Sunday 28 August 2022

छंदहीन कविता

 शब्द-भँवर  में मन भर भटका,

पर भाषा को भाव न भाया।

अक्षर टेढ़े-मेढे सज गए,

वाक्य विवश! विन्यास न पाया।


भाव भी भारी, अंतर्मुख हैं,

बाहर भी  वे निकल न पाते।

लटके-अटके गले में रहते,

वापस उनको निगल न पाते।


मूक है वाणी, मौन मुख पर,

होठ का थरथर छाता है।

मन के उन गुमसुम नगमों का,

नयन कोश से नाता है।


दिल की बातें दरिया बनकर,

दृग-द्वार से दहती हैं।

जीवन के उत्थान-पतन के

भाव गहन वह गहती हैं।


मौन नाद में लोचन जल के

भावनाओं की भविता है।

ताल, तुक, लय, भास मुक्त

 छंद हीन यह कविता है।








Monday 22 August 2022

कुदरत का खेल

 नीर निधि को नहीं पता,

अंदर ज्वाला जलती है।

बेखबर, अंतस आतप,

जलधि लहर उछलती है।


उच्छल-लहरी, ललना अल्हड़,

श्रृंग उछाह पर चढ़ती है।

लीलने ग्रास यौवन में अपने,

तट सैकत को बढ़ती है।


अभिसार-अभिशप्त बावली,

तीर से फिर न फिरती है।

निस्तेज, निष्प्राण, स्खलित,

गहन गर्त में गिरती है।


तट पर बिछ जाती हिलोर को,

रेत भी मन भर पीता है।

लहर-विरह की अश्रुधार में,

डूब समंदर जीता है।


आना-जाना, गिरना-उठना,

सागर की आकुल तरुणाई।

भीतर भड़की बाड़वाग्नि,

बाहर उर्मि अंगड़ाई।


पल-पल इस लीला में लिपटा,

ना घटता, ना बढ़ता है।

बस खोने-पाने का अब्धि,

स्वांग-दृश्य वह रचता है।


उत्थान-पतन, हँसना-रोना,

एहसास नजर का धोखा है।

'होने' के,  'न होने' का 'होना',

कुदरत का खेल अनोखा है।




Tuesday 9 August 2022

प्रणव ॐ कार!

जटा जाह्नवी खाती बल है।

नंदीश्वर नीरज, निर्मल हैं।।


विषधर कंठ बने माला हैं।

ग्रीवा गिरीश गरल हाला है।।


विरुपाक्ष, तवस, हंत्र, हर।

विश्व, मृदा, पुष्पलोकन, पुष्कर।।


भक्त पुकारे मन डोले हैं।

अनिरुद्ध, अभदन, भोले हैं।।


ॐ कार की उमा काया हैं।

कल्पवृक्ष उनकी छाया हैं।।


पार कराते सागर भव से।

होते शिव, शक्ति बिन, शव-से।।


भाषा भुवनेश, भाव भवानी।

अर्द्धनारीश्वर औघड़ दानी।।


सती श्रद्धा, विश्वास हैं अंतक।

अर्हत, अत्रि, अनघ, परंतप।।


पशुपति की परा शक्ति है।

चित शक्ति प्रकट होती है।।


चित आनंद, आनंद से इच्छा।

इच्छा, प्रत्यक्ष ज्ञान की शिक्षा।।


चित से नाद, आनंद से बिंदु, इच्छा शक्ति बने ' म ' कार।

ज्ञान से ' उ ' , क्रिया से ' अ ', प्रादुर्भुत प्रणव कार।।