आशाओं की दीपशिखा,
रुक-रुक कर काँप रही थी।
पवन थपेड़ों से लड़-लड़ कर,
हर हर्फ पर हाँफ रही थी।
प्राणों के कण-कण को अपने,
प्रिय पर वह वार रही थी।
हो आलोकित पथ प्रियतम का,
सब कुछ अपना हार रही थी।
आने की उनकी मधुर कल्पना,
लौ को लप-लप फैलाती थी।
सूखा तिल-तिल, तेल भी तल का,
प्रतिकूलता अकुलाती थी।
अहक में अपनी बहक-बहक जो,
कभी बुझी-सी, कभी धधकती।
नेह राग का न्योता लेकर,
झंझा को देती चुनौती।
आस सुवास में कभी महकती,
और दहकती पिया दाह में।
तन्वंगी टिमटिम-सी रोशनी,
लगी सिमटने विरह राह में।
दमन वायु की निर्दयता ने,
दीपशिखा का तोड़ा दम है।
सूखा दीपक, बुझ गयी बाती
अब तो पसरा गहरा तम है।
मंत्रमुग्ध करती रचना - -
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन।
विरह में सब ओर निराशा ही दिखती शायद ।
ReplyDeleteखूबसूरती से उकेरे हैं ये भाव ।
वाह
ReplyDeleteजी, बहुत आभार।
Deleteये सच है दमन कारी हाव दीपशिखा का दम तोड़ने की कोशिश करती है ...
ReplyDeleteकई बार वो सफल होती है कई बार नहीं ... शायद जीवन इसी आशा निराशा में झूलता है ...
जी, अत्यंत आभार।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १६ जुलाई २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी, अत्यंत आभार।
Deleteइक न इक शम्मा
ReplyDeleteअंधेरे में जलाए रखिये!
जाने कब आए वो
माहौल बनाए रखिये !
एक शमा का हाल ए दिल बेहद खूबसूरती से बयां किया आपने।👌👌
आपकी सुंदर काव्यात्मक टिप्पणी का आभार।
Deleteप्रिय रश्मि जी, सुंदर पंक्तियाँ जो उम्मीद से भरी हैं!आपकी पंक्तियों से मुझे भी अपनी डायरी के पन्ने पर दर्ज पंक्तियाँ याद अ गयीं -
Deleteदीप मेरे जलता चल
आँधियों से बच निकल
शांत हैं लहरें तट की
और एकाकी मन विकल !
ले साथ अपने श्रद्धा ,अनुराग मेरा,
बह जाना संग मंद प्रवाह के
देखो !नाविक ना भूले पथ कहीं
बनना दिग्दर्शक भटकी नाव के !
सस्नेह शुभकामनाएं|
Well said Renu ji!!With love as oil ,and faith as the wick,an ordinary lamp can turn out to be a beacon.
Deleteबहुत ही सुंदर।🌻
ReplyDeleteजी, बहुत आभार।
Deleteशानदार
ReplyDeleteसूखा दीपक, बुझ गयी बाती
अब तो पसरा गहरा तम है।
आभार..
सादर..
जी, बहुत आभार।
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteजी, बहुत आभार।
Deleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
ReplyDeleteजी, बहुत आभार।
Deleteआशाओं की दीपशिखा,
ReplyDeleteरुक-रुक कर काँप रही थी।
पवन थपेड़ों से लड़-लड़ कर,
हर हर्फ पर हाँफ रही थी।
पवन थपेड़ों से लड़ती आशाओं की दीपशिखा!!!
वाह!!!!
दमन वायु की निर्दयता ने,
दीपशिखा का तोड़ा दम है।
सूखा दीपक, बुझ गयी बाती
अब तो पसरा गहरा तम है।
आह!!!
बहुत ही मर्मस्पर्शी....वाह से आह तक सब समेटे
लाजवाब सृजन।
जी, बहुत आभार आपके आशीष का।
Delete
ReplyDeleteदमन वायु की निर्दयता ने,
दीपशिखा का तोड़ा दम है।
सूखा दीपक, बुझ गयी बाती
अब तो पसरा गहरा तम है।..दिल से निकले सुंदर भावों का सृजन,सुंदर रचना।
जी, बहुत आभार।
Deleteप्राणों के कण-कण को अपने,
ReplyDeleteप्रिय पर वह वार रही थी।
हो आलोकित पथ प्रियतम का,
सब ही कुछ अपना हार रही
बहुत खूबसूरत रचना है
जी, बहुत आभार!
Deleteवेदना की मर्मस्पर्शी रचना
ReplyDeleteजी, बहुत आभार!
Deleteदीपशिखा के माध्यम से एक जीवंत आध्यात्मिकता से भरपूर शब्द चित्र रचा है आपने आदरणीय विश्वमोहन जी |एक भावपूर्ण प्रणय कथा जो आशा और उत्साह से शुरू हो अंत में दुखद परिणिति को पहुँचती हैं |सुधा जी शब्दों में वाह से आह तक !हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं सरस, आलंकारिक रचना के लिए|
ReplyDeleteजी, आपकी और सुधाजी की विशेष टिप्पणी अत्यंत प्रेरक है। आभार।
Deleteसुप्रभात
ReplyDeleteउम्दा रचना |पढ़ने में आनंद आया |
जी, बहुत आभार आपके सुंदर शब्दों का।
Deleteजूझने का मन और दमनचक्र...
ReplyDeleteप्रभावी शब्द।
जी, बहुत आभार।
Delete"प्राणों के कण-कण को अपने,
ReplyDeleteप्रिय पर वह वार रही थी।
हो आलोकित पथ प्रियतम का,
सब ही कुछ अपना हार रही"
बहुत सुंदर मर्मस्पर्शी सृजन......सादर नमस्कार
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-7-21) को "प्राकृतिक सुषमा"(चर्चा अंक- 4131) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
बहुत सुंदर! मुग्ध करता सृजन ।
ReplyDeleteदीपशिखा सा प्रज्वलित।
जी, अत्यंत आभार!
Deleteबुझती बाती की पलकों पर
ReplyDeleteउजली स्मृतियों का डेरा है
जलना-बुझना या जन्म-मरण
मायावी जग तो रैन बसेरा है।
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आदरणीय विश्वमोहन जी,
अत्यंत प्रभावशाली भावों से सजी मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति।
आपकी रचनाओं का शब्द शिल्प सदैव निःशब्द कर जाता है।
प्रणाम
सादर।
गहरे अर्थों को समेटती आपकी काव्यात्मक टिप्पणी का सादर आभार, हृदय तल से!
Deleteबेहद हृदयस्पर्शी रचना।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteजी, बहुत आभार!
Deleteदमन वायु की निर्दयता ने,
ReplyDeleteदीपशिखा का तोड़ा दम है।
सूखा दीपक, बुझ गयी बाती
अब तो पसरा गहरा तम है।---अनुपम सृजन।
अकथनीय तृप्ति ...
ReplyDeleteजी, बहुत आभार!!!
Deleteआस सुवास में कभी महकती,
ReplyDeleteऔर दहकती पिया दाह में।
तन्वंगी टिमटिम-सी रोशनी,
लगी सिमटने विरह राह में।
बहुत सुन्दर सृजन
उत्तम सृजन...
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।
DeleteGood 👌👌👌👌👌🙏🙏🙏
ReplyDeleteजी, आभार।
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