ख्वाहिशों का घर गिरा हो,
घोर निराशा तम घिरा हो।
तो न जीवन को जला तू,
खोल अंतस अर्गला तू।
मन प्रांगण में बसे हैं,
जीवन ज्योति धाम ये।
तिमिर से बाहर निकल,
आशा का दामन थाम ले।
ले वसंत का अज्य तू और,
ग्रीष्म की हो सत समिधा।
हव्य समर्पण हो शिशिर का,
पुरुष सूक्त की यज्ञ विधा।
सृष्टि के आदि पुरुष का,
दिव्य भाव मन अवतरण।
हो प्रकृति के तंतुओं का,
कण -कण सम्यक वरण।
अणु प्रति के परम अणु,
सौंदर्य दिव्य विस्तार हैं।
सृष्टि है एक पाद सीमित,
तीन अनंत अपार हैं।
उस अनंत में घोलो मन को
त्राण तृष्णा से तू पा लो।
' तुभ्यमेव समर्पयामि '
कातर कृष्णा-सा तू गा लो।