। इस अँगरेज दरिंदे की हबस में पूरा जोवार सिसकता था। निलहे साहब की  वहशी कहानियों को सुनकर ब्याहता बनने की कल्पना मात्र से क्वांरियों का रक्त नीला पड़ जाता।
'मालिक, पूरे गांव की आबरू का सवाल है। बचा लीजिये।' रोते-रोते रामबरन ने निहोरा किया।
शुकुल जी खेत का पानी काछते-काछते थम से गये। पूरा माज़रा समझते उन्हें देर न लगी। निलहों के विरुद्ध उन्होंने बिगुल पहले से ही फूंक रखा था। एमन उनसे खार खाता था और बराबर इस जोगाड़ में रहता कि उनको  मौका मिलते ही धोबिया पाठ का मज़ा चखाये। किन्तु शुकुलजी के ढीठ सत्याग्रही मिज़ाज़ के आगे उसकी योजनाएं धरी रह जाती।
रामबरन की कहानी सुन उनका खून खौल उठा। हाथ धोया। गमछे से मुंह पोछा। फेंटा कसा। सरपट घर पहुंचे और मिरजई ओढ़ने लगे। अंगौछे को कंधा पर रख घर से बहरने ही वाले थे कि शुकुलाइन को भनक लग गयी और दौड़ के आगे से उनका रास्ता छेंक ली। शुकुलजी ने उनको सारी बात बताई और एमन से इस बार गांव की लाज के खातिर जै या छै करने की ठान ली। एमन के नाम से समूचे जिला जोवार का हाड़ कांपता था। मार के लास खपा देना उसके बाएं हाथ का खेल था। पुलिस, हाकिम, जज, कलक्टर सब उसी की हामी भरते थे।
शुकुलाइन ने उनको भर पांजा छाप लिया और अपने सुहाग की दुहाई देकर उनको नहीं जाने की चिरौरी करने लगी। उनकी मांग का सेनुर उनकी आंखों के पानी मे घुलकर शुकुलजी के मिरजई में लेभरा गया। शुकुलजी के खौलते खून को भला शुकुलाइन कब तक रोकती।
वह हनहनाते हुए एमन की हवेली पर चढ़ बैठे। पूरी उत्तेजना में एमन को ललकार दिया शुकुल जी ने। गांव वाले भी जोश में आ गए थे। रामबरन की बेटी की विदाई हो गयी। कुटिल एमन कसमसा के रह गया।
शुकुल जी को फुसला के बैठा लिया और उसने पुलिस बुला ली। शुकुलजी पर रामबरन की बेटी के साथ बलजोरी का आरोप लगा। उनकी मिरजई में लिपटी सुकुलाइन के सेनुर के दाग को साक्ष्य बनाया गया। शुकुल जी को इक्कीस दिन की सजा हो गयी।
आज इक्कीस दिन का जेल काटकर शुकुलजी घर पहुंचे थे। शुकुलाइन ने टहकार सेनुर लगाकर शुकुलजी की आरती उतारी।आखिर इसी सेनुर ने तो गांव की बेटी के सेनुर की लाज रख ली थी।




आंचलिक शब्दों के अर्थ :
                                       सेनुर- सिन्दूर,   गोड़ - पैर,   कोला - खेत,  बिआह- व्याह,  बिदाग़री -विदाई,  जोवार - क्षेत्र,  निहोरा - आग्रह, जै या छै  - अंतिम रूप से निपटारा,  भर पांजा छाप लेना - पूरी तरह से दोनों बाहों में भर लेना, टहकार - गाढ़ा

Saturday 11 May 2019

फूल और कांटा

सूख रहा हूँ मैं अब
या सूख कर
हो गया हूँ कांटा।
उसी की तरह
साथ छोड़ गया जो मेरा।
गड़ता था
सहोदर शूल वह,
आंखों में जो सबकी।
सच कहूं तो,
होने लगा है अहसास।
अलग अलग बिल्कुल नही!
वजूद 'वह' और 'मैं ' का।
कल अतीत का  खिला
फूल था मैं,
और आज सूखा कांटा
वक़्त का!
फूल और काँटे
महज क्षणभंगुर आस्तित्व हैं
पलों के अल्पविराम की तरह।
मगर चुभन और गंधों की मिठास!
मानो चिरंजीवी
समेटे सारी आयु
मन और बुद्धि के संघर्ष का।

Wednesday 17 April 2019

अजगर - ए - ' आजम '

फड़फड़ा रहा है
फाड़कर
बीज, विषधर का।

भ्रूण,
कुसंस्कारों की
जहरीली सांपीन का।

ओढ़े 'अधोवस्त्र'
केंचुल का, निकला
संपोला।

फूलकर फैल गया है
फुंफकारता अब, काढ़े फन।
अजगर - ए - ' आजम '!

.......... ..........

श्श.. श्श... श्श....
सांप सूंघ रहा है
सर्प संप्रदाय को अब!

Saturday 13 April 2019

काठमांडू, पशुपति-निवास हूँ!


सद्यःजात, तत्पुरुष, वामदेव
अघोर चतुर्दिश महाकाश हूँ।
शीर्ष ईशान हूँ निराकार-सा,
काठमांडू, पशुपति निवास हूँ।

धड़ केदार, सर डोलेश्वर मैं,
हिम-किरीट है सागरमाथा।
चंद्रह्रास-खड्ग रिक्त सरोवर
स्वयंभू-पुराण, मंजुश्री-गाथा।

कांति-विलास के  महत-अंश में।
'काष्ठमंडप' का अपभ्रंश 'यें'।
गुणकामदेव-दीप्त विश्व-धरोहर।
'कांतिपुर' अक्षय, अजर-अमर।

प्रहरी अनथक आठो पहर का,
शैल-शक्तिपीठ, अष्ठ-मात्रिका।
छलके अमृत तीन दिशा में,
टुकचा, विष्णु-बागमती का।

पुलकित 'येंला' चन्द्र-पूनम का,
'येंया पुन्हि', इंद्रजात्रा।
प्रफुल्लित, पुलुकिसी-ऐरावत
थिरकी ललना लाखोजात्रा।

नेपामी मैं, मल्ल-काल का,
तंत्र वास्तु का, चैत्याकार हूँ।
हनुमान-ढोका, आकाश-भैरव,
गोर्खली का सिंह-दरबार हूँ।

बागमती की लहरों में मैं,
छंद मोक्ष के लहराता हूँ।
माँ गुह्येश्वरी की गोदी में,
मुक्ति की लोरी गाता हूँ।

मैं प्रकृति का अमर पालना,
पौरुष का मैं उच्छवास हूँ।
खंड-खंड प्रचंड भूकंप से,
नवनिर्माण, अखंड उल्लास हूँ।

आशा का मैं अमर उजास हूँ।
सृष्टि का सुरभित सुवास हूँ।
सृजन का शाश्वत इतिहास हूँ।
काठमांडू, पशुपति-निवास हूँ।

इस कविता का नेपाली अनुवाद हमारे नेपाली कवि मित्र डी पी जैशी ने किया जो नेपाली पत्रिका सेतोपाटी में प्रकाशित हुई .लिंक है 
https://setopati.com/literature/178714?fbclid=IwAR1qomleZMOOtSDUMxxx7-3Mw20FR2z8PImNRrknEZi0g5yvrPzfG7s-1Vs
रुडकी विश्वविद्यालयका हाम्रा सहपाठी मित्र विश्वमोहन जी ले काठमाडौं को बारेमा हिन्दीमा लेखेको कविताको नेपाली अनुवाद गर्न अनुरोध गर्नु भएकोले उक्त कविताको नेपाली अनुवाद गरी वहाँकै सल्लाह बमोजिम यहाँ राखेको छु ।
काठमाण्डौँ, पशुपति-निवास हुँ !
नवजात, तत्पुरुष, वामदेव
अघोर चतुर्दिश महाकाश हुँ ।
शीर्ष ईशान हुँ, निराकार जस्तै,
काठमाण्डौँ, पशुपति निवास हुँ ।
शरिर केदार, शिर डोलेश्वर,
हिम-किरीट हो सगरमाथा ।
चन्द्रह्रास-खड्ग रिक्त सरोवर
स्वयंभू पूराण, मंजुश्री गाथा ।
कांति-विलास को महत-अंश मा
काष्ठमाण्डप को अपभ्रँस ‘येँ’ हुँ ।
गुणकामदेव-दीप्त विश्व-धरोहर,
‘कान्तिपुर’ अक्षय, अजर-अमर ।
आठै प्रहरका अथक प्रहरी,
शैल-शक्तिपीठ, अष्ठ-मात्रिका ।
छल्किन्छ अमृत तीनै दिशामा
टुकुचा, बिष्णु-बागमती को ।
पुलकित ‘येँला’ चन्द्र-पूनम को
‘येँया पुन्हि’ इन्द्रजात्रा ।
प्रफुल्लित, पुलुकिसी-ऐरावत
नाच्छन् ललना लाखौँ जात्रा ।
‘नेपामी’ म, मल्ल-कालका,
तंत्र वास्तु को चैत्याकार हुँ ।
हनुमान-ढोका, आकाश-भैरव
गोर्खाली को सिँह-दरबार हुँ ।
बागमती को लहरमा म,
छन्द मोक्ष लहराउँछु ।
आमा गुहेश्वरी को काखमा,
म मुक्ती को गित गाउँछु ।
म प्रकृतिको अमर पालना,
पौरुष को म उच्छ्वास हुँ ।
प्रचण्ड भूकम्पले खण्ड खण्ड,
म नवनिर्माण, अखण्ड उल्लास हुँ ।
म आशाको अमर उज्यालो हुँ,
सृष्टिको सुरभित सुवास हुँ ।
सृजनको शाश्वत इतिहास हुँ
काठमाण्डौँ पशुपति-निवास हुँ ।


Sunday 10 March 2019

फद्गुदी


दौड़ रहा है सरपट सूरज
समेटने अपनी बिखरी रश्मियों को.

घुला रही हैं अपने नयन-नीर से,
नदियाँ अपने ही तीर को.

खेल रही हैं हारा-बाजी टहनियाँ
अपनी पत्तियों से ही.

फूंक मार रही हैं हवाएं,
जोर जोर से अपने ही शोर को.

जला रही है बाती,
तिल-तिल कर अपने ही तेल को.

दहाड़ रहा है सिंह सिहुर-सिहुर कर,
अपनी ही प्रतिध्वनि पर.

लील रही है धरोहर, धरती
काँप-काँपकर अपनी ही कोख की.

पेट सपाट-सा सांपिन ने,
फूला लिया है खाकर अपने ही संपोलो को.

चकरा रही है चील, लगाये टकटकी,
अपनी ही लाश पर.

सहमा-सिसका है साये में इंसान,
 आतंक के, अपने ही साये के.

और फुद्फुदा रही है फद्गुदी,
चोंच मारकर अपनी ही परछाहीं पर!

Monday 4 March 2019

शिवरात्रि सुर संगीत सुनो

कल्प आदि का महाप्रलय था,
अंकुर बीज में अबतक लय था.
प्रकृति अचेत और पुरुष गुप्त था,
चेतन शक्ति निष्प्राण सुप्त था.
शक्ति हीन शिव सोया शव था,
दिग्दिगंत निःशब्द नीरव था.
चक्र चरम था आरोहण का,
परम शिव सिरजन ईक्षण का.
'प्रत्यभिज्ञा', पूर्ण विदित सुनो,
शिवरात्री सुर संगीत सुनो.


अब निर्गुण संग सगुण होगा,
भक्ति में ज्ञान निपुण होगा.
रस ज्ञान में भक्ति घोलेगी,
नव सूत्र सृजन का खोलेगी.
अनहद में आहद कूजेगा,
त्रिक ताल तुरीय गूंजेगा.
अद्वैत में द्वैत यूँ निखरेगा,
स्पंद-सार स्वर बिखरेगा.
कल्प-काल-क्रिया की रीत सुनो,
शिवरात्री सुर संगीत सुनो.



अब सुन लो डमरू शंकर की,
ये है बारात प्रलयंकर की.
शिव ने शक्ति समेटी है,
अपनी जटा लपेटी है.
चित और आनंद मिलेंगे,
कैलाश में किसलय खिलेंगे.
सृष्टि का होगा स्पंदन,
कल्प नया, करो अभिनन्दन.
नव चेतन,  चिन्मय गीत सुनो,
शिवरात्रि सुर संगीत सुनो.

Friday 8 February 2019

सहमी क्यों, मुसका ना !

नयन नील अम्बर पनघट सा 
श्याम हीन कालिंदी तट सा .
पथ अनंत आशा अनुराग का 
पलक पुलक पल प्रेम पराग का.

"ऊपर से हो नारिकेल सा
अंतस नवनीत सा बहता है.
प्रीत पंथ का अथक पथिक 
गुह्यात गुह्यतम गहता है"..

है ऐसी कौन बात प्रिये
जो मन विचलित कर जाती है।
वो टीस वेदना की कैसी
जो मन मे नित भर जाती है।

अनायास ये दर्द कैसा ?
कर जाता जो पलको को नम !
करूँ श्रृंगार खुशियों से तेरा
पीकर मैं सारा वो गम।

अपने अधरों को मीठा कर ले
ले सारे मुस्कान मेरे।
अब कर ले आतुर जगने को
खोये उमड़े गीत तेरे।


स्पंदन उर का तेरा,
सपनों का चतुर चितेरा ।
छुप छुपकर छवि तुम्हारी,
हृदय में हमने उकेरा।


स्वपन सजन बन नयनो के ,
चिलमन में आ जाना ।
प्रीत की पाती की बतियों पे ,
सहमी क्योंमुसका ना !

Thursday 7 February 2019

पुरुष की तू चेतना

भाव तरल तर,
अक्षर झर-झर,
शब्द-शब्द मैं,
बन जाता हूँ.

धँस अंतस में,
सुधा सरस-सा,
नस-नस में मैं,
बस जाता हूँ.  

पुतली में पलकों की पल-पल,
कनक कामना कमल-सा कोमल.

अहक हिया की अकुलाहट,
मिचले मूंदे मनमोर मैं चंचल.

शीत तमस तू,
सन्नाटे में,
झींगुर की,
झंकार-सी बजती.

चाँदनी में चमचम,
चकोर के,
दूध धवल,
चन्दा-सी सजती.

धमक धरा धारा तू धम-धम,
छमक छमक छलिया तू छमछम.

रसे रास यूँ महारास-सा,
चुए चाँदनी, भींगे पूनम.


छवि अगणित,
कंदर्प का,
शतदल सरसिज,
सर्प-सा.

काढ़े कुंडली,
अधिकार का,
अभिशप्त मैं
अभिसार का.

मैं छद्म बुद्धि विलास वैभव
 मनस तत्व, तू वेदना.

मैं प्रकृति का पञ्च-तत्व,
और पुरुष की तू चेतना.

Thursday 31 January 2019

द्वीप

बीच बीच में
उग आते हैं ,
द्वीप।
जड़वत।
हमारे
चिंतन प्रवाह की तरलता
में विचारो के
जड़ तत्व की तरह,
जिन पर छा जाता है
अरण्य  अहंकार का।

चतुर्दिक फैली जलधि
प्रशांत मन की
करती प्रक्षालित
विचार द्वीपों को
चंचल बौद्धिक लहरियों से।
 करती अठखेली
अहंकार की अमर वेलि।
लहरियों के लौटते ही
अपनी शुष्कता में सूख
ठूंठ सा होने लगता अहंकार।

किन्तु चंचल चाल है
मन से लहकी इन लहरों की
ढालती है
 बुद्धि का हलाहल
अहंकार में
मनोरम मायावी ममत्व से!
मन, बुद्धि और अहंकार
यह स्पर्श छल जाल।
सागर, लहर और अरण्य
जीवन देते हैं टापू को,

एक पेड़ की जड़ में
पनपते हैं कई पौधे
छोटे छोटे अहंकार के।
गिरते ही,बड़े के, ठूंठ होकर
फिर तन के खड़ा हो जाता दूसरा!
फिर सुनामी महाकाल का।
धो -पोंछ देता है
इस रक्तबीज वंश अरण्य को।
शेष रहता है प्रशांत सागर, लीलते
हिलती-डुलती लीलावती लहरों को!