क्लैव्य त्याज्य एकलव्य बनो तुम!
नियति ने इतना लाड़ दिया
प्यार अपार, परिवार दिया।
विधुर पिता ने भी तुम पर
अपना जीवन निसार किया।
माँ भी रह रह कर हरदम
किस्मत में तेरी मुस्काई।
सफलता की राहों में सरपट
तृण भी तनिक न आड़े आयी।
फिर भी न जाने कायर-से
किस आहट से सिहर गए।
तिनके-तिनके-से अंदर से
टूट-टूट कर बिखर गए।
पता है क्यों ! जीर्ण-शीर्ण
और जर्जर-से तेरे सपने थे।
नहीं किसी के गलबहियां तुम
नहीं किसी के अपने थे।
बस खुद को ही खोद खोद कर
खुद को यूँ गँवाते थे।
मृग-मरीचिका की माया में
कोई अपना नहीं बनाते थे।
तुम भी सीख लो दुनियावालों
नहीं केवल तुम अपने हो।
रिश्ते-नाते, अपने-दूजे
प्राण-प्राण के सपने हो।
'मेरा-मेरा' रट ये छोड़ो
यह 'मेरा' वह 'मेरा' है।
ये मत भूलो तन-मन-धन
और प्राण नहीं कुछ 'तेरा' है।
क्लैव्य त्याज्य एकलव्य बनो तुम
लड़ो समर में जीवन के।
करो आहुति जीवन अपना
वीरगति आभूषण-से।
सार्थक सकारात्मक संदेश।
ReplyDeleteआज के दौर में हर छोटी बात पर अवसादग्रस्त होती पीढ़ी को जीवन की खूबसूरती समझा पाये यही अभिभावकों की प्राथमिकता होनी चाहिए।
सादर।
आभार, सादर।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-6-2020 ) को "साथ नहीं कुछ जाना"(चर्चा अंक-3734) पर भी होगी, आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
जी, अत्यंत आभार हृदयतल से।
Deleteसादर नमस्कार ,
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-6-2020 ) को "साथ नहीं कुछ जाना"(चर्चा अंक-3734) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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लिंक खुलने में समस्या हुई इसकेलिए क्षमा चाहती हूँ ,मैंने अब सुधार कर दिया हैं।
कामिनी सिन्हा
जी, आभार।
Deleteक्या एकलव्य बना जाए और किस लिए,जिसकी प्रतिभा और जीवन निज स्वार्थ में गुरू
ReplyDeleteऔर गोविंद दोनों ने छीन लिया था।
सुंदर भावपूर्ण सृजन के लिए नमन।
लांछन तो गुरु और गोविंद को ही लगे। एकलव्य सदा नायक बनकर आत्मगौरव और स्वाभिमान की साँस लेता रहा। बहुत आभार आपके विमर्श-वाक्य का।
Deleteसुंदर, सार्थक और भावपूर्ण रचना आदरणीय विश्वमोहन जी | सभ्य समाज में नित बढ्ती आत्महत्याएं , इन्सान की शौहरत और दौलत से भरी ज़िन्दगी पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं | भीड़ के बीच में अकेलेपन से उपजा अवसाद अनमोल जिंदगियां लील रहा है | आज ऐसे ही प्रेरक चिंतन की आवश्यकता है | खुद को टटोलना होगा और खुद का मनोबल खुद ही बढ़ाना होगा |क्योंकि इन्सान की आंतरिक शक्ति ही उसे आत्महत्या जैसे अनर्थ से बचाती है | बहुत अच्छा लिखा आपने | काश !सुशांत राजपूत ने भी खुद को इसी तरह संबल दिया होता | सादर
ReplyDelete"भीड़ के बीच में अकेलेपन से उपजा अवसाद अनमोल जिंदगियां लील रहा है |" - आज की भागदौड़ वाली दिखावटी ज़िंदगी की असलीयत आपने बयान कर दी। आपके समर्थन का हार्दिक आभार!!!!
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 16 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आभार, सादर!
Deleteनमस्ते,
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 16 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
पल में तोला पल में माशा
ReplyDeleteसह सके ना हार ना हताशा
काश जान पाता हर लड़ाई
तुरन्त लड़ी नहीं जाती
उम्दा लेखन
जी, बहुत सही! आभार आशीष का!!!
Deleteसुंदर, सार्थक और भावपूर्ण रचना आदरणीय विश्वमोहन जी
ReplyDeleteरह रह कर दिमाग सुशांत की घटना की और चला जाता है
समाज और दुनिया से आस रखना आज के समय में मूर्खता है। ..सच कहा आपने हमे खुद को ही संभालना होगए। मगर अवसाद इक सत्य है कटु सत्य , काश समय रहते हम सब सम्भल जाएँ
बहुत ही सटीक रचना
जी, बिलकुल सही कहा आपने। संवेदना का यहीं तत्व इंसान से इंसान को जोड़ता है और इसी जुड़ाव से अवसाद का इलाज निकलता है। दंभ, अहंकार और अलगाव जीवन में विरसता का विष बहाते हैं। आभार आपकी टिप्पणी का!!!
Deleteहृदय स्पर्शी सृजन आदरणीय सर .
ReplyDeleteसादर
आभार, सादर!!!
Deleteबहुत सुंदर, प्रेरक, भावपूर्ण और अच्छा सन्देश देती हुई रचना।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteबहुत सुंदर भावपूर्ण और जीवन का असल निचोड़ क्या होना चाहिए .... यह बात अगर सब समझ सकें तो नई ऊर्जा आती है जो कर्म को प्रेरित करती है ...
ReplyDeleteमेरा मेरा पता होते हुए भी की नश्वर है ... सब करते हैं ...
जी, बहुत आभार आपकी सारगर्भित टिप्पणी का!!!
Deleteअवसाद दबे पांव आता है जरा सा केमिकल लोचा सब गड़बड़ करता है किसी मित्र या परिवार वाले को सब से पहले पता चलता हैं बस वही जरूरत होती हें अपनेपन की बचाने की
ReplyDeleteजी, आभार!!!!
Deleteबहुत सुन्दर सार्थक संदेशप्रद लाजवाब सृजन....।
ReplyDeleteमैं और मेरा की प्रबलता ही इंसान को स्वार्थी बना देती है...।सिर्फ अपने लिए जीने वाले ही ऐसी करतूतें कर सकते हैं...स्वयं को परिवार से, समाज से , और देश से जोड़ने वालों के सर पर जिम्मेदारियों का बोझा है अवसाद क्या इस विषय में जानने सोचने का वक्त तक उनके पास नहीं होता।
जी, सही कहा आपने। अत्यंत आभार।
Deleteये मत भूलो तन-मन-धन
ReplyDeleteऔर प्राण नहीं कुछ 'तेरा' है।
क्लैव्य त्याज्य एकलव्य बनो तुम
लड़ो समर में जीवन के।
बहुत सूंदर सलाह ...बेहतरीन अभिव्यक्ति !
अत्यंत आभार!!!
Deleteनहीं बताते ये आजकल के युवा बच्चे, किसी को कुछ नहीं बताते। चेहरे पर झूठी मुस्कान लिए, दिल में घुटन का सागर छिपाए कभी कुछ जाहिर भी करते हैं तो फेसबुक या वाट्सएप के स्टेटस पर गमगीन पंक्तियों के रूप में !
ReplyDeleteगलाकाट स्पर्धा, बिखरते परिवार, संतोष और स्नेह की कमी, सबसे बड़ी बात परमपिता परमेश्वर से दूरी और संस्कारों की कमी इनको अंदर ही अंदर घुन की तरह खाए जाती है।
क्या आप और हम बिना संघर्षों के ही बढ़े हैं आगे ? बहुत झेला है हम लोगों ने भी। ऐसी कुंठित जवानी परिवार, समाज व देश को क्या
संबल देगी ? कोरोना के बाद बहुत सारे युवा ऐसी मनोवस्था में पहुँच रहे हैं। उनको साथ व सहारे की जरूरत है।
आपकी रचना ने युवाओं को प्रेरक संदेश दिया है। काश ! वे इसे समझ पाएँ ।
जी, सही कहा आपने। लेकिन इसके लिए बहुत हद तक ऊपर की पीढ़ी भी ज़िम्मेदार है जिसने अपने नीचे की पीढ़ी को परमात्मिक अहसास और सांस्कारिक स्पर्श से वंचित रखा। आप तो विद्यालाय में बच्चों के सीधे सम्पर्क में रहने के कारण नयी पीढ़ी की इस रिक्तता से ज़्यादा रु ब रु होंगी और इसे महसूस भी करती होंगी। आपकी विस्तृत टिप्पणी का आभार।
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