Wednesday 11 August 2021

अकेलेपन

 दिन के कोने में दुबकी संझा

पोत देती है काजल 

मुंह पर समय के,

और ओढ़ लेता है वह,

चादर काली रात की।

उधर उस ओर उषा भी

मल देती है सिंदूर

 क्षितिज के आनन पर।

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फिर चढ़ जाता है

आवरण आलोक का।

भला देख पाता कोई?

कि रात- दिन, 

अंधेरे-उजाले के वस्त्रों को 

उतारता-पहनता वक़्त,

अंदर से कितना नंगा होगा

हमारे अकेलेपन की तरह!