Thursday 24 October 2019

असंवेदनशील 'महात्मा' बनाम संवेदनशील 'दुरात्मा'




भारत माँ के उस महान सपूत का शव रखा हुआ था ।   सबकुछ खपाकर उसने  बची अब अपनी अंतिम साँस भी छोड़ दी थी ।   कुछ दिन पहले ही वह साबरमती से लौटे थे ।   गाँधी से पूछा था, 'महात्माजी, अब कबले मिली आज़ादी?' महात्मा जी निरुत्तर थे ।   'बोलीं न, महात्माजी! गुम काहे बानी? हमरा तकदीर में आज़ाद हिन्दुस्तान देखे के लिखल बा कि ना!' मुंह की आवाज के साथ- साथ आँखों से लोर भी ढुलक आया शुकुलजी के गाल पर ।   उनके माथे को अपनी गोद में थाम लिया था कस्तूरबा ने ।   शरीर ज्वर से तप रहा था ।   शुकुल जी तन्द्रिल अवस्था में आ गये थे ।   आँख के आगे काली-काली झाइयों में तितर-बितर दृश्यों के सफ़ेद सूत तैर रहे थे..............................''भितिहरवा आश्रम  की झोंपड़ी में क्रूर अंग्रेज जमींदार एमन ने आग लगवा दी थी ।   कस्तूरबा ईंट ढो रही हैं उनके साथ!'' .......................... दो दिन तक बा ने उनकी तीमारदारी की ।   अर्द्ध-स्वस्थ-से शुकुलजी वापस लौट गए ।   मोतिहारी आते-आते तबियत खराब हो गयी ।   रेलवे स्टेशन से सीधे केडिया धर्मशाला पहुंचे ।   उसी कमरे का ताला खुलवाया जिसमें उनके महात्माजी ठहरा करते थे ।   रात में जो सोये सो सोये ही रह गए ।   कालनिद्रा ने अपने आगोश में उन्हें समा लिया था ।   सुबह शुकुलजी जगे ही नहीं, हमेशा के लिए! लोगों की भीड़ जमा हो गयी ।   चन्दा किया गया अंतिम संस्कार के लिए ।   रामबाबू के बगीचा में चंदे के पैसों से गाँधी के इस चाणक्य का अंतिम संस्कार स्थानीय लोगों ने किया । 
उनके पुश्तैनी गाँव, सतवरिया, में  उनका श्राद्ध कर्म आयोजित हुआ ।   ब्रजकिशोर बाबू, राजेन्द्र बाबू औए मुल्क तथा इलाके के बड़े-बड़े नेता पहुंचे हुए थे ।   थोड़ी ही देर में बेलवा कोठी के उस अत्याचारी अँगरेज़ ज़मींदार एमन का एक गुमश्ता वहाँ पहुंचा तीन सौ रूपये लेकर ।   'साहब ने भेजे हैं सराद के खरचा के लिए ।' उसने बताया ।    राजेंद्र बाबु का माथा चकरा गया ।   ''अत्याचारी एमन! जिंदगी भर इससे लोहा लेते रहे राजकुमार शुक्ल ।   चंपारण सत्याग्रह की पृष्ठभूमि ही थी इन दोनों की लड़ाई! मोहनदास को महात्मा बनाने का निमित्त! शुक्लजी ने एमन की आत्याचारी दास्तानों को पूरी दुनिया के सामने बेपरदा कर दिया और उसकी ज़मींदारी के महल को ढाहकर पूरी तरह ज़मींदोज़ कर दिया..........................भला, उसी एमन ने तीन सौ रूपये भेजे हैं, शुक्लजी के श्राद्ध के खर्च के निमित्त!''  खबर घर के अन्दर शुकुलजी की पत्नी, केवला कुंवर, के कानों में पिघलते गर्म लोहे की तरह पड़ी ।   वह आग बबूला हो गयी ।   उनकी वेदना उनके विलाप में बहने लगी ।   उन्होंने पैसे लेने से मना कर दिया ।   
 इसी बीच एमन स्वयं वहाँ पहुँच गया ।   वह गहरे सदमे की मुद्रा में था ।   उसने शुकुलजी के दामाद, सरयुग राय भट्ट जी से विनम्र याचना की ।   उसे शुकुलजी की पतली माली हालत की जानकारी थी कि किस तरह इस स्वतन्त्रता सेनानी ने उससे लड़ाई में अपना सब कुछ गँवा दिया था ।   उसने सरयुग राय जी को काफी समझाया-बुझाया और फिर एक सिफारशी पत्र मोतिहारी के एस पी के नाम लिखकर दिया । 
 यह दृश्य देख पहले से चकराए माथे वाले राजेन्द्र बाबू की आँखे अब चौधियाँ गयी ।   उनकी जुबान लड़खड़ाई, 'अरे आप!............आप तो शुकुलजी के जानी दुश्मन ठहरे! पूरी दुनिया के सामने आपके घुटने टेकवा दिए थे उन्होंने! अब तो  उनके जाने पर आपको तसल्ली मिल गयी होगी ।'
'चंपारण का अकेला मर्द था, वह!' काँपते स्वर में एमन बोला, 'पच्चीस से अधिक वर्षों तक वह अकेला अपने दम पर मुझे टक्कर देता रहा ।   वह अपनी राह चलता रहा और मैं अपनी राह! विचारों का संघर्ष था हमारा! शहीद हो गया वह! अब तो मेरे जीने का भी कोई बहाना शेष न रहा!' उसकी आँखों से आंसुओं का अविरल प्रवाह हो रहा था । 
बड़ी भारी मन से वह अंग्रेज एमन अपने घर लौटा ।   शुकुल जी के दामाद को पुलिस में उस सिफारशी पत्र से सहायक अवर निरीक्षक (जमादार) की नौकरी मिल गयी ।   और, करीब तीन महीने बाद एमन ने भी अंतिम साँस ले ली । 

गाँधी की जयंती के एक सौ पचासवें वर्ष में इस कहानी को नवयुग के सोशल साईट पर पढ़ते-पढ़ते उस जिज्ञासु और अन्वेषी साइबर-पाठक की भी आँखें गीली होने लगी थी ।   अब उसकी अन्वेषी आँखें इतिहास के पन्नों को खंगालकर राजकुमार शुक्ल की लाश के इर्द-गिर्द गाँधी की आकृति ढूढ़ रही थी अपने चाणक्य को श्रद्धा सुमन चढाने की मुद्रा में! किन्तु, शुकुलजी के 'अग्नि-स्नान से श्राद्ध' तक गाँधी की छवि तो दूर, उस महात्मा की ओर से संवेदना के दो लफ्ज़ भी उस दिवंगत के प्रति उसे नहीं सुनाई दे रहे थे ।   वह अवाक था "'महात्मा' की इस संवेदनहीनता पर या फिर 'इतिहासकारों की कुटिलता' पर जिन्होंने उस 'महात्मा' की संवेदना वाणी को लुप्त कर दिया था!"  हाँ, उलटे उस 'दुरात्मा' अँगरेज़ एमन की छवि में उसे सत्य और अहिंसा की संवेदना के दर्शन अवश्य हो रहे थे । इतिहासकारों की इस चूक से वह 'दुरात्मा' संवेदनशील छवि उस 'महात्मा' असंवेदनशील बुत को तोपती नज़र आ रही थी ।