चंदा मामा दूर के,
बड़ी पकाये गुड़ के,
अपने
खाये थाली मे,
मुन्ने
को दे प्याली में.
.......... दादी मां की लोरिओं में अघाते
और उंघते चंदा मामा कब मेरी कल्पनाओं के अंतस मे प्रवेश कर गये
, मुझे पता
भी न चला. वह पल पल मेरी पलकों पर मेरे हसरतों के पालने मे झूलते, मुझे सोते से
जगाते, दादी मां
के कौरों में अपनी चांदनी की मीठास घोलते
और मुझे मेरी चिंतन क्षमता की परिपक्वता का आभास दिलाते कि अब मै यह समझ चुका था
कि वह धरती माता के भाई होने के नाते हम पृथ्वीवासियों के सगे मामा लगते हैं. दादी
मां ने
यह भी बता दिया था कि सुरज चंद्रमा के अग्रज हैं . अपनी मां को पीड़ा की तपन
देने की सजा में सुरज तपते हैं और मां को सुख-स्नेह देने के आशीष स्वरुप चंद्रमा
शीतलता व सौंदर्य का पीयुष परिधान धारण
करते हैं. बात जो भी हो अपने सांसारिक मामा में मुझे वो आकर्षण या निमंत्रण
सामर्थ्य कभी बिम्बित नही हुआ जो नील गगन
के प्रशस्त प्रांगण मे निहारिकाओं से रास रचाते चंदा मामा की कमनीय कलाओं के कण कण
में प्रतिक्षण प्रतिबिम्बित होता.
बाल सुलभ मन न केवल इस मामा से मिलने को
आतुर रहता बल्कि अपने प्रतियोगी संस्कारों के कारण इस मिलन में अपने शेष मित्रों
को पीछे छोड़ने का सपना पाले रहता.
‘ध्यायतो
विषयान पुंसः.......’ गीता की इन पंक्तियों का मर्म मेरा बाल मन समझने लगा था. तथापि ‘योगस्थ: कुरु
कर्मणि’ की
मुद्रा मे मेरी चंद्र-मिलन की कामनाओं ने घुटने नहीं टेके थे.
अब नील आर्मस्ट्रौंग हमारे आराध्य नही, प्रत्युत हमारे
प्रतियोगी और ईर्ष्या-इष्ट थे. ‘नाहि सुप्तस्य सिन्हस्य प्रविशंति मुखे मृगा’ से प्रेरित मैंने
नासा को अपनी इच्छा का सुविचारित पत्र भेजा और मेरी खुशी का ठिकाना न रहा जब नासा
ने अपनी चंद्रयात्रा के अभियान मे मेरा चयन कर तय तिथि को आने की ताकीद कर दी. इस
प्रसंग मे मुझे प्रदत्त प्रशिक्षण के वृतांत वर्णन से बचते हुए मै सीधे अपनी
यात्रा की ओर बढता हूं.
यह अत्यंत सुखद क्षण था जब मेरी
कल्पना(चावला) की आत्मा सजीव हो उठी और मैंनें अपने सहयात्री के साथ
यान मे प्रवेश किया. पलायन वेग के साथ यान को वैज्ञानिकों ने उपर फेंका. पृथ्वी के
वायुमंडल को चीरते हुए यान अंतरिक्ष मे कुदने को तत्पर हुआ और मैं धरती माता के
मोह के गुरुत्व-बंधन से अपने को मुक्त करता हुआ मातुल लोक की ओर लपका.यान का वेग
मेरी भावनाओं के प्रबल
आवेग के साथ
अद्भुत साम बिठाये था और मैं शनैः
शनैः भारहीनता की हालत मे खुशियों के
गोते लगाने लगा.
मानों मेरी उत्कण्ठित भावनाओं ने मेरे समग्र द्रव्यमान को उत्साह और अधीरता
की असीम ऊर्जा मे परिणत कर दिया हो. आइंसटीन द्वारा प्रतिपादित ‘ मात्रा-वेग –ऊर्जा’ समीकरण स्वतःसिद्ध साबित होने लगा था.
उधर पृथ्वी की प्रयोगशाला मे बैठे मेरे
वैज्ञानिक चाचा मेरे यान की प्रत्येक गतिविधि को संचालित कर रहे थे. साथ मे कुछ
प्रयोग भी संचालित किये जा रहे थे. धरती
धीरे धीरे गोल गेंद दिखने लगी जिसकी आकृति भी छोटी होती जा रही थी. इधर अंतरिक्ष
के नीले घट मे तेजी से डूबते मेरे यान ने तकरीबन तीन दिन तेरह घंटे बाद चंद्रमा के
मंडल मे प्रवेश किया जहां से अपने सहयात्री के संग एक लघु यान के सहारे मैंनें
चंद्रमा के सतह का स्पर्श किया. मेरे पैर चांद पर थे. विचारो ने विश्राम ले लिया.
भावनायें निःशब्द हो गयी
और मै अवाक!
अब मैं अपनी जन्मभूमि से तीन लाख चौरासी हज़ार चार सौ
बीस किलोमीटर की दूरी पर ठीक उसी
जगह अपने पदचिन्हो को आरोपित कर रहा था, जहां नील साहब सहित बारह अन्य चन्द्रयात्रियों के पदछाप साफ साफ दीख
रहे थे. चंद्रमा पर न कोइ वायुमंडल है न हवाओं का अत्याचार. इसलिये वहां वायु के
द्वारा भूक्षरण की प्रक्रिया का नामो निशान नही है. सम्भवतः इसी कारण आने वाली सदियों
तक ये सारे चरण चिन्ह ऐसे ही अपने मूल स्वरूप मे संरक्षित
रहेंगे.और यह बात हमारे लिये अद्भुत रोमांच का विषय
था.
अपने चार दिवसीय चारु चंद्रवास की अवधि
मे मैने चंद्रमा की सतहों पर एक विशेष वाहन मे सैर का भरपुर
लुत्फ उठाया. इस दौरान काफी शोधपरक
तथ्यों को भी
एकत्रित किया. चंद्रमा की उत्पति
किसी प्रबल आवेग वाले खगोलीय पिंड के पृथ्वी के सतह से आज से करीब साढ़े चार बिलियन वर्ष
पुर्व टकराने के फलस्वरुप हुई थी. इस कारण
पृथ्वी के अंदर के लौह द्रव्यों का अनुपात चंद्रमा के हिस्से कम ही पड़ा. यही कारण
है कि चंद्रमा की सतहों पर रेतीले चट्टानों की बहुतायत है.
ऐसा प्रतीत होता है कि शुरुआती दिनों
मे ही कोई तीव्र वेग वाले
पिंड के चांद की सतह से टकराहट हुई
होगी और इस संघट्ट से कुछ लावा छलका होगा
जो कलांतर मे जमने की प्रक्रिया के दौरान गढ्ढ़े मे तबदील हो गया और
इसकी अभिव्यंजना मुक्तिबोध ने इन शब्दों मे की—‘ चांद का मुंह टेढ़ा है’. अब सम्भवतः शीतकरण की प्रक्रिया पूर्ण हो गयी है
और चंद
का मुंह और ज्यादा टेढ़ा होने की
गुंजाइश शेष न रही.
पृथ्वी के उपरी सतह की भांति चंद्रमा का
बाह्य कवच भी
औक्सीजन और सिलिकन की बहुलता
से परिपूर्ण है. इसके टेढ़े मुंह का
एक और कारण विदित हुआ कि पृथ्वी की ओर
वाले सतह की मुटाई १०० मील और
पृथ्वी से दूर वाले सतह की मुटाई ६० मील
है. इसका कारण पृथ्वी के गुरुत्व के कारण
चांद की सतह का पृथ्वी की
ओर खींचाव है. एक और
रोचक तथ्य प्रकाश मे आया कि चंदा
मामा हमारी धरती से चार सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से दूर होते जा रहे हैं.
विलगाव की ये प्रक्रिया पचास बिलियन वर्षों
तक चलेगी. विरह की इस व्यथा की वेदना मे हमारी धरती अपनी तय
उम्र सीमा पांच बिलियन वर्ष मे ही दम तोड़ देगी.भाई से
अलग होने के दुख मे बहन के असमय प्राणांत की इस वैज्ञानिक व्याख्या से मन
व्याकुल हो उठा.
जब भाई चांद अपनी बहन पृथ्वी से निकटतम
दूरी पर होता है, बहन की भावनायें हिलोरें
लेती है और उसकी छाती पर समुंदर मे ज्वार
उठने लगते हैं. भावनाओं की ज्वार भाटा की वैज्ञानिक मीमांसा भारतीय मान्यताओं को
पुष्ट करती हैं.
चंदा मामा सुरज की ज्योति से
ही ज्योतित होते
हैं. ये अपनी बहन
धरती के नैसर्गिक
प्रेम के गुरुत्व बंधन
मे बंधकर उसकी परिक्रमा लगभग साढे सत्ताइस दिनों मे पूरी
करते है. इस
अवधि को एक
चंद्रमास कहते हैं.
इस दौरान एक बार मिलन की प्रसन्नता की आभा से इनका
समग्र स्वरुप देदीप्यमान हो उठता है जिससे
वसुंधरा बहन पूनम की रात के रुप मे
सुसज्जित होती है. फिर एक समय आता है जब चंद्रमा प्रकाशहीन होता है और वसुधा पर
अमावस की उदासी छा जाती है.
स्वयं अल्प गुरुत्व होने के करण
वायुमंडल मे तैरते कणों को बांध कर थामे रखने की क्षमता से हीन है चंद्रमा. इसलिये इसका कोइ
वायुमंडल नही. फलस्वरुप प्रकाश
के परावर्तन, अपवर्तन,
विष्फरण या छिटकने जैसी कोइ क्रिया यहां नही होती. यही कारण है
कि इसकी सतहों
पर घोर तमस का
साम्राज्य रहता है.
चंद्रमा का गुरुत्व पृथ्वी के गुरुत्व का मात्र सत्रह
प्रतिशत है. पृथ्वी पर बत्तीस किलो
का वजन यहां मात्र साढ़े पांच किलो
होता है. ये हुई न बिना व्यायाम के वजन घटने का विलक्षण संजोग!
अंधकार के साये मे लिपटे , अल्प गुरुत्व वाले रेतीले चट्टान पर न हवाओं का शोर, न वनस्पति की झुमर और न प्रवहमान धारा का कलकल छलछल संगीत. अम्बर के प्रशस्त
प्रांगण मे अपनी प्रणय रंजित रजत
चांदनी का चंदोवा छाकर नीलांक विहार करने वाले चंदा मामा का अंतस कितना
शुष्क , नीरस और तमोमय है, इसका भान
होते ही आंखे छलछला गयी. यहीं कारण शायद
रहा हो कि हलाहल पान कर विश्व कल्याण करनेवाले नीलकण्ठ ने
इन्हे शिरोधार्य किया और शशिशेखर कहलाये. भले ही रजनीश की इस सरलता का उपहास
लोककवि तुलसी ने यह
कहकर उड़ा दिया कि –‘ यमाश्रितो हि वक्रोअपि चंद्रः सर्वत्र
वंद्यते ‘
समय एक क्षण विश्राम नहीं लेता. हम नासा से प्राप्त
निर्देशों के अनुसार आवश्यक शोधपरक सामग्री और जानकारी
एकत्रित किये जा रहे थे. सौर वायु , मृदा संरचना , चंद्रमा की सतह की बनावट से जुड़े ढ़ेर सारी प्रयोग सामग्री, वहां के
चुम्बकीय क्षेत्र से सम्बद्ध प्रायोगिक तथ्य, चंद्रमा एवम
सूर्य की भिन्न भिन्न कलाओं का पृथ्वी पर प्रभाव . पृथ्वी के अक्ष के झुकाव में
चंद्रमा का योगदान, चंद्रमा और ऋतु परिवर्तन और ऐसे अनेक
महत्वपूर्ण बिंदुओं की जॉच परख एवम उनके संगोपांग अध्ययन के परितः हमारी
गतिविधियां केंद्रित थी.
इन चार दिनों के चंद्र प्रवास में मेरे
मनोवैज्ञानिक अवयवों को एक त्रासदीपूर्ण संक्रमण का सामना करना पड़ा. जैसे जैसे
तथ्यों से सक्षातकार होता रहा , मेरे हृदय के गह्वर मे संजो
कर सजाये गये चांद मामा शनैः शनैः इस सौरमंडल के पांचवे सबसे बड़े प्राकृतिक उपग्रह
में परिवर्तित होते जा रहे
थे. इस मानसिक व्याघात ने हृदय में एक अव्यक्त आंदोलन को स्फुरित कर
दिया था. इस चंद्र विजय ने मेरी कल्पनाओं की निर्झरिणी को रसहीन कर दिया
था. चंदा पर रचे गये वे गल्प, वो कथा कहानियां , वे गीत, वो कवितायें, वो
साहित्य सामग्रियां और उनसे निःसृत सुधा रस – इन सबको उस रेतीले चट्टान पर पसरा
तमिस्त्र मुंह चिढ़ा रहा था .चंदा मामा की गोद में ही बौद्धिकता के धरातल पर मेरे मामा मुझसे विदा ले रहे थे
और मै भी वापस अपने यान में बैठकर अश्रूपुरित पलकों संग पृथ्वी वापस लौट रहा था. अब मै अंतरीक्ष मे
चंदा से काफी दूर आ गया था. फिर राकेश अपनी समस्त कलाओं को
सहेजकर अपने वैभव की पराकाष्ठा पर आसीन हो
चुके थे. दुधिया चांदनी की अमृत
वर्षा हो रही थी. तारक दल उधम मचा रहे
थे. इस नयनाभिराम चंद्र भंगिमा का अवलोकन कर मेरे मन के चंदा मामा फिर से जी उठे थे
और उनको समर्पित मेरी चिर संचित कोमल आत्मीय भावनायें मेरी नवजात बौद्धिकता
को ताने मार रही थी --- चार दिन की चांदनी
, फिर अंधेरी रात !
-----विश्वमोहन