Thursday 30 December 2021

मिलकर क़दम बढ़ाएँ













 इन क़दमों ने बहुत है सीखा,

चलना सँभल-सँभल के।

नापे दूरी कल, आज और,

कल के बीच पल-पल के।


समय ने तब ही जनम लिया,

जब पहला क़दम बढ़ाया!

हर क़दम की आहट में बस,

अपना प्रारब्ध पाया।


जितने क़दम, उतनी ही आहट,

था हर ताल नया-सा।

हर चाप निर्व्याज स्वर था,

करुणा और दया का।


तब धरा पर इंद्र  स्वर्ग से,

वारीद संग आता था।

बन पर्जंय हरियाली-सा, 

दिग-दिगंत  छाता था।


छह ऋतुओं में दर्शन का,

षडकोण झलक जाता था।

चतुर्वेद में ज्ञान सोम का,

 जाम छलक जाता था।


जीवन-तत्व संधान में जुटती, 

गुरु-शिष्य की टोली।

गूँजे नाद अनहद आध्यात्म का,

उपनिषद की बोली। 


सभ्यता के सोपानों पर, 

क़दम  चढ़ते जाते थे।

मूल्य संजोये संस्कार के, 

गीत सदैव गाते थे।


मर्यादा के घुँघरू बांधे, 

क़दम क्वणन पढ़  बढ़ते थे।

हर पग पर नैतिकता का,

मापदंड हम रचते थे। 


चलते-चलते आज यहाँ तक, 

हम आए हैं चल के।

किंतु, दंभ में महोत्कर्ष  के,

छक गए ख़ुद को छल के।


अधिकार के मद को भरते, 

हम कर्तव्य  भूल जाते।

लोभ, मोह, तृष्णा, मत्सर, 

बंधन सारे खुल जाते।


परपीड़न के पाप से प्रकृति, 

प्रदूषित  होती  है।

दर-दर मारे-मारे फिरती,

मानवता रोती है।


अब भी न बाँधे  पद में, 

यदि मर्यादा की बेड़ी!

बज उठी समझो प्रांतर में 

महाप्रलय रण-भेरी!


देखो मुँह चिढ़ाती हमको, 

वक्र काल साढ़े साती!

फूँक-फूँक कर क़दम उठाना, 

हो   न    ये  आत्मघाती!


चलो, समय अब बाट जोहता, 

आशा का दीप जलाए।

अब आगत के नए विहान में,

मिलकर क़दम बढ़ाएँ।


Friday 17 December 2021

अक्षत खिलखिलाहट

 



रविभूषण राय जी नहीं रहे। इस सृष्टि में  आने-जाने की सनातन परम्परा का उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया। चाहते तो कर सकते थे। ऐसा उनका जीवंत उत्साह, कर्मठता और जीवन में कभी भी हार नहीं मानने वाले आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों तरह की देह-काठी देखकर लगता था। लेकिन गांधी को महात्मा बनाने वाले राजकुमार शुक्ल के नाती भला विरासत से प्राप्त सत्य और अहिंसा के रास्ते को क्यों छोड़ते! और, उन्होंने जीवन के इस परम ‘सत्य’ को बड़े ‘अहिंसक’ अन्दाज़  में स्वीकार किया। शुक्ल जी के ‘गांधी-यज्ञ’ की सुरभि को उन्होंने कस्तूरी की तरह महकाया और इसे चतुर्दिक फैलाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। मौरिशस के हाई कमिश्नर से राष्ट्रपति भवन तक, राजघाट से भितिहरवा तक  और वर्धा से साबरमती तक वह निरंतर भटकते रहे। हम बार-बार उनपर चुटकी लेते कि नानाजी नाती में अपनी आत्मा छोड़ गए!

दूरदर्शन पर शुक्लजी की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में हम उनके सह वार्ताकार रहे। भैरव लाल दास जी की पुस्तक के दिल्ली में विमोचन हेतु उन्होंने हमसे कितनी लंबी वार्ताएँ की। शुक्ल जी पर कोई वेबिनार हो, दो महीना पहले से ही घूरियाने लगते थे। तक़ादा पर तक़ादा! ‘देखिए। अमुक तारीख को अमुक बजे  है। ध्यान रखिएगा। कहीं नहीं जाना है।…….आपकी समीक्षा अमुक पत्रिका में छप गयी है। संपादक जी का नम्बर आपको वहट्सप कर दिया है। उनको धन्यवाद ज़रूर दे दीजिएगा……का हुआ? संपादक जी से बात हुई? ………चलिए ठीक है। अब किताब लिखने वाला काम  शुरू कीजिए। परनाम।’ 

 आज एक बात बहुत कचोट रही है। उन्होंने सामग्रियों की बौछार कर दी हमारे घर में। पटना से बदली हो जाने पर भी दिल्ली आवास तक ये सामग्रियाँ पहुँचाते रहे। बस एक ही रट! ‘शुक्ल जी पर आपकी लिखी किताब देखना चाहता हूँ। आप बस पांडुलिपि दे दीजिए। बाक़ी सारा भार हमारा!’ एक दिन तो झल्लाकर बोल दिए ‘ ए विश्वमोहनजी! देखिए, आप महटिया रहे हैं। हम अपने  मरने से पहले आपकी लिखी किताब पढ़ना चाहते हैं, शुक्ल जी पर!’ हम हँसकर  बोले, ‘तब त आपको दीर्घजीवी बनाए रखने के लिए जेतना देर से लिखें, उतना अच्छा!’ वह खिलखिला उठे। उनकी यह अक्षत खिलखिलाहट अब हमारी स्मृतियों की  पारिजात-सुरभि  बन सुरक्षित रहेगी।