Friday, 28 April 2017

मौन !

 मैं राही, न ठौर ठिकाना,
जगा सरकता मैं सपनो में ।
डगर डगर पर जीवन पथ के
छला गया मैं बस अपनो से ।

भ्रम विश्व में, मैं माया जीव!
अपने कौन, बेगाने कौन?
संसार के शोर गुल में
सृष्टि का स्पंदन मौन।

मौन नयन, मौन पवन,
मौन प्रकृति का नाद।
मौन पथ और मौन पथिक
मौन यात्रा का आह्लाद।

मन की बाते निकले मन से
मौन मौन मन भाती।
और मन की भाषा मे,
मन मौन मीठास बतियाती।

मौन हँसी है, मौन है रुदन
मौन है मन की तृष्णा।
दुर्योधन की द्युत सभा मे,
मौन कृष्ण और कृष्णा।

जन्म क्रंदन और मौन मरण,
मौन है द्वैत का वाद।
मन ही मन मे मन का मौन,
मौन पुरुष प्रकृति संवाद।

Saturday, 22 April 2017

रेस्जुडिकाटा!

जिंदगी की फटी पोटली से झांकती,
फटेहाल तकदीर को संभाले,
डाली तकरीर की दरख्वास्त।
अदालत में परवरदिगार की!
और पेश की ज़िरह
हुज़ूर की खिदमत में।
.......    ......     .....
मैं मेहनत कश मज़दूर
गढ़ लूंगा करम अपना,
पसीनो से लेकर लाल लहू।
रच लूंगा भाग्य की नई रेखाएं,
अपनी कुदाल के कोनो से,
अपनी घायल हथेलियों
की सिंकुची मैली झुर्रियों पर।
लिख लूंगा काल के कपाल पर,
अपने श्रम के सुरीले  गीत।
सजा लूंगा सुर से सुर सोहर का
धान की झूमती बालियों के संग।
बिठा लूंगा साम संगीत का,
अपनी मशीनों की घर्र घर्र ध्वनि से।
मिला लूंगा ताल विश्वात्मा का,
वैश्विक जीवेषणा से प्रपंची माया के।
मैं करूँगा संधान तुम्हारे गुह्य और
गुह्य से भी गुह्यतम रहस्यों का।
करके अनावृत छोडूंगा प्रभु,
तुम्हारी कपोल कल्पित मिथको का।
करूँगा उद्घाटन सत का ,
और  तोडूंगा, सदियों से प्रवाचित,
मिथ्या भ्रम तुम्हारी संप्रभुता का।
निकाल ले अपनी पोटली से,
मेरा मनहूस मुकद्दर!
.....    ......       .........
आर्डर, आर्डर, आर्डर!
ठोकी हथौड़ी उसने
अपने जुरिस्प्रूडेंस की।
जड़ दिया फैसले का चाँटा!
रेस्जुडिकाटा!!!
रेस्जुडिकाटा!!
रेस्जुडिकाटा!

Friday, 21 April 2017

विभ्रम 'क्रम-भ्रम' का!

सनसनाती हवाओं का श्मशानी सीना,
धू धूआता धुंआ, धनकती चिता,
नाक के नथुनों में भरती
मांसल गंध, अर्द्ध झुलसी लाश,
कानों को खटकाती
'चटाक' सी चटकती
टूटती उछलती हड्डी

खड़ी-पड़ी आकृतियाँ
इंसानी सी शक्लों की
झोंकें हैं अपने को
अपनी अपनी लय में,
भर भर आँखों से
कराने को निर्जीव देह
का अग्नि स्नान चिता पर

और इस धधकते शरीर का ' मैं '
निमग्न, निहारने में निर्निमेष!
कभी दहकती अपनी निर्जीव देह
आग की थिरकती लपटों में, और
कभी सिहुरती निहुरती इर्द गिर्द
सजीव सी श्लथ लाशों को
जगत की जिजीविषा की ज्वाला में

अब जाके जगती हैं ज्ञान की इन्द्रियाँ,
जैसे जैसे, जर्रा जर्रा, झुलसता है इसका.
छूता हूँ प्रकम्पित पवन, तिल तिल कर
अश्मों में बदलते अंग,उनको झुलसाती लपटें,
छिड़के अभिमंत्रित जल की शीतलता,
जलती लकड़ियों के घहराकर गिरने का स्वर
और चंद कदम दूर चकराती चीलों की चीत्कार!

अब जाके अघाई हैं अपलक पलकें!
निहारता हूँ पल पल मन भर
सोचता हूँ 'बुद्ध' बन बुद्धि भर
और भरता हूँ अंतस अहंकार भर
पर मन, बुद्धि, अहंकार मिलकर
सब फलित हो जाते हैं महाशून्य में
समाहित होकर आत्मा के उत्स में

.......................सत्ता हीन 'सत' में,
जहां मैं अविकार, सूक्ष्म, शांत, अज,
अनादि, नित्य, अनंत, शाश्वत चित्त!
समाहित, परम आनंद के महाशून्य में  
और अहसासता, शून्य का चेतन आनंद!
'नहीं होने' से 'होते हुए', 'नहीं होना' हो जाना
भोगता इसी 'क्रम का भ्रम' और ' भ्रम का क्रम'!

Thursday, 20 April 2017

स्पंदन

 (१)
तूने अपनी सोच बताई।
मैं नही सोच पाता,
तुम्हारे लिए!
अब सोच रहा हूँ,
सोच के किस स्तर पर
सोच रहे हैं हम ?
मन, बुद्धि या अहँकार!
आत्मा तो अज अविकार।
सोच के संकुचन से रीता।

           (२)
अच्छा हुआ, नही किया,
तूने अध्यारोप
कि,  घोलूँ मैं तुममें
विकार।
अंतस की आत्यंतिक
रूहानियत में रचे बसे,
मेरे प्यार।
निर्गुण, निरीह, निराकार।
अनंत, अपार।

             (३)
गूँज, विसरित स्वर-सुरों की मेरी
विस्फारित, पाती विस्तार।
आशा की भुकभुकाती ढ़िबरी
कि सुन रही होगी सूनेपन में,
अगणित प्रक्षिप्त छवियों
में से ही तुम्हारी कोई एक!
इस अनहद नाद को मेरे,
सरियाने को साम,
स्पंदन की शाश्वतता का!

Tuesday, 18 April 2017

'तुम' और 'मैं'

तुम्हारी ' शाश्वतता।
तिल तिल घुलती
'मेरी' सत्ता।
और विश्वात्मकता,
में होता विलीन,
विलंबित ताल में
'मेरा' विश्व!

भटकता, 'मैं'  सांत!
विराट अनंत में 'तुम्हारे'।
विस्मृत कर कि
'तुम्हारे' असीम,अखंड
अनंत, अनगढ़ विस्तार
की ज्योतिर्मयी क्षिप्र छाया
और 'तुम्हारे' निर्गुण  की
'मैं' सगुण माया!

प्रभु, मुक्त करो
इस भेद से!
'तुम' और 'मैं' के!


क्षिप्र
अव्यय
  1. 1.
    शीघ्र, जल्दी।
  2. 2.
    तुरंत।
विशेषण
  1. 1.
    अस्थिर, चंचल।

Sunday, 16 April 2017

भारत में ब्रितानी साम्राज्य का तिमिर काल !


आज २०१७ में हम गाँधी के चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष मना रहे हैं. यह ब्रितानी हुकूमत के पैरों तले पिसती कराहती चंपारण की कृषक जनता की सिसकियों को स्मरण करने का समय है और उस अत्याचार से सत्य और अहिंसा के शस्त्र से त्राण दिलाने वाले गाँधी की वीर गाथा को नमन करने का मुहूर्त है. अब प्रश्न यह उठता है कि क्या यह समय उस शासन परम्परा के उत्तराधिकारी ब्रिटेन के वर्तमान शासकों के अपने अत्याचारी पूर्वजों के पाप कर्म के प्रायश्चित करने का नहीं है ! आज से दो वर्ष बाद हम २०१९ में जालियांवाला बाग़ में जनरल डायर के क्रूर कुकृत्यों से ढेर अपनी हुतात्माओं की सौंवी बरसी मनाएंगे. क्या उस ब्रितानी बेशर्मी पर पश्चाताप करने अँगरेज़ प्रधानमंत्री उस बाग में घुटनों के बल बैठेंगे और भारतीय जनमानस से माफ़ी की गुहार लगायेंगे! और शनैः शनैः काल प्रवाह में ऐसे कितने जयन्ती शतकों का हम साक्षात्कार करेंगे जब हमारा स्वतंत्र राष्ट्रीय मानस उस तथाकथित सभ्य अँगरेज़ प्रजाति से प्रायश्चित की परम्परा के निर्वाह के रूप में क्षति पूर्ति की आशा करेगा. इन्ही भावनाओं को अपनी ओजस्वी वाणी दी है शशि थरूर ने अपने बहुचर्चित व्याख्यान में ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन के समक्ष. और उससे भी धारदार ढंग से परोसा है अपनी पुस्तक ' AN ERA OF DARKNESS: THE BRITISH EMPIRE IN INDIA' अर्थात " भारत में ब्रितानी साम्राज्य के तिमिर काल " में ! इस पुस्तक का ताना बाना उपरोक्त बहुचर्चित 'ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन व्याख्यान' की पृष्ठभूमि में बुना गया है अद्भुत आंकडों और ऐतिहासिक घटना क्रम के आलोक में. श्री थरूर ने बड़ी विद्वतापूर्ण ढंग से ब्रितानी हुकूमत के कदमो में कुचलते औपनिवेशिक हिन्दुस्तान के अद्यतन शोषण का सर्वांग चित्र खींचा है और यह भली भांती प्रमाणित कर दिया है कि अब समय माकूल है जब ब्रिटेन की वर्तमान सरकार कम से कम अपने पुराने कुकर्मों पर लज्जा की अनुभूति, प्रायश्चित सम्प्रेषण और क्षमा याचना का ही मुआवजा  दे. थरूर ने पुस्तक की प्रस्तावना में स्पष्ट किया है कि उनकी प्रस्तुति ब्रिटिश उपनिवेश के रूप में भारत के अनुभवों की दास्तान है.
अपनी पुस्तक की भूमिका में थरूर ने थोड़ा आत्म निरीक्षण और आत्मावलोकन भी किया है कि क्या स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरांत उन तमाम विसंगतियों से हम उबर पाए हैं जिसका दोषारोपण हम बड़ी सरलता से अंगरेज़ प्रभुओं पर थोपते रहे हैं! 'टाइम ' पत्रिका  में शिखा डालमिया की टिपण्णी ' शास्त्रार्थ में विजय-श्री संभवतः शशि थरूर को शिरोधार्य हो किन्तु नैतिक विजय ने भारत को सर्वदा छला ही है.' को थरूर ने बड़ी आत्मीयता से अंगीकार किया है. साथ ही वह इस तथ्य से भी सहमत नज़र आते हैं कि चाहे हर्जाने का कितना भी बड़ा मूल्य भारत को सौंप दिया जाय , उसके समुचित उपयोग एवं जरुरतमंदो तक उसकी पहुँच की आशा स्वतंत्र भारत के अद्यतन सत्ता संचालकों की कर्तव्यनिष्ठा के आलोक में धूमिल ही है. उदाहरण के तौर पर भारतीय खाद्य निगम के भंडारों से २०१० में दस हज़ार लाख टन खाद्यान्नों की बरबादी  इस बात की पुष्टि करती है कि अतीत के अकाल इन अभिजात्य सत्ताधीशों की जाहिलता और अक्षमता की ही अभिव्यक्ति थे. राजनितिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर थरूर ने स्वातंत्र्योत्तर शासकों की जम कर खिंचाई की है कि मुलभुत शिक्षा व साक्षरता की अवहेलना, समाजवाद की सनक, लाइसेंस राज की खनक और चुनिंदे धनकुबेर औद्योगिक घरानों की गोद में उनकी सर्व समर्पित अपवित्र प्रेम क्रीड़ा ने देश को दुर्दशा की ऐसी दिशा में धकेल दिया कि १९५० से १९८० के बीच सकल घरेलु उत्पाद के पैमाने पर यह मेक्सिको और दक्षिण कोरिया से भी पिछड़ गया.
किन्तु, महज़ इन असफलताओं की बुनियाद पर निस्संदेह हम ब्रितानी हुकूमत को उनके अतीत के काले कारनामों से न तो बरी कर सकते है और न ही हमारे शासकों की अकर्मण्यता के अंगोछे से ब्रिटिश कलंक को पोंछा जा सकता है. दीगर है कि आप बीस से भी अधिक दशकों के शोषण से दहकते घाव को छः सात दशकों में तो नहीं ही भर सकते. इतिहास के भिन्न भिन्न कालखंडो का मूल्यांकन भी उस काल की अपनी विशिष्टताओं और परिस्थितिजन्य कालगत विलक्षणताओं के विस्तार में ही किया जा सकता है. फौरी तौर पर ब्रितानी हुकूमत अतीत के अपने काले औपनिवेशिक कारनामो से मुंह नहीं मोड़ सकती और उसे प्रायश्चित का मूल्य चुकाना ही पड़ेगा. चाहे, वह सांकेतिक तौर पर २०० वर्षों तक एक पौंड प्रति वर्ष की दर से ही क्यों न हो!
पोलैंड में यहूदियों के सर्वनाशिक विध्वंस के लिए जर्मनी के चांसलर विलि ब्रांट ने वारसा की यहूदी बस्ती में घुटनों के बल बैठकर उस कुकृत्य के लिए क्षमा याचना की थी भले ही उस समय तक क्षमा देनेवाला न कोई यहुदी समुदाय वहाँ बचा था और न ही नाजियों के द्वारा स्वयं सताए गए समाजवादी ब्रांट का उस यहूदी सत्यानाश की प्रक्रिया से कोई सम्बन्ध था.  किन्तु, ब्रांट की मानवीय मूल्यों से ओत प्रोत यह तरल भाव-भंगिमा इतिहास की शुष्क बंज़र भूमि में एक ऐसी त्यागमयी ममतावात्सल भागीरथी का अनुपम अमृत प्रवाह था जो  इस वसुंधरा को सदियों तक आप्लावित करती रहेगी. यह तवारीख की एक अनोखी मिशाल थी जर्मनी की नैतिक जिम्मेदारी की विनम्र स्वीकारोक्ति की.
ब्रितानी हुकूमत का काल अर्वाचीन न सही, इतना प्राचीन भी नहीं है कि इसकी स्मृति भारतीय लोक मानस पटल से बिलकुल विलुप्त हो गयी हो! संयुक्त राष्ट्र संघ की जनगणना से सम्बंधित एक समिति के प्रतिवेदन में प्राप्त आंकड़े ये दर्शाते है कि हिन्दुस्तान में ८० वर्ष से अधिक वय के उन व्यक्तियों की संख्या साठ लाख है जिन्होंने विलायत की रानी के विध्वंस स्वरुप को अपनी बाल स्मृतियों में संजो कर रखा है. उनके बाद की पीढी की ५० से ६० की उम्र वाली उनकी जिन संततियों ने उनके मुंह से यह खौफनाक दास्तान सूनी है, यदि उनको भी जोड़ दिया जाय तो यह संख्या दस करोड़ के आसपास पहुँच जाती है जो स्वयं एक इंग्लैंड की आबादी के करीब है.
आज माकूल समय था जब इंग्लैंड के प्रधान मंत्री चंपारण की धरती पर जाते और सत्य और अहिंसा की इस पुण्यभूमि में सजदा कर सार्वजनिक क्षमा याचना करते अपने पूर्वजो के पातक कर्म का और अपनी आत्मा को पवित्र कर लौटते अपने देश को !  या  फिर दो बरस बाद ही सही, जालियांवाला बाग़ के रक्त रंजित रज का तिलक लगाकर उन शहीद हुतात्माओं की याद में दो मिनट के मौन से माफ़ी मांग लेते ! २०१३ में डेविड केमरून का कास्मेटिक कथन ' घोर शर्मनाक कुकृत्य ' और १९९७ में रानी एलिजाबेथ की औपचारिक यात्रा और दर्शक पुस्तिका पर उनका अनुष्ठानिक हस्ताक्षर पश्चाताप की प्रबल पीड़ा के सम्मुख ऊंट के मुंह में जीरा ही है. एक वृहत राष्ट्रीय सत्ता के रूप में वर्तमान ब्रितानी साम्राज्य उन क्रूर कारनामों के लिए अवश्य उत्तरदायी है जिनके विषैले दंशों से इसके अतीत के शासकों ने इस उपनिवेश को छलनी किया. और शायद इसी उत्तरदायित्व भाव से अनुप्राणित थे कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन टूड जब २०१६ में ' कामगार मारू' के मृत भारतीय अप्रवासियों के मामले में उन्होंने माफी माँगी. और नहीं तो कम से कम ब्रिटिश लेबर नेता जेरेमी कॉरवीन द्वारा सुझाए प्रायश्चित की प्रक्रिया को अमली जामा पहनाया जा सकता है. ब्रिटेन के विद्यालयों के पाठ्यक्रम में उपनिवेशों पर ब्रिटिश शासन के क्रूर कहर के इतिहास को शामिल किया जाय ताकि आज की अंगरेज़ पीढ़ी कम से कम अपनी आँखों में उन घटनाओं से कुछ पानी भर सके! कम से कम नैतिकता की भाव धरा पर ही सही थेम्स की धारा बह तो जाय !
थरूर अपने पुस्तक की प्रस्तावना में उन अभिजात भारत वंशियों का कान उमेठने से भी बाज नहीं आते जिन्होंने अंगरेजों के अत्याचार कर्म में उनके ताल से ताल मिलाकर अपने सहकार धर्म का पूरी स्वामी भक्ति से पालन किया.
विलायती प्रासाद के प्रसाद की छाया में पलने विचरने वाले भारतीय राज घराने अपनी शान ए शौकत के संरक्षण के एवज़ में शोषण तंत्र में शामिल हो गए. प्रथम विश्वयुद्ध में अपने राजकोष के पैसे से अंगरेजों का खजाना क्रिकेट कुमार राजा रंजित सिंह ने चापलूसी में इस बात की परवाह किये बिना भर दिया कि राज्य की जनता भयंकर दुर्भिक्ष में त्राहि त्राहि कर रही थी. और चाटुकारिता की पराकाष्ठा तो तब हो गयी जब ब्रिटिश विजयोल्लास की आतिशबाजी में उन्होंने जनता के एक महीने का राजस्व लुटा दिया !  नीरद सी चौधरी जैसे राजसी साहित्यकारों ने विलायत की बिरुदावली गाने में कोई कसर न छोड़ी. अंगरेजों के इस महा चारण ने भारत से राज के प्रस्थान पर शोक गीत तक गाया !

थरूर ने ब्रितानी प्रायश्चित की इस क्षतिपूर्ति प्रक्रिया में भारत के साथ साथ बांग्लादेश और पकिस्तान को भी साझेदार बनाकर एक अकाट्य सत्य का उद्भेदन किया है. आखिर औपनिवेशिक इतिहास के तो ये तीनो देश संयुक्त साझेदार हैं. और साथ साथ मेरी दृष्टि में यह भी विस्मृत नहीं होना चाहिए  कि आज़ादी की लड़ाई हमारी साझी विरासत है औए ये जयंती शतक भी हम तीनो का साझा त्यौहार है, चाहे वो चंपारण की सत्याग्रह शताब्दी हो . या जालियांवाला बाग़ की सौंवी बरखी ! ........ याद रखिये , "वह जो इतिहास को भूल जाते हैं इसे दुहराने को अभिशप्त हैं ( Those who forget the history are condemned to repeat it)"................! 
शुक्रिया, शशि थरूर ( Shashi Tharoor) ! सत्य के अन्वेषण के लिए !! यथार्थ के उदघाटन के लिए !!!

Wednesday, 12 April 2017

अर्पण

संग संग रंग मेरे मन का,
तनिक सा तुम भी भर लो ना//
भले ' भले' हो तुम तनहा में,
यादों में निमिष ठहर लो ना//

मन की महकी गलियों में,
बस दो पल हमें भी घर दो ना//
लो चंद मोती मेरी पलकों के,
मुस्कान अधर में भर लो ना//

मन उच्छल प्रिय हलचल पल पल,
तल विकल लहर ज्यों मचल मचल//
हिय गह्वर भर भाव भंवर,
आकुल नयन घन आर्द्र तरल//

अवसाद हर्ष के पार प्रिये,
पथ पावन तू मैं, पथिक सरल//
निःशब्द, मौन मैं स्थावर,
रहूं राह निहारे, अनथक अविरल//

हे हृदय हारिणी हंसिनी,
तू रासे विलास, हँसे मुक्त दंत//
गूंजे स्वर-अर्चन दिग दिगंत,
कण कण अर्पण हे पथ अनंत//

Tuesday, 4 April 2017

वशिष्ठजी : गणित की एक अबूझ पहेली!

आज अखबार में डा० बशिष्ठ नारायण सिंह के जन्मदिन की खबर पढ़कर नयन आर्द्र हो गए. बालपन में होनहार किरदारों के बारे में जो जानकारी मिलती है वह स्मृति पटल पर सदैव सजीव रहती है. उसमे कोई ऐसा व्यक्तित्व जो महानायक बनकर आपके दिलो दिमाग पर छा जाए, जिसकी अभ्यर्थना में आप अपनी निश्छल भावनाओं के समस्त प्रसून समर्पित कर दें और समय के प्रवाह में वही व्यक्तित्व कालसर्प के विषैले दंश का आखेट बन एक सामान्य सी जिन्दगी भी जीने को मुहताज हो जाय तो नियति की इस निष्ठुरता पर दृग जल का छलक  जाना अस्वाभाविक नहीं! बालपन की ड्योढ़ी पार कर  कैशोर्यावस्था के आलिंगन में समाने का ही तो समय होता है दसवीं पास करके ग्यारहवीं (तब इसे हम आई,एस,सी , यानी इंटरमीडिएट ऑफ़ साइंस कहते थे ) कक्षा में जाने का. ये वो वय होती है जब बड़े आपको बड़े नहीं मानते और छोटे आपको छोटे नहीं मानते. उम्र की ये त्रिशंकु अवस्था अदम्य ऊर्जा, जीवंत जीवट और जिज्ञासा का स्वर्ण काल होती है.जीवन मूल्यों के सही आकार लेने का काल होता है यह.  हमारा नामांकन पटना साइंस कॉलेज में हुआ था. कोआर्डिनेट ज्योमेट्री की कक्षा थी. ड़ा० डी पी वर्मा आये थे क्लास लेने. उन्हें अनुशासनहीनता का आभास हुआ. विद्वान् प्रोफेसर भावुक हो गए.
इस कथ्य को आगे बढाने से पहले आपको थोड़ा परिचय पटना साइंस कॉलेज का देना भी अपेक्षित होगा. १९२७ में पटना विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय के रूप में स्थापित पटना साइंस कॉलेज की नींव भारत के तत्कालीन वायसराय  लार्ड इरवीन ने  १५ नवम्बर १९२८ को डाली. यह महाविद्यालय अभी हाल के दशकों तक एक विश्व प्रसिद्द उत्कृष्ट विज्ञान संस्था के रूप में जाना जाता था, जहां बिहार के सुदूर गाँव की अनोखी प्रतिभाएं अपनी शैक्षणिक छवि तराशती थी. यहाँ आई एस सी में नामांकन हो जाना गौरव की बात मानी जाती थी.
असाधारण कोटि की प्रतिभा से संपन्न शिक्षकों की टोली स्नाकोत्तर से आई एस सी तक की कक्षाएं लेती थी. इसलिये छात्रों को अपनी प्रवेशिका स्तर के पठन पाठन विशेषकर विज्ञान की शिक्षा के शैशव काल में ही ऐसे कुशल शिक्षा शिल्पियों से तरासे जाने का सौभाग्य मिलता जो उन्हें समाज के भविष्य की अमूल्य धरोहर के रूप में गढ़ देता. फैराडे, कैवेंडिश, न्यूटन, रामानुजम औए सी वी रमण - ये पांच छात्रावास थे जो अपने अन्तेवासियों में अपने नाम के अनुरूप संस्कार गढ़ने का पर्यावरण सतत प्रस्तुत करते. मै  इंटर प्रथम वर्ष  (आज की ग्यारहवीं कक्षा) में रामानुजम भवन और द्वितीय वर्ष (बारहवीं कक्षा) में न्यूटन हाउस का अन्तेवासी था. न्यूटन हाउस में मै काशीजी के मेस में भोजन करता था. काशीजी बड़े चाव से छात्रों को उनके बेड के पूर्वज छात्रों की कहानी सुनाते. इस प्रक्रिया में जाने अनजाने संसकारों का संचरण पीढ़ी दर पीढ़ी होता रहता और प्रत्येक अन्तेवासी अपने बेड के गौरवशाली इतिहास की गरिमा बढाने की जुगत में सतत जुटा रहता. उस जमाने में कोचिंग संस्थानों की कुकुरमुत्ता संस्कृति का उद्भव नहीं हुआ था. शिक्षक और छात्रों की पारस्परिक प्रतिबद्धता अपनी पराकाष्ठा पर थी. प्रति वर्ष यह कॉलेज अकेले करीब  ६० से ७० छात्रों को देश के प्रतिष्ठित आई आई टी संस्थानों में भेजता.
अब हम इस संक्षिप्त परिचय के बाद उस घटना पर आते है जिसका हम जिक्र कर रहे थे. डी पी वर्मा गणित के उद्भट विद्वान् थे . उनके छोटे भाई, एच सी वर्मा, भी अभी नए नए फिजिक्स के लेक्चरर बने थे जो आजकल आई आई टी कानपुर में प्रोफेसर हैं तथा जिनकी फिजिक्स की पुस्तक पुरे देश के लडके आज कल पढ़ते हैं. तो, हमारे विद्वान् प्रोफेसर जैसे ही क्लास में थोड़े विलम्ब से पहुंचे उनकी नज़र ब्लैक बोर्ड पर पड़ी जिसपर किसी छात्र (वो छात्र भी आजकल आई आई टी कानपुर में प्रोफेसर है!) ने शरारत में उनके विलम्ब पर अपनी व्यग्र टिपण्णी दर्ज कर दी थी:- "This class will not take place due to sudden demise of our beloved coordinate teacher" अर्थात, 'कोआर्डिनेट ज्यामिति के हमारे प्रिय शिक्षक के आकस्मिक निधन के कारण यह कक्षा नहीं लगेगी.' और इससे पहले कि इस टिपण्णी को मिटाया जाता, प्राध्यापक महोदय का आकस्मिक आगमन हो गया ! सर अपनी आदत के अनुरूप हाथ में डस्टर उठा कर ब्लैक बोर्ड की ओर मुड़े और जडवत हो गए. सारे क्लास को तो मानो काठ मार गया.और फिर उनकी आहत भावनाओं की गंगा में वेदना की सरस्वती और करुणा की यमुना ने मिलकर जो त्रिवेणी धार बहायी वो छात्रो के नयनों को बहुत देर तक आप्लावित करती रही. रुंधे स्वर में कक्षा ने गुरु से क्षमा याचना की. गुरु के वात्सल्य का गौरव भी हिमालय की तरह उदात्त था. उसी 'एक दूसरे के आंसू पोछने' के भींगे माहौल में गुरु ने  छात्रों को उनकी विरासत की महिमा का भान दिलाने के क्रम में अपने पुराने छात्र वशिष्ठ की कहानी सुनायी और हम सभी छात्र पुरी तन्मयता से उस कथा गंगा में डूबकी लगाते रहे.
वशिष्ट नारायण सिंह ने अपने बैच में मैट्रिक की बोर्ड परीक्षा में प्रसिद्द नेतरहाट विद्यालय (मेरे अनुज यहाँ के छात्र रह चुके हैं) से  बिहार में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया था . जहां तक मुझे याद है , उनके  ८०३ अंको का कीर्तिमान १९७८ तक रहा था. प्रथम वर्ष में ही उनकी चमत्कारी प्रतिभा से शिक्षकों की आँखे चौधियाने लगी. नाथन-बासु-आइन्स्टीन  थ्योरी  की प्रसिद्धि वाले प्रसिद्द वैज्ञानिक  ड़ा० नागेन्द्र नाथन साइंस कॉलेज के प्राचार्य थे . देवकांत बरुआ बिहार के राज्यपाल और पटना विश्वविद्यालय के चांसलर थे. विशेष व्यवस्था के तहत वशिष्ठजी को इंटर प्रथम वर्ष में ही बी एस सी हौनर्स  की परीक्षा में बैठने की अनुमति दी गयी . प्रोफेसर वर्मा अपनी आँखों में एक अद्भुत चमक समेटे कक्षा में वशिष्ठजी के  व्यवहार का बखान कर रहे थे . वह छोटी छोटी गलतियों पर उग्र हो टोकाटाकी करते. गणित की किसी समस्या को सुलझाने का उनका अपना एक गैर पारंपरिक स्वतंत्र तरीका होता तथा वह समस्या के समाधान के लिए एक से अधिक रास्तों से एक साथ प्रयाण करते. उनकी सूझ विलक्षण होती तथा एक अलग प्रकार का नयापन होता.
 इस अर्जुन को एक द्रोणाचार्य प्रोफेसर केली के रूप में मिला जो इन्हें कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय ले गए. वहां 'साइकिल वेक्टर स्पेश थ्योरी' पर पीएचडी की और वाशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बने. नासा में काम करने का मौक़ा मिला. अमेरिका सरकार ने रोकने की कोशिश की तो भारत लौट आये. यहाँ आई आई टी कानपुर, , टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च और भारतीय सांख्यिकी संस्थान जैसे प्रसिद्द संस्थानों में काम किया. वशिष्ठ नारायण सिंह ने आंइस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धांत को चुनौती दी थी. उनके बारे में मशहूर है कि नासा में अपोलो की लांचिंग से पहले जब 31 कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए तो कंप्यूटर ठीक होने पर उनका और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन एक था. सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था. शादी भी वन्दना रानी के साथ हो गयी . लेकिन नियति की निष्ठुरता ने इस गणित नायक को धर दबोचा . वशिष्ठजी ' सिजोफ्रेनिया' के शिकार हो गए. उनका इलाज़ रांची में चल रहा था. १९८९ में बशिष्ठ्जी अचानक लापता हो गए. १९९३ में सारण के एक कस्बे, डोरीगंज,  में उन्हें भिखारियों के झुण्ड में पत्तल चाटते देखा गया, जहां से वापस घर लाया गया. इस कारुणिक प्रसंग को सुनकर हमें वाकई उनकी भाभी प्रभावतीजी  की बात कचोटती है कि:-
"हिंदुस्तान में मिनिस्टर का कुत्ता बीमार पड़ जाए तो डॉक्टरों की लाइन लग जाती है. लेकिन अब हमें इनके इलाज की नहीं किताबों की चिंता है. बाक़ी तो यह पागल खुद नहीं बने, समाज ने इन्हें पागल बना दिया."

वशिष्ठजी हाथ में पेंसिल लिए दीवारों में हलके से कुछ बुदबुदाते हुए लिखते नज़र आते. चिडचिडापन ने उनके स्वभाव में घर बना लिया था. २००४ मे मै प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली सरकार में ' मानव व्यवहार एवं सम्बद्ध विज्ञान संस्थान' में अधिशासी अभियंता के पद पर पदस्थापित हुआ था. पता चला कि एक साल पहले तक वह वहां इलाज़ के लिए भर्ती थे. मै उस वार्ड की कक्षा में जाता और अपने आदर्श नायक की याद में कुछ नम पल बिताता. उनकी सेवा मे लगे वार्ड बॉयज से उनकी हरकतों के बारे में कुतूहल से सुनता.. लेकिन उनको समीप से दर्शन करने की बलवती इच्छा फलवती हुई कुछ तीन एक साल पहले पटना के रविन्द्र रंगशाला में आयोजित विश्व भोजपुरी सम्मलेन में, जहां उनको सम्मानित करने के लिए बुलाया गया था. साथ में मालिनी अवस्थी, भरत व्यास, मनोज तिवारी  और अन्य लोग भी थे . पिछली पंक्ति में मेरे महानायक एक अबूझ  पहेली से अपने भाई के साथ निर्भाव रूप से खड़े थे. बिखरे बाल, चिथड़ी दाढ़ी,, क्लांत, बुझे बुझे, खोये खोये ! किन्तु, चहरे पर तैरती एक रहस्मय दार्शनिकता , मानो इस ब्रह्मांड में छिपे किसी गुह्यातगुह्यतम  आख्यान का मौन संधान कर रहे हों ! गणित की एक अबूझ पहेली !  मैं मंत्रमुग्ध ,हतशून्य निगाहों से उन्हें निहारे जा रहा था और मेरे कानों में अपने भाव विह्वल  प्रोफेसर वर्मा की आर्द्र वाणी फिर से गूंजने लगी थी............!     

Sunday, 2 April 2017

सृजन के फूल

मैं चिर प्रणय की प्रात लाली/
तू छलना निर्वात आली//
मैं पुष्प प्रीत पराग वेणु/
स्वाति सुधा संग सीप रेणु//

मैं चमकता स्वर्ण शबनम/
दूध सी तू रजत पूनम//
ब्रह्माण्ड के आकाश में/
तू रासे विश्व लास में//   

प्रणय विजय में तुम्हारी/
प्रीत का पय पान कर//
प्रेम तरल अधर रस से/
अमर जल को छानकर//

घोल हिय के पीव अपना/
पान करता थारकर//
तू हार जाती जीतकर/
मैं जीत जाता हारकर!//

जब सहज यह प्रकृति /
अंतर्द्वंद्व है किस बात का//
भाव अभाव, सत असत/
जीव-ब्रह्म, असमानता //


 भावों की असमानता से/
 बीज रचना के बटोरूँ //
 आंसू के फिर नयन घट में /
उर्वरक वो प्रीत घोरुं //

मै समर्पित, मौन प्रिये /
 विरह विगलित गरल पीलें//
चल न मन एकांत में तू/
 जहां सृजन के फूल खिले//