Saturday 31 October 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१२)

(भाग - ११ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (झ )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)

अंतिम शाखाएँ 

भारोपीय भाषाओं की दस अन्य शाखाओं से अलग हो जाने के बाद भी भारतीय-आर्य और ईरानी भाषाओं के आपस में गहरे संबंध के प्रचुर प्रमाण मिलते हैं।

इस बात को सही ठहराने के लिए भाषा-शास्त्रियों ने कल्पित मूलभूमि दक्षिण रूस में अन्य शाखाओं से भारतीय-ईरानी शाखा के एक साथ अलग होने की परिकल्पना विकसित की है।इसी आधार पर उन्होंने मध्य एशिया में प्राक-वैदिक काल में एक साझी भारतीय- ईरानी संस्कृति के विकसित  होने की अवधारणा गढ़ ली है। ग़ौरतलब है कि मध्य एशिया दक्षिण रूस से इन दोनों शाखाओं, भारतीय-आर्य और ईरानी, की अपनी ऐतिहासिक बसावट वाली भूमि के रास्ते में पड़ता है।

फिर भी, जैसा कि हमने पहले देखा है कि ऋग्वेद और अवेस्ता के जो भी साझे सांस्कृतिक तत्व हैं, उनके बीज हमें नए  मंडलों के  रचना-काल में हरियाणा और अफ़ग़ानिस्तान के  बीच के भूभाग में मिलते हैं। भारतीय और  ईरानी इतिहास के इन साझे सांस्कृतिक तत्वों के प्रचुर साक्ष्य की चर्चा तलगेरी की पुस्तक (तलगेरी २०००:१६३-२३१; २००८:२५८-२७७ आदि) में विस्तार  से उपलब्ध हैं। पुरु और अणु अर्थात  वैदिक और ईरानी तत्वों के संघर्ष और उनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता के किस्से पुराण और अवेस्ता में देवासुर संग्राम या देव-अहुर संग्राम के रूप में तथा अंगिरा और भृगु या अथर्व  या फिर अंगिरा और अथर्वों  की पारम्परिक प्रतिद्वंद्विता में संजोये हुए हैं।

भारोपीय शाखा के अप्रवासन या विस्तार की दो घटनाएँ तो ऋग्वेद की रचना के काल से भी काफ़ी पहले हो चुकी थीं –

प्रारंभिक शाखाओं के अपने मूल स्थान से अलग हटकर मध्य एशिया में घुसने और वहाँ बस जाने की घटना, और 

यूरोपीय शाखाओं के अपने मूल स्थान से हटकर अफगानिस्तान में घुसने और वहाँ बस जाने की घटना। छठे, तीसरे और सातवें – इन पुराने  मंडलों  के रचना-काल में ऋग्वेद की भूमि में अंतिम शाखाओं का अस्तित्व अब भी क़ायम था। दसराज्ञ-युद्ध और राजा सुदास  (मंडल ७) की विस्तारवादी  लड़ाइयों ने अंतिम शाखाओं को हटने के लिए बाध्य कर दिया था। फलस्वरूप, अणुओं ने अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश किया और वहाँ से उन्होंने दृहयु जनजाति (यूरोपीय शाखा) को उत्तर  की ओर खिसकने के लिये  बाध्य कर दिया।  फिर,  दृहयु अफ़ग़ानिस्तान से चलकर मध्य एशिया में आ गए। बाद में अन्य अंतिम शाखाओं का अफ़ग़ानिस्तान से पश्चिम की ओर बढ़ने का क्रम जारी रहा। 

– अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियाई, ईरानी और भारतीय-आर्य भाषाओं में बाद में चलकर विकसित  होनेवाले भाषिक लक्षणों के आधार पर ऐसा माना जाता है कि अन्य सात शाखाओं के अलग हो जाने के बाद यही वे पाँच शाखाएँ थीं जो अपनी मूल-भूमि में बनी रहीं। दक्षिण रूस की  इसी मूलभूमि के रूप में  अपनी अवधारणा में ‘दक्षिण रूस मूलभूमि’ के प्रतिपादकों  ने परिकल्पना रच ली है।

तथापि, ऋग्वेद में वर्णित दसराज्ञ-युद्ध और राजा सुदास की विस्तारवादी लड़ाइयों (सातवाँ मंडल) के विवरण यही  दर्शाते हैं कि  इन सभी गतिविधियों की कर्मभूमि पंजाब का ही क्षेत्र था। जैसा कि साफ़ है कि ये वैदिक (भारतीय-आर्य या पुरु) राजा दस जनजातियों (नौ अणु की और एक पहले से उस क्षेत्र में बचे दृहयु की) से युद्ध लड़ने  पंजाब के क्षेत्र में पूरब की ओर से ही  घुसते हैं। बाद में ये जनजातियाँ पश्चिम की ओर खिसकने लगती हैं। युद्ध विषयक ऋचाओं में अणु जनजाति के लिए प्रयोग किए गए विशेष नाम  इस प्रकार हैं :

सातवें मंडल के अठारहवें सूक्त में –  ऋचा ५ – सिम्यु,  ऋचा६ - भृगु,  ऋचा७ – पक्थ, भलान, अलिन, शिव, विसाणिन

सातवें मंडल के तिरासीवें सूक्त में – ऋचा – १ – परसु/पार्सव, पृथु/पार्थव, दास। (आगे की पौराणिक परम्परा में अणुओं के लिए एक और विशेषण ‘मद्र’ का उल्लेख हुआ है।)

दास :

वैसे तो किसी भी अ-पुरु  अर्थात अवैदिक आर्य के लिए इस शब्द का प्रयोग हुआ है, लेकिन ख़ास तौर पर इसे हम ईरानियों के साथ ही जोड़ते हैं। ५४ सूक्तों के ६३ मंत्रों में यह शब्द प्रकट होता है और उनमें से अधिकांश में इसका अभिप्राय अरियों या शत्रुओं के संदर्भ में ही हुआ है। फिर भी, आठवें मंडल में तीन मंत्र ऐसे ज़रूर मिल जाते हैं जहाँ बात उलट जाती है अर्थात वहाँ पर इनका उल्लेख मित्रतापूर्ण संदर्भों में होता है और ‘दास’ की छवि दोस्त के रूप में उभरकर आती है

– ५/३१,  अश्विन को दास के अर्पण को ग्रहण करते दिखाया गया है।

– ४६/३२, संरक्षकों के संदर्भ में दास को दिखाया गया है।

– ५१/९, यहाँ दिखाया गया है इंद्र समान रूप से आर्यों के भी हैं और दासों के भी।

ये तीनों सूक्त  ‘दानस्तुति’ के हैं। यहाँ यह भी साफ़ हो जाता है कि मित्र के रूप में उनका उल्लेख किए जाने का संबंध उनकी पहचान एक संरक्षक के रूप में किए जाने से है। इनमें से दो सूक्त, ५ और ४६ तो ऊँट  दान करने वाले संरक्षकों की चर्चा करते हैं (और  तीसरे सूक्त के साथ भी बहुत कुछ ऐसा ही लगता है, हालाँकि इस सूक्त में स्पष्ट रूप से दान में दी गयी वस्तु-विशेष की चर्चा तो नहीं है, लेकिन इंद्र से उन दानों को स्वीकार किए जाने की स्तुति है)। अन्यत्र, उसी आठवें मंडल में एक जगह और (६/४८) ऊँट दान करने वाले दानकर्ता संरक्षक की दानस्तुति है।

ऋग्वेद के  अन्य सूक्तों से  हटकर आठवें मंडल के ये चारों सूक्त (५, ६, ४६ और ५१) एक  अलग ही विशिष्ट श्रेणी का स्थान रखते हैं :

  -  उनमें से तीन (५, ६ और ४६) ऊँट दान करने वाले संरक्षकों के संदर्भ में हैं,

– तीन (५, ४६ और ५१) दास का भली-भाँति विवरण देते हैं और 

– तीन (५, ६ और ४६) ऊँट दान करने वाले उन संरक्षकों के संदर्भ में हैं जिनकी पहचान आद्य-ईरानी नामों के साथ की गयी हैं। बहुत सारे पश्चिमी विद्वानों ( हौफ़मैन, विल्सन, वेबर, विजेल और ग़मक्रेलिज) ने जिन  आद्य ईरानी नामों की पहचान की हैं वे इस प्रकार हैं : - कसु (५), तिरिंदिरा पार्श्व (६) और पृथश्रवा कानित (४६)। ५१ वें सूक्त के संरक्षक ‘रुसाम पविरु’ को विद्वानों ने ईरानी नहीं माना है। तथापि, एम एल भार्गव (भार्गव :१९६४) ने इन्हें सुसोम और अर्जीकिया के भूभाग में रहनेवाली  पूरी तरह पश्चिमोत्तर की एक जनजाति माना है। इस तरह से उनका स्थान पूर्णरूपेण ईरान में ही निर्धारित होता है।

अब यदि ‘दास’ शब्द की बात करें तो ऋग्वेद में यह मुख्यतः  अ-पुरुओं  के लिए ही शत्रुतापूर्ण संदर्भों में आया है। बाद की संस्कृत भाषा में इसका अर्थ नौकर या गुलाम के लिए आया है। मूल रूप में परोपकार के अर्थ में इस शब्द को लिया गया है जो दूसरों की  भलाई करे। इसकी उत्पति का मूल धातु ‘दमस’ है ज़िसका  अर्थ भी सकारात्मक ही है – चमकना। यह ऊपर के सूक्तों के संरक्षकों के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ है। स्पष्ट तौर पर यह अणुओं (ईरानी) के बीच जनजातीय नामों में ज़्यादा प्रयोग में आता था। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि ईरानियों की खोतानी भाषा में ‘दाह’ शब्द का अर्थ होता है – ‘मनुष्य’। शुरू में तो भरत-पुरुओं ने इस शब्द का प्रयोग केवल  अणुओं के लिए किया था, लेकिन बाद के दिनों में सामान्य तौर पर किसी भी अ-पुरु जनजाति या लोगों का यह पर्याय बन गया। 

सिम्यु 

यह शब्द केवल ऋग्वेद में, और वह भी मात्र दो बार, ही आया है। पहली बार राजा सुदास के शत्रुओं के संबंध में सातवें मंडल के अठारहवें सूक्त के पाँचवे मंत्र (८/१८/५) में आया है और दूसरी बार पहले मंडल के सौवें सूक्त के अठारहवें मंत्र में आया है। इस सूक्त में  केंद्रीय अफ़ग़ानिस्तान में सरयू के पार  हुए वर्षागिरी के युद्ध का वर्णन आया है। सुदास की संतति के शत्रुओं के संदर्भ की इस सूक्त की चर्चा है।


मद्र 

हालाँकि  अणु  जनजाति और राजा सुदास के युद्ध-वर्णन  में ऋग्वेद में मद्र का नाम नहीं आता है, फिर भी इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियों में न केवल उनकी गणना होती है बल्कि ऋग्वेद के परवर्त्ती काल तक भी उनकी यह पहचान बनी रही।


विषाणिन 

सुनने में, अणुओं (ईरानी) की पहचान में यह सबसे कमज़ोर कड़ी लग सकती है, लेकिन जब हम उन्हें नूरिस्तानी ‘पिशाचिन’ या ‘पिशाच’ से जोड़ कर देखते हैं तो तस्वीर बहुत  हद तक साफ़ हो जाती है। यहाँ हम ‘प’ और ‘व’ के आपस में एक-दूसरे  की जगह उच्चरित होने  के लक्षण को भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकते हैं। जैसे- ‘पानी’ के बदले ‘वाणी’।  ‘भलाना’ (बोलान) का ‘बलूच’ में बदल जाना भी ध्यातव्य है।

ऋग्वेद के सातवें मंडल के १८वें और ८३वें सूक्त में मुख्य  रूप से इन  जनजातीय नामों की  चर्चा आती है। इनका संदर्भ ‘अणु’ जनजाति से है जिनकी  लड़ाई ‘दसराज्ञ-युद्ध’ या ‘दस राजाओं की लड़ाई’ में राजा सुदास के साथ होती है। अब ज़रा थोड़ी बारीकी से इस  बात पर ग़ौर  करें कि  ७/५/३ और ७/६/३ में वर्णित अपने पश्चिम-प्रयाण के पश्चात इतिहास में बाद के काल-खंडों में ये नाम कहाँ-कहाँ आते हैं। ये बात हमें  अचरज में डाल देती है कि दसराज्ञ-समर-भूमि पंजाब से लेकर पश्चिम की तरफ़ दक्षिणी और पूरबी यूरोप तक की पूरी भौगोलिक  पट्टी में ये नाम बिखरे पड़े हैं।

 

अफ़ग़ानिस्तान :  (अवेस्ता) आद्य-ईरानी – सैरिमा (सिम्यु), दही (दास)

पूर्वोत्तर अफ़ग़ानिस्तान : आद्य-ईरानी : नूरिस्तानी – पिशाचिन, विषाणिन 

पख़्तून (पश्चिमोत्तर पाकिस्तान), दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान : ईरानी : पख़्तून/ पश्तो (पख़्त

बलूचिस्तान (दक्षिणी-पश्चिमी पाकिस्तान), दक्षिणी-पूर्वी ईरान : ईरानी : बोलान/ बलूच (भलान)

पूर्वोत्तर ईरान:  ईरानी : पर्थियन/पर्थव (पृथु/पार्थव)

दक्षिणी-पश्चिमी ईरान : ईरानी : पर्सुआ/ पर्सियन(परसु/पर्सव)

पश्चिमोत्तर ईरान :ईरानी : मड़ई/ मेड़े(मद्र)

उज़्बेकिस्तान : ईरानी : खिव/ खवारेज़मियन (शिव)

यूक्रेन, दक्षिण  रूस : ईरानी: अलान (अलिना), सरमातियन (सिम्यु)

टर्की : थ्रैको-फाईरिजियन/ अर्मेनियायी : फ़्राइज़/ फ़्राइजियन (भृगु)

रोमानिया, बुल्गारिया : थ्रैको-फ़्राइजियन/ अर्मेनियायी : डेसियन (दास)

यूनान (ग्रीस) : यूनानी या ग्रीक : हेलेना (अलिना)

अल्बानिया : अल्बानी : सिर्मीयो(सिम्यु)

ऊपर दिए गए जो भी नाम हैं वे तक़रीबन इतिहास की  सभी प्रमुख जनजातियों के पुरखों से लेकर आधुनिक जनजातीय समुदायों के नामों को अपने में समेटे हुए है। इसमें उदाहरण के तौर पर हम इन्हें देख सकते हैं – सिथियन (शक), औसेटी और कुर्द। यहाँ तक कि पहले ईरानी भाषा किंतु  आज के दिन में स्लावी भाषा बोलने वाले सर्ब, क्रोट और अन्य भाषी नाम भी इनमें शामिल हैं।

इतिहास की एक और महत्वपूर्ण बात यहाँ पर दिखायी देती है। वैसी जनजातियाँ जो सुदूर परदेस में बस गयी  हैं उन्होंने अपनी भाषायी पहचान को बनाए रखा है। किंतु, जो जनजातियाँ नज़दीक में ही बस गयीं या पीछे रास्ते में ही रह गयी वो अपने चतुर्दिक भाषा-संसार में समाहित हो गयीं।

- ‘सिम्यु’  जनजाति में जो लोग सुदूर जाकर बसे उनकी सिर्मीयो भाषा और अल्बानी पहचान बची रही लेकिन जो रास्ते में ही रह गए वे ईरानी भाषा (अवेस्ता की सैरिमा और बाद में सरमाटियन) में घुल गए ।

अलिना जो बहुत दूर जाकर बसे,  उन्होंने अपना ग्रीक नाम (एल्लेन/ हेल्लेन) और भाषा बचा कर रख लिया  जबकि जो रास्ते में ही रह गए वे ईरानी भाषा (अलन) में समाहित हो गए।

भृगु जनजाति में जो लोग सुदूर जाकर बसे  उन्होंने अपने थ्रैको-फाईरिजियन/अर्मेनियायी  नाम और भाषा  (फ़्राइज़/फ़्राइजियन) को संरक्षित रखा।   जो लोग  रास्ते में ठहर गए, वे ईरानी भाषा (उनका पुजारी वर्ग ‘अथ्रौन’) में खो गए तथा जो पीछे ही छूट गए और आस-पास ही बस गए वे भारतीय-आर्य भाषा उनका पुजारी वर्ग ‘भृगु’ में घुल गए।(कौकेसस क्षेत्र में अर्मेनियायी लोगों ने अपने नाम का स्वरूप तो त्याग दिया, किंतु ईरानी भाषा से प्रभावित ही सही, अपनी भाषा को बचाये रखा।)

मद्र जनजाति का वह वर्ग जो बहुत दूर जाकर बस गया, उसने ईरानी नामों को और ईरानी बोली (मद, मेदे, मेदीयन) को धारण कर लिया, जबकि जो लोग आस-पास और पीछे ही रह गए वे भारतीय-आर्य भाषा (मद्र) में समा गए और ‘अणु’ के रूप में अपनी जनजातीय पहचान भी बचाकर रख ली।


कुछ और तथ्य 


- दसराज्ञ-युद्ध में सुदास के विरुद्ध दस राजाओं का गठबंधन लड़ रहा था। इस गठबंधन का नेता पार्थव (६/२७/८)  नाम से लोकप्रिय  राजा  अभ्यवर्ती छायामन {७/२७/(५, ८)} का वंशज कवि छायामन (७/१८/८) था। उनके पुराने पुरोहित कवस (७/१८/१२) थे। ये दोनों नाम ईरानी नाम हैं और इनका ज़िक्र अवेस्ता (कौवी, काओस) में भी मिलता है। अवेस्ता में बड़ी प्रमुखता से वर्णित कौवियान वंश के सबसे पहले राजा का नाम कवि छायामन ही था।  बाद के काल में पर्थियन राजाओं ने अपने को इसी वंश के होने का दावा किया।

– प्रारम्भ में अणुओं ने ‘उसिनर’ के नेतृत्व में दक्षिण की ओर अपने अभियान का रूख किया था। पंजाब के पूर्वी छोर पर उसिनर की नेतृत्व वाली एक शाखा ने कई राज्यों की स्थापना की। बाद में ऋग्वेद के पुराने मंडलों  (६, ३ और ७) के रचे जाने के समय तक उसिनर के पुत्र ‘शिवि औसिनर’ ने अणुओं के इस विजय रथ को और आगे तक बढ़ाया  तथा पश्चिमोत्तर कोने को छोड़कर करीब-क़रीब समूचे पंजाब को उसने हथिया लिया था (पार्जिटर १९६२: २६४)। ‘औसिनर’  भी एक ईरानी नाम है जो अवेस्ता में पाया जाता है।

-  एकदम पीछे की ओर यदि हम चलें तो उत्तर में कश्मीर और इसके पश्चिमी क्षेत्रों में हम अणुओं के मूल निवास को पाते हैं जहाँ से इनकी  ‘वहीं शाखा’ निकलकर दक्षिण में पंजाब को जीत लेती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तर का यह इलाक़ा आज भी नूरिस्तानी भाषा का  मूल स्थान बना हुआ  है और इनमें प्राक-ईरानी भाषा के लक्षण (दंतव्य और तालव्य उच्चारण  ष, श, ज, ज़ आदि)  द्रष्टव्य हैं।

बहुत बाद के काल तक ईरानियों की ‘अणु’ जनजातीय पहचान बनी रही। इतिहास के परवर्ती कालों में ईरान के उत्तरी और दक्षिणी, दोनों छोरों पर अणुओं के बने रहने की चर्चा अवेस्ता में मिलती है :

– ग्रीक ग्रंथ (उदाहरण के तौर पर  इन्सिडोर औफ चरक्स का स्थलमोई पार्थिकोई, १६) दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान के हामुन-इ-हिलमैंड के उत्तरी भाग से सटे क्षेत्रों का उल्लेख ‘अनुओन’ या ‘अनुओइ’ के रूप में करते हैं और 

– मध्य एशिया ( तुर्कमेनिस्तान) में प्रमुख आद्य-ईरानी या ईरानी पुरातात्विक स्थलों के नाम ‘अनऊ’ हैं।

यह बात साफ़ है कि दसराज्ञ-युद्ध या दस राजाओं की लड़ाई के समय में अंतिम शाखाओं (अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी और ईरानी) की भाषाओं के आद्य प्रारूप को बोलने वाले लोग पंजाब में रहते थे। यहीं वह काल है जब ऋग्वेद के  पुराने मंडल (६, ३ और ७) रचे जा रहे थे। जैसा कि हमने देखा है कि यह काल ईसा से क़रीब ३००० साल पहले का है और ठीक इसी समय अंतिम शाखा बोलने वालों का अप्रवासन पश्चिम की ओर होना शुरू हुआ था।


२ – अल्बानी और अर्मेनियायी लोगों के अपनी ऐतिहासिक भूमि में बसने से पहले का कोई ठोस इतिहास उपलब्ध तो नहीं है, किंतु  अधिकांश भाषाविद अल्बानी, ग्रीक और अर्मेनियायी  के बीच बहुत प्रगाढ़ संबंध का होना मानते हैं। ग्रीक भाषा के पश्चिम एशिया के रास्ते खिसकने के कुछ साक्ष्य ग़मक्रेलिज ने बटोरे हैं जिसकी चर्चा उन्होंने अपनी पुस्तक “The Greek migration to mainland Greece from the east, Greek-Kartvelian lexical ties and the myth of the Argonauts” (GAMKRELIDGE 1995:799-804) में की है। फिर भी, उनके सिद्धांत को  एक छोटे  अंश के रूप में यह लिया जाता है कि भारोपीय भाषाओं की मूलभूमि अनाटोलिया में थी, “ अ-भारोपीय स्त्रोत वाले आद्य ग्रीक शब्दों के मामले में ग्रीक और कार्टवेलियन भाषाओं में ढेर सारी शाब्दिक समानताएँ पायी जाती हैं। इस बात का यह मतलब निकाला जाता है कि ढेर सारे कार्टवेलियन शब्द ग्रीक भाषा में  पूरब में कहीं पर तब लिए गए जब ग्रीक लोग अपने आद्य निवास-स्थान से अप्रवासित होकर पश्चिम की तरफ़ अपनी ऐतिहासिक भूमि (जहाँ वे आज बसे हैं) की ओर जा रहे थे…………कुछ ग्रीक शब्द कार्टवेलियन भाषा में भी ग्रीक से लिए गए ………यह यही दर्शाता है कि शब्दों का यह आदान-प्रदान दोतरफ़ा था, न कि एकपक्षीय (गमक्रेलिज १९९५:८०१-८०२)।

वास्तव में ईरानियों के पूरब से आने के ढेर सारे दस्तावेज़ी सबूत हैं। 

ईरानियों के ईरान में होने के सबसे पुराने संदर्भ ईसा से १००० वर्ष पूर्व के प्रारम्भ होने तक नहीं मिलते हैं।

“हमें भावी ईरानियों की उपस्थिति के कोई चिह्न ईसा से नौंवी शताब्दी पूर्व से पहले कहीं नहीं मिलते। सबसे पहला संकेत पर्सुआ या पारसी का हमें ८३७ ईसा पूर्व  सिरियायी राजा शलमान शेर के विजय-अभियान के क़िस्सों में मिलता है। तब ये पारसी कुर्दिस्तान की पहाड़ियों में और मदाई या मेदिस के समतल में स्थानीय स्तर पर इकट्ठे रहते थे। तक़रीबन एक सौ साल बाद मेदिस लोगों ने पारस (या ईरान) के पठारी भाग पर हमला बोल  दिया और वहाँ के उन स्थानीय निवासियों को या तो भगा दिया या फिर अपने में आत्मसात कर लिया  जिनका कोई ऐतिहासिक अभिलेख या लिखित दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं है (लरौज १९५९:३२१)।

पारस की स्फ़ान लिपि के स्त्रोतों के अनुसार ९वीं सदी ईसापूर्व  के मध्य में दो बड़े ईरानी समुदायों की उपस्थिति के सुराग़ मिलते हैं – मेदिस और पारसी। स्फ़ान लिपि के स्त्रोतों से एक बात तो बड़ी सफ़ाई से उजागर होती है कि मेदिस और पारसी समुदाय ( और निस्संदेह  अन्य ईरानी समुदाय भी जिनके नामों की पहचान अबतक नहीं हो पायी है)  पूरब से पश्चिम दिशा में  ईरान की ओर और ईरान के अंदर बढ़ रहे थे (एंसाइक्लोपीडिया ब्रितानिका १९७४, भाग ९, पृष्ठ ८३२)।

पारसियों का उल्लेख सर्वप्रथम ९वीं शताब्दी ईसापूर्व की सिरियायी गाथाओं और गल्पों में मिलता है। एक विरुदावली  में कहा जाता है कि पर्सुआ के २७ राजाओं ने आक्रांता शलमान शेर को ८३५ ईसापूर्व में उपहार और नज़राना भेंट किए। तिगलथ पिलेसर – भाग ३ (७४४-७२७ ईसापूर्व) में  मेदिस की चर्चा है। 

प्राचीन पारसी शिलालेखों (दरियस के बिजोटन शिलालेख, ५२१-५२९ ईसापूर्व, सं – श्मिट) से पूर्व मध्य एशिया में ऐसे कोई साहित्यिक स्त्रोत नहीं मिलते जो वहाँ ईरानियों की उपस्थिति के प्रमाण दे सकें। ये शिलालेख यहीं दर्शाते हैं कि पहली शताब्दी ईसापूर्व के मध्य तक ग्रीक लोगों  द्वारा कहे जाने वाले ‘सिथियन’ और पारसी लोगों द्वारा कहे जाने वाले ‘शक’ जनजाति के लोग पश्चिमी किनारों ( काले सागर के उत्तर और उत्तर-पश्चिम) से इसके पूर्वी सीमा की ओर बढ़ाने के क्रम में कमोबेश पूरे मध्य एशिया में पसर गए थे।(SKERVO १९९५-१५६)

इस आधार पर यह बात क़रीब-क़रीब साफ़ हो जाती है कि भारोपीय भाषाओं  की मूल-भूमि के उत्तरी भारत में होने और यहाँ से इनकी भिन्न-भिन्न शाखाओं के  बाहर की ओर पसरने के पर्याप्त ऐतिहासिक दस्तावेज़ मौजूद  हैं।


Saturday 24 October 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (११)



(भाग - १० से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - ( ज  )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)

शुरू की शाखाएँ 

सुप्रचालनिक और तार्किक दृष्टि से देखें तो हम पाते हैं कि  अफ़ग़ानिस्तान के उत्तर की ओर विस्थापित दोनों प्रारम्भिक शाखाओं को उस क्षेत्र ने अपनी ऐतिहासिकता  में समेट लिया। टोकारियन  पूर्वी मध्य एशिया में अपने दम तोड़ने तक पड़ा रहा।  अनाटोलियन शाखा अपने सबसे शुरू के दिनों में जैसा कि  ऐतिहासिक अभिलेख दर्शाते हैं, अपने स्वाभाविक विस्तार की प्रक्रिया में पहले तुर्की में प्रवेश कर गयी और फिर फैलते-फैलते कैस्पियन सागर के तट को स्पर्श कर गयी। 

दूसरी तरफ़ रूसी मूल-स्थान अवधारणा  की सबसे बड़ी विसंगति जो उभरकर आती है, वह है टोकारियन शाखा की  मध्य एशिया में उपस्थिति!  इस संबंध में चाइल्ड ने बहुत पहले कहा था, “ सेंटम भाषा के मध्य एशिया में हाज़िर होने की सबसे आसान व्याख्या इसे एशियायी आर्य ख़ज़ाने के अंतिम उपलब्ध गहने  के रूप में मंज़ूरी देनी होगी। इतिहास के अंतिम दिनों में  आर्यों का यूरोप से चलकर तुरक़िस्तान  के आर-पार भटकना कहीं से भी गले नहीं उतरता।( CHILDE १९२६:९५-९६)”


अनाटोलियन और टोकारियन हिमालय के उत्तर में बसने वाले लोगों की दो महान जन-जातियों के रूप में पुराण में वर्णित हैं। इन्हें ‘उत्तर-मद्र’ और ‘उत्तर-कुरु’ के नाम से अभिहित किया गया है। उत्तर-कुरुओं की पहचान बड़ी आसानी से उनके भौगोलिक ठिकानों से लगायी जा सकती है। टोकारियन  और उत्तर-कुरु के नामों की समानता से भी इस विचार को बल मिलता है।   टोकारियन को उईघुर (पश्चिमी चीन और उज़्बेकिस्तान में रहने वाली तुर्कों की एक जाति) के ग्रंथों में ‘वघ्री’ और प्राचीन चीनी बौद्ध ग्रंथों में ‘तो-कु-लो’ या ‘तु-हुओ-लो’  कहा जाता है। स्पष्ट तौर पर टोकारियन के देशज नामों का सुसंस्कृत रूप ही उत्तर-कुरु है। हेनिंग के शब्दों में इसे उन भाषिक लक्षणों को बचाये रखना है जो हर नामों के नमूनों को  ‘दन्त्य’, ‘कंठय’ और ‘र’ के व्यंजनात्मक ढाँचों में रखकर   सघोष ध्वनि में उच्चरित करता है।(हेनिंग १९७८:२२५)

दक्षिण में पूरब की जनजाति ‘कुरु’ और पश्चिम की जनजाति ‘मद्र’ कहलाती थी। संभवतः उसी तर्ज़ पर उत्तर में भी पूर्वी जाति  को उत्तर-पुरु और पश्चिमी जाति को उत्तर मद्र कहा जाता था।  इस आधार पर उत्तर-मद्र अनाटोलियन (आद्य-हित्ती) लोगों के लिए ही प्रयोग हुआ जान पड़ता है। 

यह जानना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि हित्तियों की पौराणिक कथा में भी  ‘इंद्र’ का वर्णन उस राजा ‘इनर’ के रूप में है जो विशाल नागों से युद्ध में बरसात के देवता की सहायता करते हैं। अन्य भारोपीय पुराण-गाथाओं और परम्पराओं में इंद्र का कहीं ज़िक्र भी नहीं मिलता है, सिवाय अवेस्ता के, जहाँ उन्हें एक खलनायक योद्धा के रूप में चित्रित किया गया है। अनाटोलियन लोगों ने संभवतः इस देवता को या बाक़ी प्रकृति-पुराण को वैदिक युग के दिनों की  अपनी  अल्पावास  अवधि में जाना होगा। 

[यह  नाम ‘इंद्र’ इतना अधिक और विलक्षण रूप से ‘ भारतीय-आर्य’ है कि लुबोत्सकी और विजेल (विजेल २००६:९५) ने तो यहाँ तक कहने का जोखिम मोल ले लिया  कि इस शब्द ’इंद्र’ को भारतीय-ईरानियों ने उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान या मध्य एशिया की कल्पित ‘बी एम ए सी भाषा’ से उधार लिया। बताते चलें कि ‘बैक्ट्रिया-मर्जियाना-अरकीयोलौजिकल-कॉम्प्लेक्स’ का संक्षिप्त रूप  ‘बी एम ए सी’ है, जिसे ‘औक्सस-सभ्यता’ के नाम से भी जाना जाता है । यह भारतीय-ईरानी अप्रवासन से जुड़ी सभ्यता है जिसका क्षेत्र  बैक्ट्रिया की अमु दरिया अर्थात औक्सस नदी और मर्जियाना की मुर्ग़ाब नदी के कछार  के आस-पास का आज का उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान और पूर्वी  तुर्कमेनिस्तान का भू-भाग है।] यह भी महज़ संयोग ही है कि फ्रांस  की प्रकाशन कम्पनी के  द्वारा प्रकाशित पुराणों के विश्वकोश ‘Larousse Encyclopedia of Mythology’  में ‘इनर’ या इनार को ’इनर’  देवता के रूप में बताया गया है जो भारोपीय हित्तियों के साथ भारत से चलकर आए थे। 

और अंत में,  सुनने में थोड़ा अचरज पैदा करने के बावजूद हमारे सामने कुछ ऐसे  प्रजातीय प्रमाण (हालाँकि, इनका आर्य जाति से कोई लेना-देना नहीं है) हैं जो इस बात की ओर संकेत करते हैं कि शुरू के आद्य-हित्ती पश्चिम से आने के बजाय पूरब से पश्चिम  अर्थात मध्य एशिया से पश्चिमी  एशिया की ओर गए थे। बीसवीं सदी के शुरू में आकर उनकी भाषाओं  की खोज हो सकी और उनका विशद अध्ययन हुआ । तब जाकर यह प्रकाश में आया कि  उनकी भाषा ‘भारोपीय’ थी। उसके थोड़े ही दिनों बाद अमेरिका की शोध पत्रिका ‘अमेरिकन ओरिएँटल  सोशाइटी’ में यह प्रासंगिक टिप्पणी छपी :

“हरौंजी और अन्य विद्वानों के द्वारा शिलालेखों  को पढ़े जाने  से यह साफ़ हो गया है कि  वे भारोपीय भाषा ही बोलते थे। उनका भौतिक स्वरूप भी पूरी तरह से मंगोली ही था जो पूरी तरह से उनकी मूर्तियों और मिस्त्र  के  स्मारकों, दोनों से भली-भाँति टपकता है।  उनके गाल की हड्डियाँ उभरी होती थीं और माथा अंदर की ओर धँसा होता था। (कर्नोय १९१९:११७)


युरोपीय शाखाएँ   

- भारतीय परम्पराओं के आलोक में  उत्तर की तीन जन-जातियाँ थीं -  ‘पुरु’, ‘अणु’ और ‘दृहयु’। उत्तर-पश्चिमी भारत के धार्मिक अनुष्ठानों में  दो ऐसे केंद्रीय  तत्व थे जिसमें ये तीनों जनजातियाँ एक साझी परम्परा और विधि विधान का निर्वाह करती थीं। वे दो मूल तत्व थे – मंत्रोच्चारण और अग्नि-पूजा। भारतीय-आर्य-भाषी पुरुओं के पुरोहित ‘अंगिरा’ ऋषि थे। ईरानी शाखा के अणुओं के पुजारी ‘भृगु’ ऋषि थे।   थोड़ा और पश्चिम की ओर बढ़ने पर अपनी बनावट की कोई ख़ास पहचान लिए बिना दृहयु जनजाति की बसावट थी। [उनके ‘दृहयु’ नामकरण के पीछे के कारणों को जानने के लिए (तलगेरी २०००:२५४-२६०, २००८: २४७-२५०) को देखा जा सकता है और वैसे ही ‘अंगिरा-भृगु’ के बारे में विस्तार से जानने के लिए (तलगेरी २०००:१६४-१८०) देखा जा सकता है।]  

ऋग्वेद और अवेस्ता में इस बात का स्पष्ट उल्लेख़ है कि  अपने- अपने पुरोहितों के पौरिहत्य में परस्पर प्रतिद्वंद्वी तीन जनजातियाँ थीं। अंगिरा और भृगु के बाद तीसरी जनजाति ‘दृहयु’ की थी। ऋग्वेद के सातवें मंडल के अठारहवें सूक्त की छठी ऋचा में  राजा सुदास के प्रतिद्वंद्वी ‘अनु-दृहयु गठबंधन’  के पुजारी की चर्चा ‘भृगु और दृहयु’ के रूप में है। ठीक उसी तरह अवेस्ता के वेन्दिदाद १९ में ‘अंगरा’ और ‘द्रु’ का विवरण मिलता है जो जरथुष्ट्र को अहुर मज़दा के पथ से डिगाने की भरपूर कोशिश करते हैं। ( जरथुष्ट्र के साथ-साथ अथर्व या भृगु भी इरानियों के पुरोहित थे।)

प्राचीन भारोपीय शाखाओं के समग्र धार्मिक तन्तुओं में  समानता के तत्व का  अध्ययन करने के पश्चात विन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “सेल्टिक, रोमन और भारतीय ईरानी, ये सभी, अति प्राचीनकाल की साझी भारोपीय धार्मिक विरासत के वाहक हैं। ( विन १९९५:१०३)

पुरोहितों के मौलिक आद्य-भारोपीय लक्षणों से लबरेज़  इकलौता यूरोपीय समुदाय यदि कोई है तो, वह सेल्टिक समुदाय ही है क्योंकि वैदिक और अवेस्तायी धार्मिक तत्वों के वे दो मूल लक्षण, मंत्रोच्चार और अग्नि-पूजा, इस समुदाय के धर्मों में भी उतनी ही प्रमुखता से पाए जाते हैं। इसने ‘द्रुई’ अर्थात दृहयु के उस असली नाम को भी अभी तक बचा रखा है। जैसा कि हम वैदिक और ईरानी दोनों धर्मों मे समान रूप से पाते हैं  :

क -  ‘सेल्टिक द्रुई’ का पाठ्यक्रम भी वर्षों तक मनुष्य के मुख से श्लोकों और छंदों में छन-छन कर श्रुतियों और स्मृतियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी बहता  रहा है। (विन १९९५:५४) और 

ख – अग्नि-पूजा इस धर्म का भी केंद्र-बिंदु था।अग्नि-पूजा की परम्परा की शुरुआत भृगुओं ने ही की थी और इस बात का श्रेय उन्हें ऋग्वेद भी देता है। हालाँकि यह भी उतना ही सही है कि ऋग्वेद के पुराने मंडलों में भृगुओं को शत्रु के रूप में चित्रित किया गया है  (तलगेरी २०००:१७२-१७४)। उसी तरह अणु जनजाति के ‘भृगु’  को सेल्टिक परंपरा  में सबसे पुराने ऋषि-मुनि के रुप में  सीधे नहीं याद कर, घुमा-फिराकर देवताओं के रूप में याद किया जाता है। तीन में से दो सेल्टिक  देवियों के नाम ‘अणु’  और ‘ब्रिगी’ हैं। बाक़ी सारी देवियाँ उर्वरा की शक्ति का प्रतीक हैं, लेकिन ब्रिगी ज्ञान, संस्कृति और प्रतिभा की भी देवी हैं।(लारोऊज  १९५९: २३९) । और सबसे बढ़कर,  ब्रिगी अग्नि की चिरंतनता की संरक्षक देवी भी हैं जैसा कि ईरानी पुरोहितों द्वारा  और ऋग्वेद में भी (३/२३) अग्नि को शाश्वत कहा गया है। आयरलैंड के कील्डेयर में ब्रिगी देवी के मुख्य मंदिर में देखा जा सकता है कि  किस तरह मंदिर के गर्भ-गृह में पुजारिनें  प्रज्वलित ज्वाला को निरंतर जलाकर उसके स्वरूप को चिरंतन बनाए रखती हैं। 

जहाँ एक ओर सेल्टिक धार्मिक परम्परा ने आद्य भारोपीय पौरिहत्य तत्व के मूल स्वरूप को द्रुई, अणु और भृगु के नामों में बचाए रखा, वहीं यह बात भी उतनी ही साफ़ है कि इस तरह के पौरिहत्य की यह परम्परा बाक़ी सभी यूरोपीय शाखाओं में भी उतनी ही मौजूद थी।

क – ‘दृहयु’ या इसके अन्य सजातीय शब्द ‘द्रुह’, ‘द्रुघ’, ‘द्रोघ’, ‘द्रोह’ आदि ऋग्वेद में और ‘द्रु’ शब्द अवेस्ता में शत्रुओं और दैत्यों के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं। ठीक इसके उलट दिलचस्प रूप से, इसके सजातीय शब्दों का उपयोग यूरोपीय शाखाओं में बिल्कुल विलोमार्थक अभिप्रायों में हुआ है। सेल्टिक लोगों के लिए ‘द्रुई’ पुजारी थे। बाल्टिक और स्लावी भाषा में इस शब्द का अर्थ मित्र होता है।(लिथुआनियायी में ‘द्रौगास’ और रूसी में ‘द्रुग’)। जर्मन भाषा में इसका अर्थ सैनिक होता है। उग्र पूजारियों को मित्र के रूप में चित्रित किया गया है। ऋग्वेद में सुदास के  शत्रुओं के पुरोहितों के संदर्भ की ग्रिफ़िथ इस प्रकार से व्याख्या करते हैं “ब्रिगुओं और दृहयुयों ने बड़ी तेज़ी से सुना, दो दूरस्थ जनजातियों के मध्य मित्र ने मित्र को बचा लिया”

ख – घुमा-फिराकर जर्मन परम्परा में भी भृगु को याद कर ही लिया जाता है।छंद और वाक् के देवता ‘ब्रगी’ हैं।  हालाँकि अग्नि-पूजा से इनका कोई संबंध नहीं और इसी कारण ये अवहेलना के पात्र भी हुए हैं, इनके नाम की व्युत्पत्ति का मूल ‘ब्रग’ शब्द में ढूँढा जाता है जिसका अर्थ होता है ‘चमकना’। कुल मिलाकर इनके नाम का भी उत्स वहीं भारोपीय मूल है जहाँ से ‘भृगु’ शब्द का उन्मेष  होता है। भृगु ही वैदिक अग्नि पूजा के अन्वेषक हैं। वहीं हाल यूनानी (ग्रीक) अग्नि-पुरोहित ‘फ़्लेग’ के साथ भी है। यह सब मिलाकर भारतीय इतिहास परम्परा में दृहयु की पहचान को  भारोपीय शाखाओं को पूर्वजों द्वारा बोली जानेवाली  शाखा के साथ  सुनिश्चित  करता है 

२ – जोहना निकोल्स और उनके अन्वेषी भाषाशास्त्री साथियों ने  इस विषय में बड़ा ही गहन शोध किया है। उनके शोध का शीर्षक है – ‘भारोपीय भाषायी विस्तार का उपरिकेंद्र ( The Epicenter of the Indo-European Linguistic Spread)”। इसमें उन्होंने उन शब्दों पर शोध किए हैं जो बहुत पहले पश्चिम एशिया ( सेमिटिक और सुमेरियन) से उधार के रूप में आकर भारोपीय और अन्य भाषा परिवारों में भी जैसे कौकेसियन  ( कार्टेवेलियन, अबखज-सिरसैसियन और नख-दाघेस्तनियन के अलग -अलग तीन समूहों के साथ) में शामिल हो गए।  साथ-साथ उन्होंने इन उधारी शब्दों के उस प्रकार और स्वरूप  की भी समीक्षा की जिस आकृति में वे इन भारोपीय भाषा परिवार या उनकी अन्य शाखाओं में समाहित हो गए और इसी क्रम में उरेलिक और उससे जुड़ी भाषाओं के भारोपीय भाषाओं से अंतरसंबंध के साथ-साथ अनेक प्रकार के भाषायी सबूतों से उनका सामना हुआ। 

“आद्य-भारोपीय भाषाओं के ठिकानों से संबंधित अनेक सबूत यहाँ प्रस्तुत किए गए हैं। पूराने उधारी शब्द अपनी  यात्रा  के रास्तों के उन रेगिस्तानी प्रक्षेप वक्र की ओर इशारा करते हैं जो मेसोपोटामिया से हटकर दूर पूर्वी मरुस्थलों से होकर गुज़रते हैं। वंश-वृक्ष की  बनावट, अपने फैलाव के पश्चिमी किनारे पर आनुवंशिक विविधताओं  का जमवाड़ा, टोकारियन की स्थिति और शुरू की बोलियों के भूगोल के बारे में उसका निहितार्थ, एशिया माइनर में अनाटोलियन के होने के शुरुआती प्रमाण  और भाषिक लक्षणों का सेंटम(यूरोपीय) तथा सतम(ईरानी) में बँट जाना – ये सारे तत्व एक ही दिशा की ओर संकेत करते हैं : बहुत दिनों तक टिका  रहने वाला भाषाओं का पश्चिम-मुखी प्रक्षेप-वक्र मार्ग  एक पूर्वी ठिकाने  की ओर संकेत करता है।  साथ ही, भारोपीय भाषा के विस्तार के तीनों प्रक्षेप-वक्र-मार्ग कैस्पियन सागर के पूर्वी किनारे की ओर संकेत  करते हैं। ‘सतम’ शाखा की ओर झुकाव का भी फैलाव कैस्पियन के दक्षिण पूरब ठिकाने से ही निकलता दिखता है। सतम भाषा तीनों प्रक्षेप-वक्र मार्गों के अवसान बिंदु पर लेट-लतीफ़ पहुँचती दिखायी देती है।(सतम का खिसकाव आद्य-भारोपीय के बाद की परंतु भारोपीय की शुरुआती घटना ही है)। इससे यहीं निष्कर्ष निकलता है कि भारोपीय शाखा का विस्तार का भी ठिकाना  प्राचीन बैक्ट्रिया-सौगदिया के आसपास के  क्षेत्र ही हैं (निकोल्स १९९७:१३७)। “ कहने का अर्थ यह है कि ये सारे भाषायी सबूत यहीं दिखाते हैं कि यूरोपीय शाखाओं के विस्तार का ठिकाना मध्य एशिया में अफ़ग़ानिस्तान के निकास द्वार पर ही था और पुराणों में दृहयु जनजाति के अप्रवासन की भी कहानी इन्हीं सबूतों को पुष्ट करती हैं।

३ – ऊपर के अन्वेषण मध्य एशिया के पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम की भाषाओं की बोलियों के आपसी भाषिक संपर्क से संबंधित हैं।  ऊपर निकोल्स के द्वारा खोजे गए सबूतों से अलग हटकर स्वतंत्र रूप से भी यदि देखें तो थोड़ा और पूरब बढ़ने पर तमाम सबूत मिल जाते हैं।

अ – शुंग-तुंग-चांग नामक चीनी मूल के एक पश्चिमी विद्वान भाषा-शास्त्री ने प्राचीन चीनी शब्दावली (बरनार्ड कार्लग्रे द्वारा पुनर्संपादित ग्रैमट्टा सेरिका १९४०) और आद्य-भारोपीय शब्दावली की व्युत्पत्ति (जूलीयस पोकॉर्नी द्वार पुनर्संपादित इंडो जरमेनैशेज  एटीमोलोजाइशेज़ वर्टरबुक १९५९)  के आपसी संबंधों का बहुत ही गहरायी से अध्ययन किया है। इस अध्ययन के उपरांत उन्होंने अपना मंतव्य दिया कि चीन की प्राचीन शब्दावलियों की व्युत्पत्ति की प्रक्रिया पर भारोपिय भाषाओं का गहन प्रभाव  है :  “भारोपीय बोलियों में जर्मन भाषा क़रीब-क़रीब चीन की प्राचीन भाषा के काफ़ी नज़दीक और समान है (चांग १९८८:३२)।“ और यह सब यहीं दिखाता है कि “ यूरोप की ओर खिसकने से पहले भारोपीय भाषाएँ एक काफ़ी लम्बे अरसे, क़रीब हज़ार से भी अधिक सालों तक साथ-साथ मध्य एशिया में फलती-फूलती रहीं (चांग १९८८:३३)।“

आ – आद्य-जर्मन और आद्य-सेल्टिक भाषाओं के  प्राचीन मध्य एशिया में सहवास की भी पुष्टि ग़मक्रेलिज और इवानोव ने अपनी गहन शोधात्मक पुस्तक “The separation of the Ancient European Dialects from Proto Indo-European and The migration of Indo-European tribes across central Asia” अर्थात “ आद्य भारोपीय भाषाओं से प्राचीन यूरोपीय बोलियों का अलग टूटना और मध्य एशिया से भारोपीय जनजातियों का अप्रवासन”(ग़मक्रेलिज १९१५:८३१-८४७) में की है। यहाँ उन्होंने यूरोपीय बोलियों के मध्य-एशिया से यूरोप की यात्रा के पथ को अंकित किया है। अपनी यात्रा के पथ पर पड़ने वाली भाषाओं के संसर्ग-चिह्नों को बटोरते हुए और अपने समागम-तन्तुओं के जिस अवशेष को छींटते  हुए यूरोपीय बोली आगे-आगे चल रही है, पीछे-पीछे उन्ही अवशेष बिंदुओं को बटोरते-बटोरते ग़मक्रेलिज ने यह पथ-रेखा खींची है।  यहाँ मिलने वाले  सबूतों में एनेसियन और आल्टिक भाषाओं के यूरोपीय भाषाओं से  आपसी लेन-देन वाले शब्द भी शामिल हो जाते हैं। इससे पहले प्राचीन चीनी भाषा और यूरोपीय बोली के शाब्दिक आदान-प्रदान की गाथा हम पढ़ चुके हैं। सबसे प्रमुख बात तो यह है कि ग़मक्रेलिज और इवानोव, दोनों इस परिकल्पना के प्रतिपादक हैं कि यूरोपीय भाषाओं की उत्पत्ति का मूल स्थान अनाटोलियो है। किंतु, उनकी परिकल्पना का एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि अनाटोलियो की गर्भ-गुफा से ये भाषाएँ पहले मध्य एशिया में आयीं। फिर, वहाँ से वे यूरोप की ओर चली गयीं।


४ – ऐसे ढेर सारे अन्य तमाम सबूत भी भरे पड़े हैं जो यह साबित करते हैं कि भारोपीय भाषाओं का भ्रमण पश्चिम दिशा की ओर हुआ न कि पूरब दिशा में। उदाहरण के तौर पर –

अ – प्राचीन भारोपीय भाषाओं से लिए गए  ‘टौरस’ और ‘वाइन’ जैसे अनेक सेमिटिक शब्द पश्चिम की सभी नवों शाखाओं में तो पायी जाती हैं, किंतु भारतीय आर्य,  ईरानी और टोकारियन, इन तीन शाखाओं में नहीं पायी जातीं। वाइन शब्द  अपने पश्चिम की ओर यात्रा के दौरान अपनी संरचनाओं में मामूली बदलाव भी लाता रहा और पश्चिमी शाखाओं में  अपनी तीन नयी  बनावट में शामिल हो गया।  ‘वाइन (wine)’ शब्द पुरानी हित्ती या हेटाइट (अनाटोलियन) शाखा में ‘वायोनो {wi(o)no}’, यूरोपीय शाखाओं में ‘विनो (weino)’ और अंतिम शाखाओं (अल्बानी, ग्रीक और अर्मेनियायी) में ‘वोईनो(woino)’ रूप में पाया जाता है।

आ – पूर्वी यूरोप की यूरेलिक भाषाओं ने बड़े पैमाने पर भारतीय-आर्य और  ईरानी भाषाओं के शब्द लिए हैं। किंतु इसकी उल्टी प्रक्रिया नहीं पायी गयी है।  इससे भी यह साफ़ पता चलता है की ये दोनों पूर्वी शाखाएँ (भारतीय आर्य और ईरानी) कतई न तो पश्चिम से  आयी थीं और न ही यूरेलिक भाषाओं से कभी इनका कोई सम्पर्क भी रहा। ऐसा भले संभव हो कि भारतीय-आर्य और ईरानी भाषा बोलने वाले लोगों का एक छोटा समूह यूरोपीय शाखा वाले लोगों के साथ पश्चिम दिशा में चलकर यूरेलिक भाषी लोगों की जमात में  बस गया हो और अपनी बोली  उनकी भाषा में उन्होंने घोल  दी हों। 

[ प्रसंगवश बताते चलें कि फ़िनलैंड के विद्वान परपोला इस अवधारणा के प्रबल प्रतिपादक हैं कि भारतीय-ईरानी पूरब की अपनी  ऐतिहासिक रिहाईशी भूमि में अवतरित होने से पहले मूल रूप से सुदूर पश्चिम में यूरेलिक से दक्षिण पूर्व बसे, ‘फ़िन्नो-युग्रिक’  लोग थे। वह अक्सर इस बात को दुहराते रहते हैं कि फ़िन्नो युग्रिक आबादी में इस संबंध में अनेक भारतीय-ईरानी, ईरानी या भारतीय-आर्य तत्व पाए जाते हैं। इसी आधार पर वह इस नतीजे पर पहुँच जाते हैं कि भारतीय ईरानी यूरेलिक भूभाग से विस्थापित होकर आए थे।]

यह अपने आप में अधकचरे ज्ञान से निकले उलटफेर का नायाब नमूना प्रतीत होता है। सही मायने में तो भारतीय-ईरानी या ईरानी या भारतीय आर्य भाषाओं के प्रचुर मात्रा में ऐसे प्राचीन शब्द-भंडार हैं जो फ़िन्नो-युग्रिक भाषा में उधार लिए गए हैं। “भारतीय-ईरानी भाषा में प्रयुक्त ऐसे शब्दों की प्राचीनतम परत साझे रूप से आद्य-भारातीय-आर्य और आद्य-ईरानी भाषा में तीन तरह के सांस्कृतिक संदर्भों में प्रयुक्त  हुए हैं – आर्थिक उत्पादन के संदर्भ में, सामाजिक संबंधों के संदर्भ में और धार्मिक मान्यताओं के संदर्भ में। आर्थिक संदर्भ में पालतू जानवरों के नाम हैं। यथा – भेड़, मेमना, बैक्ट्रियायी ऊँट,  बिना बधिया किए घोड़े,  बछड़े, सुअर के बच्चे आदि । देहाती काम-काज और उत्पादों के संदर्भ में थन, चमड़ा, ऊन, कपड़ा, चरख़ा आदि। खेती-बाड़ी के संदर्भ में अन्न, अन्न की बाल, मद्य, दरांती, हँसिया आदि। औज़ार के संदर्भ में आरा, सुआ, सुतरी, कोड़ा, सींग, हथौड़ा, गदा आदि। ढेर सारे शब्द सामाजिक संदर्भों और रिश्तों से संबंधित हैं।  जैसे – मनुष्य, बहन, अनाथ, नाम आदि। इसमें कुछ ऐसे  शब्द भी शामिल हैं जो भारतीय-ईरानी भाषा में मुख्य स्थान रखते हैं। जैसे – अनार्यों के लिए ‘दास’, असुर आदि। कुछ  शब्द धार्मिक  विधि-विधान, रिवाज और कर्म-कांडों के संदर्भों से संबंधित अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं। जैसे -  स्वर्ग, नरक, ईश्वर,  देवता, ख़ुशी, इंद्र का अस्त्र वज्र, मृत, नश्वर, आर्यों के दफ़न-संस्कार में प्रयुक्त होने वाला अंग किडनी आदि।कुछ ऐसे नशीले पेय पदार्थ जो भारतीय-ईरानी और फ़िन्नो-युग्रिक पुजारियों द्वारा समान रूप से प्रयोग में लाए जाते थे  उनको इंगित करने वाले शब्द हैं। जैसे – शहद, भांग आदि। (कुज़मीना २००१:२९०-२९१)”

लेकिन कई दशकों के अथक अध्ययन  और अनुसंधानिक प्रयास के बावजूद एक भी ऐसा शब्द नहीं खोजा जा सका जो फ़िन्नो-युग्रिक भाषा से उधार के तौर पर पूरब के भारतीय-ईरानी भाषाओं में प्रवेश किया हो। 

तर्क और तथ्य से छत्तीस का आँकड़ा रखने वाले उन कतिपय पूर्वाग्रही विद्वानों की ओर से यदि आँखें मूँद लें तो ऐसे कोई भी संकेत नहीं मिलते जो यह साबित कर सकें कि ये पूरबिया भारतीय-ईरानी कहीं पश्चिम से चलकर आए थे। हाँ, प्राचीन काल में पूरब से चलकर फ़िन्नो-युग्रिक पश्चिमी क्षेत्र में समाने वाले मित्ती भारतीय-आर्य जैसे  कुछ ख़ास भारतीय ईरानी समुदाय ज़रूर थे जो अब इतिहास की करवटों में लुप्तप्राय हो गए हैं।    

बाहर से आकर बसने वाले अप्रवासी हमेशा स्थानीय भाषा में कुछ नए शब्दों का योगदान करते हैं। भारतीय भाषाओं में भी बड़ी मात्रा में ऐसे शब्दों का वजूद है जो मुग़ल शासन के दौरान अरबी-फ़ारसी से आए। दक्षिण-पूर्व एशिया और उत्तरी एशिया के औस्ट्रिक और चीनी-तिब्बती भाषाओं ने संस्कृत से शब्द ग्रहण किए। गोआ  की कोंकड़ी बोली में पुर्तगाली शब्दों का विलय हुआ। बाल्टी के लिए ‘बालदे’ और रोटी के लिए ‘पाव’ शब्द तो भारत की दूसरी भाषाओं में भी घुस गए। इंग्लैंड पर नौरमन आक्रमण के फलस्वरूप अंग्रेज़ी भाषा में ढेर सारे फ़्रांसीसी शब्द प्रवेश कर गए। पुद्दुचेरी  की तमिल बोली  में भी ढेर सारे फ़्रांसीसी शब्द हैं। उसी तरह ब्रिटेन के पुराने उपनिवेशों की भाषाओं में भी अंग्रेज़ी  शब्दों का अनवरत प्रवाह दिखता है।

हर हाल में ऐसा भी होता है कि अप्रवासी अपनी भाषा में भी स्थानीय बोली के शब्दों को आत्मसात कर लेते हैं। किंतु, ऊपर दिये  गए दृष्टांतों में एक भी ऐसा अवसर नहीं दिखायी  देता है जहाँ अप्रवासियों ने उस स्थानीय बोली के शब्दों को अपने मूल स्थान में प्रेषित कर दिया हो। कोई भी भारतीय शब्द अरबी या फ़ारसी में  घुलता नहीं दिखायी देता है। थाई, कंबोडियाई  या इंडोनेशियाई  शब्द संस्कृत भाषा में नहीं मिलते हैं। इसके अपवाद वहीं दिखायी देते हैं जहाँ उपनिवेशवादियों ने  अपने उपनिवेश  की भूमि को छोड़ दिया हो और वापस अपनी मूलभूमि में लौटकर अपने साथ लाए वहाँ के स्थानीय शब्दों को अपने साहित्य में पिरो दिया हो। उदाहरण के तौर पर अंग्रेज़ी भाषा में ऐसे उदाहरण दिखायी देते हैं।

इसलिए उपलब्ध प्रामाणिक साक्ष्य इस बात को पूरी तरह से नकारते हैं कि भारतीय-ईरानी पश्चिम से पूरब की ओर आए थे। उलटे, हम यह देखते हैं कि भारतीय-ईरानी शब्द फ़िन्नो-युग्रिक भाषा में तो पाए जाते हैं, लेकिन फ़िन्नो-युग्रिक शब्द भारतीय-ईरानी भाषा में  नहीं पाए जाते। यह निस्संदिग्ध रूप से इस बात को साबित करता है कि भारतीय-ईरानी समुदाय का यदि कोई अप्रवासी वर्ग था तो वह विस्थापित होकर फ़िन्नो-युग्रिक भूमि की ओर गया था न कि फ़िन्नो-युग्रिक भूभाग से भारतीय-ईरानी क्षेत्र में आया था।

सबसे ज़्यादा अचरज तो परपोला के इस तर्क पर होता है जब वह कहते हैं कि फ़िन्नो-युग्रिक भाषा ने इन  शब्दों को भारतीय-आर्य और ईरानी लोगों के पूर्वजों से शुरू में ही दक्षिण रूस के आस-पास  ले लिया था। संक्षेप में कहा जाय तो इतनी दूर दक्षिण रूस में और इतना पहले अर्थात वैदिक युग से भी पहले भारतीय-ईरानियों के पूर्वजों द्वारा ‘आर्य’, ‘दास’ ‘मेधु (लेकिन मेलिथ नहीं)’ और यहाँ तक की बैक्टरियायी ऊँटों के नाम प्रयोग किए जाते  थे!

 इ – आद्य-भारोपीय और आद्य- औस्ट्रोनेसियायी ( इंडोनेशिया, मलयेसिया और प्रशांत महासागर के द्वीपों की भाषाओँ  के पुरातन स्वरूप) भाषाओं के बीच आद्य भारोपीय काल से भी बहुत पहले से आपसी संपर्क थे। इसिडोर डायन ( डायन : १९७०) ने इन दोनों भाषाओं के बीच उल्लेखनीय समानताओं को ढूँढ निकाला। उदाहरण के तौर पर पहले चार अंकों के लिए शब्द, व्यक्तिवाचक सर्वनाम के अधिकांश शब्द और पानी तथा ज़मीन के लिए शब्द। डायन (१९७०:४३९) यह बतलाते हैं कि “ऐसी तुलनाओं या समानताओं को हम कम-से-कम इतना कम और यहाँ तक कि इतनी अधिकतर मात्रा में हम ढूँढकर तो निकाल ही सकते हैं जहाँ तक  अर्थों की गुणवत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।  और यदि कोई ऐसा संपर्क वाक़ई था तो यह भारत के अलावा और कहाँ हो सकता है?

प्रसिद्ध भाषविद श्री एस के चटर्जी स्वतंत्र रूप से अपने शोध का यह नतीजा रखते हैं कि भारत ही वह केंद्र-बिंदु था जहाँ से औस्ट्रिक बोलियाँ पूरब के भूभाग और प्रशांत महासागर के टापुओं पर फैलीं ( चटर्जी १९५१/१९९६:१५६)। और,  औस्ट्रिक  बोलियाँ अपने मूल रूप में अर्थात औस्ट्रो-एशियायी तथा औस्ट्रोनेशियायी शाखाओं के परमोद्भव बिंदु के रूप में अपनी असली पहचान भारत की माटी में ही तलाशती हैं (चटर्जी १९५१/१९९६:१५०)।

आज के ज़माने में वर्तमान सभी भारोपीय भाषा समुदायों में मात्र यूरोपीय बोलियाँ ही ऐसी हैं जिनके अपनी ऐतिहासिक बसावट की ज़मीन ( अधिकांशतः यूरोप में ही) में पहुँचने की यात्रा के पुरातात्त्विक साक्ष्य मौजूद हैं। जैसा कि विन का कहना है,  “एक  ‘साझे यूरोपीय क्षितिज’ का विकास ३००० ईसापूर्व के बाद ही होता है। यह तक़रीबन पिट ग्रेव संस्कृति के विस्तार का समय था (कुरगन संस्कृति का तीसरा चरण)। चीनी-मिट्टी से बने पदार्थों के ख़ास शिल्प के आधार पर इसे सामान्यतः कौरडेड वेयर होरिज़ोन  कहते हैं। इस संस्कृति के भिन्न-भिन्न स्वरूपों  के मध्य, पूर्वी एवं उत्तरी यूरोप में फैलने  से उत्पन्न परिदृश्य को ही आद्य-भारोपीय भाषा और संस्कृति के आस्तित्व में आने के  के कारण के रूप में  व्याखायित किया गया है। जिस भूभाग में कौरडेड वेयर या  बैटल ऐक्स संस्कृति का विस्तार हुआ, भौगोलिक रूप से उसी की कोख से पश्चिमी या यूरोपीय  भाषा-शाखाओं, जर्मन, बाल्टिक, स्लावी, सेल्टिक और इटालिक भाषाओं का जन्म हुआ (विन १९९५:३४३, ३४९-३५०)।“

कौरडेड वेयर संस्कृति  की उत्पति के बीज दक्षिण रूस के मैदानी भाग में कुरगन संस्कृति से पूरब की ओर, कौकेसस के उत्तर और यूराल के दक्षिण में भी मिले हैं। और बहुत हाल के शोधों में तो कुरगन संस्कृति की प्राचीनतम जड़ों के अवशेष मध्य एशिया में भी पाए गए हैं।

जहाँ तक पुरातात्विक सबूतों की बात है तो उनसे एशिया, ग्रीस और अनाटोलिया में भारोपीय तत्वों की उपस्थिति की बात बिलकुल नहीं बन पाती, लेकिन यूरोपीय शाखाओं के वहाँ होने की बात का ख़ुलासा ज़रूर मिलता है। फिर वहीं से उन यूरोपीय शाखाओं के पूर्वी यूरोप होते हुए यूरोप के उत्तरी और पश्चिमी भाग तक पहुँच जाने की बात सही बैठ जाती है।


Friday 16 October 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१०)

(भाग - ९ से आगे)


ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - ( छ  )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)




अन्य भारोपीय शाखाओं के अपनी जगह छोड़ने का इतिहास 

जैसा कि भाषायी आँकडें यह दिखाते हैं क़ि अपनी मूल मातृभूमि में भारोपीय-भाषी बोलियाँ बोलने वाले समूहों में से ही एक भारतीय आर्य भी थे। इस तरह की अलग-अलग बोलियाँ बोलने वाले अन्य समूह भी ३००० वर्ष ईसा पूर्व निवास करते थे और आज का ज्ञान यह बतलाता है कि  इस भारोपीय भाषा परिवार में अलग-अलग ११ शाखाएँ विकसित  हो गयी थीं।

पौराणिक इतिहास से यह भी पता चलता है कि  उस समय उस क्षेत्र में निवास करने वाली भारतीय-आर्यों की अनेक जनजातियों में से एक थी – ‘पुरु’ जनजाति। ऋग्वेद के मंडलों में उनकी पहचान पुरुओं  के एक ख़ास वंश की उपजाति  ‘भरत-पुरु’ के रूप में है। ये ‘भरत-पुरु’ ईसा से ३००० साल पहले पश्चिमोत्तर उत्तर-प्रदेश और हरियाणा के मूल निवासी थे। उनके आस-पास रहने वाली अन्य जन-जातियाँ भी थीं। इस आशय की तार्किक परिणति  तो इसी बात में होती है कि ईसा से ३००० साल पहले अपने हरियाणा और उत्तर-पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मातृभूमि में पुरु जनजाति रहती थी और इनके परित: अन्य बोलियाँ बोलने वाली जो जनजातियाँ निवास करती थीं, उनकी ही बोलियों ने भारोपीय भाषा- परिवार की अन्य शाखाओं को जन्म दिया।

अगर उत्तर भारत को  भारोपीय लोगों का मूल-स्थान मान  लिया जाय, तो इर्द-गिर्द रहने वाली जनजातियों के अपनी जगह से खिसककर अगर किसी दिशा की ओर  बढ़ने की संभावना जाती है तो वह दिशा है – ‘पुरुओं’ के पश्चिम की ओर । ऐसा इसलिए भी सही है कि भारोपीय भाषाओं की शाखाओं की  बहुलता भारत के सुदूर पश्चिम में ही पायी जाती है।  और सबसे अधिक यदि कोई सम्भावना जगती है तो इन ‘अणु’ और  ‘दृहयु’ जनजातियों पर जाकर आँखें टिकती हैं। आइए इस तथ्य की जाँच करें:

दोनों जनजातियों की भौगोलिक स्थिति 

पौराणिक आख्यानों के आधार पर ‘अणु’ जनजाति मूलतः ‘पुरुओं’ के उत्तर में आज के कश्मीर से ठीक पश्चिम या इसके आस-पास के क्षेत्रों में रहती थीं और ‘दृहयु’ जनजाति ‘पुरुओं’ के पश्चिम वृहत पंजाब के क्षेत्र में रहती थी। यहीं क्षेत्र  आज का उत्तरी पाकिस्तान है। ऋग्वेद से भी थोड़ा पहले के समय में कुछ ऐसी पौराणिक घटनाओं का पता चलता है जिसके कारण इन दोनों जनजातियों के रिहायशी इलाक़ों में थोड़े फेर-बदल की आहट मिलती है। ‘दृहयु’ अपने विजय अभियान में पूरब और दक्षिण  की ओर बढ़ने लगे और इस क्रम में उनकी अन्य जनजातियों से अनेक  मुठभेड़ें हुई। इसका नतीजा यह निकला कि  सब विरोधी जनजातियाँ एकजुट होकर उनसे टक्कर लेने लगी और उन्हें  खदेड़ते-खदेड़ते पूरब से ही वापस कौन कहे, बल्कि अपनी मूल भूमि से भी दूर और पश्चिम  में अर्थात आज के पाकिस्तान में उन्हें फेंक दिया। इस भाग में ‘अणु’ जनजाति  की एक बड़ी शाखा रहती थी जो अब पश्चिम और दक्षिण दिशा की ओर खिसक गयी। “उसिनर के नेतृत्व में एक शाखा ने पंजाब की पूर्वी सीमा  के क्षेत्र तक कई साम्राज्यों की नींव डाल दी। उसके लोकप्रिय पुत्र ‘शिवि’  ने शिवपुर में शिवि साम्राज्य की स्थापना की। इसे ही ऋग्वेद के सातवें मंडल के १८/(७)  में ‘शिव’  कहा गया है। पश्चिम की ओर शिवि के साम्राज्य विस्तार का अभियान चालू रहा और उत्तर-पश्चिमी कोने को छोड़कर उसने क़रीब-क़रीब समूचा पंजाब जीत लिया और इस राज्य का नाम ‘गांधार’ रखा ।“ (पार्जिटर १९६२-२६२)

इस तरह से ‘अणु’ अब दो स्थानों में बस गये – पहला उत्तर  की ओर कश्मीर और कश्मीर के पश्चिमी क्षेत्र में, तथा दूसरे ‘पुरु’ के पश्चिम  अर्थात आज के उत्तरी पाकिस्तान के क्षेत्र में।

दूसरी तरफ़,  अपने मूल स्थान में कुछ बचे-खुचे अवशेषों को छोड़कर बाक़ी सारे ‘दृहयु’ पश्चिम और उत्तर-पश्चिम की ओर ठेल दिए  गए, जो कि पंजाब का पश्चिमोत्तर कोना और आज का अफ़ग़ानिस्तान है।

अप्रवासी शाखाओं का भाषायी वर्गीकरण 

    अपनी मूल भूमि (जहाँ कहीं भी हो) से हटने के कालक्रम के अनुसार बारहों भारोपीय शाखाओं की  भाषिक विशिष्टताओं के  विश्लेषण करने के उपरांत उन्हें लगभग तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

१ – शुरू की शाखाएँ, अनाटोलियन (हिटायट/हित्ती) शाखा और टोकारियन शाखा।

२ – यूरोपीय शाखाएँ, इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक और स्लावी शाखाएँ।

३ – अंतिम शाखाएँ, अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी, ईरानी और भारतीय-आर्य। इनके अपनी मातृभूमि से बाहर निकलने का कालक्रम बिल्कुल स्पष्ट नहीं है, इसलिए इन्हें अपने उन स्थानों के पश्चिम से पूरब की ओर के क्रम में यहाँ रखा गया है जहाँ के इतिहास की ये शाखाएँ सांस्कृतिक पहचान हैं। 

भाषा के आधार पर विश्लेषण किए जाने के मुख्य आधार बिंदु निम्नलिखित हैं : 

अ  – अनाटोलियन शाखा की अपनी मातृभूमि से शुरू में ही विदायी हो जाने के बाद वहाँ बची बाक़ी शाखाओं में कुछ ऐसी साझी भाषिक लक्षणों का उदय हुआ जिससे अनाटोलियन शाखा वंचित रह गयी । ये भाषिक लक्षण इस प्रकार हैं :

क़ – ‘आ’, ‘ई’ और ‘ऊ’ से अंत होने वाले शब्दों में स्त्रीलिंग का भाव। (गमक्रेलिज १९९५:३५)

ख – ‘ओईस’ से अंत होने वाले बहुवचन पुल्लिंग  कर्ता। (गमक्रेलिज १९९५:३४५) 

ग – स्थिति को दर्शाने वाले संकेतवाचक निश्चयात्मक सर्वनाम में *सो, *सा, तो (बहुवचन थो) (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

आ – शुरू की और अंत की शाखाओं में वृहत पैमाने पर कोई साझे भाषायी लक्षण नहीं दिखते हैं। केवल ऊपर वर्णित लक्षण ही टोकारियन और अन्य  सभी ग़ैर-अनाटोलियन भाषायी शाखाओं में पाए जाते हैं। इससे यह पता चलता है कि अपने मूल स्थान से निर्वसन के पश्चात  भाषा परिवार की इन प्रारम्भिक और अंतिम शाखाओं  में आपसी मेल-मिलाप नहीं के ही बराबर रहा।

इ – प्रारम्भिक  भाषा-शाखा (अनाटोलियन और टोकारियन) के निकल जाने के बाद बची यूरोपीय और अंतिम शाखाओं में अपनी मातृभूमि में गहरा मेल-मिलाप रहा। इसी कारण इन दोनों शाखाओं के भाषायी लक्षणों में काफ़ी साझेदारी दिखती है।

१ - *ओई, *म्वॉ में मध्य। जर्मन-बाल्टिक-स्लावी, अल्बानी- ग्रीक-अर्मेनियायी-ईरानी-भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

२ - *त्तर  और *इष्ट  में विशेषणों की तुलना। जर्मन, ग्रीक-ईरानी-भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५) 

३ – संकेतवाचक एकवचन पूलिंग *ओ। जर्मन-बाल्टिक, ईरानी-भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५) 

४ – सीटी-सी ध्वनिकारी तालव्य शब्द। बाल्टिक-स्लावी, अर्मेनियायी-ईरानी-भारतीय आर्य। (हॉक १९९९ a :१४- १५)

५ – ‘स’ और ‘श’ की ध्वनियों का ‘रुकी का नियम’। बाल्टिक-स्लावी, अर्मेनियायी-ईरानी-भारतीय आर्य। (हॉक   १९९९ a :१४-१५)

६ – कंठ के पास नरम तालु  और होठ से निकलने वाली ध्वनियों का मिश्रण। बाल्टिक-स्लावी, अर्मेनियायी-ईरानी-भारतीय आर्य। (हॉक १९९९ a :१४-१५)

७ – स्थानिक विभक्ति (उदाहरणार्थ संस्कृत में सप्तमी विभक्ति) *सु/षु  बाल्टिक-स्लावी, गीक-ईरानी-भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

८ – संबंधवाचक सर्वनाम *योस। स्लावी, ग्रीक-अर्मेनियायी-ईरानी-भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

९ – संबंध-अधिकरण  द्वैत *ओस। स्लावी, भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)।

१० – उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम: कर्ता, संबंध और कर्म कारक। स्लावी,ईरानी-भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

ई  – कुछ भाषायी लक्षण यूरोपीय शाखा और शुरू की दो सदस्यों वाली शाखाओं में समान रूप से विद्यमान हैं:

संबंधवाचक सर्वनाम *खोईस। अनाटोलियन-टोकारियन, इटालिक-सेल्टिक। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

संबंधवाचक एकवचन *इ। टोकारियन, इटालिक-सेल्टिक। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)

संयोजक *अ, *ए। टोकरियाँ, इटालिक-सेल्टिक। (गमक्रेलिज १९९५:३४५) 

कर्मवाच्य मध्यक *र। अनाटोलियन-टोकरियाँ, इटालिक-सेल्टिक। (गमक्रेलिज १९९५:३४५) 

अपूर्ण काल *मो। अनाटोलियन बाल्टिक-स्लावी। (गमक्रेलिज १९९५:३४५) 

रूपात्मक भाव या क्रिया भाव द्योतक  *ल। अनाटोलियन-टोकारियन। (गमक्रेलिज १९९५:३४५)  

उ  – कुछ ऐसे भाषिक लक्षण हैं जो यूरोपीय शाखायें बाद की शाखाओं के साथ तो साझा करती हैं लेकिन भारतीय आर्य भाषाओं से यहाँ वह दूरी बनाए हुए हैं।

१ – मूल प्रोटो-भारोपिय का ‘त्त’ बाल्टिक-स्लावी और ग्रीक-अल्बानी=ईरानी में बदलकर ‘स्स’ हो गया है। (भारतीय आर्य शाखा का यही ‘त्त’ अनाटोलियन में ‘त्स्त’ फिर इटालिक-सेल्टिक-जर्मन में त्स’ हो गया।) 

२ – अल्पप्राण और महाप्राण व्यंजनों के उच्चारण। जर्मन-बाल्टिक-स्लावी। (लुबोत्सकी २००१:३०२)

ऊ – शुरू की शाखाओं और यूरोपीय शाखाओं के अपने मूल स्थान से प्रस्थान कर जाने के बाद अंतिम शाखाओं के आपसी मेलजोल और पारस्परिक प्रभावों ने उनके भाषिक लक्षणों और विशेषताओं में बड़े आमूल-चूल प्रभाव और  प्रमुख परिवर्तन देखे।

१ – विरासत में मिली  ‘क्रियापदों’ की संरचना स्वरों के  गण, वृद्धि या पुनरुक्ति के कारण पूरी तरह से बदल गयी। ग्रीक, अल्बानी, अर्मेनियायी, ईरानी, भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५: ३४०-३४१, ३४५)

२ – कर्म कारक ‘-भि-‘। अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी, ईरानी, भारतीय आर्य। (गमक्रेलिज १९९५: ३४०-३४१, ३४५)

३ – नकारात्मक या निषेधात्मक क्रियापद *मे । अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी, ईरानी, भारतीय आर्य। (मिलेट १९०८/१९६७:३९)

ओ – अंतिम शाखाओं की भाषाओं में से कुछ ने स्वरों के उच्चारण संबंधी कतिपय भाषिक लक्षण विकसित कर लिए जो भारतीय आर्य भाषाओं में अनुपस्थित रहे। जैसे स्वर  के पहले आनेवाले ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ हो जाना। ग्रीक-अर्मेनियायी-ईरानी। (मिलेट १९०८/१९६७:११३)

इतिहास में दर्ज प्रवास 

‘अणु’ और ‘दृहयु’ जनजातियों का अपना मूल स्थान छोड़कर दूसरे जगह पर बस जाने की घटना इतिहास में  अप्रवासन के दृष्टांत के रूप में दर्ज  है। पुराणों में वर्णित पाँच ‘ऐला’ जनजातियों के निवास-स्थान के आधार पर, ‘दृहयु’  जातियों का मूल स्थान ‘पुरुओं’ के पश्चिम वृहत पंजाब के क्षेत्र में था,  जो सप्त-सिंधु प्रदेश का आज का उत्तरी पाकिस्तान है। बाद में जब ‘अणुओं’ ने उन्हें वहाँ से ठेल दिया तो ऋग्वेद की रचना से पहले ही ‘दृहयु’  खिसक कर और पश्चिम की तरफ़ अफ़ग़ानिस्तान में घुस गए जिसे गांधार देश कहा जाता था। (परजाइटर १९६२:२६२)।

बाद में वे और भी आगे उत्तर की ओर खिसकते-खिसकते मध्य एशिया के और भीतर तक घुस गए। “भारतीय परम्पराओं में भी इस बात के स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि दृहयु लोग ऐला जनजातीय क्षेत्रों से  उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर निकलकर काफ़ी दूर के देशों में चले गए, जहाँ उन्होंने कई साम्राज्यों को बसाया। (परजाइटर १९६२:२९८)।

पाँच पुराण इस गाथा से गुंजित हैं कि प्रचेता के वंशज उत्तर की ओर भारत से बाहर म्लेच्छों के देश तक फैल गए थे और वहाँ पर  उन्होंने  अपने साम्राज्य स्थापित कर लिए। (भार्गव १९५६/१९७१:९९)

कुछ समय बाद, जनसंख्या के दवाब के काफ़ी बढ़ जाने से दृहयु जाति के लोग भारत की सीमा के पार उत्तर में म्लेच्छों के क्षेत्र में घुस गए थे और वहाँ अपनी ढेर सारी प्रशासनिक इकाइयाँ स्थापित कर ली थीं। इस तरह अपनी आर्य-संस्कृति को भी वे अपने साथ अपनी सीमाओं से बाहर जाकर रख आए थे। (मजूमदार १९५१/१९९६:२८३)

पौराणिक ठिकानों के अनुसार ‘अणु’ कश्मीर के उत्तर और पश्चिम के इलाक़ों के मूल निवासी थे। ऋग्वेद की रचना से पहले उसिनर के नेतृत्व में उनकी एक शाखा ने पंजाब की पूर्वी सीमाओं पर अपना साम्राज्य बसा लिया था। अनंतर, जब तक ऋग्वेद के सबसे पुराने मंडलों (६, ३ और ७) की रचना पूरी हुई, उनका विजय-अभियान पश्चिम की ओर बढ़ते-बढ़ते समूचे पंजाब को पार कर इसकी उत्तरी-पश्चिमी सीमा को छू गया। (परजाइटर १९६२:२६४)

प्राचीनतम मंडलों के रचे जाने के समय, भरत-पुरु राजा सुदास और उसकी संततियों  की विस्तारवादी हरकतों ने  ‘अणु’ जाति के अधिकांश को पश्चिम की ओर धकेल दिया था। दसराज्ञ युद्ध में ‘भरत’ लोगों ने ‘अणुओं’ को लगभग बेदख़ल कर दिया। हम पहले भी देख चुके हैं हैं कि उनका (अणुओं का) वर्णन [७/{१८/(१३)}] ऐसे पराजित लोगों के रूप में किया गया है जो अपना सबकुछ छोड़कर पश्चिम दिशा [७/[६/(३)}] में भागे और  परदेश [७/{५/(३)}] में जाकर बिखर गए।

साफ़ तौर पर दो महत्वपूर्ण अप्रवासन नज़र में आते हैं। पहला, उत्तर की तरफ़,  मध्य एशिया में थोड़ा अंदर  पश्चिम की ओर बढ़कर, ‘दृहयु’ जाति  के लोगों का जाकर बस जाना और दूसरे, पश्चिम दिशा में अफ़ग़ानिस्तान के अंदर  कुछ और पश्चिम में घुसकर, ‘अणु’ जाति के लोगों का जाकर बस जाना।

यह भारोपीय शाखाओं के दो वर्गों की पहचान करता है। पहला तो पुरानी शाखाओं के साथ मिलकर एक संगठित जातीय समुदाय वाली यूरोपीय शाखा द्वारा  बनायी गयी भारोपीय भाषाओं की उत्तरी पट्टी। और दूसरे, अंतिम शाखाओं द्वारा निर्मित दक्षिणी पट्टी।

इसलिए, दृहयु की पहचान कम-से-कम यूरोपीय शाखाओं के साथ होती है ( नामकरण से संभव हो कि शुरू की शाखाएँ भी उनमें शामिल हों)। और अणु की पहचान अंतिम शाखाओं के साथ होती है, जिनमें पुरु भारतीय आर्य शामिल नहीं हैं।

ऋग्वेद के ग्रंथ और उसकी भाषा से निकले साक्ष्य 

प्रचलित सिद्धांत के अनुसार मूलस्थान को दक्षिण रूस में बताते हैं। क्रमशः अनाटोलियन शाखा को सबसे पहले  दक्षिण दिशा में, फिर टोकारियन शाखा को पूरब दिशा में और यूरोपीय शाखाओं को पश्चिम दिशा में विस्थापित हुआ मानते हैं। बहुत बाद में  अल्बानी और ग्रीक शाखाएँ दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर, अर्मेनियायी शाखा दक्षिण दिशा की ओर और ईरानी तथा भारतीय-आर्य शाखाएँ पूरब की ओर चल पड़ीं।

भारत में इनके मूल-स्थान होने के सिद्धांतकारों  का यह मानना है कि  जहाँ तक अनाटोलियन और टोकारियन शाखाओं के अप्रवासन का संबंध है तो वे अफ़ग़ानिस्तान से निकलकर उत्तर की ओर मध्य एशिया के क्रमशः पश्चिमी और पूर्वी भागों की ओर बढ़ गयीं। बाद में  उसी क्रम में इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक और स्लावी शाखाओं ने मध्य एशिया में अपने पैर फैला दिए। पहली दो शाखाओं का वजूद  मध्य एशिया में काफ़ी दिनों तक बना रहा।  टोकारियन भाषा तो अपने लुप्त होने तक वहीं बनी रही। अनाटोलियन शाखा भी बहुत बाद में वहाँ से पश्चिम की ओर खिसककर कजकिस्तान के रास्ते दक्षिण दिशा में कैस्पियन सागर के आस-पास अनाटोलियो (तुर्की) में समा गयी। यूरोपीय शाखाएँ उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़कर अंततः यूरोप में प्रवेश कर गयीं।

अल्बानी, ग्रीक, अर्मेनियायी और ईरानी शाखाएँ अफगनिस्तान से पश्चिम की ओर बढ़ चलीं। इस विस्थापन में ईरानी शाखा तो पहले  पिछड़कर अफ़ग़ानिस्तान में ही छूटी रही, लेकिन बाद में यह भी उत्तर की ओर चलकर मध्य एशिया में पसर  गयी। भारतीय आर्य शाखा अपने मूल-स्थान से लेकर अफगानिस्तान  के पूरब तक बनी रही। भारत के मूल-भूमि होने के  सिद्धांत से संबंधित जो साक्ष्य पुरातन ग्रंथों में मिलते हैं उनसे रूस की मूल-भूमि वाली अवधारणा पर न केवल ग्रहण लग जाता है, बल्कि उनका वजूद एक कपोल-कल्पित कल्पना से ज़्यादा कुछ नहीं बचता। और तो और, भाषिक लक्षणों के आधार पर हुई विवेचनाएँ भी इस बात को बल देती हैं कि  भारतीय मूल-स्थान की बात इन विवेचनाओं के ढाँचे में जहाँ एक ओर बिल्कुल फ़िट बैठती  है वहीं दूसरी ओर दक्षिणी रूस वाली बात बिल्कुल असंगत। जैसे कि :

१ – भारतीय मूल-स्थान की अवधारणा इस विवेचना में खरी उतरती है कि  सभी शाखाओं की यात्रा की दिशा एक ही तरफ़ रही। दूसरी ओर, दक्षिण रूस की अवधारणा में सारी शाखाएँ सारी दिशाओं में बिखर जाती हैं।

२ – यह बात भी उतनी ही तार्किक है कि मूल-स्थान तो वहीं रहा होगा जहाँ अंतिम पाँच  में से एक शाखा  बाक़ी चार के वहाँ से प्रस्थान कर जाने के बाद भी वहीं बची रही होगी। इस  बात की भारतीय मूल-स्थान की अवधारणा के साथ पूरी तरह से संगति  बैठती है। दूसरी ओर दक्षिण रूस के मूल स्थान वाली अवधारणा में सारी की सारी शाखाएँ वहाँ से प्रस्थान करती पायी जाती हैं। 

३ – अपने मूल स्थान से निकलने वाली शाखाओं में से सबसे पहली शाखा अनाटोलियन शाखा थी। बाक़ी अन्य शाखाएँ एक समूह के रूप में एक साथ किंतु अलग-अलग अनाटोलियन और सम्भवतः टोकारियन शाखा से भी निकलीं। एक और दिलचस्प बात हमें इन शाखाओं के आपसी भाषिक लक्षणों का अध्ययन करने पर  पता चलती  है। सबसे पुरानी और यूरोपीय भाषा-शाखाओं के भाषिक  लक्षणों में हमें कई जगह समानता के तत्व मिलते हैं। वैसे ही, यूरोपीय और परवर्ती अंतिम शाखाओं के बीच भी ऐसे दृष्टांत मिलते हैं। लेकिन सबसे पुरानी और सबसे बाद की शाखाओं के भाषायी लक्षणों में ऐसी समानता के कोई तत्व नहीं पाए  जाते। रूसी मूल-भूमि की अवधारणा में अनाटोलियन शाखा दक्षिण की ओर, टोकारियन पूरब की और यूरोपीयन शाखा पश्चिम की ओर निकलती हैं। आगे चलकर अल्बानी  और ग्रीक दक्षिण-पश्चिम, अर्मेनियायी दक्षिण और ईरानी तथा भारतीय-आर्य शाखाएँ पूरब की ओर निकल गयीं। भिन्न-भिन्न दिशाओं में पसरने वाली इन शाखाओं के परस्पर भाषिक लक्षणात्मक समानता या असमानता   के संबंध में कोई भी प्रामाणिक व्याख्या न तो मौजूद है और न ही जुट पाती  है। अब देखें कि :

अ – भाषिक लक्षणों के मामले में क्रमशः दक्षिण और पूरब की ओर जानेवाली पहले की शाखायें पश्चिम की ओर जानेवाली यूरोपीय भाषाओं के संग कतिपय  महत्वपूर्ण  समानताओं के तत्व स्थापित कर लेती हैं।

आ – पश्चिम दिशा की ओर विस्थापित होने वाली यूरोपीय शाखा ने भाषिक लक्षणों में अपनी समानता दक्षिण-पूर्व, दक्षिण और पूरब दिशा की ओर बढ़ने वाली बाद की शाखाओं के साथ कर ली है।

इ – लेकिन यदि आप दक्षिण और पूरब की ओर निकली पहले की शाखाओं के भाषिक लक्षणों की तुलना यदि दक्षिण-पूर्व, दक्षिण और पूरब की ओर जाने वाली बाद की शाखाओं से करें तो समानता के ऐसे कोई तत्व दोनों में नहीं मिलते  हैं।

अब यदि एक नज़र हम भारतीय मूल-स्थान वाले सिद्धांत पर डाल कर देखें तो वहाँ इस प्रकार की कोई विसंगति नहीं दिखायी देती और भाषायी लक्षणों में परस्पर समानता या असमानता के इन तत्वों की बड़ी सरल व्याख्या भी मिल जाती है। वहाँ शुरू की शाखाएँ अफ़ग़ानिस्तान की उत्तर दिशा की ओर बढ़कर मध्य एशिया में जम गयीं। बाद की शाखाएँ अपने उद्भव काल में कभी उत्तर की ओर बढ़ी ही नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि  उनकी संगति उत्तर में  शुरू की शाखाओं से कभी बैठ ही नहीं पायी। दूसरी तरफ़ यूरोपीय शाखाएँ लम्बे समय तक अफ़ग़ानिस्तान में थमी रहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि  इस अति दीर्घ कालमें भाषा के उद्भव और विकास यात्रा में इसने बाद की शाखाओं वाली भाषा के साथ ढेर सारे लाक्षणिक तत्वों की साझेदारी कर लीं। अनंतर,  जब यूरोपीय शाखाएँ अफ़ग़ानिस्तान को छोड़कर उत्तर दिशा में मध्य एशिया की ओर बढ़ीं तथा आगे भी मध्य एशिया से पश्चिमोत्तर बढ़कर यूरोप में घुस गयीं, तो इस क्रम में उन्होंने पहले से मध्य एशिया में जमी पहले की शाखाओं के भी अनेक भाषिक लक्षण समेट लिए। 

४ – रूसी मूल-स्थान सिद्धांत में ‘भारतीय-आर्य’ और ‘ईरानी’ शाखाओं को एक साथ ‘भारतीय-ईरानी’ शाखा के रूप में लिया गया है। इसे दक्षिण रूस से पूरब की ओर चलता माना गया है। यह शाखा अन्य शाखाओं से काफ़ी अलग है। फिर भी जहाँ तक अकेले में ईरानी शाखा का सवाल है इसके कुछ  भाषिक लक्षण बाद की शाखाओं से और कुछ लक्षण तो संयुक्त रूप से बाद वाली और यूरोपीय दोनों ही शाखाओं से मिलती है। भारतीय-आर्य शाखा के साथ ऐसी कोई बात नहीं है।   अब इसके कारणों का कोई जवाब ‘रूसी मूल-स्थान’ सिद्धांत में नहीं मिल पाता है। इसका बड़ा सीधा जवाब ‘भारतीय मूल-स्थान’ सिद्धांत में मिल जाता है कि ईरानी शाखाओं की उपरोक्त समानता वाले तत्व उसे अफ़ग़ानिस्तान के पश्चिम प्रवास काल में मिले जो भारतीय आर्य शाखा को वहाँ नहीं जाने के कारण नसीब नहीं हो सका। भारतीय आर्य शाखा पूरब में ही पड़ी रही। अतः हिमाच्छादित पर्वतीय प्रदेश के कुछ ‘पश्चिमोत्तर अफ़ग़ानी’ शब्दों की उपस्थिति समान रूप से यूरोपीय शाखाओं और ईरानी अवेस्ता और ओस्सेटिक  में तो पायी जाती हैं, लेकिन भारतीय आर्य शाखाओं में ये अनिवार्य रूप से अनुपस्थित हैं। 

अवेस्ता – ऐक्षा – (शीत तुषार, फ़्रॉस्ट आइस) – स्लावी, बाल्टिक और  जर्मन भाषाओं से सजातीय।

ओस्सेटिक – ताज्यं – (पिघलना, थव, मेल्ट) – स्लावी, जर्मन, सेल्टिक, इटालिक, ग्रीक तथा अर्मेनियायी भाषा में सजातीय क्रिया शब्द।

अवेस्ता – उद्र – ( ऊद, ऑटर) – स्लावी, बाल्टिक और जर्मन से सजातीय।

अवेस्ता – बावरा/बावरी – (ऊद बिलाव, बेवर) – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक से सजातीय।

ओस्सेटिक – व्य्ज़्य्न – (काँटेदार जंगली चूहा, हेज़हॉग) – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, ग्रीक और अर्मेनियायी से सजातीय।

ओस्सेटिक – लेसेग़ – (सालमन, मछली का एक प्रकार) – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन और अर्मेनियायी से सजातीय।

अवेस्ता – थ्बेरेस – (सूअर, बोअर) – सेल्टिक से सजातीय।

अवेस्ता - पेरेसा – (सूअर का बच्चा, पिगलेट) -स्लावी, बालटक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक से सजातीय।

अवेस्ता – स्ताओरा – (बैल, स्टियर) – जर्मन से सजातीय।

ईरानी – वब्ज़ – (हड्डा, वास्प) – स्लावी, बाल्टिक, जर्मन, सेल्टिक और इटालिक से सजातीय।

ऊपर वर्णित मूलभूत तत्वों से अलग हटकर भी ऐसे तमाम भाषिक और शाब्दिक सबूतों की भरमार है जो इन तीनों समूहों के भारत भूमि से दूर चले  जाने की पुष्टि करते हैं।


Friday 9 October 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (९)

 

(भाग - ८ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - ( च )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)

चौथे मंडल में सुदास के वंशज सहदेव और उसके बेटे सोमक के पश्चिम दिशा में और अंदर तक प्रवेश कर जाने का वृतांत है। उनके पश्चिमोत्तर प्रसार के प्रारंभिक दिनों के मध्य क्षेत्र की नदियों, विपास [४/३०/(११)] और परश्नि [४/२२/(२)]  का भी ज़िक्र इस चौथे मंडल में मिलता है। इन दो सूक्तों में से एक में इस युद्ध की परिणती का वृतांत पश्चिमी  नदी सरयू [४/३०/(१८)] के तट पर मिलता है। ‘हरिरुद’ या ‘हेरात’ के नाम से जानी जानी वाली यह नदी सिंधु [४/५४/(६) और ४/५५/(३)] के पश्चिम में अवस्थित है। चौथा मंडल पूरब की नदियों पर पूरी तरह चुप है। पूरब की एक भी नदी का वर्णन इसमें नहीं आता। यहाँ तक कि सरस्वती तक का नाम इसमें नहीं आता है जो बाक़ी मंडलों की एक प्रमुख नदी है। लेकिन अन्य सूक्तों में पश्चिम की नदियों का वर्णन आता है, जैसे – रसा [४/४३/(६)] और सिंधु [४/५४/(६) और ४/५५/(३)]।

    पश्चिम की नदियों के चौथे मंडल में जहाँ तक वर्णन का सवाल है वह इस बात में अपने समकालीन दूसरे मंडल से बिल्कुल अलग है कि दूसरे मंडल में मात्र पूरब की नदी सरस्वती [ दूसरे मंडल में १/(११), ३/(८), ३०/(८), ३२/(८), ४१/(१६, १७, १८)] का ही वर्णन है।  इससे यह विदित होता है कि पुराने मंडलों की रचना के उस काल में दो क्षेत्र रहे। पहला पुरुओं के पाँव फैलाने के क्रम में पश्चिम की भूमि पर रचित मंडल संख्या  चार और दूसरा सरस्वती के पूरब उनके गृह क्षेत्र में रचित मंडल संख्या दो।

आर्य आक्रमण सिद्धांत के ढेरों  पैरोकार चौथे मंडल में वर्णित नदियों के पश्चिमोन्मुख होने का फ़ायदा उठाते हुए यह तर्क प्रस्तुत कर देते हैं कि चौथा मंडल सबसे पहले उस काल में रचा जाने वाला सबसे पुराना मंडल है जब आर्य अपने हमले को पश्चिम में अंजाम दे रहे थे। कुछ विद्वान तो ऐसी ही कुछ राय  दूसरे मंडल के बारे में  देते दिखायी देते हैं  कि  उसमें वर्णित सरस्वती अवेस्ता में वर्णित अफ़ग़ानिस्तान की हरोयु नदी ही है। उनका यह तर्क दो मूलभूत तथ्यों को नज़रंदाज़ कर देता है। एक,  उन पुराने भरत राजा जिनकी पूरब की भूमि की  समस्त गतिविधिययों का हमने ऊपर छठे, तीसरे और सातवें मंडल के संदर्भ में ज़िक्र किया, उनकी ही संतान वे भरत राजा थे जिनकी पश्चिम की भूमि की गतिविधियों का ज़िक्र चौथे और दूसरे मंडल में है। और दूसरे, उनके पूरब से पश्चिम की ओर की विजय-यात्रा के ऐतिहासिक वृतांत को पूरी तरह से विस्मृत कर दिया जाना।  उनके तर्कों में एक और बड़ी विसंगति यह है कि दूसरे और चौथे दोनों मंडलों में नदियों से इतर जो भी भौगोलिक चरित्र हैं वे सारे-के-सारे पूरब के भौगोलिक तत्व है, उनमें पश्चिम के चरित्र का कोई चिह्न भी नहीं है। ‘नभ-पृथिव्या: [२/३/(७)], इलास्पद [२/१०/(१)], इभा/हस्तिन हाथी [४/४/(१)], महिष, भैंस [२/१८/(११)], ग़ौर, भारिय जंगली भैंस [४/२१/(८), ५८/(२)], प्रस्ती, चीतल [२/३४/(३, ४), ३६/(२)]। बस एक ही पश्चिमी जानवर का ज़िक्र चौथे मंडल में आया है। वह है एक अफ़ग़ानी भेड़, अवि की चर्चा [४/२/(५)]। अन्यथा केवल नए मंडलों, पाँचवें, पहले और दसवें, में ही इन पश्चिमी जानवरों की चर्चा है। 

छठे, तीसरे और सातवें, इन पुराने मंडलों के सम्पूर्ण पूर्वी चरित्र के पक्ष में एक और मज़बूत तर्क है कि सप्त+सिंधु की पश्चिम में बहने वाली सातों नदियों में से किसी एक का भी ज़िक्र इन तीनों मंडलों में कहीं नहीं आया है। बाद में रचे जाने वाले पुराने मंडलों, चौथे और दूसरे, से इनकी चर्चा का शुभारम्भ होता है और आगे के नए मंडलों तक जारी रहता है। [चौथा: २८/(१), दूसरा: १२/(३, १२), पहला: ३२/(१२), ३५/(८), आठवाँ: ५४/(४), ६९/(१२), नौवाँ: ६६/(६), दसवाँ: ४३/(३), ६७/(१२)]। दूसरी ओर मध्य पंजाब में  एक क्षेत्रीय पहचान के रूप में सप्तसैंधव का ज़िक्र केवल एक बार आठवें मंडल [२४/(१७)] में ही आता है। 

ऋषिकुल द्वारा रचित स-कुल मंडलों में सबसे अंतिम और नवीन  मंडलों में सबसे प्राचीन, पाँचवाँ मंडल, बहुत मायनों में पुराने स-कुल मंडलों और नए अ-कुल मंडलों में बीचों-बीच की स्थिति रखता है। इसमें सूक्तों  के गठन का शिल्प तो पुराने मंडलों की व्यवस्था के अनुरूप है, लेकिन सूक्तों का  अपने रचयिता की विरासत से जुड़ने की व्यवस्था नए मंडलों की परम्परा में है। इसमें प्रत्येक सूक्त का सम्बंध अपने वास्तविक रचयिता से है न कि  पुराने मंडलों के समान उस  ऋषि-परिवार या ऋषिकुल से जो विरासत में अपने पूर्वज ऋषि विशेष का ही नाम ढोते चले आ रहे हैं। हम देख चुके हैं कि  ऋग्वेद और मिती -अवेस्ता ग्रंथों के जो साझे सांस्कृतिक तत्व हैं, वे अपने सर्वोच्च विकसित  रूप में पाँचवें मंडल में प्रकट होते हैं। और यह भी उतना ही स्पष्ट हो चुका है कि इस पाँचवें मंडल की आधारभूमि पूर्वी क्षेत्र में ही गड़ी-पनपी है।

 इस मंडल के दो सूक्त पश्चिमी नदियों का बखान करते हैं। सूक्त ४१/(१५) में रसा नदी का उल्लेख है और सूक्त ५३/(९) में छः नदियों, सरयू, कुभा, क्रमु, अनिताभा, रसा और सिंधु की चर्चा है। पाँचवें मंडल के ५३वें सूक्त में स्यवस्व  ने पश्चिम की अधिकांश नदियों का उल्लेख किया है। इसी सूक्त के क्रमशः नौवें और सत्रहवें मंत्र में उन्होंने मध्य क्षेत्र की नदी परश्नि और पूरब की नदी यमुना का उल्लेख किया है। इस आधार पर विजेल का यह मत है कि रचनाकार ऋषि ने अपने जीवनकाल में ढेर यात्रायें  की हैं और वह घुमक्कड प्रकृति के कवि हैं। “भिन्न-भिन्न सूक्तों में बिखरे ये  भौगोलिक चरित्र बस एक ही ऋषि, स्यवस्व, के द्वारा रचित हैं। यह ऋषि की यायावर प्रकृति की ओर संकेत करता है” (विजेल १९९५ बी :३१७)।  ठीक वैसे ही पाँचवें मंडल के ४१/(१५) में अत्रि ऋषि ने रसा का उल्लेख किया है। बाक़ी जगहों यथा – ४२/(१२) और ४३/(११) में उन्होंने पूरब की नदी सरस्वती का वर्णन किया है। इसी मंडल में दो अन्य रचनाकार ऋषियों ने ५/(८) और ४६(२) में सरस्वती का वर्णन किया है।

पाँचवाँ मंडल पश्चिमी नदियों का ज़िक्र तो करता है लेकिन नदियों को छोड़कर पश्चिम के बाक़ी किसी भी भौगोलिक चरित्र का उसमें नामो-निशान तक नहीं है। बस अपवाद के रूप में मात्र अफ़ग़ानी भेड़ ‘अवि’ का उल्लेख अत्रि ऋषि के द्वारा हुआ है। इसका उल्लेख चौथे मंडल में भी आया है। लेकिन, पाँचवे मंडल में   नदियों को छोड़कर पूरब के अन्य भौगोलिक चरित्रों का चित्रण मौजूद है। ५५/(६), ५७/(३), ५८/(६) और ६०/(२) में स्यावस्व ने प्रस्ती अर्थात चीतल का वर्णन किया है। अत्रि ने भी इसका वर्णन ४२/(१५) में किया है। एक दूसरे ऋषि ने २९/(७, ८) में महिष अर्थात भैंस का वर्णन किया है।

पहले और आठवें मंडल की रचना ऋषि-कुल द्वारा नहीं की गयी। ऋग्वेद के काल-क्रम में इन अ-कुल मंडलों का स्थान दूसरे चरण में आता है। पहले मंडल के कुछ सूक्त आठवें मंडल से पहले रचे गए हैं और कुछ सूक्त उसके बाद में भी  रचे गए।  इन दोनों मंडलों के बाद रचना-काल-क्रम में नौवें मंडल का स्थान आता है। इसकी रचना करने वाले ऋषि का नाम  है – सोम पवमान। मशहूर भारतविद विजेल के शिष्य प्रोफेरस का मानना है कि पवमान का यह संकलन बाद के रचनाकारों द्वारा रचित मंडल १, ५, ८ और बहुत थोड़े अंशों में दसवें मंडल से ली गयी ऋचाओं का संकलन है [प्रोफेरस १९९९:६९]। दसवें  मंडल का समय बहुत बाद का है। जहाँ तक पहले भाषा और उनके सांस्कृतिक तत्व का सवाल है, दसवाँ मंडल शुरू के नौ मंडलों से बिल्कुल अलग-थलग है। हालाँकि उन नौ मंडलों में भी भाषा और सांस्कृतिक तत्वों के स्तर पर उतनी एकरूपता नहीं है। उनके शब्दों की एक लम्बी सूची तैयार कर और उनकी व्याकरण-संबंधी विशेषताओं का गहन अध्ययन करने के बाद घोष ने अपना मंतव्य दिया है कि “ शुरू की बोलचाल की भाषा की थोड़ी बहुत भिन्नताओं के बावजूद कुल मिलाकर पहले के नौ मंडलों की भाषा को हम एक ही प्रकार का मान  सकते हैं। लेकिन दसवें मंडल में यह स्थिति बदल जाती है। इसकी भाषा निश्चित तौर पर थोड़ी अलग है और यह ऋगवैदिक भाषा के परवर्ती स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है [घोष १९५१/२०१०:२४०-२४३]।“

इससे यह बात और महत्वपूर्ण हो जाती है कि अ-कुल मंडल और साथ में पाँचवाँ मंडल भी दसवें मंडल के साथ मिलकर एक अलग वर्ग में रखे जा सकते हैं। पाँच पुराने मंडलों की अपेक्षा नए मंडलों में व्याप्त मिती  और अवेस्ता की शब्दावली से संबंधित समानता के तत्व भी इस वर्गीकरण के कारणों में शामिल हैं। इससे दो बातें  खुलकर सामने आती है। पहली बात कि नए मंडलों ने अपने पूरे आकार को पाने में एक बहुत लम्बे  कालानुक्रमिक  अंतराल की यात्रा तय की है। और दूसरी बात कि, उनकी यह दीर्घकालिक यात्रा पुराने मंडलों से बिल्कुल पृथक है।


चार अ-कुल मंडलों का भौगोलिक क्षितिज ऋग्वेद की समूची भूमि में फैला हुआ है। चौथे और पाँचवें मंडल में हमें पश्चिम की झलकी मिलती है। लेकिन, चार अ-कुल मंडल पश्चिम के साथ एक नयी तरह की व्यापक घनिष्टता दिखाते हैं जो कि पुराने मंडलों और यहाँ तक कि पाँचवें मंडल में भी दूर-दूर तक नहीं  दिखायी देता।

क – पहली बार इन मंडलों में पश्चिमोतर के निम्नांकित तत्वों का प्रवेश होता है:

‘गांधार’ नामक दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर एक जगह –  १/१२६/(७)

‘सर्यनावत’ नामक पश्चिमोतर की एक झील –  १/८४/(१४), ८/[६/(३९), ७/(२९), ६४/(११)], ९/[६५/(२२), ११३/(१)],१०/३५/(२)

‘अर्जिक’, ‘सुसोम’ और ‘मुजवत’ नामक पश्चिमोतर के पहाड़ – ८/७/(२९, २९), ९[/६५/(२३), ११३/(२)], १०/१३४/(१)

उत्तर-पश्चिम की एक हिमाच्छादित पर्वत चोटी हिमवंत का उल्लेख – १०/१२४//(४)

 ख – इन चार मंडलों में उत्तर-पश्चिम के ढेर सारे नए पशुओं का उल्लेख मिलता है। मेष (मेमना), छाग (पहाड़ी बकरी), ऊरा (भेड़), ऊष्ट्र (ऊँट), मथ्र (अफ़ग़ानी घोड़ा), वराह/वराहु (सुअर) – 

१/[४३/(६,६), ५१/(१), ५२/(१), ६१/(७), ८८/(५), ११४/(५), ११६/(१६), ११७/(१७, १८), १२१/(११), १३८/(२), १६२/(३)]

८[२/(४०), ५/(३७), ६/(४८), ३४/(३), ४६/(२२, २३, ३१), ६६/(८), ७७/(१०), ९७/(१२)]

९/[८/(५), ८६/(४७), ९७/(७), १०७/(११)]

१०/[२७/(१७), २८/(४), ६७/(७), ८६/(४), ९१/(१४), ९५/(३), ९९/(६), १०६/(५)] इनमेंसे अधिकांश नाम ईरानी भाषा और अवेस्ता में पाए जाते हैं।

ग – पश्चिम की नदियों, सिंधु, सरयू, रसा, कुभा और क्रमु के अतिरिक्त चौथे और पाँचवें मंडल में पश्चिम की कुछ और नदियों के नाम पहली बार मिलते हैं – त्रस्तमा, सुश्रतू, श्वेत्य, गोमती, महत्नु, श्वेत्यवारी, सुवत्सु, गौरी, सुसोमा, आर्ज़िक्य।

१/[४४/(१२०, ८३/(१), ११२/(१२), १२२/(६), १६४/(४), १८६/(५)]

८/७/(२९), १२/(३), १९/(३७), २०/(२४,२५), २४/(३०), २५/(१४), २६/(१८), ६४/(११), ७२/(७, १३), 

९/[४१/(६), ६५/(२३), ९७/(५८)], 

१०/[(६४/(९), ६५/(१३), ६६/(११), ७५/(१, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९), १०८/(१, २), १२१/(४)]

घ – नए मंडल विशेषकर आठवें मंडल की मिती  सांस्कृतिक तत्व और अवेस्ता के साथ अद्भुत समानता मिलती है। यहाँ हमें संरक्षक राजाओं के ऐसे नाम मिलते हैं जिनके बारे में पश्चिमी भारतशास्त्रियों, विशेषकर विजेल का कहना है की ये सारे नाम वास्तव में ‘प्रोटो-ईरानी’ नाम हैं। जैसे – व्रच्या, कुरुंग, चैत्य, त्रिन्दिरा, परशु, वरोसुसामन, अनर्शनि, कणित। [१/{५१/(१३)}, ८/{४/(१९), ५/(३७, ३८, ३९)}, ६/{४६/(२३, २८), २४/(२८), २५/(२), २६/(२), ३२/(२), ४६/(२१, २४)}, (१०/८६}]

यहाँ [१/{४५/(३, ४)), १३९/(९)}, ८/{३/(१६),४/(२०), ५/(२५), ६/(४५), ८/(१८), ३२/(३०), ६९/(८, १८)}, १०/{३३/(७), ७३/(११))} और रचनाकारों के नाम ५/{२४}, ८/{२, ४, ६८, ६९}, ९/{२८}, १०/{५७, ५८, ५९, ६०, ७५}] पर भी  हमें मिती  और ऋगवैदिक नाम दोनों एक ही तरह के मिलते हैं।

ऋगवैदिक नाम : मित्रतिथि, देवातिथि, सुबंधु, इंद्रोता, प्रियंदा  

मिती  नाम :   मित्रतिथि, देवातिथि, सुबंधु, इंद्रोता,  ब्रियंसदा 

ङ – नए मंडलों में और उसमें भी आठवें मंडल में बड़े विस्तार में हमें जो वर्णन मिलता है वह हड़प्पा     संस्कृति के उन्नत दिनों के सांस्कृतिक तन्तुओं से मेल खाता है। ठीक दूसरी तरफ़, दसवें मंडल के वृतांतों में हड़प्पा के बाद की झलकियाँ मिलती हैं। यदि हड़प्पा की खुदाई  में मिले अवशेषों और निष्कर्षों का सहारा लें तो आठवें मंडल में दो ऐसे शब्द मिलते हैं जो बेबिलोनिया के शब्द हैं और उनका ज़िक्र भार की मापांक ईकाई (मन), [८/{७८/(२)}] और साहूकार (बेकनाता), [८/{६६/९२)}] के रूप में हड़प्पा  और बेबिलोनिया के आपसी व्यापार में हुआ है।

इस हड़प्पन-काल में द्रसद्वती, आपया, हरियुपिया, याव्यवती आदि इस क्षेत्र की कुछ अति प्राचीन पूर्वी नदियाँ थीं, जो आज के खाँटी हरियाणा में बहती थी। इन नदियों के नाम ऋग्वेद के नए मंडलों से ग़ायब हैं। इससे यही अनुमान लगता है कि सरस्वती की पूर्वी सहायक नदियाँ इस काल तक आते-आते सूख गयी होंगी।

इन चार ऐतिहासिक नदियों की चर्चा यहाँ तक कि ‘नदी-सूक्त [१०/{७५}]’ में भी नहीं मिलती है। यद्यपि, इसी सूक्त में गंगा अभी भी ऋगवैदिक क्षितिज के पूर्वी छोर की महत्वपूर्ण नदी के रूप में वर्णित है। सबसे पुराने मंडलों में तीन सूक्त (छठे मंडल का ६१वाँ और सातवें मंडल का ९५वाँ और ९६वाँ सूक्त) पूरी तरह से सरस्वती को समर्पित हैं। लेकिन नदी सूक्त (नया मंडल १०वाँ) में सिंधु सबसे प्रमुख नदी बन गयी है जिसको यह सूक्त पूर्णतया समर्पित है। पहले मंडल ( नया मंडल) के भी अनेक सूक्तों {९४ से ९६,  ९८, १०० से १०३, १०५ से ११५} में भी अन्य देवी-देवताओं के साथ सिंधु की स्तुति की ऋचाएँ मिलती हैं। इसके अलावा  नए मंडलों में और भी कई जगह छिट-पुट रूप में सिंधु नदी का उल्लेख मिलता है। 

अब यदि हम समय (टाइम) के सापेक्ष स्थान (स्पेस) के विस्तार का अवलोकन करें तो हमें यह सबसे पुराने मंडल, छठे मंडल, से शुरू कर  सबसे नए, दसवें मंडल, की रचना की अवधि के मध्य आर्यों की अपने मौलिक रिहाइश ,  पूरब में हरियाणा, से लेकर दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान की सीमा तक की यात्रा दिखायी देती है। छठे मंडल की रचना का काल ३००० ईसापूर्व से पहले का ही लगता है जैसा कि ऊपर के प्रमाण इंगित करते हैं।

जैसा कि हम शुरू में ही देख चुके हैं कि कुछ ऐसी मौलिक बातों की अवहेलना हमारे इन प्रकांड भारतविदों ने कर दी जिससे ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’   को बल मिला। पहली बात तो यही है कि ऋग्वेद में कहीं भी उस भूमि से इतर जहाँ इसकी रचना हुई, ऐसी किसी भी विदेशी ज़मीन की कोई चर्चा नहीं है। साथ ही ऐसे किसी पुराने भूभाग का  जो रचनाकारों की स्मृति में अपने पुरखों की ज़मीन हो,  का कोई वृतांत नहीं मिलता। ऋग्वेद में ऐसे किसी पुराने युद्ध या आक्रमण  की चर्चा भी  नहीं मिलती जिसमें फ़तह हासिल कर ऋषियों के पूर्वज आर्यावर्त की इस भूमि पर आ बसे हों और यहाँ से उन्होंने किसी और को मार भगाया हो।

दूसरी बात कि भाषा-विज्ञान की दृष्टि से,  ऋग्वेद के समूचे ग्रंथ में द्रविड़ या औस्ट्रिक उद्भव के किसी भी शब्द के दर्शन किंचित-मात्र नहीं होते। 

और, तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात कि ग्रंथ में नदियों और पशुओं के जो भी नाम आए हैं, वे सभी भारतीय-आर्य तत्व के नाम हैं।

पुराने मंडलों के रचे जाने की तिथि ईसा से कम-से-कम तीन हजार साल पहले की तो लगती ही है, साथ में यह भी स्पष्ट दिखता है कि पूरब में हरियाणा के मूल निवासी इन आर्यों ने अपने क़दम न केवल पश्चिम की ओर बढ़ाए, बल्कि अपनी पूरब की जन्मभूमि से अपने अटूट भावनात्मक लगाव को बड़ी स्पष्टता  से व्यक्त भी किया, ‘हे माँ सरस्वती, आप हमें आशीष दें कि हमारी जन्मभूमि न छूटे और इसे छोड़ हम कहीं दूर न भटक जाएँ!’ {छठे मंडल में ६१/(१४)}। छठे मंडल के ४५/(३१) में गंगा के किनारे फैली लंबी द्रुम-लताओं और झाड़ियों की सघनता को उनके इस गांगेय माटी से अद्भुत लगाव के घनत्व के उपमेय के रूप में प्रदर्शित किया गया है। और, तीसरे मंडल के ५८वें सूक्त की छठी ऋचा में जाह्नवी के तट को ‘देवताओं की  प्राचीन मातृभूमि’ की संज्ञा दी गयी है। अपने उद्गम के पास गंगा जाह्नवी के नाम से जानी जाती है। इन सभी वृतांतों की काल-गणना ईसा से ३००० वर्ष पीछे चले जाने से ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ की परिकल्पना ही खटाई में पड़ जाती है।


Saturday 3 October 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (८)

(भाग - ७ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - ( )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


ऋग्वेद में वर्णित नदियाँ और उनका पूरब से पश्चिम तक का विस्तार 


नदियों के भूगोल रचयिता-ऋषियों के कार्य-क्षेत्र का भी चित्र प्रस्तुत करते हैं। ऋग्वेद में इन नदियों के वर्णन का विवरण इस प्रकार है।

पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : २४ सूक्त, ४५ मंत्र और ४७ नाम।

नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : ३० सूक्त, ३७ मंत्र और ३९ नाम।



   

फिर हम यहाँ भी यही देखते हैं कि भौगोलिक संदर्भों में पूरब की नदियों के वर्णन का विस्तार भी अन्य भौगोलिक तत्वों की भाँति ऋग्वेद के पुराने मंडलों से लेकर नवीन मंडलों तक सर्वत्र फैला हुआ है। इस बिंदु पर एकमात्र अपवाद मंडल ४ में दिखता है जिसके कुछ ऐतिहासिक कारण है और उनकी पड़ताल भी हम शीघ्र ही करेंगे।

अब थोड़ा पश्चिम की नदियों के ऋग्वेद में वर्णन के विवरण पर भी अपनी आँखें हम डालें।

पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : चार सूक्त और पाँच मंत्र।

नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : सत्तावन सूक्त और बहत्तर मंत्र।



  

पाँच में से चार पुराने मंडलों (६, ३, ७ और २) में पश्चिमी नदियों का कोई ज़िक्र नहीं मिलता। अब एक बात फिर यहाँ ध्यान देनेवाली है। पूर्वी नदियों के विवरण सभी मंडलों में है, केवल चौथे को छोड़कर। उसी तरह  पश्चिमी नदियों का ज़िक्र किसी भी पुराने मंडल में नहीं है, बस चौथे को छोड़कर। अर्थात दोनों मामलों में चौथा मंडल अपवाद के रूप में है। चौथे मंडल में पूर्वी नदियों का विवरण नहीं है और पश्चिमी नदियों का विवरण है। इस तरह चौथा मंडल एक विलक्षण चरित्र दर्शाता है कि इसका सांस्कृतिक परिवेश तो अन्य ऋषि-कुल-रचित पुराने मंडलों की तरह पूरबिया है लेकिन इसका कार्य-क्षेत्र पश्चिमी है। इसका प्रमुख कारण आर्यों (पुरु) का पूरब से पश्चिम की ओर ठेला जाना है जिसका वर्णन ऋग्वेद में है और अब हम उसकी चर्चा भी करेंगे। 

ऋग्वेद के पुराने मंडलों का भूगोल पूरी तरह पूरब का भूगोल है। नदियों से इतर पश्चिम के भौगोलिक संदर्भों का पुराने मंडलों (६, ३, ७, ४ और २) में कोई उल्लेख नहीं मिलता। पाँच में से चार पुराने मंडलों (६, ३, ७ और २) के किसी भी सूक्त, चाहे वे पुराने हों या संशोधित, में पश्चिम की नदियों का कोई ज़िक्र नहीं मिलता।

पाँचों  नए मंडलों में अपेक्षाकृत सबसे पुराने पाँचवें  मंडल की स्थिति बीचो-बीच वाली है। नदियों के अलावा   बाक़ी पश्चिमी भौगोलिक तत्वों का उल्लेख इसमें बिल्कुल नहीं आता, लेकिन पश्चिम की नदियों का ज़िक्र आता है। बाक़ी चार नए मंडलों (१, ८, ९ और १०) में, जो ऋषि-कुल रचित नहीं हैं, चाहे नदियों के भौगोलिक संदर्भ हों या नदियों से इतर अन्य भौगोलिक तत्व, पूरब और पश्चिम का समान प्रतिनिधित्व है। ये सारे तथ्य इस बात को बड़ी स्पष्टता से परिलक्षित करते हैं कि पुराने मंडलों से लेकर नए मंडलों के रचे जाने तक ‘आर्यों’ (पुरु) का विस्तार पूरब से पश्चिम की ओर होता रहा और इस ऐतिहासिक विस्तार की आहट  ऋग्वेद के पन्नों में सुरक्षित है। 

पूरब से पश्चिम की ओर फैलने के क्रम में आर्यों ने, निश्चय ही, सरस्वती और सिंधु नदियों के मध्य के क्षेत्रों को पार किया होगा और यह वहीं काल रहा होगा जब अभी वे ऋग्वेद के पुराने मंडलों की ही रचना कर रहे थे। अब एक नज़र इन पुराने मंडलों में वर्णित इस मध्य क्षेत्र के भौगोलिक तत्वों पर भी फेर लें। इस क्षेत्र के एक भी पहाड़ या सरोवर का कोई नाम नहीं मिलता, और न ही किसी पशु या वन्य-प्राणी का कोई ज़िक्र ऋग्वेद में कहीं आता है। हाँ, इस मध्य क्षेत्र के कुछ नदियों और स्थानों के नाम अवश्य ऋग्वेद में पाए जाते हैं, जिनका विवरण उन विशेष नामों के साथ  इस प्रकार है : 

१ – पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ :सात सूक्त और नौ मंत्र।

२ – नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : बारह सूक्त और बारह मंत्र।




 इन पाँच पुराने मंडलों का इतिहास क्रम स्पष्ट है :

छठा मंडल सबसे पुराना मंडल है। यह प्राचीन भरत-राजा ‘दिवोदास’ के समय का है। भारद्वाज कुल रचित इस छठे मंडल में मुख्य रूप से भरत कुल और उनके राजा दिवोदास की केंद्रीय भूमिका है। (विजेल १९९५ बी:३३२-३३३)। दिवोदास की चर्चा अनेक बार आती है, [छठे मंडल में १६/(५, १९), २६/५, ३१/(४), ४३/(१), ४७/(२२, २३), ६१/(१)]। सच कहें तो इस पुस्तक का विस्तार पीछे की ओर कई पीढ़ियों तक ऋग्वेद के प्राचीनतम और ऋग्वेद से पहले के भी पुराने राजाओं तक चला जाता है। इसमें दिवोदास के पिता सृंजय का उल्लेख मिलता है [छठे मंडल में २७/(७), ४७/(२५)], जिन्हें छठे मंडल के ही एक अन्य मंत्र [६१/(१)] में एक अत्यंत अपमानजनक शब्द ‘वध्रयस्व’ से सम्बोधित किया गया है। इसका अर्थ नपुंसक होता है। दिवोदास के दादा ‘देवदत्त’ का भी उल्लेख इसी मंडल के मंत्र [२७/(७)] में है और जिनके नाम पर कुल का नाम है उस ‘भरत’ का उल्लेख मात्र एक बार [१६/(४)] में है। इस छठे मंडल के २६वें सूक्त के आठवें मंत्र में दिवोदास के पुत्र ‘प्रतर्दन’ का भी नाम आता है।

कालक्रम में दूसरे और तीसरे सबसे पुराने मंडल तीन और सात हैं। तीसरा मंडल दिवोदास की संतति ‘सुदास’ के समय का है (विजेल १९९५ बी :३१७)। यही हाल सातवें मंडल का भी है क्योंकि इसमें भी सुदास का ज़िक्र बहुत बार आया है। सभी विद्वानों का यह एकमत से मानना है कि  तीसरे मंडल के रचयिता विश्वामित्र पहले सुदास के पुरोहित थे। बहुत आरम्भ में थोड़े दिनों के लिए ही सुदास विश्वामित्र के यजमान रहे थे। बाद में उनके पुरोहित वशिष्ट बन गए जो सातवें मंडल के रचयिता हैं। इन दोनों मंडलों में सुदास की चर्चा बहुत बार हुई  है:

तीसरा मंडल : ५३/(९, ११)

सातवाँ मंडल : १८/(५, ९, १५, १७, २२, २३, २५), १९/(३, ६), २०/(२), २५/(३), ३२/(१०), ३३/(३), ५३/(३), ६०/(८, ९), ६४/(३), ८३/(१, ४, ६, ७, ८)

उनके पिता ‘पिजावन’ का उल्लेख सातवें मंडल के मंत्र १८/(२२, २३, २५) में है।

चौथा मंडल राजा सुदास के वंशज सहदेव और सहदेव के पुत्र सोमक के काल का है। इनकी चर्चा क्रमशः इस मंडल के १५/(७, ८, ९, १०) और १५/(९) मंत्रों में मिलती है। ये चारों मंडल वैदिक इतिहास के एक विशेष कालखंड का निर्माण करते हैं। दिवोदास के दादा देवदत्त का विवरण भी केवल इन्ही मंडलों में मिलता है।

छठा मंडल : २७/(७)

तीसरा मंडल : २३/(२)

सातवाँ मंडल : १८/(२२)

चौथा मंडल : १५/(४)

शुरू के भरत-कुल के राजाओं का भी विवरण इन मंडलों में मिलता है। तीसरे मंडल के तेइसवें सूक्त में  देवश्रवा नामक एक राजा को अपने पूर्वज देवदत्त के द्वारा निर्मित यज्ञ-वेदी में अग्नि को आहुति देते हुए दिखाया गया है। यह राजा या तो सुदास के समकालीन था या हो सकता है वह राजा स्वयं सुदास ही हो।  सुदास और इन भारत राजाओं को कहीं-कहीं [सातवें मंडल में ३३/(१४)] ‘प्रतर्दन’ की संतति ‘प्रतर्द’ के रूप में भी सम्बोधित किया गया है और उसी मंडल के १८/(७, १३, १५, १९), ३३/(४, ५, ६) और ८३/(४, ६, ८) में ‘तृत्सु’ के रूप में दिखाया गया है। [प्रसंगवश, भरत-राजाओं  का काल ऋग्वेद का प्रारम्भिक काल है। इनकी चर्चा पुराने ऋषि-कुल रचित मंडलों २, ३, ४, ६ और ७ में ही है। बस केवल पहले मंडल में एक जगह ९६/(३) में इनका नाम आता है। पहले मंडल के ‘कुत्स’ उपमंडल (सूक्त-संख्या ९४ से ११५) के ये सूक्त चौथे मंडल में मिले लगते हैं क्योंकि यहाँ भी १००/(१७) में सहदेव का वर्णन मिलता है।

पुराने मंडलों में दूसरा मंडल सबसे अंतिम रचना है। छठे, तीसरे और सातवें मंडलों से तो निश्चय ही बाद की यह रचना है किंतु नए मंडलों ५, १, ८, ९ और १० से यह काफ़ी पुरानी रचना है। ऐसा  हमने ऋग्वेद के मिती  और अवेस्ता से साझे तत्वों के या सामान भौगोलिक संदर्भों के विवरण  में देखा है। हर मामले में दूसरा मंडल अन्य पुराने मंडलों के समकक्ष बैठता है। केवल चौथे मंडल से इसकी तुलना करने पर थोड़े संदेह की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसे ढेर सारे शब्द, नाम या अन्य तत्व दूसरे मंडल में मिलते हैं जो चौथे मंडल में  तो मिलते हैं, किंतु अन्य तीनों पुराने मंडलों में वे नहीं पाए जाते। इससे कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न होता है कि दूसरा मंडल या तो चौथे मंडल के समकालीन है या फिर उसके थोड़े बाद की रचना है। बस एक ही विशेषता दूसरे मंडल को अन्य मंडलों से थोड़ा ख़ास बनाती है। वह बात है की दूसरे मंडल में सरस्वती के अलावा  किसी अन्य नदी का कोई ज़िक्र नहीं है।


पश्चिम की ओर चरणबद्ध विस्तार की घटना ऋग्वेद के पुराने मंडलों में न केवल नदियों के विवरण-क्रम में, बल्कि ऐतिहासिक वृतांतों में भी स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित होती है।  

छठा मंडल ऋग्वेद का प्राचीनतम मंडल है। इसकी कहानियाँ और वृतांत ‘दिवोदास’ और उसके पुत्र ‘प्रतर्दन’ से भी काफ़ी पीछे के उनके पूर्वजों तक जाती हैं। इसका भूगोल पूरब का भूगोल है। इसमें वर्णित नदी एवं नदी के अलावा  अन्य सभी भौगोलिक तत्वों के वृतांत न तो पश्चिमी क्षेत्र और न ही, मध्य क्षेत्र को छूते हैं। नदियों में सरस्वती [४९/(७), ५०/(१२), ५२/(६), ६१/(१ से ७, १०, ११, १३, १४] के अलावा  इसके पूरब बहने वाली गंगा [४५/(३१)] और हरियूपिया/याव्यवती [२७/(५, ६)] का वर्णन है। [हरियूपिया या याव्यवती दृशद्वती नदी के ही पर्यायवाची नाम हैं और इनका संदर्भ ‘कुरुक्षेत्र के तीर्थ-स्थान’ से भी है (टॉमस १८८३)। महाभारत में 'दृशद्वती' को 'रौप्य' कहा गया है। इसे अफगानिस्तान की 'झोबो' नदी भी बताया गया है, हालाँकि इसका कोई पुख़्ता आधार नहीं बताया गया है। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में इस नदी का वर्णन  अन्यत्र कहीं  बस एक पंचविंश ब्राह्मण में आया है, जिसके बारे में प्रसिद्ध पश्चिमी भारतविद विजेल का मत है कि ‘याव्यवती’ नदी का वर्णन ऋग्वेद में मात्र एक बार आया है। इसे पूर्वी अफगानिस्तान का ‘झोब’ नदी भी समझा जाता है। पंचविंश ब्राह्मण के श्लोक २५/७/२ में फिर भी इस नदी के अफगनिस्तान में बहने के कोई संकेत नहीं मिलते हैं। इस नदी से जुड़े लोगों के बारे में मान्यता है कि वे ‘कुरु-पाँचाल-क्षेत्र’ के ‘विभिन्दूक’ नामक देश के निवासी थे जो हरियाणा में सरस्वती से पूरब हट कर है [ विजेल १९८७:१९३]। 

दिवोदास के पूर्वजों की भी सारी गतिविधियाँ इसी पूर्वी क्षेत्र में केंद्रित थीं। छठे मंडल के सत्ताईसवें सूक्त में 'देववात' के पुत्र 'सृंजय' द्वारा हरियूपिया/याव्यवती के तट पर लड़े गए एक युद्ध का वृतांत है। छठे मंडल के इकसठवें सूक्त में दिवोदास के नपुंसक पिता 'वधर्यस्व' का ज़िक्र आता है जिसने सरस्वती के तट पर पूजा-अर्चना कर अपने पुत्र दिवोदास को वरदान के रूप में पाया था। तीसरे मंडल के तेइसवें सूक्त में 'द्रसद्वती' और 'अपया' नदी के तट पर मानस झील के पास देववत के द्वारा बनायी गयी यज्ञ वेदी में 'देवश्रवा' के द्वारा की गयी उपासना का विवरण मिलता है। देवश्रवा या तो राजा सुदास का समकालीन था या सम्भव है कि वह स्वयं इस नाम से सुदास ही था। नदियों के इन आँकड़ों या डाटा को किसी रेखाचित्र या ग्राफ़ पर रखकर देखने से पूरब से पश्चिम की यात्रा बड़ी सफ़ाई से समझ आ जाती है। 

मध्य-क्षेत्र की पहली दो नदियों का ज़िक्र पहली बार ऋग्वेद के तीसरे मंडल में मिलता है। इस मंडल की रचना दिवोदास के वंशज राजा सुदास के काल में ऋषि विश्वामित्र ने की थी। ये दोनों नदियाँ पंजाब में पूरब में बहनेवाली 'सतुद्री (आज की सतलज)' और 'विपास (आज की व्यास)' नामक नदियाँ हैं। इन दो नामों के अलावा सरस्वती के पश्चिम में स्थित प्रमुख भौगोलिक पहचान वाली किसी और दूसरी चीज़ का कोई ज़िक्र इस मंडल में नहीं आता है। सुदास और उसकी भरत-सेना के इन दोनों नदियों के पार करने के ऐतिहासिक प्रसंग में इनका नाम तीसरे मंडल के ३३वें सूक्त में आता है। इसी सूक्त के ५वें मंत्र के अनुसार उनका यह आगमन पश्चिम के उन क्षेत्रों में जाना था जहाँ सोम की उपलब्धता थी। ठीक वैसे ही जैसे यूरोप के लोग मसाले के आयात के लिए भारत पहुँचने  के लिए समुद्री मार्गों की तलाश में निकलते थे, वैदिक आर्य भी पश्चिम की इस भूमि से सोम का आयात कर ले जाते थे। 

विश्वामित्र  के पौरिहत्य में सुदास की प्रारम्भिक गतिविधियों का क्षेत्र भी पूरब की ही यह भूमि थी। तीसरे मंडल के २९वें सूक्त में वर्णित जिस इलायास्पद के ‘नभ पृथिव्या:’ में विश्वामित्र ने यज्ञ की पवित्र अग्नि प्रज्वलित की है, वह सरस्वती के पूरब में हरियाणा का ही क्षेत्र है। तीसरे मंडल के ५३वें सूक्त में उसी अग्नि में वे आहुति देते हैं, ‘वर-आ-पृथिव्या:’‘कुशिकाओं, आगे आओ! जाग्रत हो!    सम्पत्ति- विजय हेतु सुदास के अश्वों के बंधन खोलो! पूरब, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में स्थित अपने शत्रुओं का राजा वध करे और फिर इस पृथ्वी पर अपनी अभिलिषित भूमि पर अपनी पूजा-अर्चना करे! (५३/(११) का ग्रिफ़िथ के द्वारा किया गया अनुवाद)। इसी के बाद सुदास अपने साम्राज्य की विस्तारवादी योजना हेतु सभी दिशाओं में प्रयाण करता है। उसके इस अभियान में सुदूर का ‘किकत’ प्रांत भी शामिल है। पारम्परिक विद्वान इस क्षेत्र को बिहार के मगध की भूमि बताते हैं। लेकिन विजेल उतनी दूर न जाकर इसे हरियाणा से दक्षिण-पूर्व – पूर्वी राजस्थान या पश्चिमी मध्य प्रदेश तक ही सीमित रखते हैं (विजेल १९९५ बी:३३३)। 

विश्वामित्र के बाद वशिष्ठ  राजा सुदास के पुरोहित बन गए थे। इस समय अभी राजा सुदास अपने विजय अभियान की मध्य अवस्था में ही थे। वशिष्ठ  के द्वारा रचित सातवें मंडल में पंजाब के पूर्वी क्षेत्र  की तीसरी और चौथी नदियों का ज़िक्र पहली बार आया है। ये नदियाँ 'परश्नि (आज की रावी)' और 'असिक्नी ( आज की चेनाब)' हैं। 'सतुद्री' और 'विपास' के बाद इनका विवरण आया है। 'परश्नि' और और 'असिक्नी' को छोड़कर सरस्वती के पश्चिम स्थित अन्य किसी भौगोलिक चरित्र का नाम इस मंडल में कहीं नहीं आया है। यह प्रसंग दसराज्ञ-युद्ध या दस राजाओं के युद्ध का है। अणु की दस जनजातियों और दृहयु की बची- खुची जनजातियों को साथ लेकर परश्नि के तट पर सुदास ने यह लड़ाई लड़ी थी। पूरब से पश्चिम की ओर प्रसार के क्रम में यह लड़ाई दूसरी कड़ी थी। इससे पहले पूरब में उनके पूर्वजों द्वारा लड़े  गए युद्ध का विवरण आ चुका है। पूरब में आहुति-कर्म के बाद फिर से अपने विजय अभियान में जुटे सुदास के पंजाब के पूरब में बहती उन दो नदियों को पार करने का वृतांत तीसरे मंडल में आया है। उसके बाद परश्नि के तट पर सुदास का युद्ध होता है ( सातवें मंडल का १८वाँ सूक्त)।  सातवें मंडल के ५/(३) से यह पता चलता है कि उनके शत्रु असिक्नी के किनारे रहने वाले लोग थे। इससे यह साफ़ होता है कि सुदास पूरब से पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे और उनके शत्रु असिक्नी नदी के पश्चिमी तट की ओर से लड़ रहे थे। इस बात का भी स्पष्ट वर्णन है की शत्रु दल अपनी पराजय के बाद अपने सारे माल-असवाब वहीं छोड़कर पश्चिम दिशा [७/६/(३)] में विदेशी भूमि [७/५/(३)] की ओर तितर-बितर हो गए थे।