Sunday, 4 September 2022

सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।

'मनोहर-पोथी' के ककहरा से माथापच्ची करने के उपरांत हमारा मासूम बालपन  'रानी,मदन अमर' के साथ हिंदी की शब्द-रचना और वाक्य-विन्यास की उलझनों में हुलसता। किसी सुगठित साहित्यिक पद्य-रचना से सामना तो स्कूल में होने वाली नित्य प्रातर् कालीन प्रार्थना से ही हुआ। ये बात अलग है कि बाल मन उस प्रार्थना के मर्म को नहीं समझता पर उसके कोरस के सरस  और लय की ललित धारा में नहाकर अघा जरुर जाता! वे दो छात्र और छात्राएँ,  जो इस कोरस गान का नेतृत्व करते मेरे मन में अपनी आराध्य छवि बना लेते। बाद की कक्षाओं में प्रतिभा मूल्याङ्कन के दो ही पैमाने चलन में देखे गए। एक, गणित के प्रश्नों को कौन पहले सुलझा लेता और दूसरा, क्लास में खड़ा होकर अपने शुद्ध उच्चरित स्वर में बिना किताब देखे कौन कविता पाठ कर अपने अद्भुत आत्मविश्वास का शंखनाद कर दे?  बाद में इन कतिपय आत्मविश्वासी वीरों और वीरांगनाओं के ओजस्वी उद्घोष से उत्साहित माड़-साहेब (मास्टर साहब) शेष कक्षा को अपनी छड़ी से कविता नहीं रट पाने की पराजय की पीड़ा का कड़वा घूँट  पिलाते या कभी-कभी बेंच पर खडा करा के 'दर्शनीय' बना देते। बाद में संस्कृत के शब्द-रूपों ने दर्शनीयता की इस दशा को और दारुण बना दिया। रहीम की ये पंक्तियाँ तो प्रिय लगती थी कि:
"रहिमन मन की वृथा मन ही राखो गोय,
सुनी अठिलैहें लोग सब बाँट न लिहें कोय।"
                   परन्तु उस वेदना को भला मन में कोई कैसे रख पाता जिसे मास्टर साहब की लहराती छड़ी का कोमल हथेलियों से तड़ित ( और त्वरित भी!) स्पर्श आँखों को  बरसा कर सार्वजनिक कर देता! मानव जीवन में पुरुषार्थ का सबसे स्वाभिमानी आश्रम होता है बालपन!
हाँ, एक और पैमाना जुड़ गया प्रतिभा के मूल्याँकन का। वह था- हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद। हिन्दी की कविताएँ कंठस्थ करने वाले की अपनी अहमियत जरुर थी, लेकिन हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद करने में दक्ष कलाकार के आगे वह पानी भरता नज़र आता। बहुत बाद में पता चला कि शिक्षा के इस शैशव-सत्रीय प्रशिक्षण के ठीक उलट व्यावहारिक तौर पर असली जीवन में हमारे देश में अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद की परम्परा ज्यादा पुष्ट और व्यापक है। अर्थात, ऊपर सब कुछ अंग्रेजी में। संविधान, कोर्ट-कचहरी, विज्ञान, तकनिकी-शिक्षा, मेडिकल की पढ़ाई, सब कुछ अंग्रेजी में। उसकी जो  बूंदे हिंदी में रूपांतरित होकर नीचे टपकती हैं उसी को स्वाती-सदृश नीचे का हिन्दी भाषी चातक छात्र चखकर अपने ज्ञान का मोती गढ़ लेता है। और तो और, सुनते है, १९४९ में सितम्बर के इसी पखवाड़े में संविधान सभा में हिंदी को राज भाषा बनाने के लिए अंग्रेजी में अद्भुत बहस हुई थी और अंत में मात्र एक वोट के अंतर पर इस पर मुहर लगी। फिर, अध्यक्ष राजेन बाबु के अध्यक्षीय भाषण ने अपनी फर्राटेदार अंग्रेजी में हिंदी को ' 15 '  वर्षों  के लिए राज सिंहासन पर बिठाया।   
                        मै कक्षा-दर-कक्षा बढ़ता गया। वचन से लिंग, लिंग से संधि, संधि से समास, समास से कारक, कारक से आशय और आशय से सप्रसंग व्याख्या - इन व्यूहों से निरंतर घिरता चला गया। मैट्रिक तक आते-आते तीन पुस्तकों, कहानी संकलन, गद्य संकलन और पद्य संकलन, ने मानों हिन्दी साहित्य के मूलधन की अपार थाती को सँभालने का उत्तरदायित्व मुझ पर ही निर्धारित कर दिया। ऊपर से चक्रवृद्धि ब्याज के रूप में एक निबंध संग्रह- 'जीवन और कला'! पहला निबंध हजारी प्रसाद द्विवेदी का - 'नाख़ून क्यों बढ़ते हैं'. मानों, ये नाखून जीवन में हमें घेरने वाले अवसाद का साक्षात् प्रतिनिधित्व कर रहे हों।  साहित्य का इतिहास, कविता के वाद, अलंकार, छंद विधान, शब्द-शिल्प - ये सब एक साथ मिलकर मेरे तेजस्वी छात्र जीवन के माधुर्य, ओज और प्रसाद को सोखने लगे। भाषा को पकड़ता, भाव फिसल जाते, भावों को ताड़ता, भाषा उलझ जाती! रटने की क्षमता का हरण करने के बाद ही परम पिता ने मुझे सांसारिक पिता के हाथों सौंपा था ! कोटेशन, कविता याद होते नहीं। वर्तनी का बरतन बिल्कुल साफ़ था। बोर्ड परीक्षा के पहले  'सेंट-अप' टेस्ट होता और उससे पहले ' प्री-टेस्ट '। हिंदी के शिक्षक और प्रकांड विद्वान् डॉक्टर शिव बालक शर्मा प्रसिद्द साहित्य मनीषी फादर कामिल वुल्के के शोध शिष्य रह चुके थे और इस बात को प्रमाणित करने में उनकी प्रतिबद्धता के पारितोषिक रूप में  प्रतिदिन न जाने कितने छात्र उनकी पतली छड़ी के मोटे दोदरे अपनी पीठ पर लेकर घर लौटते।
                              'प्री-टेस्ट' का रिजल्ट आया। मै फेल। पूर्णांक १००, उत्तीर्णांक ३३ और प्राप्तांक २७! पहली बार आभास हुआ कि स्थूल शरीर भी हल्का और सूक्ष्म मन भी भारी हो सकता है। जीवन के इस नव दर्शन का विषाद योग लिए घर पहुंचा जहां मेरे न्यायाधीश पिता का 'ऑस्टिन का संप्रभु न्याय-दर्शन' मेरी खातिरदारी की सारी जुगत लेकर पहले से विराजमान था। उन्होंने मन के भारीपन को उतारकर फिर से शरीर के पोर-पोर में समा दिया। मुझ पर बरसे दुस्सह दंड की प्रताड़ना के ताप से पिघला तरल मेरी माँ की आँखों में छलका। ये छलके नयन मानों मुझे बौद्धिक कायांतरण की चुनौती दे रहे हों! मै सहमा स्थावर खडा रहा। किन्तु भला समय का पहिया क्यों रुकता! हिंदी के आचार्य डॉक्टर सुचित नारायण प्रसाद का प्रसाद मिला। गुरु के आशीष की छाया में पनपता रहा। बोर्ड परीक्षा में मुझे हिंदी में ७० प्रतिशत अंक आये जो उस जमाने के लिए असाधारण बात होती थी। जिला स्कूल मुंगेर की चाहरदीवारी पार कर पटना साइंस कॉलेज होते हुए इंजीनियरिंग पढने रुड़की पहुच गया। डॉक्टर जगदीश नारायण चौबे, डॉक्टर राम खेलावन राय, प्रोफेसर अरुण कमल (साहित्य अकादमी प्रसिद्धि के प्रख्यात कवि), प्रोफेसर शैलेश्वर सती प्रसाद जैसे स्वनामधन्य शिक्षकों की ज्ञानसुधा का सरस पान-सुख मिला। रुड़की आते-आते इन गुरुओं ने भाषा और साहित्य का इतना अमृत घोल दिया था कि अब हिंदी की अस्मिता की लड़ाई में शामिल हो गया। हिंदी प्रायोगिक विकास समिति का गठन हुआ। मै कार्यकारिणी का सदस्य बना। हिंदी दिवस समारोह में कैम्पस में अतिथि रूप में पधारे डॉक्टर राम कुमार वर्मा, डॉक्टर विद्यानिवास मिश्र सरीखे हिंदी के बोधि-वृक्ष का सानिध्य-गौरव मिला। राम कुमार वर्मा जी ने कसम खिलाई- हस्ताक्षर हिंदी में करेंगे। आज तक कसम नहीं टूटी।  रूडकी देश का पहला इंजीनियरिंग संस्थान बना जहां अंगरेजी की जगह वैकल्पिक रूप से सेमेस्टर में हिंदी की पढ़ाई की व्यवस्था की गयी। डॉक्टर आशा कपूर हमारी प्रोफेसर रहीं जिनकी अपार ममता और आशीष हम पर बरसे। सबसे पहला पी एच डी शोध पत्र धातु अभियांत्रिकी में हिंदी में इसी संस्थान ने स्वीकृत किया। बाद में अपने अभूतपूर्व संघर्ष की बदौलत श्याम रूद्र पाठक ने आई आई टी दिल्ली में अपना शोध पत्र हिन्दी में स्वीकृत कराने में सफलता पाई। अभी संघर्ष विराम का समय नहीं आया था। पुर्णाहूति तब हुई जब बाद में संघ लोक सेवा आयोग ने अपनी परीक्षाओं में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में स्वीकार किया।
                                   संघ लोक सेवा आयोग में इंजीनियरी सेवा की मेरी अतर्वीक्षा (इंटरव्यू) थी। डॉक्टर जगदीश नारायण का बोर्ड था। आई आई टी दिल्ली के प्रोफेसर नटराजन साहब सदस्य थे। उन्होंने उन दिनों हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के लिए चल रहे संघर्षों पर चुटकी ली। मै भला क्यों चूकता ! मै उनसे उलझ गया। मैंने स्पष्ट शब्दों में अपने तर्कों को उनके समक्ष रखा। अब वे उस शेर की मुद्रा में आ गए जिसकी ललचायी निगाहें  जलप्रवाह के निचले छोर पर जल पीने वाले मेमने में मुझे निहार रही हो! भला हो चंपारण का, जो मेरी जन्म भूमि है। उन्होंने मुझे घेरने के लिए चंपारण आन्दोलन का इतिहास उकटना शुरू किया। मै कहाँ भला उकताता! लेकिन आपको उकताने से बचाने के लिए मै पूरी कहानी सुनाये बिना ये बता दूँ कि बोर्ड के अध्यक्ष जगदीश नारायण साहब ने मुझे लोक लिया और मै थोडा सशंकित किन्तु विजयी मुद्रा में बाहर आया।
आज हिंदी पखवाड़े में शिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर उन समस्त गुरुजनों को याद करते मन में एक अजीब हलचल हो रही है। उनका आशीर्वाद आज भी खूब फल फूल रहा है। अनुभव सर्वदा ज्ञान से श्रेष्ठ रहा है।  मेरे जीवन में आये ऊपर वर्णित व अवर्णित सभी पात्र मेरे जीवन पथ को आलोकित करने वाले मेरे पूज्य गुरु रहे हैं और मेरे अनुभव का पोर-पोर  उनके आशीष से सिक्त है। वह पल पल मेरी स्मृतियों में सजीव रहेंगे और उपनिषद् की ये पंक्तियाँ उस जीवन्तता में अपना अनुनाद भरती रहेंगी:-
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । 

27 comments:

  1. शब्द-चित्रों से सजा ये संस्मरण चलचित्र सा प्रतीत हो रहा ....

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  2. ये सारे शब्द-चित्र उन पूज्य गुरुदेवों की सौंपी गयी साझी विरासत है। अत्यंत आभार आपका।

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  3. परत दर परत विचारों को समेटे बहुत शब्द- भाव प्रवीण बढ़िया संस्मरण।

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  4. वाह! सजीव संस्मरण जो आपकी शैक्षिक यात्रा के साथ साथ हमें भी अपने बचपन और विद्यालय की चारदीवारी के भीतर घुमा कर लाता है।

    सादर

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  5. You took us, on such a beautiful walk down the memory lane. Very well expressed ! Enjoyed reading 🙂

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  6. सुंदर संस्मरण।हर गुरु अपनी कोई विशेष भेंट दे गया,और हमारे व्यक्तित्व को नया आयाम देता गया।उनके सदैव ऋणी रहेंगे हम।

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  7. आदरनीय विश्वमोहन जी,एक अल्हड़ बालक की भाषा के संघर्ष की सफल यात्रा को अपने आप में समेटती ये अंतर्कथा पढ़ने में जितनी रोचक है उतनी ही भावपूर्ण भी है।एक पीढ़ी की शिक्षा-दीक्षा और नैतिक उत्थान में माता-पिता का दिया दंड और भय की बहुत बड़ी भूमिका रहती थी।जिन्होने उस असहनीय दंड की पीड़ा को सहा,वे कुंदन बन चमके।विद्यार्थी जीवन में प्राय सभी इसी तरह के अनुभवों से गुजरते जीते हैं।पर उन दिनों जहाँ शिक्षकों का अपने लापरवाह शिष्यों लिए दंड विधान गौरव का विषय था,वहीं ये उनका निरंकुश क्षेत्र था, जिसमें माँ बाप का किसी तरह का दखल अमान्य था। वो भी उस तरह के छात्र के लिए,वो सजा संजीवनी बनी, जो भले थोड़ा-सा अल्हड़ था पर माँ के विवश सजल नयनों की भाषा और उनमें छिपा मूक सन्देश पढ़ना उसे खूब आता था, जिसने भाषा पर सम्पूर्ण अधिकार का उसका मार्ग प्रशस्त किया।जिसकी बदौलत अनेक उपलब्धियों के साथ एक गरिमामय पद तक पहुँचना नितांत गौरव का विषय है। हिन्दी भाषा के इस गौरवशाली सफ़र को सुखद बनाने वाले समस्त गुरूजनों की पुण्य स्मृतियों को आपने जिन कृतज्ञ भावों में पिरोया है उनमें उन गुरूजनों के कुशल मार्गदर्शन और अतुल्य ज्ञान दीक्षा की मनोहर झलक मिलती है।
    सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।--'
    शायद ऋषि मेधा से उत्पन्न ये श्लोक इसी गुरु-शिष्य परम्परा की संपूर्णता का परिचायक है।एक भावनात्मक संस्मरण के लिए कोटि आभार जिसमें आपने आदर्श गुरूजनों को शब्दों में जीवंत कर उनके विराट व्यक्तित्व के दर्शन करवा अपने स्नेही साहित्य प्रेमी पाठकों को अनुगृहित किया है।समस्त गुरु सत्ता को सादर नमन 🙏🙏

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    1. अत्यंत भावपूर्ण और तार्किक विवेचना। बहुत आभार आपके सुंदर आशीष पूर्ण शब्दों के।

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  8. इस हीरे को तराशने में कलाकारों ने छड़ी जैसे काफ़ी पैने और कठोर उपकरणों का प्रयोग किया है.
    यह हीरा हमको विश्वेशरैया का छात्र कम और हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र का शिष्य अधिक दिखता है.
    मित्र, तुम्हारी बहुमुखी प्रतिभा को निखारने वाले सभी गुरुजन को मेरा सादर प्रणाम !

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    1. जी सर, गुरु तो आप भी हैं, मेरे। भले इस शिष्य को आप स्वीकार या न! अत्यंत आभार आपके आशीष का (जो मैं आपसे झटक लेता हूं😄)।

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  9. आत्म-समर्पित आत्मान्वेषण। तस्मै श्री गुरुवे नमः।

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  10. सुन्दर भावपूर्ण संस्मरण

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  11. बहुत ही लाजवाब एवं भावपूर्ण संस्मरण।
    सचमुच पहले "गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है...... बाहर मारे चोट" कुछ ज्यादा ही माना जाता था और गुरु साधिकार मार को ही सफलता की पहली सीढ़ी बनाते थे । रही सही अभिभावक पूरी करते ।नतीजा भी 27 से सीधे 70।
    और उन्हीं गुरुओं के प्रति उम्र भर इतनी श्रद्धा इतना सम्मान ।
    नमन आपको एवं उन सभी ईश्वरतुल्य गुरुओं को ।

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  12. जी, आपकी सुंदर भावनाओं को भी नमन।

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  13. बहुत खूब..सजीव चित्रण👌👌

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