(भाग-४ से आगे
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ख)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
क - सरस्वती नदी का क्षेत्र वैदिक आर्यों का केंद्र स्थल था। यह नदी उनके दिल से होकर बहती थी और इसकी महत्ता का अन्दाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि ऋग्वेद के तीन सम्पूर्ण सूक्त (६/६१, ७/९५ और ७/९६) इसी सरस्वती की को ही समर्पित स्तुति हैं। ऋग्वेद को रचने वाले दस ऋषिकुलों ने ‘अपरि-सूक्त’ में तीन महान देवियों में एक सरस्वती की अभ्यर्थना की है। ऋग्वेद में उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर सरस्वती पुरुओं द्वारा पूजित एक पवित्र नदी थी जो पुरुओं के भूभाग से होकर बहती थी और इस पवित्र धारा के दोनों तीरों पर ही पुरुओं की सभ्यता और संस्कृति पुष्पित-पल्लवित हो रही थी। ( उभे यत्ते महिना शुभ्रे अंधसी अधिक्षयंति पूरवः …..७/९६/२)।
ख – ऋग्वेद में पुरुओं की पहचान वैदिक आर्यों के साथ ऐसे घुल गयी है कि उन्हें वैदिक मनुष्यों से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। ग्रिफ़िथ ने तो उदाहरण के तौर पर पाँच ऐसे मंत्र (१/१२९/५, १/१३१/४, ४/२१/१०, ५/१७१/१, और १०/४/१) तलाश लिए हैं जहाँ पुरु शब्द का अर्थ ही मनुष्य बैठता है। ऋग्वेद स्वयं ‘पुरु’ शब्द की सत्ता का संगत ‘मानव-जाति’ से ही बिठाता है, “पूरवे…….मानवे जने”। ‘मनु’ की संतति ‘मनु-स’ की तर्ज़ पर ऋग्वेद में ‘पुरु’ की संतति के लिए ‘पुरु-स’ शब्द का प्रचलन मिलता है। १/५९/२ की अपनी पाद टीका (फुटनोट) में ग्रिफ़िथ लिखते हैं कि ‘पुरु के पुत्र, अर्थात सामान्य मानव जिसका पूर्व-पुरुष ‘पुरु’ है। इसी तरह की टीकाएँ उन्होंने १०/४८/५, ७/५/३ और १०/४/१ के लिए भी लिखी हैं।
ग – प्रोफ़ेसर माइकल विजल तो यहाँ तक लिख देते हैं कि ‘ऋग्वेद तो पुरुओं (और भरत) का ही है ( WITZEL 1995b:313) और इस बात की भी पुष्टि कर देते हैं कि ऋग्वेद की रचना पुरुओं और भरतों ने ही की (WITZEL 1995b:328) और भरत पुरु के ही उपजातीय समूह थे (WITZEL 1995b:339)। यहाँ तक कि साउथवर्थ ने भी पुरातात्विक और भाषायी तत्वों के आधार पर वैदिक आर्यों की पहचान पुरुओं के रूप में ही की है।
घ – पुरुओं से परायेपन का भाव लिए मात्र दो दृष्टांत भरत और ग़ैर-भरत जनजातियों के संघर्ष के समय मिलते हैं। एक, ७/८/४ में जहाँ भरत का अग्नि से पुरुओं को जीत लेने का आह्वान है और दूसरा, ७/१८/३ में जहाँ दशराज युद्ध में भरतों की सहायता के लिए नहीं आने पर पुरुओं को जीत लेने के लिए आहुति देने की बात की गयी है। बहुतेरे विद्वानों की राय है कि पुरु तो थे भरत के युद्ध-मित्र ही, किंतु, लूट की चीज़ों के बँटवारे में हुए विवाद को लेकर उपजा असंतोष उपरोक्त ऋचाओं में फूटे हैं। ऋषि-कुल रचित मंडलों (२-७) में भरत निर्विवाद और असंदिग्ध रूप से नायक बनकर उभरे हैं (१/९६/३, २/७/१, २/७/५, २/३६/२, ३/२३/२, ३/३३/११, ३/३३/१२, ३/५३/१२, ३/५३/२४, ४/२५/४, ५/११/१, ५/५४/१४, ६/१६/१९, ६/१६/४५, ७/८/४, ७/३३/६)। ढेर सारे मंत्रों में तो देवताओं की ही उपमा भरत से दी गयी है:
अग्नि – १/९६/३, २/७/१, २/७/५, ४/२५/४ और ६/१६/१९ और मरुत – २/३६/२। कुछ अन्य मंत्रों में (३/२३/२, ५/११/१, ६/१६/४५ और ७/८/४) तो भरत को अग्नि का स्वामी ही घोषित कर दिया गया है और समूचे ऋग्वेद में ऐसा कोई दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ दोनों के बीच लेशमात्र का भी मनमुटाव दृष्टिगोचर हो।
ङ – पुरु की उप-जाति भरत की देवी ‘भारती’ ऋग्वेद में पूजित तीन प्रमुख देवियों में से एक हैं। ‘सरस्वती’ की भाँति ही दसों ऋषिकुल द्वारा रचित परिवार सूक्त में ‘भारती’ की स्तुति की गयी है। तीसरी दिव्य कुल-देवी ‘इला’ हैं। दस में से नौ ऋषि परिवार पूजा करने वाले ‘होता’ हैं। दूसरी ओर, ऋचाओं की रचना करने वाला दसवाँ परिवार वास्तव में पुरु की ही उप-जाति भरत के राजकुल का ऋषि परिवार है, जिसका परिवार सूक्त १०/७० है।
च – परंतु, इनमें सबसे ज़रूरी बात है उन अर्थों पर ध्यान केंद्रित करना जिन अर्थों में ऋग्वेद में ‘आर्य’ शब्द का उपयोग हुआ है। वैदिक लोग इसी शब्द ‘आर्य’ से अपनी पहचान जोड़ते थे। इस शब्द का प्रयोग सही संदर्भों में एक समुदाय या जनजाति विशेष के लिए हुआ है। जो कुछ भी इस समुदाय का है, वह आर्य है। सुदास और दिवदास जैसे भरतवंशी राजाओं के लिए ही इस शब्द का प्रयोग हुआ है। ग़ैर-पुरु राजाओं के लिए ‘आर्य’ शब्द का प्रयोग कभी भी नहीं हुआ है। अत्रि और कन्व ऋषि की रचना ‘दानस्तुति-सूक्त’ में तो प्रमुख रूप से ग़ैर-पुरुओं का ही वृतांत है, लेकिन उन्हें कहीं भी ‘आर्य’ नहीं कहा गया है। यहाँ तक कि जब मंधाता, पुरूकत्स और त्रासदस्यु जैसे ग़ैर-पुरु राजाओं के जयघोष से गगन गुंजित होता है, तो यह स्तुतिगान भी उनके द्वारा पुरु राजा को युद्ध में दिये गये सहयोग (१/६३/७, ४/३८/१, ६/२०/१० और ७/१९/३) के कारण ही हैं। फिर भी इन राजाओं के लिए कभी ‘आर्य’ शब्द का उल्लेख नहीं होता है। चौथे मंडल के बायलीसवें सूक्त के आठवें और नौवें मंत्र में तो त्रासदस्यु को ‘अर्द्ध देव’ तक कि संज्ञा दी गयी है। १/५९/२ और १/५९/६ और फिर ७/५/६ और ७/५।३ को मिलाकर देखें तो ऋग्वेद यहाँ तक कि पुरु को आर्य का पर्याय ही मान लेता है।
चौतीस सूक्तों में ‘आर्य’ शब्द का उल्लेख हुआ है। इसमें से २८ सूक्तों की रचना या तो भरतकुल के रचनाकारों ने या उनसे सीधे तौर पर संबंधित दो पुरोहित परिवार, अंगिरा और वशिष्ठ के कुल के ऋषियों ने की है। दो अन्य सूक्तों की रचना विश्वामित्रकुल के ऋषियों ने की है। वशिष्ठ द्वारा हटाए जाने से पूर्व विश्वामित्र भी भरत राजा सुदास से ही जुड़े थे। ऋचाएँ रचने वाले ऋषि परिवार में एक परिवार गृतस्मद का भी है। गृतस्मद भी अंगिरा की कुल-परम्परा के ही वंशज थे।
मात्र तीन सूक्त ऐसे हैं जिनके रचनाकार भरतकुल से बाहर के हैं। ये तीन सूक्त अपने आप में रोचक इस बात के लिए भी हैं कि इनमें ऋषि रचनाकारों की पुरु-भरत के प्रति किसी भी जनजातीय भावना के पूर्वाग्रह का अभाव है और उनके वर्णन की निष्पक्षता साफ़-साफ़ झलकती है। एक सूक्त (९/६३) के रचनाकार कश्यप ऋषि हैं जो नितांत निष्पक्ष और अराजनीतिक व्यक्तित्व वाले कुल के सदस्य हैं। ऋग्वेद का यह सूक्त एक अनोखा उदाहरण है जहाँ ‘आर्य’ शब्द का प्रयोग दो बार हुआ है और इसके पीछे कोई व्यक्तिगत या जनजातीय उद्देश्य न होकर मात्र आर्य जाति की शुद्धता को इंगित करना है। बाक़ी दो सूक्त कन्व ऋषि के द्वारा रचित हैं। कन्व ऋषि भी अत्रि ऋषि की तरह राजनीतिक सरोकारों से परिपूर्ण एक अत्यंत सक्रिय व्यक्तित्व हैं जो न केवल पुरु-भरत सरीखे आर्य जाति के अंत्यंत क़रीबी हैं बल्कि अन्य जन-जातियों में भी उनकी गहरी पैठ है। फलतः, एक सूक्ति (८/५१/९) में जहाँ रचनाकार ऋषि, कन्व ने ‘आर्य’ और ‘दास’ अर्थात ‘पुरु’ और ‘अन्य जन-जातियों’ से समानता और निष्पक्षता का पूरी तरह निर्वाह किया है, वहीं एक दूसरे सूक्त (८/१०३/२) में समदर्शी कन्व ने ‘आर्य’ शब्द का संदर्भ भरत राजा दिवदास के लिए ही लिया है।
इन सूक्तों में कुछ अत्यंत रोचक तथ्य भी ध्यातव्य हैं। जैसे :-
१- चौतीस में नौ सूक्त (४/३०, ६/{२२,३३,६०}, ७/८३, १०/३८,६९,८३,१०२) तो ऐसे हैं जो आर्यों को भी शत्रु रूप में चित्रित करते हैं और उसमें भी आठ में आर्य और दस्यु साथ-साथ अरि रूप में हैं। ये सभी नौ सूक्त भरतकुल और अंगिरा तथा वशिष्ठकुल से संबद्ध दो परिवारों द्वारा रचे गए हैं।
२- फिर सात ऐसे सूक्त है जिनमें शत्रुओं के दो वर्ग हैं – एक रिश्तेदारियों वाले (जमी) और दूसरे रिश्तेदारी से बाहर के (अ-ज़मी)। इन सातों की रचना भरत और अंगिरा के कुल ने की है।
३- सूक्त १०/३३ की रचना भरतकुल द्वारा की गयी है जिसमें नाते-रिश्ते वाले शत्रु ‘सनभि’ और ग़ैर-रिश्तेदार शत्रु ‘निस्त्य’ का उल्लेख है। ठीक उसी भाँति सूक्त ६/७५ में शत्रु नातेदार ‘स्व अरण’ और अन्य शत्रु ‘निस्त्य’ की चर्चा है। इसके रचयिता अंगिरा कुल के ऋषि हैं।
अब ‘आर्य-आक्रमण सिद्धांत’ में ऊपर की घटनाओं की व्याख्या का कोई उचित तर्क या समाधान नहीं मिलता, सिवा यह गाल बजाने के कि ‘आर्यों ने आपस में भी लड़ाइयाँ लड़ी होंगी।‘ किंतु घटनाओं के क्रम से एक बात साफ़ हो जाती है कि आर्यों का ही एक भरतकुल पुरु नामक एक अ-भरतकुल के साथ युद्ध कर रहा होता है। और इस बात का ख़ुलासा ख़ुद ऋग्वेद के ही उस विश्वामित्र रचित सूक्त ३/५३ में हो जाता है जहाँ यह कहा जाता है कि यह भरतकुल की महिमा है कि जब वे राज्य-विस्तार के लिए रण-भूमि में कूच कर जाते हैं तो वे शत्रु का संहार करते समय अपने-पराए का भेद नहीं करते। ग़ौरतलब है कि विश्वामित्र ने भरत कुल के राजा सुदास का सरस्वती नदी के तट पर अश्वमेध यज्ञ करवाया था जिसके पश्चात अपने साम्राज्य के चतुर्दिश विस्तार के लिए वह युद्ध करने निकल गए थे।
ध्यातव्य : - भरतकुल के द्वारा ऋग्वेद के कुल १०२८ सूक्तों में से मात्र १९ सूक्तों की रचना की गयी है। किंतु, ३४ सूक्तों में वे तीन सूक्त जो ‘आर्य’ शब्द का प्रयोग करते हैं, नौ सूक्तों में वे दो सूक्त जो ‘आर्य’ और ‘दास’ दोनों को शत्रु रूप में उपस्थित करते हैं, सात सूक्तों में वह एक सूक्त जो ‘जमी’ (रिश्तेदार) और ‘अ-जमी’ (ग़ैर-रिश्तेदार) शत्रुओं का उल्लेख करता है और ‘सनभि’ तथा ‘निस्त्य’ शत्रुओं की चर्चा करने वाली एकमात्र सूक्ति, ये सभी भरतकुल के ऋषियों के द्वारा ही रचे गए हैं।
तो, बात बिल्कुल साफ़ है। ‘पुरु’ और सिर्फ़ पुरु – और उनमें से भी मात्र और मात्र ‘भरत-पुरु’ ही वैदिक-आर्य हैं। वही ‘वैदिक-आर्य’ जिन्होंने ऋग्वेद की रचना की और जो वैदिक बोलियाँ (भाषा का भारतीय-आर्य स्वरूप) बोलते थे।
पुराण में वर्णित शेष जनजातियाँ तार्किक कसौटी पर ‘वैदिक-आर्य’ नहीं ठहरती। किंतु, वे भारोपीय अवैदिक भाषा बोलती थीं। यहूदियों की पुरानी पुस्तक, तनख, में जैसे मिस्त्र, हिटाइट, सुमेर और पारस की जनजातियों का ज़िक्र आता है, वैसे ही अन्य ग़ैर आर्य जातियों का ज़िक्र भी पुरुओं के ऋग्वेद में आता है।
२. ऋग्वेद का वास्तविक रचना काल
भाषाई सूचनाओं की विवशता से भाषा-शास्त्रियों को मजबूरी में यह मानना पड़ा है कि ‘वैदिक आर्यों’ ने भारत में घुसपैठ की, वजह चाहे आक्रमण हो या अप्रवासन। उनकी यह घुसपैठ १५०० ईसापूर्व हुई। उन्होंने १५०० ईसापूर्व से १२०० ईसापूर्व के बीच ऋग्वेद की रचना कर ली। भाषाई सूचना यह भी बताती है कि भारोपीय भाषा की बारहों शाखाओं को बोलने वाले सभी साथ-साथ एक ही जगह अपनी प्राक-भारोपीय मातृभूमि ( जहाँ कहीं भी हो!) में ३००० ईसापूर्व तक निवास करते थे। और उसी समय के आस-पास उस मातृभूमि को छोड़कर वे वे एक-दूसरे से दूर छिटकने लगे थे। ‘आर्य-आक्रमण सिद्धांत’ के हिसाब से यह मातृभूमि दक्षिणी रूस था। साथ-साथ ६०० ईसापूर्व के बुद्ध के काल के आस-पास के सही ढंग से तिथ्यांकित पुरातात्विक और साहित्यिक साक्ष्यों से यह पता चलता है कि भारतीय-आर्य भाषाएँ उस काल तक समूचे उत्तर भारत में अपनी जड़ जमा चुकी थी और व्यापक स्तर पर बोली जाने लगी थी। बस इन्हीं दो कालों के बीच सामंजस्य का घालमेल मिलाकर इन विद्वानों ने १५०० ईसापूर्व को आर्यों के आक्रमण की तिथि गढ़ ली। फिर उन्होंने यह मान लिया कि ऋग्वेद एक पूर्व पाषाणक़ालीन रचना है तथा भारत में यह पाषाण युग १२०० ईसापूर्व प्रारम्भ हुआ था। फिर वे कालक्रम को और इधर-उधर कर नहीं सकते थे। इसी मजबूरी में उन्होंने ऋग्वेद का काल-निर्धारण कर लिया। हालाँकि, नवीनतम अन्वेषणों से अब यह सिद्ध हो चला है कि पाषाण युग भारत में १२०० ईसापूर्व से भी हज़ारों वर्ष पहले आ चुका था। उत्तर भारत में भारतीय-आर्य या भारोपीय भाषाओं की उपस्थिति का सबसे पुराना और पुख़्ता कोई ऐसा प्रमाण जो उत्खनन-अभिलेखों के आधार पर पढ़ने-समझने लायक़ है तो वह है – २६९ ईसापूर्व से २३२ ईसापूर्व के अंतराल का अशोक के शिलालेख के अवशेष। यहीं पर ‘आक्रमण सिद्धांत’ के प्रतिपादकों को मन-मुताबिक़ स्वतंत्रता मिल जाती है - आक्रमण के समय को आगे खिसकाकर १५०० ईसापूर्व तक या उससे भी आगे ले जाने में। पीछे की ओर तो वे ३००० ईसापूर्व तक खिसका नहीं सकते, क्योंकि तब दक्षिण रूस का ‘मातृभूमि- सिद्धांत’ ख़तरे में पड़ जाएगा। फिर ऋग्वेद की भारत में रचना के तथ्य को मिला देने से उलटे भारत को ही साझा मातृभूमि मानना पड़ जाता।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक ऋग्वेद का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए एकमात्र बाहरी (भारत से) सामग्री जो उपलब्ध थी वह था -ईरान का धर्मग्रंथ, ‘अवेस्ता’। किंतु, ऋग्वेद की तरह इस ग्रंथ की भी ख़ासियत रही कि अपने वजूद के शुरुआती दिनों में यह भी वाचिक परंपरा में ही आगे की पीढ़ियों में ढुलकता रहा और इसी कारण से कोई ऐसा शिलालेख या इसकी कोई पुरातात्विक लिखावट नहीं उपलब्ध हो सकी कि जिससे इसका काल निर्धारण हो सके। किंतु बीसवीं सदी के शुरुआती दिनों में पश्चिमी एशिया में अपनी उम्र बता पाने वाले कुछ ऐसे अभिलेख मिले जिससे यह पता चलता है कि १५०० ईसापूर्व के आस-पास सीरिया-ईरान में शासन करने वाले मिती शासक भी ‘भारतीय-आर्य’ पैदाइश के ही थे। अब पश्चिमी एशिया में उनके २०० वर्ष और पहले की उपस्थिति की पुष्टि ने ऋग्वेद के अबतक के मान्य रचना काल को लेकर एक नया बखेड़ा खड़ा कर दिया। फिर, आक्रमण सिद्धांत के पैरकारों ने इस गड़बड़ी को इस परिकल्पना से दूर कर दिया कि १५०० ईसापूर्व से और पहले अर्थात ऋग्वेद की रचना के पहले ही मिती भारतीय-आर्य मध्य एशिया में अपने साथ रह रहे वैदिक आर्यों और ईरानियों से अलग हो चुके थे। वे पश्चिम दिशा में में चलकर पश्चिमी एशिया पहुँच गए और कुछ अंतराल बाद प्राक-वैदिक भारतीय आर्य भी उस जगह को छोड़कर पश्चिमोत्तर भारत में बस गए। उधर,प्राक-ईरानियों ने अफ़ग़ानिस्तान को अपना ठिकाना बना लिया। फिर अलग- अलग वैदिक भारतीय आर्यों ने ‘ऋग्वेद’ और ईरानियों ने ‘अवेस्ता’ की रचना की।
इस तरह से २००० ईसापूर्व के मध्य-काल के तिथ्यांकित मिती अभिलेख और खुदाई से प्राप्त अन्य शिलालेख ही वह आधार बने जिसके बल पर ‘भारतीय-ईरानी’ काल-शृंखला की गणना की गयी। परंतु, इससे यह निष्कर्ष भला कहाँ निकल पाता है कि ये मिती अभिलेख भारतीय आर्यों के ऋग्वेद से पहले के हैं?
समूचे ऋग्वेद में दस मंडल हैं। प्रत्येक मंडल कुछ मंत्रों का संकलन है। इसे सूक्त कहते हैं। प्रत्येक सूक्त में लिखित मंत्रों को ऋचा कहते हैं।इस तरह से ऋग्वेद में १० मंडल हैं, १०२८ सूक्त हैं और १०५५२ ऋचाएँ (मंत्र या श्लोक) हैं। ये सारे मंडल भिन्न कालों में संकलित हुए। अपने संकलन काल की पुरातनता के आधार पर विद्वानों ने एकमत से इसे माना है कि इसके छः मंडल अर्थात दूसरे मंडल से सातवाँ मंडल इसके सबसे पुराने मंडल हैं। इनकी रचना भिन्न-भिन्न ऋषि परिवारों अर्थात ऋषिकुलों ने की है। इसलिए इन्हें ‘ऋषिकुल ग्रंथ’ या ‘ऋषिकुल मंडल’ भी कह सकते हैं। ये ऋषि-कुल मंडल रचना काल के हिसाब से अन्य मंडलों अर्थात १,८,९ और १० से पहले के लिखे गए हैं। उस आधार पर हम १,८,९ और १० को ‘नए मंडल’ तथा २,३,४,५,६ और ७ को ‘पुराने मंडल’ कह सकते हैं। इन पुराने मंडलों में भी ५वाँ मंडल अपने समूह के बाक़ी अन्य मंडलों से बाद की रचना है और यह नए मंडल के ज़्यादा क़रीब है। पुराने मंडल में पुराने सूक्त और पुराने मंत्र हैं। इसमें कुछ संशोधित सूक्त और मंत्र भी हैं जिनके बारे में यह मान्यता है कि नए मंडल के रचनाकारों ने यह संशोधन कर दिया था। नए मंडल में नए सूक्त और नए मंत्र हैं। अतः सूक्त और ऋचाओं (मंत्रों) की संख्यायों को हम मोटा-मोटी तीन भागों मेंबाँट सकते हैं:-
१- मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के पुराने सूक्त - २८० सूक्त और २३५१ मंत्र।
२- मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के संशोधित सूक्त – ६२ सूक्त और ८९० मंत्र।
३- मंडल १, ५, ८, ९ और दस के नए सूक्त – ६८६ सूक्त और ७३११ मंत्र।
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