Thursday 26 November 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१४)


(भाग - १३ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ट)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


भारत में वैदिक धर्म के प्रसार की प्रकृति 

अब तक यह स्पष्ट हो चुका है कि भारोपीय भाषा परिवार का उद्गम स्थल भारत ही था और यहीं से वे सारी भाषाएँ उत्प्रवासित होकर बाहर की ओर गयीं। कहीं से भी कोई आर्य-आक्रमण नहीं हुआ। सिंधु-सरस्वती घाटी का हड़प्पा-क्षेत्र ही सभ्यता के शैशव काल का  वह भू-भाग  था,  जहाँ से शेष ग्यारह भाषायी शाखाओं ( इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक, स्लावी, अल्बेनियायी, ग्रीक, अनाटोलियन, अर्मेनियायी, टोकारियन और ईरानी) को बोलने वाले लोग पश्चिम की ओर चले गए। 

अब कुछ यक्ष प्रश्न हमारे समक्ष उठ खड़े होते हैं। पश्चिमी उत्तरप्रदेश और हरियाणा में उपजी वैदिक संस्कृति, धर्म और भाषा यदि पश्चिम की ओर फैलकर अफ़ग़ानिस्तान तक पहुँच गयी तो फिर पूरब की ओर पसरने वाली संस्कृति की प्रकृति क्या थी? जैसा कि दोनों अवधारणाओं (हमलावर आर्यों का बाहर से आना और स्थानीय आर्यों का बाहर की ओर उत्प्रवासन) के पैरोकार फ़रमाते हैं कि हमारी शास्त्रीय और पारम्परिक भारतीय/हिंदू सभ्यता का उद्भव भी वैदिक संस्कृति की कोख से ही हुआ है? क्या आधुनिक भारतीय-आर्य भाषाओं की धाराएँ भी पुरुओं की वैदिक भाषा से ही निकली हैं? क्या भारतीय धर्म के मूलभूत तत्व ऋग्वेद के बाद रचे गए ग्रंथों (अथर्ववेद, उपनिषद, पुराण एवं अन्य महाकाव्यों) में पाए जाते हैं? क्या धर्म, दर्शन और संस्कृति की दिशा में बाद में हुए परिवर्धन के बीज भी वैदिक संस्कृति में ही मिलते हैं? इन तमाम बिंदुओं पर सांगोपांग विश्लेषण कर एक सही समझ विकसित करने की आवश्यकता है।  

भाषा  

भारोपीय भाषाओं की ग्यारह शाखाएँ अणु और दृहयु जनजाति की भाषाओं से पनपी हैं। ये जनजातियाँ पुरु जनजाति के पश्चिम में रहती थीं। पुरु जनजाति की भाषा वैदिक भाषा थी। भारत से बाहर की इन अर्वाचीन ग्यारह शाखाओं और भारत-भूमि के अंदर की बारहवीं वैदिक शाखा की तुलना पर ही तमाम भारोपीय मिसाल टिकी हुई है। 

तथापि, आज की भारतीय-आर्य भाषाएँ जो उत्तर भारत में बोली जाती हैं उनका उद्गम पुरुओं की वैदिक भाषा न होकर अन्य भारोपीय भाषाएँ हैं जो पुरुओं के पूरब और दक्षिण में बसी इक्ष्वाकु, यदु, तुर्वसु और अन्य जनजातियों के द्वारा बोली जाती थीं। इसका साक्ष्य हमें ढेर सारे भाषायी कारकों में मिलता है :

– पूर्वी भारत की प्राकृत भाषा और भारतीय-आर्य बोलियों में ‘र’ और ‘ल’ के भेद का क़ायम रहना। यह तकनीकी रूप से भारतीय-ईरानी भाषा से भी पहले की अवस्था का लक्षण है, क्योंकि बाद के ऋग्वेद, ईरानी और मिती ग्रंथ यह दर्शाते हैं कि भारतीय-ईरानी भाषा ने ‘र’ और ‘ल’ का आपस में विलय कर उसे ‘र’ में आत्मसात कर लिया था।

– उत्तराखंड की पहाड़ियों में अलग-थलग पड़ी बाँगनी भाषा में केंटुम भाषा के लक्षण पाए जाते हैं। बताते चलें कि भारोपीय भाषाओं के वर्गीकरण में केंटुम परिवार (इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, ग्रीक और टोकारियन) और सैटेम परिवार (बाल्टिक, स्लावी, ईरानी और भारतीय-आर्य) प्रमुख परिवार हैं।

– कुछ ऐसे प्राचीन शब्द हैं जो सिंहली भाषा में तो संरक्षित पाए जाते हैं, किंतु वैदिक या संस्कृत में वे नहीं मिलते। जैसे – ‘वटुर’ (अंग्रेज़ी और हित्ती, दोनों में ‘वाटर’)

– पूर्वी और दक्षिणी प्राकृत भाषाओं में कुछ ऐसे अति प्राचीन शाब्दिक लक्षण पाए जाते हैं जो आश्चर्यजनक रूप से संस्कृत और ईरानी भाषाओं में नदारद हैं। भारतीय आर्य भाषाओं को तीन विभागों में बाँटा जा सकता है – प्राचीन भारतीय-आर्य, मध्यकालीन भारतीय-आर्य और अर्वाचीन भारतीय-आर्य। प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय-आर्य भाषाओं की लाक्षणिक भिन्नताओं का अध्ययन करने के उपरांत के आर नौरमन ने मध्यकालीन बोलियों में अनेक शब्द-रूपों की पहचान की। ये सारे रूप भारतीय आर्य या यहाँ तक कि भारोपीय स्त्रोत से संबंध तो रखते थे लेकिन संस्कृत में इनका कोई समतुल्य शब्द नहीं मिला। उदाहरण के तौर पर संस्कृत में उपसर्गों का प्रयोग बिरले ही होता है। कुछ ऐसे शब्द भी मिले जिनका उद्भव संस्कृत के मूल से अलग था, लेकिन उन्हें मध्यकालीन अन्वेषण या खोज भी नहीं माना जा सकता है क्योंकि या तो वे मध्यकाल से भी पहले के ध्वन्यात्मक विकास से अपने निर्माण की अवस्था को इंगित करते हैं या फिर संस्कृत से इतर  अन्य भारोपीय भाषाओं में ही उनके समतुल्य मिलते हैं। (नौरमन १९९५:२८२)

प्राकृत भाषा के वैयाकरणों ने प्राकृत भाषा, अर्वाचीन भारतीय-आर्य भाषा और यहाँ तक कि समृद्ध संस्कृत-शब्दकोशों में भी ऐसे ढेरों शब्दों की पड़ताल की है जो पूरी तरह से देशज हैं और वे तत्सम तथा तद्भव शब्दों से सर्वथा भिन्न हैं। तत्सम शब्द वे शब्द हैं जो सीधे वैदिक भाषा या संस्कृत से लिए गए हैं जबकि तत्सम शब्दों से बने देशी शब्द तद्भव कहलाते हैं। भाषा के जानकारों और भारतविदों ने भरसक कोशिश की है कि वे इस बात का कोई पुख़्ता सबूत ढूँढ सके कि ये शब्द औस्ट्रिक या द्रविण भाषा परिवारों से लिए गए हैं, किंतु उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। हार-पाछ कर उन्होंने एक परिकल्पना गढ़ ली कि ये शब्द अनार्य और अज्ञात मूल के हैं और उत्तर भारत में आर्यों के आक्रमण से पूर्व किसी अज्ञात अनार्य जनजाति की भाषा से लिए गए हों। ध्यातव्य है कि ये सारे शब्द अर्वाचीन भारतीय-आर्य भाषा के अति प्रचलित शब्द हैं। दृष्टांत के तौर पर इन ‘नए’ शब्दों की एक बानगी देखिए – घोटक (घोड़ा), कुक्कुर (कुत्ता), प्रस्तर (पत्थर), पानी (जल) आदि। इनके लिए वैदिक संस्कृत में प्रयुक्त शब्द क्रमशः अश्व, श्वान, अश्म और ऊद या आप हैं।

ये शब्द किंचित अनार्य नहीं हैं, बल्कि  वैदिक पुरुओं से पूरब और दक्षिण के क्षेत्र के अंदरूनी भागों में बोली जाने वाली भीतरी भारोपीय भाषाओं के ये शब्द हैं। जैसा कि नौरमन ने ऊपर संकेत भी किया है कि इनमें से कुछ शब्दों के समतुल्य संस्कृत छोड़कर अन्य भारोपीय भाषाओं में पाए जाते हैं, लेकिन यह सभी शब्दों और सभी भारोपीय भाषाओं के लिए भी  सच नहीं है। इसका कारण यह है कि भले ही वे भारोपीय शब्द हों, लेकिन उनकी उत्पति का मूल पूरब में भीतरी भारोपीय भाषाओं को बोलने वाली  इक्ष्वाकु, यदु, तुर्वसु आदि जनजातियों की बोली में है, न कि पश्चिम और उत्तर के बाशिंदे उन दृहयु, अणु, पुरु आदि जैसी जनजातियों की उस भाषा से है जिस भाषा की संतति के रूप में बारह भाषा-परिवारों की अवधारणा गढ़ ली गयी है और उन्ही बारह शाखाओं के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर प्राक-भारोपीय भाषा की संरचना को नया रुप दिया गया है। ऋग्वेद के बाद के काल में ये शब्द संस्कृत भाषा में प्रवेश कर गए। ऋग्वेद के रचना-काल के अंतिम चरण में ‘रात्रि’ जैसे पूर्वी भारोपीय शब्दों का वैदिक भाषा में प्रवेश करना एक उदाहरण है। सही बात तो यह है कि कुछ विरले द्रविण शब्द भी इस काल में वैदिक संस्कृत में प्रवेश कर गए। उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद के दसवें मंडल में १५५वें सूक्त की पहली ऋचा (१०/१५५/१) में एक आँख या तिरछी आँख वाले कनडेर या भेंगे व्यक्ति के लिए ‘काना’ शब्द का प्रयोग हुआ है जिसकी उत्पति का मूल द्रविण शब्द ‘कन्न’ (आँख) है। उसी तरह ऋग्वेद के ८/१७/१२ में ‘पूज’ शब्द का भी मूल द्रविण शब्द ‘पू’ (फूल) है। यह वैदिक और द्रविण लोगों के बीच के परस्पर-आचार की प्रगाढ़ता को प्रदर्शित करता है। बाद के दिनों में भीतरी क्षेत्रों के भारोपीय शब्दों सहित द्रविण और औस्ट्रिक परिवार के प्रचुर शब्दों का वैदिक और भारतीय संस्कृत-शब्दकोश में प्रवेश हुआ। जैसे – हेरंब (भैंस) का द्रविण मूल ‘एरम’। 

यहाँ तक कि ‘आर्य-आक्रमण अवधारणा’ के प्रबल समर्थक और महान भाषाशास्त्री श्री एस के चटर्जी भी यही लिखते हैं कि “मध्यकालीन और अर्वाचीन भारतीय-आर्य भाषाओं का उद्गम ऋग्वेद और शास्त्रीय संस्कृत कदापि नहीं है।“ (चटर्जी १९२६:३६)

……….पूरब की पट्टी में बसे ये आर्य बीचवाले भूखंड के वैदिक आर्यों से कई मामलों में सर्वथा भिन्न हैं – धार्मिक रीति-रिवाजों में, लोकाचारों में, बोलियों में” (चटर्जी १९२६:४०)।

………. ये आर्य पश्चिम के उन आर्यों से जिनके यहाँ वैदिक संस्कृति फली-फूली अपने धर्म और अपनी परम्पराओं में बिल्कुल  अलग थे“ (चटर्जी १९२६:४५)।

अपनी पहली पुस्तक में यह बात श्री तलगेरी ने  पहले भी रखी है कि भारतीय-यूरोपीय अर्थात भारोपीय भाषाओं का सबसे पुराना रूप जिसे आप प्राक-प्राक-भारोपीय भाषा कह सकते हैं, सबसे पहले भारत के अंदरूनी और बहुत भीतरी हिस्सों में बोला गया जहाँ से यह उत्तर और पश्चिम की ओर फैलते हुए कश्मीर और अफ़ग़ानिस्तान तक पहुँचा (तलगेरी १९९३:२२९)।  यह  भाषा अभिवर्द्धित  होकर भिन्न-भिन्न बोलियों और भाषाओं में विकसित हो गयी और सबसे बाहरी किनारों में बसे दृहयु और अणु जनजातियों की यही विकसित बोली भारत से बाहर यूरोप, पश्चिमी एशिया, और तुर्कीस्तान  में फैल गयी।  अर्वाचीन भारतीय-आर्य-भाषाएँ ऋग्वेद या पुरु की बोलियों की संतति न होकर उन इक्ष्वाकु, यदु और तुर्वसु जनजातियों की अन्य समकालीन ऋगवैदिक बोलियों से निष्पन्न धाराएँ हैं। इनका संबंध भीतरी भारोपीय भाषाओं से था। वैदिक बोलियों ने वैदिक साहित्य को ढोया जिसने आगे चलकर ऋग्वेद को जन्म दिया। शीघ्र ही आगे चलकर प्राचीन भारतीय व्याकरण-शास्त्रियों ने शास्त्रीय संस्कृत की रचना की। पाणिनि ने अपने अष्टाध्यायी में अपने से पहले के भी सैकड़ों अन्य आचार्यों की उपस्थिति का संकेत किया है। भीतरी भागों की बोलियों का उनके समकालीन अन्य भाषाओं जिसमें द्रविण भी शामिल है के साथ उत्तरोत्तर पल्लवन, परिष्करण और क्रमिक विकास की प्रक्रिया सहस्त्रों वर्ष तक चलती रही। इन भाषाओं के जड़ और धड़ बिल्कुल स्वतंत्र थे और संरचनात्मक स्तर पर भी ये वैदिक संस्कृत से सर्वथा पृथक थे। इन भाषाओं और वैदिक संस्कृत के मध्य वैयाकरणों द्वारा निर्मित कृत्रिम और शास्त्रीय संस्कृत ने एक संयोजक आवरण का कार्य किया। अनंतर, प्राकृत भाषा जो फिर भीतरी बोलियों के प्रभाव-पाश में बंधी थी प्रचलन में आ गयी। विकास की इस क्रमिक अवस्था को पार कर भीतरी बोलियाँ शनै:-शनै: अर्वाचीन भारतीय आर्य भाषाओं के भिन्न -भिन्न रूपों में अपने स्वतंत्र अस्तित्व में आ गयीं। इस प्रक्रिया में द्रविण सहित इन सभी भाषाओं का बड़े पैमाने पर संस्कृतकरण  हो गया। हज़ारों वर्ष पहले से आज तक यह भाषायी यात्रा निरंतर जारी है और जिन अनेकानेक रूपों में इन्होंने एक दूसरे को प्रभावित किया है और आज भी प्रभावित किए और होते जा रही हैं, वह एक इतनी जटिल और अस्पष्ट प्रक्रिया है कि उसकी विवेचना करना एक टेढ़ी खीर है (तलगेरी १९९३:२३०)। 

 धर्म और संस्कृति  

दुनिया के शेष हिस्सों की तरह भारत में भी धर्म एक जनजातीय मामला था। दुनिया की अन्य बसावटों की भाँति भारत के भी भिन्न-भिन्न खंडों में बसे जनजातीय समूह अलग-अलग जनजातीय धर्मों के अनुयायी थे। समकालीन विश्व के सामाजिक जीवन में हो रही प्रगति की लय  में ही भारत में भी सुसंगठित और नागरीय सभ्यता का विकास होने लगा। इस विकास ने धार्मिक क्षेत्र में भी एक संगठित संरचना को उद्भूत किया जिसके विस्तार की भौगोलिक सीमा पश्चिम और पश्चिमोत्तर की ओर पसरती हुए पश्चिमी उत्तर-प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब को पार कर आज के पाकिस्तान के ऊपरी किनारे तक को छू आयी। इन क्षेत्रों में अनेक जनजातियों का निवास था, जिन्हें भारत के पौराणिक इतिहास में दृहयु, अणु और पुरु के नाम से जाना जाता है।

इस क्षेत्र में पल्लवित-विकसित होने वाले धर्मों का मुख्य ज़ोर प्रकृति के शक्ति-रूप तत्वों यथा- सूर्य, चंद्रमा, मेघ, वर्षा, अंतरिक्ष, नदी आदि की अभ्यर्थना करना था। प्रकृति में स्थित उन ब्रह्मांडीय और खगोलीय बिम्ब, जिनमें वे इन शक्ति रूप तत्वों के मूर्त रूप का दर्शन करते थे उन्हें अग्नि को साक्षी बना पवित्र ऋचाओं के उद्घोष के साथ अर्पण करते थे। धर्म के इस स्वरूप के दर्शन हमें पुरुओं के ग्रंथ, ऋग्वेद, अफ़ग़ानिस्तान के पश्चिम की ओर बढ़ गए अणुओं के धर्मग्रंथ, जेंद-अवेस्ता, और सेल्टिक ड्रूयड (दृहयु जनजाति के यूरोपीय उत्प्रवासी) के प्राचीन यूरोपीय पुजारियों की पूजा-पद्धति में होते हैं। लिथुयानिया के एक ख़ास वर्ग ने तो अपने प्राचीन  धर्म को पुनर्जीवित कर  लिया है जिसे ‘डर्न’ कहते हैं। सच कहें तो इस ‘डर्न’ में भी वे दो मूल तत्व अग्नि और मंत्रोच्चार शामिल हैं। वेद के प्रकृति-पुराण से उद्भूत और विकसित इस तरह की पौराणिक परम्पराएँ और धार्मिक लोकाचार अन्य यूरोपीय धर्मों (ग्रीक, ट्यूटोनिक, स्लावी, लिथुयानियन आदि) में भी मिलते हैं।

भारत से अणु और दृहयु जनजाति के बाहर चले जाने के बाद पुरुओं के धर्म का विस्तार वैदिक संस्कृति के साथ समूचे देश में हुआ। इसका मुख्य कारण इस धर्म का पौरिहत्य, मंत्रोच्चार, पूजा-पद्धति और परम्पराओं के स्तर पर एक सुव्यवस्थित, सुगठित और अत्यंत सुदृढ़ संरचना का होना था। इस धर्म का प्रभाव धीरे-धीरे इतना व्यापक होने लगा कि भारत भूमि की  शेष जनजातियों के धर्म भी अपने आपको उसमें समाहित करने लगे और पुरुओं का वैदिक धर्म एक  प्रमुख मुख्यधारा का धर्म बन गया जिसके लोकाचार, धार्मिक परम्पराएँ, पूजा-पद्धति, रीति-रिवाज और पौराणिक कथायें  सामाजिक व्यवस्था की सबसे ऊपरी परत बनकर छा गयीं और नीचे की परत वाले अन्य धर्म उसकी छाया में आ गये। इस तरह पुरुओं के वैदिक धर्म का वितान फैलकर समूचे भारत पर छा गया। इसमें कोई विवाद नहीं कि इस अखिल भारतीय वितान वाले धर्म को ही ‘हिंदू’ कहा गया किंतु, ऐसा कब से कहा जाने लगा, यह विवाद और भ्रम में लिपटा हुआ है।

हिंदू धर्म के भारत में प्रसार और अब्राहम के रिलीजन के समूचे संसार में विस्तार में एक बड़ा भारी अंतर था।  जिन धर्मों को अब्राहमी रिलीजन तहस-नहस और उनका मुलोच्छेद कर उसकी जगह पर अपने को स्थानापन्न करना चाहते थे, सबसे पहले उनके देवी-देवताओं को वे दैत्य और उनके धार्मिक लोकाचार को आसुरी आचरण घोषित करते थे। दूसरी ओर अपने में समाहित होने वाले और घुलने-मिलने वाले जनजातीय धर्मों को हिंदुत्व सम्मान, समादर और सह-आस्तित्व की दृष्टि से देखता था तथा उनके देवी-देवताओं को भी वहीं भक्ति और आदर-भाव समर्पित करता था जो अपने देवी-देवताओं को करता था। उनकी  धार्मिक मान्यताओं को वह अपना तक लेता था। इसका परिणाम यह हुआ कि आज भारत के कोने-कोने में जो सबसे लोकप्रिय देवी-देवता हैं वे या तो जनजातियों के देवी देवता हैं या फिर उन्होंने अपना जीवन और जीवन-मूल्य जनजातियों को समर्पित कर दिया  है। आप दृष्टांत के रूप में केरल के अयप्पा, तमिलनाडु के मुरगन, आन्ध्र के बालाजी, कर्नाटक के विट्ठल, महाराष्ट्र के विठोबा और खंडोबा, ओडिशा के जगन्नाथ आदि को ले सकते हैं या फिर हज़ारों नामों से भारत के कोने-कोने में पूजी जाने वाली मातृ-शक्ति का स्मरण कर सकते हैं। हर क्षेत्र के स्थानीय देवी या देवता वहाँ की कुल/ग्राम/गृह-देवी/देवता के रूप में पूजे जाते हैं। पौराणिक कथाओं में  इन स्थानीय देवी/देवताओं का संबंध और संदर्भ प्रमुख वैदिक देवी या देवता जैसे विष्णु या रुद्र के साथ ऐसे पिरो दिया जाता है कि ये जनजातीय देवता भी उन वैदिक देवताओं के अंशावतार या विस्तार के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं और मुख्य धारा में जगह पा लेते हैं। किंतु सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है कि यह सारी प्रक्रिया लोक-कथाओं और लोकाचार के माध्यम से एक सहज स्वाभाविक प्रवाह में होती हैं। कहीं भी ऊपर से आरोपण या ज़बरन थोपे जाने का लेश मात्र भी न होता है, न दिखता है। स्थानीय देवता अपना मूल नाम ही रखते हैं, उनकी उपासना की पद्धति भी वहीं मूल स्थानीय ही होती है, किंतु उनका स्वरूप और उनकी महिमा अखिल भारतीय हो जाती है। वह समूचे भारतवर्ष के भक्तों के तीर्थ-स्थान बन जाते हैं।

हिंदू धर्म की यह विलक्षणता केवल देवी-देवताओं के ही संदर्भ में ही नहीं है, बल्कि हिंदुत्व की विचार परम्परा, उसके दर्शन और उसके अन्य सभी धार्मिक तत्वों में समाहित उदारता और लचीलेपन की दक्षता के साथ भी है जिससे उसने समस्त भारतवर्ष के स्थानीय और जनजातीय धर्मों के तत्वों को अपने में सहेजा है।  हिंदू धर्म की छतरी का प्रतिनिधित्व करने वाले पुरुओं के उसी मौलिक वैदिक धर्म को ही कमोवेश व्यापक स्तर पर अखिल भारतीय धर्म के रूप में मान्यता मिली है जो ऋग्वेद का धर्म है। इंद्र, वरुण, मित्र, अग्नि, सोम और मरुत पूजे जाने वाले मुख्य वैदिक देवता हैं। बाद में विष्णु और रुद्र सबसे प्रमुख देवताओं में शामिल हो जाते हैं। अग्नि-पूजा (होम और यज्ञ की विधि) तथा सोम की पूजा पूजा-पद्धति के  सबसे महत्वपूर्ण अंग  हैं। आज के दिनों में सोम का तत्व ग़ायब हो गया है। सही मायने में सोम की पहचान और प्रकृति सदा से विवाद का विषय रही  है। अग्नि-आहुति या हवन-अनुष्ठान  का प्रचलन आज भी है किंतु यह जन्म, मृत्यु और परिणय-संस्कारों से लेकर गृह-प्रवेश जैसे कुछ ख़ास अवसरों तक ही सीमित है। वेद के ये अधिकांश देवता छोटी-छोटी पौराणिक कहानियों में प्रकट होते हैं।

आचरण के धरातल पर वे सारे तत्व जो हम आज के हिंदुत्व में पाते हैं, वे सभी भारतवर्ष के सभी हिस्सों के निवासियों, मूलतः वृहत भूखंड में फैले जनजातियों की धार्मिक परम्पराओं, उनके रीति-रिवाज, लोकाचार और आराधना-पद्धतियों के तन्तुओं का समाहार हैं। मूर्ति-पूजा या प्रतिमाओं की आराधना हिंदू धर्म का एक ख़ास चरित्र है। यह भौतिक वस्तुओं में पराभौतिक शक्तियों और सगुण स्वरूप में निर्गुण की स्थापना का द्योतक है। शिला-खंडों में आँख की आकृति का चित्र बनाकर उन्हें ‘लिंग’ रूप में पूजा जाता है। ये लिंग सुंदर गढ़े हुए पत्थरों, धातुओं या अन्य पदार्थों के भी बने हो सकते हैं। इन लिंगों में प्राण-स्थापना कर इन्हें एक सजीव सत्ता के रूप में पूजा जाता है। इन्हें नहलाया-धुलाया जाता है। चंदन, सुंदर वस्त्र, आभूषण और  फूलों से इनका श्रिंगार  किया जाता है। इनके ऊपर नारियल, केले, अन्य फल-मूल, मिष्टान्न आदि का अर्पण  किया जाता है,  सुगंधित धूप, अगरबत्ती जलाकर इन प्रतिमाओं की बड़े श्रद्धा-भाव से आरती की जाती है और भक्ति-भाव-विहवल भक्त भक्ति-संगीत में सराबोर हो अपनी आराध्य देव-प्रतिमा के समक्ष कीर्तन-भजन और नृत्य में लीन हो जाते हैं। देव-प्रतिमा पर अर्पित प्रसाद को वे पूजनोपरांत ग्रहण करते हैं और लोगों में वितरित करते हैं।  इन प्रतिमाओं के आवास के रूप में सुंदर नक्काशियों  से उत्कीर्णित भव्य प्रस्तर-स्तम्भों पर टीके  आलीशान देवालयों का निर्माण करते हैं। उनमें सुंदर और पवित्र जलाशयों और भक्तों को ठहराने के लिए उत्तम धर्मशालाओं की व्यवस्था होती  है।  सुंदर घाट, शुभ मुहूर्तों पर मंदिरों में भव्य उत्सव, देवता को ढोने के लिए अत्याकर्षक पालकी, रथ आदि इन देवालयों की विशेषता है। देव प्रतिमा के मस्तक  पर चंदन के लेप, हल्दी और सिंदूर का टीका या त्रिपुंड लगाया जाता है। ये सारे लक्षण अन्य विविधताओं के साथ भारत भूमि के उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम में फैले विशाल क्षेत्र और चतुर्दिक दिशाओं में बसी विशाल जनसंख्या के समस्त सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक  तत्वों का समाहार है। 

उसी तरह हिंदू धर्म के दार्शनिक तन्तुओं का ताना-बाना भी समस्त भारतीय भूखंड पर फैले जनजातीय समाज की लोक-मान्यताओं से बुना हुआ है। इसमें आत्मा का देहांतरण, पुनर्जन्म, पंचांग और तिथि पर आधारित शुभ मुहूर्त की अवधारणा, विशेष प्रकार के वृक्षों, पौधों, पशु-पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ों, जंगलों, पहाड़ों और नदी-नालों और पुरखे-पूरनियों की पूजा इसकी अद्भुत मिसाल है।  


Monday 16 November 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१३)

(भाग - १२ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - ()

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


मूल-भूमि की अंतिम शाखा 


 भारतीय-आर्य शाखा ही उन बारह भारोपीय और तीन अन्य  शाखाओं में  एक मात्र शाखा रही  जो अपनी  मूलभूमि में बची रह गयी। यहीं वैदिक आर्य या पुरुओं की भाषा थी।अन्य पूर्वी जनजातियों के मुक़ाबले इस वैदिक सभ्यता का अध्ययन करने से पहले हमें अणु तथा दृहयु जैसी पश्चिमी जनजातियों के सापेक्ष इनकी स्थिति का आकलन करना होगा। ऐसा करना इस परिप्रेक्ष्य में  भी वांछित होगा कि ये जनजातियाँ भारत से बाहर चली जाने वाली अन्य भाषायी शाखाओं के आद्य स्वरूप को बोलने वाली जनजातियाँ थीं। 

‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के परिप्रेक्ष्य में वैदिक भारतीय-आर्य विरासत को तीन चरणों में बाँटा जाता है। 

–  अपनी मूलभूमि, दक्षिणी रूस,  की  अन्य ग्यारह शाखाओं के साथ साझी भारोपीय विरासत, 


– अन्य दस शाखाओं से ईरानी और भारतीय-आर्य शाखाओं के अलग होकर पूरब की ओर बढ़ने के बाद मध्य एशिया में ईरानी शाखाओं की साझीदार भारतीय-ईरानी विरासत, और

 

– ईरानी से पृथक होकर भारत में प्रवेशोपरांत स्वतंत्र रूप से विकसित होनेवाली भारतीय-आर्य विरासत। 


अब दूसरी ओर ‘भारत से निकली’ या ‘भारत ही मूलभूमि’ की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में भी भारोपीय शाखा के यात्रा-पथ के आधार पर उसी प्रकार भारतीय-आर्य विरासत को तीन चरणों में बाँटा जाता है।

– उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत की एक ही कोख में जन्मी सभी बारह शाखाओं की साझीदार भारतीय-यूरोपीय विरासत,


– बाक़ी दस शाखाओं के प्रस्थान के पश्चात ईरानी और भारतीय-आर्य शाखाओं की साझीदार भारतीय-ईरानी विरासत, और

 

– ईरानियों के अप्रवासन और उनके चले जाने के बाद अपने दम पर फली-फूली भारतीय-आर्य विरासत।  


अब यदि ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ को सही मान लिया जाय तो फिर जिस वैदिक संस्कृति का चित्र ऋग्वेद में उभरता है, वह इतने गाढ़े रूप में न होकर अपनी कल्पित जन्मभूमि की तथाकथित मौलिक ‘आद्य-भारोपीय’ संस्कृति के अत्यंत फीके और क्षीण स्वरूप को ही प्रतिबिम्बित करता। हमने जैसा कि देखा है कि वैदिक भाषा अन्य भाषाओं की जननी न होकर बस भाषा परिवार की अन्य बारह शाखाओं में से एक शाखा मात्र है। अब आप ही यह तय करें कि दक्षिणी रूस की कोख से निकलकर हज़ारों कोस की यात्रा शताब्दियों में तय करने के बाद भारत-भूमि के उत्तरी छोर  तक पहुँचते-पहुँचते उस भारोपीय  संस्कृति के कितने अंश बच पाते और जो थोड़े बचते भी  उसकी थोड़ी-बहुत छाप ही बस  ऋग्वेद में झलकनी चाहिए थी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से ऋग्वेद में आद्य-भारोपीय-भाषा का कोई फीका-सा अंश नहीं मिलता है और न ही ऋचा के रचयिताओं ने अपनी किसी ऐसी स्मृति का उद्घाटन किया है जो उन्हें किसी परदेशी अतीत में बाँधता हो।

सच तो यह है कि ऋग्वेद की भाषा और इसके सांस्कृतिक तंतु आद्य-भारोपीय भाषायी संस्कारों से इतने घनिष्ट हैं कि लगता है मानों उसी की कुक्षी का यह नवांकुर बीज हो। ऋग्वेद के अपने अनुवाद की प्रस्तावना में ग्रिफ़िथ लिखते हैं कि “सच कहें तो ऋग्वेद में इसकी काव्यात्मकता से भी ज़्यादा अगर कोई चीज़ रुचि जगाती है तो वह इसकी ऐतिहासिकता है। एक तरफ़ इसकी मौलिक भाषा में ग्रीक, लैटिन, केल्ट, ट्यूटन और स्लावी भाषाओं के जड़ और धड़ तो दिखायी देते ही हैं, दूसरी तरफ़ ईसाईयत के पैदा होने से पहले के यूरोप के देवी-देवता, पौराणिक गल्प-कथायें, धार्मिक आस्थाएँ, वहाँ के लोकाचार और उनकी परम्परायें वेद के प्रचंड प्रकाश-पुंज से जगमग हैं।“ 

-  ऋग्वेद की कथाओं में भारोपीय कथा-परम्परा के प्राचीनतम स्वरूप के दर्शन होते हैं। उदाहरण के तौर पर हम मैकडोनेल की इन बातों पर ग़ौर कर सकते हैं कि “वेद के देवी-देवता अपने रूपकों में अन्य किसी भी भारोपीय कथाओं के नायक देवी -देवताओं की तुलना में भौतिक जगत और सांसारिक घटनाओं के ज़्यादा क़रीब हैं“ ( मैकडोनेल १९६३:१५)। सही मायने में, अधिकांश कथाओं में तो हम कपोल-कल्पित उन पौराणिक सत्ताओं और उनसे जुड़ी प्राकृतिक लीलाओं की सही पहचान उनके उन स्वरूपों में  ही कर लेते हैं जिस रूप में ये चरित्र वेद के कथानक में प्रकट होते हैं। बाक़ी भारोपीय भाषाओं की जितनी भी पौराणिक कथाएँ हैं उन सबमें ऐसे अनगिन तत्व हैं जो वेद की कथाओं से मेल खाते हैं। हालाँकि उन सभी में आपसी समानताएँ बहुत थोड़ी ही हैं और वे जो भी थोड़ी उनकी पारस्परिक समानताएँ हैं वे भी ऋग्वेद में बख़ूबी पायी जाती हैं। अपवाद में बस वे ही तत्व हैं जिनका पड़ोसी भाषाओं से उन्होंने आपस में लेन-देन किया है। इस संबंध में हम ग्रीक देवता अपोलो का दृष्टांत दे सकते हैं जिन्हें रोमन कथाओं ने भी अपना लिया है।(तलगेरी १९९३:३७७-३९५)

उदाहरण के तौर पर हम नीचे दी गयी सूची पर एक नज़र फेर सकते हैं जो भारोपीय भाषाओं की एक से अधिक शाखाओं में वर्णित लगभग सम्पूर्ण पौराणिक देवताओं को प्रतिबिम्बित करती है :

द्यौस पितर (वैदिक), ज़्यूस पेटर (ग्रीक), जूपिटर (रोमन), डे पटरौस (इलिरीयन), डी ईव्स (बाल्टिक) 

उषा (वैदिक), इयोस (ग्रीक), औरोरा (रोमन), औश्रीण (बाल्टिक)

वरुण (वैदिक), ओडिन/वोडन (जर्मन), ओऊरानूस (ग्रीक), वेलिनस (बाल्टिक)

असुर (वैदिक), ऐसिर (जर्मन), अहुर (अवेस्ता)

मारुत (वैदिक), अरेस (ग्रीक), मार्स (रोमन)

पर्जन्य (वैदिक), परकुंस (बाल्टिक), पेरनु (स्लावी), जौर्गिन (जर्मन)

त्रैतं (वैदिक), थ्रेताओं (अवेस्ता), ट्रायटॉन (ग्रीक)

आर्यमान (वैदिक), ऐर्यमान (अवेस्ता), अरीयोमांस/ एरेमों (सेल्टिक)

सरमा/ सारमेय (वैदिक), हर्मिस (ग्रीक)

पूसन/पाणि (वैदिक), पन (ग्रीक), वाणीर (जर्मन)

रूद्र (वैदिक), रुगलु (स्लावी)

दनु (वैदिक), दनु (आइरिश)

इंद्र (वैदिक), इंद्र (अवेस्ता), इनर (हित्ती)

सर्वर (वैदिक), करबरोस (ग्रीक)

श्री (वैदिक), सीरीज़ (ग्रीक), फ़्रेयर/फ़्रेअ (जर्मन)

भग (वैदिक), बग (अवेस्ता), बाओग (स्लावी)

अपाम नपात (वैदिक), अपाम नपात (अवेस्ता), नेपचुनस (रोमन), नेचतें (सेल्टिक)

ऋभु (वैदिक), एल्ब (जर्मन = अंग्रेज़ी में ‘एल्फ़’)

यम (वैदिक), यिमा (अवेस्ता), यमिर (जर्मन)

ऊपर की तालिका में वर्णित कुल १९ सूचियों में वैदिक १९, ग्रीक ९, अवेस्ता ७, जर्मन ७, रोमन ४, बाल्टिक ४, स्लावी ३, सेल्टिक २, हित्ती १ और अल्बानी १ हैं। इन सारे देवताओं में अवेस्ता की समान साझेदारी है। यह भी स्पष्ट है कि सबके देवताओं की तुलना का मार्ग ऋग्वेद के देवताओं से ही होकर जाता है। आगे थोड़ा ग़ौर करें तो हम पाएँगे कि अवेस्ता धर्म और पौराणिकता के एक ऐसे रूप को गढ़ता है जो अत्यंत विकसित, मानवरूपांकित और परिवर्धित है। यहाँ यह भी देखने को मिलता है कि ऋग्वेद से इसकी अलंकारिक तुलनाओं को यदि छोड़ दें तो अवेस्ता का प्राकृतिक घटनाओं से कुछ कम ही लेना-देना है।

मात्र वैदिक चरित्र ही इस मामले में अनोखे हैं कि उनके सजातीय और सहोदर चरित्र बाक़ी सभी शाखाओं में उपस्थित हैं। लेकिन दो अलग-अलग शाखाओं के पौराणिक चरित्रों का आपस में तुलना करना तब तक असंभव प्रतीत होता है जब तक कि उन्हें हम संबद्ध वैदिक चरित्र के आलोक में न देखें। दृष्टांत के तौर पर ट्यूटोनिक (जर्मन) ‘वाणीर’ और ग्रीक के ‘हर्मिस’ और ‘पन’ आपस में जुड़े हैं लेकिन इनके आपसी संबंधों को हम तबतक समझ नहीं समझ पाएँगे जब तक कि हम वेद के शर्मा और पाणि को न समझें। जहाँ तक अवेस्ता के पौराणिक चरित्रों का सवाल है तो वे बाक़ी भारोपीय  भाषाओं से इस मायने में बिल्कुल  अलग-थलग हैं कि उनके चरित्र मात्र वैदिक चरित्रों से ही तालमेल रखते हैं। 

– भाषायी तौर पर देखें तो वैदिक भाषा इस मामले में विलक्षण है कि इसने भिन्न-भिन्न भारोपीय भाषाओं के सजातीय मूल क्रिया-पदों को अभी तक बचाए रखा है। इस बिंदु की ओर सबसे पहले निकोलस कजनस ने ध्यान खींचा। बाद में कोएनराड एल्स्ट ने इसको और विस्तार दिया। उन्होंने बताया कि वैदिक संस्कृत में ऐसे ढेरों अतिप्रचलित और मूलभूत सजातीय शब्द हैं, जिनके उद्भव स्त्रोत नए शब्दों की व्युत्पति में अब भी वैसे ही सक्रिय और उर्वर हैं। उदाहरण के तौर पर पिता, पुत्र, पुत्री, भालू, भेड़िया आदि के लिए वेद में प्रयुक्त शब्द। दूसरी ओर इनके लिए अन्य शाखाओं मेंजो सजातीय शब्द आए हैं उनकी व्युत्पति के संबंध में कोई प्रामाणिक शास्त्रीय स्त्रोत नहीं मिलता है।

ऋग्वेद की थोड़ी और पड़ताल करने पर पता चलता है कि भारोपीय, भारतीय-ईरानी और भारतीय-आर्य, ये तीनों चरण ग्रंथ के इतिहास में ही समाहित हैं। भौगोलिक रूप से भी ये तीनों चरण भारत-भूमि में ही विद्यमान हैं। सच कहें तो, क्रम से ऋग्वेद के सबसे प्राचीन मंडल ६, ३ और ७ की रचना-भूमि हरियाणा और उससे पूरब सरस्वती के पूरबी तट के  क्षेत्रों तक में ही फैली हैं। साथ ही, इस क्षेत्र का पश्चिमोत्तर विस्तार भी वेदों की रचना के साथ ही पसरता रहा। मात्र एक शब्द ‘रात्रि’ के इतिहास पर ही दृष्टिपात कर इस प्रक्रिया को समझा जा सकता है।

– ‘रात्रि’ के लिए प्रचलित भारोपीय शब्द है ‘नक्त’। क़रीब-क़रीब अन्य सभी शाखाओं में भी ऐसे ही शब्द का का प्रचलन है। जैसे, ग्रीक – नौक्स (आधुनिक ग्रीक में – निक़्त), लैटिन – नौक्टिस, फ़्रांसीसी – नुइट, स्पैनिश – नौक, हित्ती – नेकुज, टोकारियन – नेकाई, जर्मन – नाक्ट, आइरिश- अनौक्त, रूसी – नौक, लिथुआनियन – नक्तिस, अल्बानियन – नते आदि-आदि। 

– आम चलन में कम आने वाला एक भारतीय-ईरानी शब्द है – ‘क्षप’, जिसका समूचे ऋग्वेद में प्रयोग हुआ है। यह अवेस्ता में भी ‘क्षाप’ के रूप में पाया जाता है, जहाँ ‘नक्त’ से संबधित शब्द का पूर्ण अभाव है। अपवाद स्वरूप, मात्र एक उप वाक्य में ‘उप-नक्षतरूसु’ शब्द मिलता है जिसका अर्थ ‘रात्रि के समीप’ रूप में प्रकट होता है। आधुनिक फ़ारसी में भी एक शब्द आता है ‘शब’, जिससे उर्दू का शब्द ‘शब-नम’ अर्थात रात्रि की नमी, ओस निकलता है।

– ऋग्वेद के बाद के अंशों में पहली बार कहीं-कहीं ‘रात्रि’ शब्द उपस्थित होता है। यही शब्द बाद के ग्रंथों में ‘नक्त’ के बदले स्थायी रूप से प्रयोग होता है। बाद की भारतीय-आर्य भाषाओं और उन सभी भाषाओं में भी जिनका उद्गम संस्कृत है, ‘रात्रि’ शब्द ही प्रयोग होता है। किंतु, भारतीय भूभाग के बाहर की उन सभी भारोपीय भाषाओं में जिनका प्रस्थान इस भूमि से ‘रात्रि’ शब्द के उद्भव के पहले ही हो गया था, इस शब्द का कोई चिह्न नहीं मिलता है। वही स्थिति जल के लिए आने वाले शब्द ‘आप’, ‘ऊद’ और ‘पानी’ की भी है। 

“ऋग्वेद की भाषा इस बात को बख़ूबी प्रदर्शित करती है कि ईसाईयत के पैदा होने से पहले के समस्त भारोपीय भाषाओं के जड़-धड़, देवी-देवता, पौराणिक गल्प-कथायें, धार्मिक आस्थाएँ, वहाँ के लोकाचार और उनकी परम्परायें वेद के प्रचंड प्रकाश-पुंज से जगमग हैं।“ ऐसा इसलिए है कि समस्त बारह शाखाओं सहित ऋग्वेद की भी जन्मभूमि उत्तरी भारत ही है। हालाँकि, ऋग्वेद में उन शाखाओं में से बस एक, केवल भारतीय आर्य-शाखा ( पुरुओं की जनजाति की भाषा और धर्म) का ही प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद का रचना प्रवाह अन्य भारोपीय भाषाओं के यहाँ से प्रस्थान के उपरांत भी काफ़ी लम्बे समय तक अपनी ज्न्म्भूमि को सिंचित करते रहा। और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह रही  कि इस क्षेत्र के इतिहास और परम्पराओं की मौलिकता न केवल ऋग्वेद की कालजयी ऋचाओं में चिरंतन  सजीव बनी रही, बल्कि उनकी भाषिक और पौराणिक धारा को परवर्ती पौराणिक रचनायें आगे भी बहाए रखी।