Friday 14 August 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ----- (३)


(भाग-२ से आगे)
एक बात और। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है पूर्वाग्रहों से मुक्त, प्रामणिकता, सार्थक तर्क और वस्तुनिष्ठता। हमें दोनों ध्रुवों पर खड़े कट्टरपंथियों से परहेज  करना पड़ेगा जो मात्र समर्थन के लिए समर्थन या विरोध के लिए विरोध करते हैं। हम एक मूलर या मेकौले के लिए पूरे यूरोपीय साहित्यकारों के प्रति भी  अपने मन में कोई नकारात्मक छवि बना लें तो यह भी उचित नहीं। बात चाहे जो भी हो मूलर और विलियम जोंस के इस योगदान को हम  भुला नहीं सकते कि भारतीय वैदिक ग्रंथों को उन्होंने बड़ी प्रमुखता से विश्व के पटल पर रखा और इसकी विवेचना तथा मीमांसा की आधारभूमि तैयार की। साथ ही, यह भी नहीं  कि हमारे मन की बात हो तो ठीक, अन्यथा ग़लत! यहाँ  मन की बात नहीं बल्कि सही-ग़लत के परीक्षण का तर्क की कसौटी पर खरे होने का सवाल है। सही बातों का स्वीकार और ग़लत बातों का अस्वीकार। उदाहरण के तौर पर जब तर्क की कसौटी पर स्वयं मूलर  के सहकर्मियों गोल्डस्टकर, ह्विटनी और विल्सन ने मूलर को चुनौती देते हुए यह समझा दिया कि ऋग्वेद रचे जाने की उसकी काल गणना ठीक नहीं, तो स्वयं मूलर ने बड़ी ईमानदारी से उनकी बातों को मान  लिया और यहाँ तक कह दिया कि उसका  काल-निर्धारण एक थोथी कल्पना मात्र है और वेदों की ऋचाओं की रचना १२०० ईपु (ईसापूर्व) हुई, या १५०० ईपु हुई, या २००० ईपु हुई, या ३००० ईपु हुई इस तथ्य का उद्घाटन इस संसार के किसी भी प्राणी के वश की बात नहीं। 
मज़े की बात यह है कि मूलर तो अपनी ग़लती मान के चले गए लेकिन उनके अनुयायी उसे अभी तक ढो रहे हैं। मूलतः मूलर का सारा किया-कराया चार ही बातों के चारों ओर केंद्रित था। एक तो आर्य बाहर से आरे वाले पहिए के रथ पर सवार होकर अपने घोड़ों के साथ दक्षिण रूस से पश्चिम एशिया के रास्ते पश्चिमोत्तर भारत पर १५०० ईसापूर्व आक्रमण  किए। अपने रथों को हमलावर आर्यों ने  हिंदूकुश और हिमावत  के पार कैसे कराया, इसकी चर्चा तो उसने नहीं की है, लेकिन  सम्भवतः भारतीय पौराणिक कथाओं का वह वृतांत उसके सामने रहा होगा कि अगस्त्य के दक्षिण भारत जाते समय विंध्य पर्वत ने सर झुकाकर उन्हें जाने की राह दी थी!  दूसरेहड़प्पा के लोग द्रविड़ बोलते थे और उन्हें आर्यों ने खदेड़कर दक्षिण भारत पहुँचा दिया। तीसरे, वह संस्कृत भाषा लेकर यूरोप से आए थे और उसी संस्कृत में उन्होंने सप्त-सिंधु क्षेत्र में  वेद की रचना की। उसने इस बात का भी संकेत नहीं दिया कि अपनी  जिस तथाकथित जन्मभूमि से संस्कृत लायी गयी, उस भूमि में संस्कृत की आज दशा और दिशा क्या है।  जिस सरस्वती नदी का  वर्णन ऋग्वेद में है उसे उसने अफ़ग़ानिस्तान की हेमलैंड नदी बताया। और चौथे, हड़प्पा की संस्कृति को आक्रांता-आर्यों ने  नष्ट कर दिया। इन सब बातों पर हम सिलसिलेवार चर्चा करेंगे। इसके लिए हम ऋग्वेद के साहित्य में उन श्लोकों को भी देखेंगे जिसमें सरस्वती नदी का परिचय ऐसी  पवित्र  नदी के रूप में किया गया है जो हिमावत पर्वत से नि:सृत होकर आर्य भूमि को सिंचित करते हुए समुद्र में मिल जाती है और साथ ही, वेदों में वर्णित इस सरस्वती नदी के भौगोलिक वितान का अफ़ग़ानिस्तान की भूमि से किंचित भी ताल-मेल नहीं बैठता।       
      अब हम थोड़ा भारत में पुरातात्विक उत्खनन के इतिहास की भी चर्चा कर लें। सबसे पहली खुदायी १९२१ ईसवी में  आज के  पाकिस्तान के  हड़प्पा क्षेत्र  में दयाराम साहनी द्वारा की गयी। इससे बहुत पहले क़रीब सातवीं शताब्दी में पंजाब प्रांत (पाकिस्तान) में जब ईटें बनाने के लिए लोगों ने मिट्टी की खुदायी की तो उन्हें मिट्टी के अंदर ही दबे साबुत ईंट मिले। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। लोगों ने इसे ईश्वर का चमत्कार माना और उन ईटों का उपयोग घर बनाने में किया था। बात १८२७ की है। ब्रिटिश आर्मी के एक भगोड़े सैनिक थे चार्ल्स मैसेन। उनका शौक़ था ख़ूब भ्रमण करना और पुराने सिक्कों या बहुत पुरानी चीज़ों का संग्रह करना। वह जगह-जगह मिट्टी को खोदकर उसके अंदर से कोई रोचक चीज़, सिक्के या पुरानी वस्तु मिल जाय तो उसे संग्रहित कर लेते थे। कहते हैं कि इस भगोड़े सैनिक ने १८४२ तक वापस इंग्लैंड पहुँचने तक ४७००० पुराने सिक्के जमा कर लिए थे। अपनी इसी रुचि के क्रम में उन्होंने हड़प्पा और उसके आस-पास के कई जगहों की यात्रा की थी, जब वे आगरा कैंट से अपने एक अन्य भगोड़े मित्र के साथ भागे थे। मोहनजोदड़ो से क़रीब १०० मील उत्तर पश्चिम में कलात नामक एक जगह के टीले का भी उन्होंने वर्णन किया है जो हड़प्पा से बहुत कुछ मिलता-जुलता था। कलात में रहने वाले ब्रहुईलोगों का भी उल्लेख उन्होंने किया है जो द्रविण  भाषा बोलते थे। मोहनजोदड़ो के आस-पास भी ब्रहुई लोगों के रहने  का प्रमाण मिलता है। अपनी पुस्तक ‘Narrative of various journeys in Bolochistan, Afganistan and Punjab’  में मैसन ने इन सबका विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने ब्रहुई लोगों की एक लोक-कथा की भी चर्चा अपनी पुस्तक में की है। कुल मिलाकर, चार्ल्स मैसन पहले यूरोपीय थे जिन्होंने  हड़प्पा की जानकारी सबसे पहले दी। बंगाल इंजीनियर ग्रुप में इंजीनियर अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने १८५६ में इस स्थल का निरीक्षण किया था। किंवदंती तो यह भी है कि कराची से लाहौर के मध्य रेल लाइन के निर्माण में इन स्थलों से मिले ईटों का भी प्रयोग हुआ था। १८६१ में अलेक्ज़ेंडर कनिंघम के निर्देशन में भारतीय पुरातत्व विभाग की स्थापना तत्कालीन वायसराय जॉन केनिंग की सहायता से  हुई। अपने शुरुआती दिनों में यह मूलतः एक सर्वेक्षण संस्थान  था।  कनिंघम ने गया से लेकर अफगनिस्तान की सीमा तक के क्षेत्रों का सर्वेक्षण किया। पुराने स्मारकों की सूची बनायी गयी। उनकी देखरेख संबंधी नीतियों के निर्माण की दिशा में पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग अपनी भूमिका के क्रम में कई उतार-चढ़ाव देखते रहा। लॉर्ड कर्ज़न के वायसराय बनते ही इस विभाग के दिन बहुर  गए। कर्ज़न ने इस विभाग के लिए महानिदेशक पद का सृजन किया और १९०१ में जॉन मार्शल को इस पद पर नियुक्त किया। १९०२ में मार्शल ने पदभार ग्रहण किया। मार्शल के ही मार्गदर्शन में दया राम साहनी ने   १९२१ में हड़प्पा की  तथा  रखाल दास बनर्जी ने १९२२ में मोहनजोदड़ो (सिंधी भाषा में मुइन जे दाडोअर्थात मुर्दों का टीला’) की खुदाई की।
        उत्खनन में प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों के वैज्ञानिक पड़ताल के बाद यह प्रकाश में आया कि  सिंधु-घाटी की सभ्यताके नाम से प्रसिद्ध इस सभ्यता का विनाश १९०० ईसा पूर्व  ही हो गया था। फिर तो १५०० ईसापूर्व आर्यों के भारत में घुसकर हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के लोगों को पराजित कर वहाँ से भगाकर अपना डेरा डालने वाली कहानी गढ़नेवाले इतिहासकारों के मुँह पर ताला लग गया। आर्य-अतिक्रमण सिद्धांत को आधुनिक विज्ञान ने  सबसे बड़ा आघात पहुँचाया। तब इन सिद्धांतकारों ने  १५०० ईसापूर्व को संशोधित कर १५००-२००० ईसापूर्व कहा। अब किसी की उम्र का अन्दाज़ करने में ५-१० साल का अंतर तो पच सकता है, लेकिन ५०० साल के अंतर के अन्दाज़ को तो सिर्फ़ गप्पबाज़ी ही कहा जा सकता है। इन वैज्ञानिक तथ्यों के आ जाने के बाद अब आर्य आक्रमण सिद्धांतअर्थात ‘AIT’ (ARYA INVASION THEORY)’ को आर्य अप्रवासन सिद्धांतअर्थात ‘AMT (Arya Migration Theory) कहा जाने लगा। कुछ लोग तो इसे अब ‘ATT (Arya Tourism Theory)’ अर्थात आर्य-पर्यटन  सिद्धांतभी कहने लगे हैं। हम खुदाई से प्राप्त सबूतों पर बाद में विस्तार से चर्चा करेंगे।
अभी हम इतना ही कहकर इस प्रकरण पर आगे लौटकर आने तक विराम लेना चाहते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यताके क्षेत्रों में जो भी खुदायी हुई वह सारी खुदाई भारत को आज़ादी मिलने (१९४७) से पहले आज के पाकिस्तान वाले ही क्षेत्र में हुई थी। उदाहरण के तौर पर

उत्खनन-स्थल
उत्खनन वैज्ञानिक
उत्खनन-वर्ष
स्थान
नदी
हड़प्पा
दयाराम साहनी
१९२१
पंजाब(पाकिस्तान)
रावी
मोहनजोदेड़ो
रखालदास बनर्जी
१९२२
लरकाना ज़िला, सिंध (पाकिस्तान)
सिंधु
सुतकाजेंदर
आर एल स्टीन
१९२७
बलूचिस्तान(पाकिस्तान)
दस्क
चांहुदारो
एस गोपाल मजूमदार
१९३१
सिंध (पाकिस्तान)
सिंधु
       हमने ऊपर के उदाहरण से केवल यह समझाना  चाहा है कि आज़ादी मिलने से पहले तक खुदाई वाले हड़प्पा-स्थल का कोई भी भाग भारत में नहीं था और सारे-के सारे स्थल पाकिस्तान में ही थे। सच कहें तो आज़ादी मिलने के बाद भी बहुत दिनों तक तो हमारे उत्खनन-वैज्ञानिक ख़ाली ही बैठे रहे। उलटे, पाकिस्तान में पड़ने वाले स्थलों से भी उनका सम्पर्क भंग हो गया। स्वतंत्रता मिलने के बाद थोड़ी देर ही सही, जब भारतीय क्षेत्रों में खुदाई का काम शुरू हुआ और हड़प्पा-संस्कृति के स्थल का विस्तार एक-एक कर के हरियाणा से राजस्थान होते हुए गुजरात तक मिलता चला गया और साथ-साथ वैज्ञानिक तकनीक की प्रगति होने से भी रहस्यों के परत एक-एक कर के खुलते चले गए तब तो सारा पासा ही उलटता-सा  प्रतीत होने लगा। हड़प्पा संस्कृति के भूगोल का मात्र एक तिहायी ही पाकिस्तान के हिस्से आया। बाक़ी दो तिहायी भारत में दृष्टावती और  सरस्वती   नदी  के बीच सरस्वती के बेसिन पर पसरा हुआ था। कुल २००० उत्खनन स्थलों में १५०० स्थल सरस्वती के बेसिन पर पाए गए।
हरियाणा के राखीगढ़ी की खुदायी ने तो मानों सारे प्रश्नों के सरल हल ही ढूँढ दिए हों। आपको बताते चलें कि  इस खुदायी का कुल क्षेत्रफल ५५० हेक्टेयर है जो उस समय तक के सबसे बड़े उत्खनन-क्षेत्र मोहन-जो-दड़ो के क्षेत्रफल का दुगुना है। राखीगढ़ी का उत्खनन और अध्ययन निरा इतिहासकारों की कथावाचन शैली पर आधारित नहीं था, बल्कि इसके कार्यान्वयन, मिली सामग्रियों के वर्गीकरण और उनके विश्लेषण में आधुनिक विज्ञान के समस्त तथ्यों का समावेश किया गया। इसमें सर्वेयिंग की अत्याधुनिक तकनीक जीपीआर (Ground Penetration Radar) प्रणालीका प्रयोग किया गया।  भौगोलिक आँकड़े, भू-गर्भीय और भू-भौतिक सर्वेक्षण के अर्वाचीनतम तकनीक, उपग्रह से लिए गए चित्रों और अन्य भूगर्भीय परीक्षणों से ज़मीन के अंदर के जल प्रवाह का अध्ययन जो नदियों के इतिहास का उद्घाटन करते हैं, जल-विज्ञान (हाईड्रोलौजी), जीवाश्मों का वैज्ञानिक विश्लेषण, मानव-जाति का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों (ऐन्थ्रॉपॉलॉजिस्ट) के द्वारा खुदाई में मिली सामग्रियों का वैज्ञानिक विश्लेषणखुदाई में मिले नरकंकालों का जेनेटिक विश्लेषण, संसार के अन्य भुभागों में हुए उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों से तुलनात्मक अध्ययन, खुदाई के भिन्न-भिन्न स्तरों की वैज्ञानिक काल-गणना और उन सभी वैज्ञानिक तत्वों का इस पुरातात्विक सर्वेक्षण में समावेश करने के बाद ही उचित नतीजे पर पहुँचने की कवायद की गयी है। उदाहरण के तौर पर राखीगढ़ी में खुदाई की गहरायी अब तक की सबसे अधिक २५ मीटर है जिसमें प्राप्त टीलों के भिन्न-भिन्न काल खंड में परत-दर-परत बैठे सतहों (डिपोज़िशन) की न केवल उम्र निकाली गयी, बल्कि उस परत के समकालीन सांस्कृतिक और भौतिक तत्वों का सम्पूर्ण अध्ययन भी किया गया। सबसे नीचे की परतें ५५०० ईसापूर्व की पायी गयी। बीच की परतें २६०० ईसापूर्व पायी गयी और सबसे उपर  की परतें १९०० ईसापूर्वकी पायी गयी, जिसके भिन्न-भिन्न आयामों के वैज्ञानिक विश्लेषण के बाद यह प्रकाश में आया कि १९०० ईसापूर्व के बाद उनका नागरीय जीवन समाप्त हो गया। भिन्न-भिन्न परतों में दबे नर-कंकाल अपने-अपने काल में काल-कवलित होने के कारणों, महामारी और मौसम के प्रकोपकी भी गाथा कहते हैं। सघन वैज्ञानिक विश्लेषणों के बाद यह पाया गया कि इन कंकालों की हड्डियों के किसी भी भाग में किसी भी प्रकार की चोट या तेज़ धारदार हथियार के प्रहार से किसी भी प्रकार के काटने या टूटने के चिह्न नहीं थे।  मनुष्य जाति के अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने इन कंकालों के आँकड़े इकट्ठे कर उनकी मुखाकृति का भी विकास कर लिया है जो आश्चर्यजनक  तौर पर आज के उस क्षेत्र के निवासियों से तनिक भी अलग नहीं है। साथ ही अतीत के टीले में दबे अन्य सांस्कृतिक तन्तुओं  को बटोरकर आज के जीवन के उन तन्तुओं से तुलना कर के यह प्रमाणित किया जा चुका है  कि काल-क्रम के सांस्कृतिक  प्रवाह की निरंतरता में कोई अवरोध या टूटन कहीं नहीं दिखता। जीवन-यापन की शैली की वही धारा आज भी उसी प्रकार बहे जा रही है। ऐसा कहीं भी कोई संकेत नहीं मिलता कि बीच में कोई बाहरी  आक्रमण आकर उस जीवन धारा की निरंतरता में कोई बड़ा शून्य डाल गया  हो। और तो और, खुदायी में मिले कंकालों के जेनेटिक परीक्षण  और आज के उस क्षेत्र के निवासियों से उसकी तुलना ने यह भी साबित कर दिया है कि दोनों के नमूनों में ७५ प्रतिशत समानता पायी गयी है अर्थात दोनों एक ही पूर्वज की संतति हैं।  हम आगे इन सभी तथ्यों को और टटोलेंगे लेकिन पहले वापस ऋग्वेद पर आते हैं, क्योंकि हमारी मौलिक चर्चा ही इस बात को लेकर शुरू हुई है कि ऋग्वेद और इसके परवर्ती वैदिक ग्रंथों की रचना कब हुई। निस्सन्देह, इसके निर्धारण में ऊपर की चर्चाएँ भी सार्थक भूमिका निभाएँगी।
वेद के गहन अध्येताओं ने वेद की भाषा-रचना, व्याकरण, शब्द-संरचना, छंद, अलंकार, उनमें वर्णित देवी-देवताओं के नाम, जगहों के नाम, ऋषियों के नाम, वंशों के नाम, राजाओं के नाम, भौगोलिक विशेषताओं, पात्रों के नाम आदि का न केवल विशद  विश्लेषण किया है, बल्कि उपलब्ध अन्य प्राचीन सभ्यताओं की साहित्य सामग्रियों के साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। उनके इस अध्ययन ने भी इस विषय पर बहुत कुछ दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है। इसी कड़ी में हम  डॉक्टर श्रीकांत तलगेरी की चर्चा करेंगे जिन्होंने अपने मौलिक शोध से न केवल आर्य-आक्रमण सिद्धांतका बहुत पांडित्यपूर्ण खंडन  किया है, उलटे यह साबित कर दिया है कि आर्य इसी मिट्टी में जन्मे थे और वह यहाँ से बाहर जाकर अपने साहित्य और दर्शन का तत्व बाहरी मिट्टी में छोड़ आए थे। इस विषय पर उन्होंने दो साल पहले भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR) में अपना एक शोध पत्र प्रस्तुत किया था जिसे  २० जुलाई २०२० को परिमार्जित और पुनर्संशोधित कर  प्रस्तुत किया है। यह मूलतः अंग्रेज़ी में है और अबतक अप्रकाशित है। इससे हम अपने पाठकों को परिचित कराना अपना पुनीत  कर्तव्य समझते हैं। इसके हिंदी अनुवाद और पाठकों के पास ले जाने की उन्होंने सहर्ष अनुमति भी दी है। इसके लिए हम उनका आभार व्यक्त करते हैं। लेकिन, उनके पास चलने से पहले हम पाठकों को एक प्रश्न छोड़ जाते हैं कि क्या ऐसा दृष्टांत कहीं इतिहास में उपलब्ध है कि आक्रांताओं ने पराजित देश के नदियों, पहाड़ों या जंगलों के भी  नाम बदल दिये हों, या आगे भी ऐसा कभी सम्भव हो! ये नदी, पहाड़, जंगल, झरने और  सरोवर ही  कहीं वे असली जीवित पात्र तो नहीं, जो अनंत काल तक अपने असली पूर्वजों के द्वारा रखे गए अपनी संस्कृति में सुवासित अपने मूल नाम को ढोते रहते हैं! सियासतें बदल जाती हैं, रियासतों के नाम बदल दिए जाते हैं, राजाओं के नाम बदलते हैं, शहरों, क़स्बों और नगरों के नाम बदल जाते हैं, कैलेंडर की तिथियाँ बदलती रहती हैं, लेकिन नदी वही, पहाड़ वही, जंगल वही! तो ऋग्वेद में वर्णित नदियों पहाड़ों, का नामकरण संस्कार भी क्या उन हमलावर आर्यों ने ही किए!  
                                                                क्रमशः …………

34 comments:

  1. सही दिशा में जा रहा है लेखन। सबसे महत्व्पूर्ण है पूर्वाग्रहों से अलग हो कर विश्लेषण और वो वही कर सकता है जो अति महत्वकांक्षी ना हो और सत्ता मद से दूर हो। साधुवाद।

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    1. जी, बिलकुल सही। बहुत आभार आपके अवलोकन का।

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  2. सही दिशा में जाती एतहासिक पड़ताल!! 🙏🙏🙏

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    1. जी, अत्यंत आभार आपके अवलोकन का।

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    2. आदरणीय विश्वमोहन जी, आपकी लेख शृंखला से मेरे ज्ञान में बहुत वृद्धि हुई है। खासकर हरियाणा में राखीगढी के बारे में जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई । हरिभूमि के नाम से पुकारे जाने वाले हरियाणा का वैदिक संस्कृति से इतना गहरा नाता है, ये हम हरियाणावासियों के लिए अत्यंत गर्व का विषय है। उससे भी बढ़कर -यहाँ प्राचीनतम सभ्यता के अवशेष पाया जाना और प्रामाणिक रूप से उन अवशेषों को वैश्विक स्तर की मान्यता इस गर्व को द्विगुणित करती है। सखी कामिनी की सारगर्भित टिप्पणी द्वारा अंतिम पैरा के अर्थ का गहन बोध हुआ। आपकी मेधा से उत्पन्न ये प्रश्न बुद्धिजीवियों और जिज्ञासु पाठकों के लिए गहन चिंतन और शोध का विषय हैं। आपके इस स्तुत्य प्रयास में यदि हमारे जैसे पाठक कुछ सहयोग कर सके , ये हमारे लिए बहुत बड़ा सौभाग्य होगा। इन लेखों को फेसबुक पर साझा करने की अनुमति चाहूँगी। सादर आभार और शुभकामना सहित अगली कड़ी की प्रतीक्षा में 🙏🙏🙏

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    3. जी, हाँ, हरियाणा न केवल आर्य संस्कृति का पालना रहा है, बल्कि यहाँ की पवित्र भूमि में रचित ऋग्वेद की ऋचाओं ने समस्त वैदिक और वेदोत्तर साहित्य के अलावे समस्त संसार के विचार-दर्शन को सुसंस्कृत किया है। बस एक ही जगह मुझे हैरत होती है कि वैदिक संस्कृत में ऋचाओं को रचने वाले उन आर्ष पूर्वजों की भूमि में आज के नागरिकों की भाषा, बोली और उनका उच्चारण उनसे इतना अलग कैसे हो गया, जबकि अन्य क्षेत्रों में सांस्कृतिक प्रवाह का नैरंतर्य अद्यतन अक्षुण्ण है। बहुत आभार आपके आशीष का और इसे साझा करने का।

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    4. जी , आपने सही कहा आज के हरियाणा की बोलचाल की भाषा में हिंदी और संस्कृत का उच्चारण थोड़ा असहज और अक्खड़पन से भरपूर है जिसके बारे में एक मजाकिया बात प्रचलित है कि हरियाणा , पंजाब वालों के सर पर बंदूक भी तान दी जाए तो भी उनका उच्चारण अशुद्ध ही रहेगा | पर मुझे लगता है एक बात और है जो इस और संकेत करती है कि भाषा की समस्त मिठास माँ सरस्वती ने बिहार और up वालों को ही प्रदान कर दी और हरियाणा वालों को यह मिठास ना मिल पायी | फिर भी गीता की जन्मस्थली होने और वैदिक महत्व के लिए हरिभूमि सदैव श्रद्धा की पात्र रही है | सादर

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    5. जी, 'सरस्वती' हरियाणा से विलुप्त होकर तीर्थराज प्रयाग (उत्तर प्रदेश) में समा गयी और वहाँ से गंगा बनकर बिहार में बहने लगी। सादर आभार।

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  3. सुन्दर विश्लेषण ...

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    1. जी अत्यंत आभार आपके अवलोकन का!

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  4. अन्य दो कड़ियों की तरह यह कड़ी भी शोधपरक. लेख में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ विश्लेषण और अन्त एक चिन्तनपरक प्रश्न के साथ..बहुत सुन्दर ।

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    1. जी, बहुत आभार आपके अवलोकन का विशेषत: अंत के प्रश्न पर दृष्टि डालने की। इस प्रश्न के उत्तर में भी सत्य के कुछ रहस्य मिल सकते हैं।

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  5. ज्ञानवर्धक जानकारीयुक्त लेख ...।

    आपके श्रम और मेधा को शत-शत नमन 🙏

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  6. "लेकिन नदी वही, पहाड़ वही, जंगल वही! तो ऋग्वेद में वर्णित नदियों पहाड़ों, का नामकरण संस्कार भी क्या उन हमलावर आर्यों ने ही किए! " नामकरण अपने घरवालें करते है बाहर से आये आतंकी या हमलावर नहीं।(ये मेरा मानना है)
    बहुत कुछ भूली बिसरी बातें (गाथाएं कहे तो ज्यादा उचित होगा )पढ़ने-समझने को मिल रही है आपके इस लेख के द्वारा और एक बार फिर चिंतन को विवश कर रही है। " इतिहास" इतिहासकारों द्वारा कलमबद्ध होकर ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे जाती है मगर आज सिर्फ कोरी व्याख्या नहीं चाहिए बल्कि वैज्ञानिक प्रमाणिकता की भी दरकार है जो आप दे रहें है.भगवान आपकी लेखनी को वो बल दे ताकि आप इस दुर्लभ कार्य को सरलता से पूर्ण कर सकें।सादर नमस्कार आपको

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    1. सबसे पहले तो नदियों-पहाड़ों के नाम वाले प्रश्न के निहितार्थ को विस्तार देने के लिए आपका साधुवाद. इस प्रश्न के उत्तर में भी यह संकेत छुपा हुआ है कि ये विशुद्ध संस्कृत निष्ठ सांस्कृतिक तत्व अपने नामों के साथ आस्तित्व में ऋग्वेद लिखे जाने से पहले से हैं. फिर इनमें द्रविड़ तत्वों का न होना शोध कि एक नई दिशा की और संकेत करता है. अभी आगे जब हम पूरी तरह से ऋग्वेद के साहित्यिक और भाधायी तत्वों की लम्बी और विस्तृत पड़ताल डॉ तलेगरी के शोध में करेंगे तो बातें और स्पष्ट होंगी. आपका बहुत आभार गंभीरता से इस लेख को पढ़ने समझने के लिए.

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  7. बहुत सुंदर विश्लेषण एवं ज्ञानवर्धन जानकारी। बधाई भैया इस सुंदर पोस्ट हेतु।

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    1. अरे वाह! आपका यहाँ आना मेरे लिए विशेष अर्थ रखता है। आपको और समस्त रांची-दूरदर्शन परिवार, विशेषत: किसान चैनल, को स्वतंत्रता दिवस की बधाई और शुभकामनाएं!!!

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  8. सादर नमस्कार ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18 -8 -2020 ) को "बस एक मुठ्ठी आसमां "(चर्चा अंक-3797) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

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  9. आर्य भारत के ही मूल निवासी थे, यह बात अब पूरी तरह सिद्ध हो चुकी है, शोधपरक लेखन।

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    1. मूल निवासी होने को साबित करना पड़ रहा है, उल्टी बात को साबित नहीं करना पड़ा था। गुलामी की परछाहीं बड़ी लंबी थी। बहुत आभार विमर्श का।

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  10. लड़ाई आर्य ,अनार्य और दासो के बीच में हुई ये तीनो ही वर्ग ही विश्व इतिहास का कारन है बहुत ही शोधपूर्ण और तथ्य की पड़ताल करता लेख

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    1. जी, आगे के अंकों में भिन्न-भिन्न जनजातियों के बीच के आपसी युद्ध और उससे निर्मित भूगोल, इतिहास और साहित्य पर विस्तार से चर्चा होगी। बहुत आभार आपके इस लेख पर बने रहने और गम्भीर चिंतन-विमर्श का।

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  11. प्रभावशाली एवं दिलचस्प विश्लेषण ...बधाई विश्वमोहन जी !

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  12. बहुत ही अच्छी जानकारी, हमारे ब्लॉग पर भी आएं प्रेरणादायक सुविचार

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    1. जी, बहुत आभार। जी बहुत अच्छा बलाग है आपका। हो आये। लिखते रहिये।

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  13. गहन शोध और अथक परिश्रम के परिणाम स्वरूप
    ऐसे लेख, जिन्हें थाती के रुप में सहेज कर प्रकाशित
    करना या करवाना एक वरिष्ठ साहित्यकार के प्रति
    सम्मान और वैदिक संस्कृति पर एक दुर्लभ शोध होगा।
    विस्तृत और विश्लेषणात्मक अध्ययन देता कितने ही प्रश्न और कितने ही तर्क संगत समाधान।
    साधुवाद एवं नमन ।

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    1. जी, बहुत आभार ऐसे गम्भीर लेखों पर आने और आशीष देने के लिए!

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  14. शोधपूर्ण आलेख बहुत ही रोचक तर्कसंगत तथ्यों से परिपूर्ण।
    नमन।

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    1. जी, अत्यंत आभार गम्भीर लेखों के अवलोकन हेतु!!!

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  15. मैं बहुत दिन के बाद आपके ब्लॉग पर आया हूँ। और इस लेख के कुछ आरंभिक पंक्तियाँ पढ़कर ही पूरा लेख पढ़ने का ललक जग गया। वाकई अपने इतिहास के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा और वो भी तुलनात्मक दृष्टि से। कई बार हमारे दोस्तों के बीच भी इस विवाद पर बहस होती रहती है।
    डॉक्टर श्रीकांत तलगेरी की पुस्तक का इंतजार रहेगा।

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    1. जी, बहुत आभार! आप आगे के लेखों को देख लें!!!

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