(आज प्रेमचंद जयंती पर लेखनी के धनी धनपत राय को याद करते हुए)
ताप उदर का जब लहके,
मन की पीड़ा सह-सह के।
ज्वार विचार का उठता है,
शब्द-शब्द वह गहता है।
शोषण, दमन व अत्याचार के,
दंभ, आडंबर, कुविचार के।
दुर्ग दलन वह करता है,
धर्म धीर का धरता है।
करुणा का कातर कतरा,
कुछ अनकहा-सा कहता है।
ऊष्मा से आहत अंतस के,
तप्त तरल-सा बहता है।
स्व की कुक्षी से बाहर आ,
अखिल अलख जगाता है।
तब रचना का प्रथम बीज,
मन-मरू में अंकुराता है।
भोग-विलास, धन कांटे जो,
बालुकूट में पलते हैं।
तप्त धरा पड़ते पावों के,
छालों को भी छलते हैं।
तभी वेदना की वीथी से,
जज़्बात का ज़मज़म जगता है।
डरे ईमान न कभी बिगाड़ से,
पंच परमेश्वर पगता है।
पांचजन्य के क्रांति नाद में,
विषमता खो जाती है।
धन्य-धन्य 'धनपत' की लेखनी
लहालोट हो जाती है।