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Sunday, 31 July 2022

धनपत

 (आज प्रेमचंद जयंती पर लेखनी के धनी धनपत राय को याद करते हुए)


ताप उदर का जब लहके,

मन की पीड़ा सह-सह के।

ज्वार विचार का उठता है,

शब्द-शब्द वह गहता है।


शोषण, दमन व अत्याचार के,

दंभ, आडंबर,  कुविचार के।

दुर्ग दलन वह करता है,

धर्म धीर का धरता है।



करुणा का कातर कतरा,

कुछ अनकहा-सा कहता है।

ऊष्मा से आहत अंतस के,

तप्त तरल-सा बहता है।


स्व की कुक्षी से बाहर आ,

अखिल अलख जगाता है।

तब रचना का प्रथम बीज,

मन-मरू में अंकुराता है।


भोग-विलास, धन कांटे जो,

बालुकूट में पलते हैं।

तप्त धरा पड़ते पावों के,

छालों को भी छलते हैं।


तभी वेदना की वीथी से,

जज़्बात का ज़मज़म जगता है।

डरे ईमान न कभी बिगाड़ से,

पंच परमेश्वर पगता है।


पांचजन्य के क्रांति नाद में,

विषमता खो जाती है।

धन्य-धन्य 'धनपत' की लेखनी

लहालोट हो जाती है।