'बड़े मामा' चले गए. 'दीदी (हम माँ को दीदी ही कहते थे) के भाई जी' चले गए. रात उतर चुकी थी. चतुर्दशी का चाँद पूरनमासी की चौखट पर
पहुँच रहा था. तभी इस खबर ने मानों इस धवल धरती को टहकार कजरौटे से लीप दिया और और
हमारी आँखे अतीत के सुदूर अन्धकार में भटकने लगी. सोचने लगा कि यदि दीदी होती तो
कैसे सहती यह वज्रपात! मैं अनायास अपने बचपन में उतर गया था जिसने मुझे दीदी का
आँचल ओढ़ा दिया था और उसी आँचल से मुंह तोपे मैं कभी दीदी को निहारता तो कभी उसके
भाई जी को. भाई जी और काकाजी दो ऐसे किरदार दीदी के जीवन में थे जो उसके अहंकार को
पोसने वाले मन और बुद्धि थे. उसके आस्तित्व के ये दो ऐसे अमर ज्योति पुंज थे जो
उसकी चेतना के मूलभूत स्त्रोत से प्रतीत होते थे. इन दोनों के मुख से निकली कोई वाणी
उसके लिए कृष्ण के मुख से निकली गीता से ज्यादा प्रासंगिक और तात्विक थे. मुझे याद
है कि कैंसर के इलाज़ के लिए उसे जब बम्बई ले जाया गया तो वह बार बार मुझे बड़े
संतृप्त भाव से कहती कि 'काकाजी बोललथिन ह इहाँ आवेला', मानों उसकी रूचि अपने इलाज
में कम और काकाजी के इस कथन के गौरव को व्याखायित करने में ज्यादा हो.
मेरा बोझिल तन उस शोक संतप्त भीड़ का हिस्सा था
जो बड़े मामा की देह को अंतिम यात्रा के लिए तैयार कर रहा था. लेकिन मेरा बाल मन
दीदी के आँचल में छिपकर
'अंतरिक्ष-समय-स्लाइस' से अतीत के छिलके उतार रहा था...........तब दालान में मकई के बालों
का ढेर लगता था. ढेर सारे सहयोगियों के साथ भाई जी मकई के बाल के दानों को निकालने
में जुट जाते. ढेर सारी कहानियों का दौर चलता. मैं देर रात बैठ बड़ी तन्मयता से कहानियों
को सुनता और अपने भविष्य के लिए रचनात्मकता के तिनके तिनके बटोरता.......... 'एक चिड़ी आयी,
दाना ली और... फुर्र',...... जैसी कभी ख़तम न होनेवाली कहानी भी पहले इसी बैठक में सुनी
थी जो बाद में अंग्रेजी कहानी बनकर मेरे ऊपर की कक्षा में जब आयी तो उसके मूल
रचनाकार मुझे दीदी के भाई जी ही लगे और जब पहली बार 'पायरेसी' शब्द से परिचय हुआ
तब भी मुझे अंगरेजी की वह 'द एवर लास्टिंग स्टोरी' भाई जी की मूल कहानी का
'पायरेटेड वर्शन' ही लगी.....
.... इसी बीच रुदन का एक तीव्र स्वर उभरता है और मेरी तंद्रा भंग
होती है. लोगों के आने का क्रम जारी है. बांस की खपाची से बनी शायिका पर उन्हें
लिटा दिया गया है. ऊपर से एकरंगा का ओहार भी तान दिया गया है. उनके निष्प्राण
किन्तु प्रदीप्त मुखमंडल पर फूलों के पराग भी निश्चेत लुढ़के हुए हैं और मेरी
निश्चेष्ट आँखें एक बार फिर बड़का मामा की धराशायी देह में डूबती अतीत की गहराई में
उतर जाती हैं.....
कल दीदी की विदाई है. ससुराल जायेगी. मायके में उसके भाई जी बड़ी बारीकी से उसकी बिदाई के इंतज़ाम में एक एक चीज की निगरानी कर रहे हैं. मेहमान के
लिए खैनी की पैकिंग पर उनकी विशेष नज़र है. हवा लगने से खैनी के मेहराने का डर है.
रामाशीष साव के साथ मिलकर बड़ी करीने से पुआल में खैनी को लपेटा जा रहा है. फिर उसे
सुतरी से बांधकर सरिआया जा रहा है. मुझे देखते ही बताते हैं कि इसको जाते ही पापा
को देखा देना है. चुटकी भी लेते हैं चेताते हुए, 'अपने पापा जी को बता देना कि घीव
सत्ताईस रुपये सेर है और खैनी बत्तीस रुपये.' और विशेष हिदायत कि ' हे, देखिह.
कहीं पापा के बदले बाबा ना देख लेस!' आँखों मे लोर और मुख पर मुस्कराहट ढ़ोती दीदी
अपने भाई जी के इस तत्व ज्ञान से हर्षित और गर्वित है. मैं भी उनकी इस सहृदयता पर
मन ही मन उनके भगीना होने का गर्व लूट रहा
हूँ और सोच रहा हूँ कि मेरे खपरैल घर के लिए अपने छत-पीटा घर की छत भी भेजने की
कूबत है तो मेरे इस बड़े दिल वाले बड़े मामा में ही. लेकिन याचना करने में इस बाल मन
के स्वाभिमान को सहज संकोच होता है और बस मन मसोसकर संतोष कर लेता है.
अचानक शोर उठता है. 'राम नाम सत है, माटी में गत है'. ट्रेक्टर बैक
हो रहा है. अर्थी सज गयी है. उसे ट्रेक्टर पर लादा जाएगा. बचपन में मुझे कंधे पर
चढ़ाकर बथान ले जाने वाले शरीर को मात्र ट्रेक्टर पर लादने हेतु कंधा देने की
कल्पना से मन सिहुर जाता है. नम आँखों में फिर से अतीत के छिलके छलक उठते हैं.....
........ उबहन में लोटा बांधकर चुपके से मेरे नन्हे पाँव इनार पर
पानी भरने चल गये हैं. नन्ही हथेली ने रस्से को कसकर पकड़ कर लोटा डूबा दिया है और
उबहन को गोलाई में नचा नचा कर लोटा में
पानी भरने का उपक्रम कर रहा है. अचानक उबहन में हल्कापन महसूस होता है. तबतक
आर्कीमिडीज से मेरा कोई लेना देना नहीं था. अगर रहता तब भी कोई फ़ायदा नहीं था.
उबहन खींचने पर हाथ में केवल रस्सा था. लोटे ने जल समाधि ले ली थी. मेरा तो साथ
में मानों दिल ही डूब गया. घोर संकट सामने था..... उसी लोटे से प्लेट में चाय ढारकर
नानाजी चाय पीते थे......
... अचानक बड़का मामा का वह लोहई लंगर याद आया जो दालान के कोने में
वह रखते थे. जब भी किसी की बाल्टी कुँए में डूबती तो वह मामाजी से मांगने आता और
उसे कुँए में डुबाकर उस सामान को उसमे फंसाकर निकाल लिया जाता. मैंने भी धीरे से
उसे खोज निकाला और अबकी बार लोटे की बांध से भी मजबूत और कठोर बांध अपने थरथराते
कोमल हाथों से उसमें बाँधी और और लोटे की दिशा में उबहन को लटका दिया. सूरज देवता
भी तेजी से अपनी सहानुभूति की किरनें समेट रहे थे...... मैं बड़ी तेजी से उबहन से
कुँए की छाती को हलकोर रहा हूँ कि वह लोटा उगल दे. किन्तु, इनार ने तो मानों मेरी
तकदीर को ही ताकीद कर उसकी भी लुटिया डुबो दी हो! हाथ से उबहन छुट जाता है और
पश्चिम का सूरज भी उसी कुँए में डूब जाता है. मेरी आँखों में अन्धेरा छा जाता है.
दूर से दीदी मेरी शरारत पर खिसियाती हुई मेरी ओर बढ़ती है. मैं प्रत्याशित पिटाई की
आशंका अपने रोदन रव से उच्चरित करने का श्री गणेश ही करता हूँ कि बड़का मामा आकर
मुझे बचा लेते हैं........
.............. ट्रेक्टर स्टार्ट होने की ध्वनि में मैं वापस लौटता
हूँ. 'उबहन' और 'लंगर' दोनों ने अब मेरे हाथ छोड़ दिए हैं और मैं अभी भी अन्दर-अन्दर सिसक रहा
हूँ. शव यात्रा प्रारम्भ होकर गाँव के दक्खीन करीब दो कोस पर गंडक के किनारे रुकती
है. उत्तरे-दक्खिन शव को लिटा दिया गया है. जमीन पर शव के समानांतर ही एक क्यारी
नुमा गड्ढा और उसके लम्बवत दो क्यारियाँ ऊपर और नीचे खोदी जाती हैं. करीने से लकड़ी
के खम्भे डालकर उसपर लकड़ी की सेज सजा दी गयी है. सेज पर शव को लिटाकर अग्निदाह की
क्रिया संपन्न हो रही है.....
...... माटी काटती गंडक की धार में तेज़ी है. तट के पार खर के जंगल
में आग लगी हैं. पट-पट की तेज आवाज़ से जीभ लपलपाती उस पार की लपटें मानों इस पार जलते
शव से उठती लपटों से लिपट जाना चाह रही हों. क्षितिज पर टंगे सूरज का मुंह भी
रुंआसा सा भुक भुक लाल हो गया है. हवा सनसना रही है और आकाश धुंए से भर गया है. हम
सभी हाथ में चावल-तिल लिए तिलांजलि दे रहे हैं.
"क्षिति जल पावक गगन समीरा
पञ्च तत्व रचित अधम शरीरा."
उधर सूरज गंडक की रेत में समा
रहा है, इधर दीदी के भाई जी अपने पञ्च तत्वों को त्याजे पवन की तरंगों पर सवार हो
दीदी की दिशा में महाप्रयाण कर रहे हैं....... अचानक झटके से हवा मे आँचल उड़ता है
और हमारे दृष्टिपथ पर स्मृतियों की सतरंगी रेखा खींचते अंतरिक्ष में वह आँचल तिरोहित
हो जाता है. आज के ही दिन तो मेरे सर से
वह आँचल उड़ गया था. दीदी को भी गए आज
सताईस साल हो गए...........!!!!!