Thursday 31 January 2019

द्वीप

बीच बीच में
उग आते हैं ,
द्वीप।
जड़वत।
हमारे
चिंतन प्रवाह की तरलता
में विचारो के
जड़ तत्व की तरह,
जिन पर छा जाता है
अरण्य  अहंकार का।

चतुर्दिक फैली जलधि
प्रशांत मन की
करती प्रक्षालित
विचार द्वीपों को
चंचल बौद्धिक लहरियों से।
 करती अठखेली
अहंकार की अमर वेलि।
लहरियों के लौटते ही
अपनी शुष्कता में सूख
ठूंठ सा होने लगता अहंकार।

किन्तु चंचल चाल है
मन से लहकी इन लहरों की
ढालती है
 बुद्धि का हलाहल
अहंकार में
मनोरम मायावी ममत्व से!
मन, बुद्धि और अहंकार
यह स्पर्श छल जाल।
सागर, लहर और अरण्य
जीवन देते हैं टापू को,

एक पेड़ की जड़ में
पनपते हैं कई पौधे
छोटे छोटे अहंकार के।
गिरते ही,बड़े के, ठूंठ होकर
फिर तन के खड़ा हो जाता दूसरा!
फिर सुनामी महाकाल का।
धो -पोंछ देता है
इस रक्तबीज वंश अरण्य को।
शेष रहता है प्रशांत सागर, लीलते
हिलती-डुलती लीलावती लहरों को!







Sunday 27 January 2019

अवसाद

छा जाता अंधेरा,
चाँद पर।
रुक जाती किरणें,
सूरज की।
पीठ पर थामे भारी,
बोझिल रश्मिपुंज।
पसर जाता अवसाद,
धरती का।
बन कर चन्द्र ग्रहण,
अंतरिक्ष में।
कराहती कातर राका,
कारावास में।
छा जाती झाँई आँखों में ,
याद की।
चाँद, धरा और रवि,
सीध में।
रोती लहरें सागर की,
उछल उछल।
ग़म के गहरे तम में ऊँघता,
अमावसी अवसाद।
डाले डेरा यह खगोलीय बिम्ब जब ,
मन में।
गूंजता मन की मौन मांद में मंद मंद,
मायूस महानाद।
चेतन-अवचेतन-अचेतन  की ची-ची-पो-पो में,
उगता अवसाद।
हार में हर्ष व विजय में विषाद का छोड़ जाता है,
अहसास अवसाद।
किन्तु घूमते सौरमंडल में क्षणिक है,
ग्रहण काल।
रुकता नहीं राहु ग्रसने को, खो देता,
वक्र चाल।
फट जाते भ्रम, मिट जाता मन का,
उन्मत्त उन्माद।
गूंजता चेतना का अनहद नाद, होता
नि: शेष अवसाद।



Thursday 24 January 2019

प्रकृति का खेल

विकर्षण में होता है
अपनापन।
बढ़ जाता है
जुटना
ठेलने में एक दूसरे को।

नहीं होता डर
टूटकर
खोने का स्वत्व।
जैसे कि आकर्षण में,
खींचकर तोड़ने में।

छीन गया था स्वत्व
आपाधापी में दो पिंडो के
एक दूसरे को
अपनी ओर
खींचने में

टूट गई थी
पिंड से विलग
सघन खगोलीय राशि
बनने को धरती
पृथ्वी की।

कितनी रोई थी
पृथ्वी उस दिन।
आंसूओं का खारा जल
ठहर गया था
बन समंदर।

एक ओर
हो रहा था
तार तार
तपन तारे का।
खोकर अपना प्रकाश।

और समय की
शीत में
जमती जा रही थी
जिद जिजीविषा की
जमीन बनकर।

आने लगी थी घुमरी
और खाने लगी थी चक्कर,
चारो ओर अपने जच्चा की
गिन गिन कर
दिन,रात, महीने और साल।


दूसरी ओर फुफकार रही थी
ज्वालामुखी वेदना विरह की
दो तिहाई आंसुओं में
डूबी तरल तप्त लावा सी
बनकर आग्नेय आस्तित्व!

 खारा जल आंसूओं का,
अपने अंदर का ही,
लहरा रहा है
बनकर अब भी,
भावनाओं का समंदर।

हर बार उर के
गहवर से, गहराती।
लहरें लहराती, लपलपाती,
भागती हैं छूने।
जिजीविषा की जमीन।

फिर लगता है पीने उन्हें,
तट के जमीन का रेत।
और लौट जाती है,
उल्लसित लहरें।
लुटाकर लालसा!

सजा है वीतान,
प्रकृति के खेल का!
लहरों के लास का
समंदर के हास का
तटों के विलास का।


Tuesday 22 January 2019

दीदी के भाई जी


'बड़का मामा' चले गए। 'दीदी (हम माँ को ‘दीदी’ ही कहते थे) के भाई जी' चले गए । रात उतर चुकी थी । चतुर्दशी का चाँद पूरणमासी की चौखट पर पहुँच रहा था । तभी इस खबर ने मानों इस धवल धरती को टहकार कजरौटे से लीप दिया और हमारी आँखें अतीत के सुदूर अन्धकार में भटकने लगी । सोचने लगा कि यदि दीदी होती तो कैसे सहती यह वज्रपात! मैं अनायास अपने बचपन में उतर गया था जिसने मुझे दीदी का आँचल ओढ़ा दिया था और उसी आँचल से मुँह तोपे मैं कभी दीदी को निहारता तो कभी उसके भाई जी को ! ‘भाई जी’ और ‘काकाजी’ दो ऐसे किरदार दीदी के जीवन में थे जो उसके अहंकार को पोसने वाले मन और बुद्धि थे । उसके अस्तित्व के ये दो ऐसे अमरज्योति- पुंज थे जो उसकी चेतना के मूलभूत स्त्रोत-से प्रतीत होते थे। इन दोनों के मुख से निकली कोई वाणी उसके लिए कृष्ण के मुख से निकली गीता से ज्यादा प्रासंगिक और तात्विक थी । मुझे याद है कि कैंसर के इलाज़ के लिए उसे जब बम्बई ले जाया गया तो वह बार-बार मुझे बड़े संतृप्त भाव से कहती कि 'काकाजी बोललथिन ह इहाँ आवेला', मानो उसकी रूचि अपने इलाज में कम और काकाजी के इस कथन के गौरव को व्याखायित करने में ज्यादा हो !
मेरा बोझिल तन उस शोक संतप्त भीड़ का हिस्सा था जो ‘बड़का मामा’ की देह को अंतिम यात्रा के लिए तैयार कर रहा था । लेकिन मेरा बाल मन दीदी  के आँचल में छिपकर 'अंतरिक्ष-समय-स्लाइस' से अतीत के छिलके उतार रहा था...........तब दालान में मकई के बालों का ढेर लगता था। ढेर सारे सहयोगियों के साथ ‘भाई जी’ मकई के बाल के दानों को निकालने में जुट जाते । ढेर सारी कहानियों का दौर चलता । मैं देर रात बैठ बड़ी तन्मयता से कहानियों को सुनता और अपने भविष्य के लिए रचनात्मकता के तिनके-तिनके बटोरता.......... 'एक चिड़ी आयी, दाना ली और... फुर्र',...... जैसी कभी ख़तम न होने वाली कहानी भी पहले इसी बैठक में सुनी थी जो बाद में अंग्रेजी कहानी बनकर मेरे ऊपर की कक्षा में जब आयी तो उसके मूल रचनाकार मुझे दीदी के भाई जी ही लगे और जब पहली बार 'पायरेसी' शब्द से परिचय हुआ तब भी मुझे अंगरेजी की वह 'द एवर लास्टिंग स्टोरी' भाई जी की मूल कहानी का 'पायरेटेड वर्शन' ही लगी.....
.... इसी बीच रुदन का एक तीव्र स्वर उभरता है और मेरी तंद्रा भंग होती है । लोगों के आने का क्रम जारी है। बाँस  की खपाची से बनी शायिका पर उन्हें लिटा दिया गया है । ऊपर से एकरंगा का ओहार भी तान दिया गया है । उनके निष्प्राण किन्तु प्रदीप्त मुखमंडल पर फूलों के पराग भी निश्चेत लुढ़के हुए हैं और मेरी निश्चेष्ट आँखें एक बार फिर बड़का मामा की धराशायी देह में डूबती अतीत की गहराई में उतर जाती हैं.....
कल दीदी की विदाई है । ससुराल जायेगी । मायके में उसके भाई जी बड़ी बारीकी से उसकी विदाई के इंतज़ाम में एक-एक चीज की निगरानी कर रहे हैं । मेहमान के लिए खैनी की पैकिंग पर उनकी विशेष नज़र है । हवा लगने से खैनी के मेहराने का डर है । रामाशीष साव के साथ मिलकर बड़ी करीने से पुआल में खैनी को लपेटा जा रहा है । फिर उसे सुतरी से बांधकर सरिआया जा रहा है । मुझे देखते ही बताते हैं कि इसको जाते ही पापा को दिखा देना है । चुटकी भी लेते हैं चेताते हुए, 'अपने पापा जी को बता देना कि घीव सत्ताईस रुपये सेर है और खैनी बत्तीस रुपये ।' और विशेष हिदायत कि ' हे, देखिह. कहीं पापा के बदले बाबा ना देख लेस!' आँखों मे लोर और मुख पर मुस्कराहट ढ़ोती दीदी अपने भाई जी के इस तत्व-ज्ञान से हर्षित और गर्वित है । मैं भी उनकी इस सहृदयता पर मन ही मन उनके भगीना होने का गर्व लूट रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि मेरे खपरैल घर के लिए अपने छत-पीट्टा घर की छत भी भेजने की कूबत है तो मेरे इस बड़े दिल वाले बड़का मामा में ही । लेकिन याचना करने में इस बालमन के स्वाभिमान को सहज संकोच होता है और बस मन मसोसकर संतोष कर लेता है……..
 अचानक शोर उठता है, 'राम नाम सत है, माटी में गत है।' ट्रेक्टर बैक हो रहा है । अर्थी सज गयी है । उसे ट्रेक्टर पर लादा जाएगा । बचपन में मुझे कंधे पर लादकर बथान ले जाने वाले शरीर को मात्र ट्रेक्टर पर चढ़ाने  हेतु कंधा देने की कल्पना से मन सिहुर जाता है । नम आँखों में फिर से अतीत के छिलके छलक उठते हैं.....
........ उबहन में लोटा बाँधकर चुपके से मेरे नन्हे पाँव इनार पर पानी भरने चल गये हैं । नन्ही हथेली ने रस्से को कसकर पकड़ कर लोटा डुबा दिया है और उबहन को  गोलाई में नचा-नचा कर लोटा में पानी भरने का उपक्रम कर रहा है । अचानक उबहन में हल्कापन महसूस होता है । तब तक आर्कीमिडीज से मेरा कोई लेना-देना नहीं था । अगर रहता तब भी कोई फ़ायदा नहीं था । उबहन खींचने पर हाथ में केवल रस्सा था । लोटे ने जल-समाधि ले ली थी । मेरा तो साथ में मानों दिल ही डूब गया । घोर संकट सामने था..... उसी लोटे से प्लेट में चाय ढारकर नानाजी चाय पीते थे......
... अचानक बड़का मामा का वह लोहई लंगर याद आया जो  वह दालान के कोने में रखते थे । जब भी किसी की बाल्टी कुँए में डूबती तो वह मामाजी से माँगने आता और उसे कुँए में डुबाकर उस सामान को फँसाकर  निकाल लिया जाता । मैंने भी धीरे से उसे खोज निकाला और अबकी बार लोटे की बांध से भी मजबूत और कठोर बांध अपने थरथराते कोमल हाथों से उसमें बाँधा और लोटे की दिशा में उबहन को लटका दिया । सूरज देवता भी तेजी से अपनी सहानुभूति की  किरणें समेट रहे थे...... मैं बड़ी तेजी से उबहन से कुँए की छाती को हलकोर रहा हूँ कि वह लोटा उगल दे । किन्तु, इनार ने तो मानों मेरी तकदीर को ही ताकीद कर उसकी भी लुटिया डुबो दी हो! हाथ से उबहन छूट जाता है और पश्चिम का सूरज भी उसी कुँए में डूब जाता है । मेरी आँखों में अन्धेरा छा जाता है । दूर से दीदी मेरी शरारत पर खिसियाती हुई मेरी ओर बढ़ती है । मैं प्रत्याशित पिटाई की आशंका को  अपने रोदन रव से उच्चरित करने का श्री गणेश ही करता हूँ कि बड़का मामा आकर मुझे बचा लेते हैं........
.............. ट्रेक्टर स्टार्ट होने की ध्वनि में मैं वापस लौटता हूँ । 'उबहन' और 'लंगर' दोनों अब मेरे हाथ से   छूट गए हैं और मैं अभी भी अन्दर-अन्दर सिसक रहा हूँ । शवयात्रा प्रारम्भ होकर गाँव के दक्खीन करीब दो कोस पर गंडक के किनारे रुकती है । उत्तरे-दक्खिन शव को लिटा दिया गया है । ज़मीन पर शव के समानांतर ही एक क्यारीनुमा गड्ढा और उसके लम्बवत दो क्यारियाँ ऊपर और नीचे खोदी जाती हैं । करीने से लकड़ी के खम्भे डालकर उस पर लकड़ी की सेज सजा दी गयी है । सेज पर शव को लिटाकर अग्निदाह की क्रिया संपन्न हो रही है.....
...... माटी काटती गंडक की धार में तेज़ी है । तट के पार खर के जंगल में आग लगी हैं । पट-पट की तेज आवाज़ से जीभ लपलपाती उस पार की लपटें मानों इस पार जलते शव से उठती लपटों से लिपट जाना चाह रही हों । क्षितिज पर टँगे सूरज का मुँह  भी रूँआसा-सा  लाल भुभुक्का हो गया है। हवा सनसना रही है और आकाश धुँए  से भर गया है । हम सभी हाथ में चावल-तिल लिए तिलांजलि दे रहे हैं ।
"क्षिति जल पावक गगन समीरा 
पञ्च तत्व रचित अधम शरीरा।"
उधर सूरज गंडक की रेत में समा रहा है, इधर दीदी के भाई जी अपने पञ्च तत्वों को त्याजे पवन की तरंगों पर सवार हो दीदी की दिशा में महाप्रयाण कर रहे हैं....... अचानक झटके से हवा मे आँचल उड़ता है और हमारे दृष्टिपथ पर स्मृतियों की सतरंगी रेखा खींचते अंतरिक्ष में वह आँचल तिरोहित हो जाता है । आज ही के ही दिन तो मेरे सर से वह आँचल भी उड़ गया था । दीदी को भी गए आज सताईस साल हो गए...........!!!!!      

Thursday 17 January 2019

जनम- दिन

मां धरित्री!
पूरी होने पर
हर परिक्रमा
 सूरज की
तुम्हारी।
मैं मना लेता
अगला जनम दिन।
अपने अपने जतन
दोनों मगन।
धरे जाने पर
धरा के........

धाव रहा हूं
अनवरत।
गुजरता पड़ावों के
जयंतियों के।
खो देता हूं
हर हिस्से को
जिंदगी की।
दरम्यान
दो सालगिरह के,
बंधते ही अगली गिरह।
कला भी है...….

गजब, गति के विज्ञान की।
छूटती  जाती हैं
तेज़ी से पीछे।
निकट की चीजे
गतिमान पिंड के।
पिघल जाते हैं
परवर्ती पूर्ववर्ती बनकर।
किन्तु साथ चलते
बिम्ब दूर के।
पेड़ पौधे,
चांद सितारे......

बादल, सूरज।
कुछ ऐसा ही होता है
पार करने में,
पड़ावों को
जनम दिन के ।
छूट जाते हैं
किरदार
संगी संघाती
नजदीक के।
और साथ चलती हैं
बारात यादों की......

सुदूर के।
सरपट भागती
जिंदगी की नजदीकियां,
और धीरे धीरे बीतती
स्मृतियां दूर अतीत की,
गुजरते लमहे गिन गिन।
भौतिकी के
ऐसे ही
 ' पैरेलेक्स - एरर '
का अध्यात्म है
जनम दिन।

Saturday 12 January 2019

मैडम ( लघु कथा )


मैं आई.सी.सी. के समक्ष लज्जावत सर झुकाए खड़ा था. मुझ पर 'वर्क-प्लेस पर वीमेन के सम्मान को आउटरेज' करने का इलज़ाम था. यह आरोप मेरे लिए बिलकुल अप्रत्याशित था.मेरी शुचिता और मेरे निर्मल चरित्र का सर्वत्र डंका बजता था. स्वयं आई.सी.सी. के सदस्य हैरान थे. लोगों की अपार भीड़ भी आहत मुद्रा में बाहर खड़ी थी. मुझे तो काठ मार गया था . अभियोग की बात तो दूर, अभियोग लगाने वाली माननीय महिला को मैं पहचानता तक नहीं था. उन्हें भी पहली बार ही देख रहा था. मैंने अपनी नीची पलकों में कातर सलज्ज निगाहों से उनकी आँखों में झांका मानो मेरी रूह उनके रूह से पूछ रही ही, "क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं करोगी."
पता नहीं. कोई ईश्वरीय चमत्कार हुआ. उसने बयान दिया, यह आरोप मैंने 'मैडम' के इशारे पर लगाया है. अब मामला बिलकुल साफ़ था.
'मैडम' मेरी प्रिय सहकर्मी थी. साहित्य कला और संस्कृति पर उनके अद्भुत व्याख्यान के शब्द-शब्द से सरस्वती झांकती थी. करीने से पहने उनके वस्त्र और आभूषणों में लक्ष्मी विराजती  थी. उनकी रूप-सज्जा और नैन-नक्श की अपलक पलक कलाओं में सहस्त्रों रतियाँ कंदर्प आमंत्रण का आमुख लिखती. हाँ, उनके अधरों के विलास और नयनों की थिरकन से मेरी अन्यमनस्कता अवश्य बनी रहती.
महिला के रहस्योद्घाटन से तो मैं हतप्रभ रह गया. भावनाओं की इस हतशून्यता में मैंने समीप ही खड़े मैडम का हाथ पकड़ लिया और उनकी बरबस अनुराग दीप्त आँखों में आत्म-ग्लानि की लौ का अवलोकन करने लगा. मैं सपने से जाग चुका था  और आहत मन से अपने दु:स्वप्न की कथा उन्हें सुनाने लगा. मैडम ने मेरे हाथों को और जोर से पकड़ लिया और चहक उठी, "मैं तो बहुत आह्लादित हूँ. कम से कम कारण जो भी हो आपके सपनों में आयी तो! मेरे लिए तो यह अद्भुत क्षण है." उनकी पकड़ मजबूत होते जा रही थी.
इधर मेरी पत्नी जोर जोर से झकझोर कर मुझे जगा रही थी, "मुंगेरी लाल जी, उठो, उठो, मोदीजी का बायो-मेट्रिक अटेंडेंस' तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है. आँखे मलता हुआ मैं उठा और जल्दी से तैयार होकर दफ्तर की ओर भागा.

Thursday 10 January 2019

जल समाधि

सागर के बीच
उसकी छाती पर,
आसमान में चमकते
सूरज के ठीक नीचे,
खो जाती हैं दिशाएं,
अपनी सार्थकता खोकर।
आखिर शून्य के प्रसार की इस
अनंत निस्सीमता
जिसका न ओर
न छोर।
 नीचे जल
अतल।
ऊपर अंतरिक्ष
परिणति से निरपेक्ष।
दोनों हाथों फैलाए नाच जाता हूं
पूरी परिक्रमा
हवा, भर बांह।
चतुर्दिक, अनंत।

बस चमकते थाल की तरह
माथे का सूरज
अहसास कराता है
अस्तित्व का।
वो भी ढुलक रहा
तेजी से
समेटता अपनी किरणों को
लेने को जल समाधि
और छाने को, अन्धकार।
घटाटोप!
सब कुछ अदृश्य!
सिर्फ बचेगा 
अदिशअहसास ,
खुद के होने का।
जिसकी दिशा
उगेगी फिर,
क्षितिज पर सागर के
सूरज के ही साथ।

इस रोज
उगती
डूबती
दिशाओं के बंधन से मुक्त,
होने को बनना
होगा,
मुझे खुद
सूरज।
बस !
मेरा काम होगा
चलना,
अंत की ओर
अपने  अनंत के।
और सब देखेंगे
दिशाएं
मेरी
करवटों में
अनंतता की!