Sunday 17 November 2019

मोक्ष

किसी सत्ता का एहसास होना ही उसके अस्तित्व  का 'होना' है भले ही, भौतिक अवस्था में वह दृष्टिगोचर हो या न हो। कई सत्ताएँ तो भौतिक रूप में उपस्थित होकर भी अपनी उपस्थिति के एहसास का स्पर्श नहीं करा पाती और अनुभूति के धरातल पर वह अस्तित्व विहीन अर्थात 'न होना' होकर ही रह जाती हैं। ठीक इसके उलट, कुछ वस्तुएँ केवल अनुभव के स्तर पर होकर ही अपने मनोवैज्ञानिक बिम्ब को हमारे मानस-पटल पर इतनी गढ़िया देती हैं क़ि उनका वास्तव में भौतिक रूप  में 'न होना' भी किसी तरह से उनके 'होना' को नकार नहीं पाता है। अब यह अनुभव या मनोवैज्ञानिक बिम्ब हमारी जागृत चेतना के धरातल पर होता है। इस चैतन्य-भूमि पर उस बिम्ब का प्रक्षेप या तो एक अत्यंत जटिल प्रक्रिया है जो हमारी उस जागृत चेतना के भी परे होती है जो उस बिम्ब को पकड़ती है या फिर चेतना के उस स्तर को पार करने की हमारी अंतरभूत मर्यादा को रेखांकित करती है। उस मर्यादा को संचालित करने वाली शक्ति ही वह 'परम चेतना' है जिससे इस जागृत चेतना के बीच के आकाश  की शून्यता 'होने' और 'न होने' के आभास से आशंकित है। 

यक़ीन कीजिए, हमारी यह अनुभूति निरी लफ़्फ़ाज़ी नहीं है। बहुत बार तो कुछ एहसास आगत की भौतिक हलचलों की आहट भी होते हैं। आर्किमिडीज़ का पानी से भरे टब में अपने को हल्का महसूस करना विज्ञान जगत की एक क्रांतिकारी अनुभूति थी। विज्ञान की दुनिया ऐसे ढ़ेर सारे वृतांतो और दृष्टांतों से पटी पड़ी है, जहाँ कल्पना ने ठोस यथार्थ, सपनों ने हक़ीक़त और अनुभवों ने ज्ञान की भूमि तैयार की। जैव रसायन शास्त्री केकुल  के सपने में साँप का अपनी पूँछ पकड़ना एक ऐसा ही विस्मयकारी सपना था जिसने बेंज़ीन की बनावट का सूत्र रचा।

नींद में हमारा जागृत चेतन   अचेतन रहता है। स्वप्नावस्था में सुप्त अवचेतन जाग जाता है और चेतन की सारी सीमाओं को लाँघ जाता है। 'टाइम-स्पेस-स्लाइस' पर फिसलता हुआ यह ब्रह्मांड के समस्त गोचर और अगोचर परतों को चीरता हुआ समय के छिलकों को उसपर छितरा देता है। हमारा अमूमन चेतन रहने वाला मन अब अपनी इस सोयी अवस्था में एक जाग्रत दर्शक मात्र बना रहता है किंतु पूरी तरह से मूक और निष्क्रिय!  जबकि आम तौर पर अवचेतन मन तब हमारे सोए तन की इंद्रियों को अपहृत कर उन्हें अपने लोक में समेटकर जगा लेता है। ध्यान दे, सुप्त चेतन मन के लोक से इस जागे अवचेतन मन का लोक विलग होता है, पदार्थ और ऊर्जा के प्रवाह के स्तर पर, चेतन-अवचेतन-अनुभूति प्रवाह के स्तर पर नहीं। हाँ, उस अनुभूति के प्रवाह से पदार्थ और ऊर्जा पर होने वाला प्रभाव चर्चा का एक अलग बिंदु अवश्य हो सकता है।

 जाग्रत अवचेतन के निर्देशन में हमारी इंद्रियाँ लोकातीत और कालातीत होकर अपने कल्पनातीत व्यापार से वापस तब तक नहीं लौटती जबतक कि स्वप्न  लोक में उस व्यापार का कोई अंश सोए लोक का कोई ऐसा तार न छेड़ दे जो सोए चेतन को झंकृत न कर दे और उस व्यापार के ऊर्जा विक्षोभ से उसे आंदोलित न कर दे। यह आंदोलन वापस चेतन मन को जगाकर उस स्वप्नगत व्यापार की प्रकृति के अनुसार 'अनुकूल' या 'प्रतिकूल' प्रभाव छोड़ जाता है जिसका दोलन-काल  और दोलन-प्रभाव कुछ समय तक बना रहता है। फिर चेतन और अवचेतन के अपने पूर्ववत् स्थान ग्रहण करने के उपरांत यह आंदोलन शनै:-शनै: क्षीण हो जाता है किंतु, बुद्धि पर उसका कुछ अंश स्मृति के रूप में शेष रह जाता है। इसी स्मृति से हमारा अहंकार अपने आचरण का संस्कार बटोरता है जिसका कुछ अंश हमारी अन्य दैनिक लघु-स्मृतियों के अल्पांश के साथ मिलकर उस अवचेतन में घुलता जाता है।

चेतन-अवचेतन-अचेतन के इस 'म्यूचूअल-इंटरैक्शन' से हमारे अनुभवों का संसार सजता है और हममें  विचारणा, चिंतन और मनन की संस्कृति समृद्ध होती है। 'चेतना की यह संस्कृति' और फिर 'संस्कृति की यह चेतना' जीवन की इस लौकिकता के आर-पार तक अपनी निरंतरता बनाये  रखती है। जहाँ यह नैरंतर्य अनुभव के आलोक से दीप्त होता है, वहीं अस्तित्व अर्थात 'होने' का आभास होता है और जहाँ अनुभव-शून्यता के निविड़ तम में अदृश्य होता है, वहाँ 'न होने' का आभास! इसलिए 'होना' तो एक चिरस्थायी सत्य है, किंतु 'होने' का आभास कभी  'हाँ' तो कभी 'ना'। इसी आभास से मुक्ति 'मोक्ष' है।