Thursday 24 June 2021

भोजपुरी और अश्लीलता (भोजपुरी दिवस पर विशेष)


 कबीर जयंती को भोजपुरी दिवस के रूप में मनाया जाता है। कबीर की रचनाओं ने भक्ति आंदोलन को एक नया कलेवर प्रदान किया। कुरीतियों एवं अंधविश्वास पर कबीर ने गहरा प्रहार किया। सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना करने वाले कबीर की भोजपुरी आज स्वयं अश्लीलता और गंदगी का शिकार बन गयी है। भोजपुरी गाने और फिल्मों के संवाद कुरूप और बदरंग होते जा रहे हैं। इन कुसंस्कारों और विसंगतियों से त्राण पाने हेतु यह भाषा छटपटा रही है। 'चकोर' नामक सामाजिक मंच इस दिशा में एक आंदोलन को आकार देने के लिए प्रयासरत है। भोजपुरी सहित अन्य भाषाओं को भी इस गंदगी से मुक्त कराने की महती आवश्यकता है। इस दिशा में 'चकोर' मंच से हमारे उद्बोधन पर विचार करें। साथ ही भोजपुरी में लिखे  मेरे इस गीत  का रसास्वादन करें:


मैना करेली निहोरा अपना तोता से,

तनी ताक न गल थेथरु अपना खोता से।


बाहर निकलअ,

देखअ कइसन,

उगल बा भिनसरवा।

चिरई-चिरगुन,

चहक चहक के,

छोड़लेन आपन डेरवा।

मैना करेली.....


खुरपी कुदारी,

हाथ में लेके

चालले खेत किसान।

पिअरी माटी,

अंगना लिपस,

तिरिया बर बथान।

मैना करेली...


घुनुर घुनुर,

गर घंटी बाजे,

बैला खिंचे हर।

आलस तेज,सैंया 

बहरा निकलअ,

चढ़ गइल एक पहर।

मैना करेली निहोरा..


धानी चूड़ी,

पिअरी पहिनले,

और टहकार सेनुर।

दुलहिन बाड़ी,

 पेड़ा जोहत,

सैंया बसले दूर।

मैना करेली...


तोहरो कब से

असरा देखी,

बलम बाहर कब अइब।

नेह के पाँखि,

अपना हमरा,

मंगिया पर छितरईब।


मैना करेली,निहोरा अपना तोता से

तनी ताकअ न गलथेथरु अपना खोता से।





Thursday 17 June 2021

तनहा चाँद

 कब तक जगता चाँद गगन में,

तनहा था, वह सो गया।

थक गई आंखे, अपलक तकती,

सूनेपन में खो गया।


किन्तु सपनों में भी उसकी,

प्रीता पल-पल पलती थी।

मन के सूनेपन में उसके,

धड़कन बन कर ढलती थी।


आएगी सुर ताल सजाकर,

राग प्यार का गायेगी।

अभिसार घनघोर घटा बन,

साजन पर छा जाएगी।


मन का आँगन इसी अहक में,

मह-मह महका जाता।

खिली कल्पना की कलियों में,

मन साजन इठलाता।


बाउर बयार भी बह-बह कर,

पत्तों में झूल जाती।

विस्फारित वनिता की अलकें,

हसरत में खुल जाती।


चूनर चाँदनी का चम-चम,

चकवा-चकई सब  नाचे।

कुंज लता में कूके कोयल,

पपीहा पीहु-पीहू बांचे।


चंदन में लिपटी नागिन भी,

प्रीत सुधा फुफकारे।

अवनि से अम्बर तक प्राणी,

प्यार ही प्यार पुकारे।


सागर के मन में भी लहरें,

ले-ले कर हिलकोरे।

सूखे शून्य-से सैकत तट में,

भाव तरल झकझोरे।


देख प्रणय के पागलपन को,

बादल भी हुआ व्याला।

घटाटोप घनघोर जलद को,

अम्बर घट में डाला।


निविड़ तम के गहन गरल ने,

धरती पर डाला डेरा।

विरह वेदना की बदरी में,

चाँद का मुँह भी टेढ़ा।


उष्ण तमस का तिरता वारिद,

धाह अधर का धो गया।

कब तक जगता चाँद गगन में,

तनहा था, वह सो गया।












Thursday 10 June 2021

अहंकार

 जमीन से उठती दीवारों

ने भला आसमान कहीं बांटा है!

या अहंकार के राज मिस्त्रियों ने

कभी हवाओं को काटा है!

भेद की भित्तियों के वास्तुकार! 

दम्भ के शोर-गुल में तुम्हारे

 सिमटा जा रहा समय का सन्नाटा है।

तू-तू, मैं-मैं की तुम्हारी 

तुरही की तान ने

हमेशा जीवन के संगीत 

 व लय को काटा है।

ज्वार में अहंकार की

धंसती फुफकारती भंवर-सी

तुम्हारी क्षुद्रता की भाटा है।

उठो, झाड़ो धूल अपने अहं की,

गिरा दो दीवार और महसूसो,

अपनी धरती की एकता को।

एक ही आसमान के नीचे।

Saturday 5 June 2021

एक ऋषि से साक्षात्कार


( विश्व पर्यावरण दिवस पर पुनः प्रस्तुत)




(मैगसेसे पुरस्कार
, पद्मश्री और पद्मभुषण अलंकृत, चिपको आंदोलन के प्रणेता, प्रसिद्ध गांधीवादी पर्यावरणविद और अंतर्राष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित श्री चंडी प्रसाद भट्ट को समर्पित उनसे पहली मुलाकात का संस्मरण)




पोथियों में ऋषियों की गाथा पढ़ता  आया हूँ। उनके आर्ष अभियानों में आकर्षण का भाव होना स्वाभाविक है। मन करता, किसी ऐसे पुरोधा से साक्षात्कार हो और यह जन्म कृत्य-कृत्य हो जाय!  विगत  दिनों एक ऐसे ही मनीषी के दर्शन हुये जिनसे बातचीत के क्रम में ऐसा आभास  हुआ मानों जेठ की तपती दुपहरी में किसी सघन वृक्ष की छाया में उनकी अमृत वाणी की शीतल बयार का झोंका मेरे मन प्रांतर को गुदगुदा रहा हो! ये युग पुरुष थे – 'चिपको' आंदोलन के प्रणेता, श्री चंडी प्रसाद भट्ट जी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्वी क्षेत्र मुख्यालय, पटना  केंद्र के चौदहवें स्थापना दिवस (२२ फरवरी २०१४)  पर मेरी मुलाकात रात्री भोज में उनसे हुई। माननीय निदेशक महोदय ने हम दोनों  का परिचय करा अपने कक्ष में हमें बड़ी आत्मीयता से बिठाया।
औपचारिक परिचय के उपरांत थोड़ी ही देर में  बातचीत की मिठास में ऐसे घुल गये मानों  उनसे हमारा दीर्घ परिचय रहा हो। उत्तराखंड के गोपेश्वर के इस संत में योगेश्वर की छवि भाषित हो रही थी। पर्यावरण प्रकरण पर उनके प्रकांड पांडित्य पर मन लट्टु हो रहा था। प्रकृति के प्रत्येक परमाणु मे पल-पल पलनेवाली  परिवर्तन की प्रक्रिया,  पर्यावास पर उसकी प्रतिक्रिया और इसके प्रतिगामी प्रभाव से उनका संगोपांग परिचय उनके विद्वत-व्यक्तित्व की विराटता बखान रही थी।
बातचीत की शुरुआत ग्लेशियर के उर्ध्व-विस्थापन विषय से हुई। ग्लेशियर का ऊपर  की ओर  सिमटना उनसे निःसृत नदियों  के अस्तित्व के विगलन के खतरे की घंटी है। अगर यह चलन जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं  जब हमारी विरासत  को ढ़ोने वाली विशालकाय नदियाँ कृशकाय बरसाती नाले का रुप ग्रहण कर लें। यमुना नदी में होनेवाले ह्रास पर मेरा मन अनायास चला गया जिसका स्वरूप दिल्ली में  कमोवेश नाले की तरह ही है।  और तो और, शहर के गटर के गंदे जल और कारखानों से उत्सर्जित अवशिष्टों को समाहित करने के पश्चात तो कालिंदी अपने भाई यमराज के साथ  ही विचरण करती प्रतीत होती है।
ग्लेशियर के उपर खिसकने से ऐसे प्रदेश में पनपने और पलने वाले जंतु भी ऊपर  की ओर सिमटते चले जायेंगे। रिक्त स्थान मे वनस्पतियों का उद्भव होगा जिससे हिमखंडों के उर्ध्व-गमन को और गति मिलेगी और  पर्यावासीय पतन को बल मिलेगा। ढ़ेर सारी प्रजातियों के विलुप्त हो जाने का संकट गहरा जायेगा। उन्होने उदाहारण के तौर पर हिम प्रदेश में रहने वाले याक और एक विशेष प्रकार के चूहे का भी उल्लेख किया।
ग्लेशियल-शिफ्ट तो ऐसे एक वैश्विक घटना है, किंतु दक्षिण एशिया और मुख्यतः हिंदुस्तान की सभी प्रमुख नदियों का अस्तित्व अपने उद्गम-स्थल हिमालय की हलचलों से ज्यादा प्रभावित होता है। गंगा और ब्रह्मपुत्र भारत को जलपोषित करने वाली सबसे बड़ी नदियाँ  हैं, जिसमें  गंगा की भागीदारी २६% और ब्रह्मपुत्र की भागीदारी ३३% है। ग्लेशियर के उपर खिसकने का प्रभाव साफ-साफ इन नदियो में दिखने लगा है और अब ये बरसाती नदियों  की तरह व्यवहार करने लगी हैं।  उत्तराखंड की तुलना में नेपाल  का हिमालय बिहार से नजदीक है जहां से निकलने वाली तमाम नदियाँ  बरसात मे बाढ़ का कहर ढा रही हैं।  कोशी की  प्रलय-लीला  इस प्राकृतिक विपर्ययता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। माउंट एवरेस्ट के उत्तर में कोशी की उद्गम-स्थली है। नेपाल मे वनों की कटाई का दुष्प्रभाव सीधे-सीधे वहाँ  के ग्लेशियरों पर पड़ता है।  और, सच तो यह है कि प्रकृति हमारे दंश से ज्यादा अभिशप्त है जिसे समय-समय पर अपने प्रकोपों के रुप में हमें चुकता  कर  रही है। इस बात को भली-भाँति  समझने का माकूल मौका आ गया है। क्षेत्रों को सदाबहार बनाये रखने में ग्लेशियर की अहम भूमिका है। इस हकीकत से अब और मुंह  मोड़ना मारक साबित  हो  सकता है। इसलिये इस तथ्य पर और अध्ययन एवम संधान की आवश्यकता है। यदि सही वक्त पर समुचित कदम उठा लिये जायें तो केदारनाथ जैसी घटनाओं को रोक न सही , कम-से-कम उनकी मारक क्षमता पर  तो अंकुश लगाया ही जा सकता है। नदियों के सिकुड़ने का धरती की जल-धारण-क्षमता पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
बात बढ़ते-बढ़ते नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना पर आ गयी। इस योजना पर उन्होनें सतर्कता बरतने की सलाह दी। बरसात में तो बात बन जायेगी, परंतु असली समस्या तो गर्मियों की है जब पीने के पानी के भी लाले पड़ जाते हैं। उन्होने कर्नाटक और तमिलनाडु के जल विवाद की ओर ध्यान खींचा। मैंने उनका ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित किया कि एक ही मौसम में जब बिहार की नदियाँ  उफनती रहती हैं,  बिहार के ही कुछ भाग और झारखंड की धरती सूखे से दरकती रहती है। तो, क्यो नहीं नदियों मे बहने वाली जलराशि का एक समेकित क्षेत्रीय नक्शा तैयार किया जाय और एक क्षेत्र की अतिरिक्त जलराशि को जलहीन क्षेत्रों में  ले जाया जाय?  उनका मंतव्य था कि जब नदियों को जोड़ने के लिये भूमि के सतह पर या भूमिगत जलमार्ग बनाये जायेंगे तो उस मार्ग से जल का प्रवाह होगा जो कभी सूखे थे। ऐसी स्थिति में उस क्षेत्र के पर्यावरण एवम पर्यावास पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखना होगा। साथ ही, विस्थापन की सामाजिक त्रासदी से निपटने की ठोस रुपरेखा तय करनी होगी। फिर, अतिरिक्त जलराशि को परिभाषित करते समय जल बहुल क्षेत्र के पीने के पानी और सिंचाई की स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखना होगा।
स्थानीय जल प्रबंधन की आवश्यकता के संदर्भ में उन्होनें बिहार  का विशेष उल्लेख करते हुए इसके कुप्रबंधन को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जल के समुचित प्रबंधन के आलोक  में समझाया। १८५७ में गंगा नहर के निर्माण के उपरांत सिंचाई की समुचित व्यवस्था से वहां की भूमि हरी-भरी हो गयी और मेरठ , मुज़फ्फरनगर एवम पड़ोसी क्षेत्रों के किसान करोड़पति! ठीक इसके उलट बिहार में  प्रचुर उर्वरा शक्ति की माटी और जल का अकूत भंडार होने के बावजूद यहां के किसानों के पास सिर्फ बदहाली और गरीब मज़दूरों का पलायन!  गंगा नहर में गंगा के पानी को स्थानीय उपयोग में ले लिये जाने के बाद तो इस नदी की हालत कानपुर से लेकर इलाहाबाद और कमोवेश वाराणसी तक तो पतली ही रहती है।  बिहार में आने तक ढेर सारी नदियों  का समागम गंगा के हिस्से आ जाता है और वह गर्भवती ललना के लावण्य से लबरेज़ हो जाती है। यहां आते-आते उसे घाघरा से २०%, यमुना से १६% और गंडक से ११% की अतिरिक्त जलराशि  प्राप्त  हो  चुकी  रहती है। इसके अलावे पुनपुन, सोन एवम अन्य जलधाराओं  का  भी  सान्निध्य इसे प्राप्त होता है। कुल मिलाकर ५०% अतिरिक्त जलराशि का कोष होता है बिहार में गंगा की गोद में। फिर, देश की समूची बेसीन का कोशी का बेसीन १% है जबकि कोशी की जलराशि  १३%। अब जल के इस अक्षय कोष के बावजूद जल कुप्रबंधन से शापित इस प्रदेश और इसके कृषकों की कहानी करुणा से सिंचित है। दूसरी तरफ,  नहरों का जाल बिछा जल के समुचित प्रबंधन से पाँच नदियों का प्रदेश, पंजाब, अपनी कृषि उपलब्धियों के कसीदे काढ़  रहा है। इसलिये इस बात पर बल देने की जरुरत है कि पहले स्थानीय कमी की पुर्ति की जाये फिर अतिरिक्त जल को परिभाषित कर विस्थापन और वातावरण, पुनर्वास और पर्यावास इन सभी तथ्यों को ध्यान में  रखकर इस महत्वाकांक्षी योजना पर अमल किया जाय। उन्होने इस संदर्भ में  शासन की लापरवाही पर खेद जताया।  कुल १८ नहरों में  बिहार के हिस्से मात्र दो या तीन नहरे हैं। अगर यहाँ  नहरों का जाल बिछा रहता तो पंजाब के खेतों में काम करने  के  बजाय बिहार के लोग अपने ही  खेतों  में  काम  क्यो  नहीं करते? हालांकि इस  बात पर उन्होनें गर्व करने  से  गुरेज नहीं किया कि लोग बाहर  देश-विदेश  जायें  और सम्मानजनक पदों पर काम करें।  उत्तराखंड जैसे राज्य में जहां भागीरथीगंगा और अलकनंदा जैसी नदियां ३००० मीटर की ऊँचाई पर बहती हैं जबकि सिंचाई के क्षेत्र ६००० मीटर की ऊँचाई तक अवस्थित हैं,  वहां १४% सिंचित क्षेत्र की बात तो पचाई जा सकती है लेकिन बिहार में  तो शत प्रतिशत से नीचे बात नहीं  बनती।
बाढ से जुड़े इंजीनियरिंग पक्षों पर उन्होने बडे मनोयोगपुर्वक मेरी राय जानी।  नदियों की तलहटी मे  गाद के निरंतर जमाव से होने वाले दुष्प्रभाव को मैंने उनके समक्ष रखा. गाद  के  जमा होने से नदियों की गहराई घटती है और त्रिज्या के बढ़ने से जलधारा घटे हुए  यानि कम  क्रांतिक वेग पर ही अपने समरेखीय प्रवाह को छोड़कर आराजक (टर्बुलेंट) हो जाती है और तटीय मर्यादाओं का अतिक्रमण करती बाढ के रुप में अपनी वीभत्सता परोसने लगती है। कभी-कभी अपनी अनुशासनहीन अल्हड़ता में आकुल जल-संकुल भुगोल भी बदल  देता  है। बाढ़ में इस गाद का परिमाण और  बढ़ जाता है। इस तरह बाढ़  एक ऐसा प्राकृतिक कैंसर है जो अपने साथ अपने भविष्य को भी लेकर आती है।  जरुरत इस बात की है कि गाद को काछा जाय और नदियों को गहरा बनाया जाय। पनामा और  स्वेज नहरों  में ऐसी व्यवस्था है। काछे गये गाद को किनारों पर पसारा जाय। इस उर्वर गाद  में सघन वन लगाये जायें।
उन्होनें उत्साहित  स्वर में गहरी बना दिये जाने के उपरांत नदियों को जल परिवहनके माध्यम के रुप मे विकसीत किये जाने पर भी जोर दिया। किंतु साथ ही मनीषी के आर्ष वचन में नैराश्य भाव गुंजित हुए – “ इसके लिये प्रबल राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है जो यहां दिखता नहीं है।  स्थानीय स्तर पर छोटी बड़ी ऐसी नहरें जिनके तल एवम सतह पक्के नहीं हैं ( अनलाइंड कैनल),  उनसे भी गाद निकालने के काम को प्राथमिकता दी  जानी चाहिये। मनरेगा जैसे कार्यक्रमों में समुचित नियोजन ऐसे ही उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु होने चाहिये।  उन्होनें लोगों में जल संचयन, जल के सदुपयोग एवम जल को संसाधन के रुप मे विकसित करने के लिये प्रशिक्षण की आवश्यकता को प्राथमिकता देने पर बल दिया। दिन-ब-दिन इस क्षेत्र में  आम जनों की बढ़ती रुचि  और  जागरुकता पर उन्होनें  संतोष तो व्यक्त किया, किंतु शासन के  स्तर  पर दृष्टिगोचर उदासीनता पर अवसाद प्रकट  किया।
प्राकृतिक त्रासदियों की ये विडम्बना है कि वो मानव शरीर और उसके अवयवों की तरह समग्रता में  आचरण  करती हैं।  जैसे पेट के  गैस से सिर में दर्द हो सकता है , वैसे ही एक क्षेत्र के लोगों की गलती का खामियाजा दूसरे क्षेत्र में घटित प्राकृतिक त्रासदी के  रुप  में भुगतना पड़ सकता है। इसलिये  पर्यावरणीय असंतुलन की उत्तरोत्तर ह्रासोन्मुख अवस्था को समेकित रुप में समझने और  हल करने की आवश्यकता है।
हम दोनों बातचीत में तल्लीन थे। इसी बीच खाने की बुलाहट आ गयी और हमने अपनी बात को विराम  दिया। इस महान तपस्वी के सान्निध्य में ऐसा  प्रतीत  हो  रहा  था  मानों उनके विचार-प्रसूत ऋचाओं की चिन्मय ज्योति में मन चैतन्य हो उठा हो और उनकी मृदुल वाणी के प्रांजल प्रवाह से अंतस सिक्त हो गया हो। भोजन की मेज पर हमने बिहार की मिथिला संस्कृति की मिठास की चर्चा की। विदा लेने का वक्त आ गया था।  बड़े अपनेपन से हमने अपने चलभाष क्रमांक की अदला-बदली की और फिर मिलने की आशा जगाकर प्रणाम निवेदित किये।
------------------------------  विश्वमोहन





Tuesday 1 June 2021

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२३

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२३

(भाग – २२ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य (न)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


६ – सुरा और जंगली भैंसों का सबूत 

शुरुआती दौर में प्रोटो-भारोपीय शाखाओं पर प्रोटो-यहूदी प्रभाव के अपने दावे को मज़बूत करने के सिलसिले में गमक्रेलिज और इवानोव ने ऐसे सत्रह सम्भावित ‘शब्द-ऋणों’ की सूची बनायी है जो यहूदी से अनुदान स्वरूप आए हैं। इन शब्दों की भारोपीय शाखाओं की बोलचाल में सीमित प्रचलन के लक्षणों के आलोक में मैलरी और आडम्स ने इस सूची को और संघटित कर चार भागों में संक्षिप्त कर दिया है और ये महत्वपूर्ण तुलनाएँ इस प्रकार हैं :

प्रोटो-भारोपीय ‘*मधु-‘ (शहद) : प्रोटो-यहूदी ‘*म्वतक-‘ (मीठा)

प्रोटो-भारोपीय ‘*टौरोस-‘ (जंगली साँड़) : प्रोटो-यहूदी ‘*टाव्र-‘ (साँड़, बैल)

प्रोटो-भारोपीय ‘*सप्तम-‘ (सात) : प्रोटो-यहूदी ‘*सबेतम- (सात), और 

प्रोटो-भारोपीय ‘*वोईनोम-‘ (वाइन) :प्रोटो-यहूदी ‘*वायन-‘ (वाइन) (मैलरी-आडम्स २००६:८२-८३)।


इसमें से तीन तुलनाएँ ऐसी हैं जो समानताओं का अद्भुत संजोग दिखाती हैं। शहद अर्थ वाले प्रोटो-भारोपीय ‘*मधु-‘ और मीठा अर्थ वाले प्रोटो-यहूदी शब्द ‘*म्वतक-‘ के बीच की तुलना तो हम पहले ही देख चुके हैं। ठीक उतनी ही गले नहीं उतरने वाली सात (प्रोटो-भारोपीय ‘*सप्तम-‘ : प्रोटो-यहूदी ‘*सबेतम-‘) वाली तुलना है कि यह बात समझ में नहीं आती है कि दोनों परिवारों ने सात के लिए एक ही शब्द का ऋण एक दूसरे से कैसे ले लिया? उसमें भी तब जब यहाँ पर इस बात की वकालत करने वालों के समक्ष  प्रोटो-भारोपीय और प्रोटो-औस्ट्रोएशियायी संख्या प्रणाली के पहले चार अंकों की एक अत्यंत विश्वसनीय तुलना  रखी जाती है तो उसे वह सिरे से नकार देते हैं। [{प्रोटो-भारोपीय - *सेम, *द्वोउ/द्वय, *त्रि और क्वेत्वोर : टोकारियन –‘सस’/’से’ (एक), रोमानियन – ‘पत्रु’ (चार), वेल्श – ‘पेडवर’ (चार)} और  प्रोटो-औस्ट्रोएशियन { ‘*एस’, ‘*देव्हा’, ‘*तेलु’ और ‘*पति’/’*एपति’ :मलय ‘स’/’सतु’ (एक), ‘दुअ' (दो), ‘तिगा’ (तीन), ‘एपत’ (चार)}]

परंतु, अन्य दो शब्द ऐसे हैं जो भारोपीय भाषा में यहूदी शब्दों के लिए जाने की कहानी को पक्के तौर पर साफ़ कर देते हैं। लेकिन वह भी तब, जब अपनी मूलभूमि में प्रोटो-भारोपीय भाषा अभी अपने उद्भव के प्रारम्भ काल में ही थी! तो चलिए इस स्थिति की भी हम जाँच कर लेते हैं :

प्रोटो(आद्य)-यहूदी शब्द ‘*टाव्र’ (साँड़, बैल) सभी प्रमुख यहूदी भाषाओं में अपना स्थान पाता है – अक्कडियन (‘शुर’), युगारिटिक (‘त्र’), हीब्रू (‘शोर’), सीरियायी (‘तव्रा’), अरबी (‘टाव्र’), दक्षिणी अरबी (‘ट्व्र’)।

जहाँ तक भारोपीय भाषाओं की बात है, वहाँ इसकी उपस्थिति इस प्रकार है – इटालिक (लैटिन ‘तौरस’), सेल्टिक (गौलिश ‘तर्वोस’), आइरिश (तर्ब), जर्मन ( पुरानी आइसलैंड की बोली ‘पज़ोर्र’), बाल्टिक (‘ताऊरस’),  स्लावी (पुरानी स्लावी ‘तरु’), अल्बानी (‘तरोक’), और ग्रीक अर्थात यूनानी (ताऊरोस)। ‘साँड़’ के लिए कोई हित्ती शब्द उपलब्ध नहीं है क्योंकि यह एक ऐसी यहूदी चित्रलिपि द्वारा निर्दिष्ट होती है जिसका हित्ती अनुवाद नहीं पढ़ा जा सका है (गमक्रेलिज १९९५ :४८३)। अर्मेनियायी भाषा ने ‘साँड़’ के लिए एक कौकेसियन  शब्द (‘त्सुल’) उधार ले रखा है। संक्षेप में कहें, तो हमें यहाँ फिर से एक बार पश्चिमी शाखाओं पर ही यहूदी प्रभाव दिखायी पड़ता है, जबकि भारतीय-आर्य, ईरानी और टोकारियन, इन तीनों पूर्वी शाखाओं में यहूदी प्रभाव के लेशमात्र भी लक्षण नहीं दिखते। एक बार फिर से यह दृष्टांत भारतीय-यूरोपीय (भारोपीय) शाखाओं के पूरब से पश्चिम की यात्रा की कहानी को ही कहता है। 

‘शराब’ (वाइन) शब्द से संबंधित साक्ष्य तो ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ केलिए और अधिक प्रतिघाती है। यह शब्द या तो एक यहूदी ‘शब्द-ऋण’ है या फिर एक ‘पुरातन अप्रवासी प्राच्य’ शब्द के आस-पास है (गमक्रेलिज १९९५ : ५५९)। यह यहूदी और दक्षिणी कौकेसियन, दोनों भाषाओं में पाया जाता है।

यहूदी भाषा – ‘*वायन-‘, अक्कडियन (‘*ईनु-‘), युग्रेटिक (‘*यं-‘), हीब्रू (‘*यायीं-‘) हमीटिक-मिस्त्र (‘*वंश-‘)।

दक्षिणी कौकेसियन – ‘*विनो-‘ (वाइन), जौरजियन (‘*विनो-‘), मिंग्रेलियन (‘विन’), पुराने जौरजियन (वेनाक)।

गमक्रेलिज ने ट्रान्स-कौकेसस क्षेत्रों में अंगूर की खेती और शराब बनाने की तकनीक के विकास की भी चर्चा की है (गमक्रेलिज १९९५:५६०)। हालाँकि, वह यह भी मानते हैं कि प्रोटो-भारोपीयों ने इस शब्द का इजाद पश्चिमी-एशिया और ट्रान्सकौकेसस क्षेत्रों में ही किया।

अब चाहे यह मूल रूप से यहूदी शब्द हो या कौकेसियन शब्द, इसका भूगोल निस्सन्देह पश्चिम एशिया और ट्रान्स-कौकेसियन क्षेत्रों का ही भूगोल है। 

और फिर – 

१ – यह शब्द पूरब की तीनों शाखाओं, भारतीय-आर्य, ईरानी और टोकारियन में नहीं पाया जाता, जबकि पश्चिम की सभी नवों शाखाओं में पाया जाता है।

२ – स्वर-साधना (वोकालिज़्म) के दृष्टिकोण से पश्चिम की नवों शाखाओं में पाए जाने वाले इस शब्द की तीन श्रेणियाँ हैं (गमक्रेलिज १९५५:५५७-५५८)।  ‘*वीयोनो-‘ में स्वर-साधना शून्य स्तर का है,  ‘*वेनो-‘ में स्वर-साधना ‘ए’ स्तर का है, ‘*वोईनो- में स्वर-साधना ‘ओ’ स्तर का है। ये सभी भारीपीय शाखाओं के कालानुक्रमी समूह हैं :

क – शुरू की शाखाएँ जो पश्चिम की ओर चली गयीं, उनमें शब्दों की व्युत्पति का आधार इस प्रकार है – अनाटोलियन (वीयोनो), हित्ती (वियन), लुवियन (विनियंत), हाईराटिक लुवियन (वीयन)।

ख – पाँच पश्चिमी शाखाओं में इस शब्द की व्युत्पति का आधार इस प्रकार है – वीयोनो : इटालिक (लैटिन ‘उईनुम’), सेल्टिक (पुरानी आइरिश ‘फ़िन’, वेल्श ‘ज्विं’), जर्मन (जर्मन ‘वेन’ और अंग्रेज़ी ‘वाइन’), बाल्टिक (लिथुयानियन ‘व्यंस’, लात्वियन ‘वींस’), स्लावी (रूसी ‘विनो’, पोलिश ‘विनो’)

ग – तीन अंतिम शाखायें जो पश्चिम की ओर चली गयीं उनमें  इस शब्द की व्युत्पति का विज्ञान इस प्रकार है – ‘*वोईनो-‘ : ग्रीक अर्थात यूनानी (माइसेनियन ग्रीक ‘वो-नो’, होमेरिक ग्रीक ‘ओईनोस’), अल्बानी (वीन), अर्मेनियायी (जिनी)।

पश्चिम की ओर बढ़ाने के क्रम में भारोपीय शाखाओं के तीनों समूह में अलग-अलग प्रकार के शब्दों का इजाद हुआ, जबकि जो शाखाएँ पूरब में ही रुक गयीं, उनमें किसी भी तरह का कोई परिवर्तन नहीं हुआ।


७ – घोड़ों का साक्ष्य  

अब हम उन सबूतों अर्थात ‘घोड़ों’ की बात कर लें जिसे दक्षिणी रूस के मैदानी भाग को आर्यों की मूल भूमि मानने की अवधारणा के प्रबल पक्षकार अपना अचूक और अमोघ अस्त्र मानते हैं, हालाँकि उनका यह हथियार भी तर्कों की टकसाल पर काग़ज़ी घोड़ा-सा ही है। सही मायने में  दोनों  पक्षों के बीच इतने बड़े-बड़े और निरर्थक दावे, सिद्धांतों और अवधारणाओं की बौछार तथा आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला है कि सबसे पहले हमारे लिए भी यही उचित होगा कि हम भली-भाँति तथ्यों की गहराई से पहले जाँच-परख कर लें, फिर इसकी विवेचना करें।  कुल मिलाकर तीन ऐसी बातें है जो हर तरह के विवादों से ऊपर उठकर है।

१ – प्रोटो-भारोपीय लोगों को घोड़े के बारे में जानकारी थी और घोड़े का सजातीय शब्द कमोवेश प्रत्येक शाखा में पाया जाता है : प्रोटो भारोपीय ‘*एख्वोस’, अनाटोलियन (हाईरेटिक लुवियन) ‘आ-सु-व’, टोकारियन ‘युक/यक्वे’, भारतीय-आर्य (वैदिक) ‘अश्व’, ईरानी (अवेस्ता) ‘अस्प’, अर्मेनियायी ‘एश’ (खच्चर), ग्रीक या यूनानी (माइसेनियन) ‘इको’, (होमेरिक) ‘हिप्पोस’, जर्मन (पुराने अंग्रेज़ी) ’एओह’, (गोथिक) ‘ऐहवा’, सेल्टिक (पुराने आइरिश) ‘एच’, (गौलिश) ‘एपो-‘, इटालिक (लैटिन) ‘एक़ूस’ और बाल्टिक (लिथुयानियन) ‘एश्व’। यह भी एक संयोग ही है कि जिस एकमात्र शाखा में यह शब्द नहीं मिलता है वह है दक्षिणी रूस के उसी मैदानी भाग में बोली जाने वाली भाषा, स्लावी। और अल्बानी भाषा में भी इसका कोई सजातीय शब्द अब नहीं बचा है। लेकिन यह बात तो साबित हो जाती है कि ईसा से ३००० साल पहले अपनी मूलभूमि में प्रोटो-भारोपीय लोग घोड़े से बड़ी अच्छी तरह परिचित थे और यहीं वह समय भी था जब भिन्न-भिन्न शाखाएँ उस मूलभूमि से भिन्न-भिन्न दिशाओं में छिटकने लगी थीं। 

२ – ग्रंथो के पूरे रचना-काल के दौरान वैदिक लोगों को घोड़े की पूरी जानकारी थी।

३ – भारत घोड़ों का पुश्तैनी वतन तो नहीं था लेकिन उनका यह वतन उत्तरी यूरेशिया के एक वृहत क्षेत्र में फैला था जो पश्चिम में दक्षिणी रूस के मैदानी भाग से लेकर पूरब में मध्य एशिया तक था।

सामान्य तौर पर पहली दो बातों पर कोई विवाद नहीं है। बस तीसरी बात को ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के विरोधी नहीं स्वीकारते हैं। उनका विचार है कि ऋग्वेद में वर्णित घोड़े मैदानी भागों के उत्तरी घोड़े नहीं हैं, बल्कि देशी प्रजाति के हैं। इस सम्बंध में वे शिवालिक में मिलने वाले ‘एक़ूस सिवालेंसिस’ प्रजाति की चर्चा करते हैं जो प्राचीन काल में उत्तर भारत में पायी जाने वाली तगड़े घोड़ों की एक प्रजाति थी। यह माना जाता है कि ८००० ईसापूर्व या इसके आसपास यह प्रजाति विलुप्त हो गयी। ऋग्वेद के १/१६२/१८ और शतपथ ब्राह्मण के १३/५ में ऐसे घोड़े की बलि की चर्चा है जिसकी पसलियों की ३४ हड्डियाँ  थीं। आम तौर पर घोड़ों की पसली में ३६ हड्डियाँ होती है लेकिन शिवालिक क्षेत्र के घोड़ों की कुछ क़िस्मों में ३४ हड्डियाँ होने की बात भी मिलती है। इसी बात को वैदिक युग  में भारत में शिवालिक-घोड़ों के होने के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। जहाँ तक इनके जीवाश्मों से संबंधित साक्ष्य का सवाल है तो असली घोड़ों का भी जिस काल और जिस क्षेत्र में बहुतायत में होने की बात कही जाती है, उन दोनों स्थितियों में ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। इसी आधार पर शिवालिक घोड़ों के संदर्भ में भी जीवाश्म संबंधी साक्ष्यों को अप्रासंगिक कहकर टाल दिया जाता है। ऐसा भी सम्भव है कि ‘*एखोव-‘ शब्द किसी समान प्रजाति के पशु के लिए प्रचलित हो। ये पशु बहुत तेज़ भागने वाले ओनगा या खच्चर जैसे जंगली गदहों की प्रजाति के हो सकते थे जो अधिकांशतः पुरातन क़ालीन उत्तर भारत में पाए जाते थे और आज भी कच्छ और लद्दख के शुष्क क्षेत्रों में पाए जाते हैं। साथ ही ऋग्वेद में यदा-कदा ‘अश्व’ शब्द का प्रयोग सवारी करने वाले पशु के रूप में हुआ है न कि उन घोड़ों के लिए जो रथ खिंचते थे। चौथे मंडल के ३७/४ में ‘मोटा अश्व’ का निहितार्थ हाथी हो सकता है जब कि ‘दाग़धारी अश्व’ का संकेत मरुत के रथ की ओर है। निश्चित तौर पर इस रथ का मतलब ‘दागधारी हिरण’ से ही लिया गया है। १/(८७/४, ८९/७, १८६/८), २/३४/३, ३/२६/६, ५/४२/१५ और ७/४०/३ के उल्लेखों से हालाँकि  यहीं प्रतीत होता है कि धारीदार ‘घोड़े’ का दागधारी ‘हिरण’ में काव्यातक रूपांकन हो गया है। ३४ हड्डियों वाली ये तमाम बातें पक्के तौर पर न केवल अत्यंत रोचक हैं, बल्कि  और अधिक छानबीन भी किए जाने लायक़ है।  फिर भी तर्कों की इस रोचकता को फ़िलहाल हम तिलांजलि देकर अभी मैदानी भाग के उन असली घोड़ों पर गहरायी से अपनी नज़रें टिकाएँगे जिनका मादरे वतन हिंदुस्तान की ज़मीन नहीं था। 

घोड़ों से संबंधित ऊपर के तीनों तथ्यों के आधार पर ‘आर्य-आक्रमण-अवधारणा’ के पैरोकार निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल लेते हैं :

 चूँकि न तो हड़प्पा से मिली मुहरों में घोड़ों की कोई उपस्थिति है और न ही हड़प्पा की खुदायी में घोड़ों की हड्डियाँ मिली है, इसलिए यह तय है कि आर्यों के आगमन से पूर्व न तो भारत में घोड़ों की उपस्थिति थी और न ही भारत के लोगों को घोड़ों के बारे में कोई जानकारी थी। इसी आधार पर यह भी तय है कि हड़प्पा की सभ्यता ‘अनार्यों’ की सभ्यता थी और ये आर्य ही थे जो दक्षिण रूस के मैदानी भागों की अपनी मूल भूमि से घोड़ों को लेकर भारत आए। उदाहरण के तौर पर हॉक इसे कुछ इस तरह से व्यक्त करते हैं कि ‘कुछ छोटी-मोटी बातों पर भले ही असहमति हो लेकिन भारोपीय भाषा विज्ञान और जीवाश्मिकी से जो भी परिचित हैं वे इस बात को मानते हैं या फिर यूरेशिया में जो भी  पुरातात्विक सबूत मिले हैं उनसे भी इसी बात का  संकेत  मिलता है कि यूक्रेन के मैदानी भागों से ही पालतू घोड़ों का और साथ-साथ युद्ध में प्रयोग होने वाले घोड़ों से खींचे जाने वाले दो पहिए वाले रथों का प्रचलन फैला। पुरातन भारोपीय संस्कृति और धर्मों में घोड़ों का बड़ा अहम स्थान है। यूरेशिया के पुरातत्व और भारोपीय ज्ञान की विशेष जानकारी रखने वाले विद्वानों की इसलिए इस बात पर पूरी सहमति है कि भारतीय-आर्यों के आने के साथ-साथ ही घोड़े से संबंधित इन सारे लक्षणों का भारत में फैलाव हुआ।‘ (हॉक १९९९अ :१२-१३)

समूचे ‘आर्य’ विवाद में उपरोक्त निष्कर्ष से ज़्यादा धोखा देने वाली और भ्रम पैदा करने वाली कोई दूसरी बात नहीं हो सकती।

१- पुराने ज़माने में घोड़े भारत में नहीं पाए जाते थे, किंतु अफगानिस्तान के उत्तर मध्य एशिया में मिलते थे। आज तक जो स्थिति बनी हुई है, उसके अनुसार दुनिया में पूरी तरह से पालतू बना लिए गए घोड़ों का पहला सबूत कजकस्तान की बोटाई संस्कृति में मिलता है। इसके मिलने का काल भी उस समय से १००० साल और पहले चले जाता है जिस काल में इनके पाए जाने की मान्यता है। क़रीब ३५०० ईसापूर्व की यह बोटाई संस्कृति पूरी तरह से घोड़ों के प्रजनन की संस्कृति का काल था, जब घोड़ों की नस्लों का जनन होता था, उन्हें दूहा जाता था और फिर उनसे छुटकारा भी पा लिया जाता था। ( उत्खनन क्षेत्रों से प्राप्त जबड़ों की हड्डियों और दाँतों के परीक्षण से यही पता चलता है कि लगाम और नाल भी उस समय चलन में थे।)

यदि थोड़ी और गहरायी से देखें तो इस बात के प्रबल साक्ष्य मिलते हैं कि उससे भी पुराने समय में अफ़ग़ानिस्तान के उत्तर उज़्बेकिस्तान में घोड़ों को आदमी की बस्तियों में भली-भाँति पाला जाता था और उनसे घरेलू काम लिए जाते थे। संदर्भ लसोटा-मोसकलेवस्का २००९ (अ प्रॉब्लम औफ द अर्लीएस्ट हॉर्स डोमेस्टिकेशन: डाटा फ़्रोम द नियोलीथिक कैम्प अयकाज्ञतमा ‘द साइट’, उज़्बेकिस्तान, सेंट्रल एशिया पृष्ट १४-२१, अर्कियोलौजिया बाल्टिका खंड -११, कलैपेडा विश्वविद्यालय, लिथुयानिया २००९)।  

बुखारा शहर से क़रीब १३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित उत्खनन-स्थल से प्राप्त सामग्रियों की पुरातत्व एवं पुराजंतु विज्ञानियों ने बड़ा गहन वैज्ञानिक परीक्षण किया है। उन्होंने स्पष्ट तौर पर विकास की दो अवस्थाओं का उल्लेख किया है –

 पहला चरण है प्रारम्भिक नव पाषाण काल। कार्बन समस्थानिक १४  के आधार पर यह काल अंशांकित ८०००-७४०० साल  पूर्व (ca 8000-7000 cal. BP) का है। 

दूसरा चरण है अंशांकित ६०००-५००० साल पूर्व (ca 6000-5000 cal. BP)। आगे बढ़ने के पहले हम आपको समस्थानिक कार्बन १४ के आधार पर अंशांकित काल cal BP (Before  Present) के बारे में बता दें कि काल गणना की इस पद्धति में १४ परमाणु भार वाले समस्थानिक कार्बन परमाणु के किसी वस्तु में बचे अवशेष के आधार पर उसकी आयु निकालने की कार्बन-डेटिंग पद्धति के आविष्कार हो जाने पर एक मानक तिथि, एक जनवरी १९५०, से पूर्व के समय को इस अंशांकित पैमाने पर व्यक्त किया जाता है।

   स्थल के बाढ़ से प्रभावित होने के कारण इस काल गणना में १५०० वर्षों तक के अंतराल का अनुमान भी हो सकता है। इस काल के जानवरों के बड़ी मात्रा में अवशेष इस स्थल से प्राप्त हुए हैं जो नव पाषाण युग की परतों से निकले हैं। अस्थि और दाँतों के अवशेषों के मामलों में घोड़ों की उपस्थिति यहाँ काफ़ी अहम रही है। सबसे पुरानी परतों से प्राप्त अवशेषों में तीस से चालीस प्रतिशत अश्ववंश (equidae family) के ही अवशेष हैं। नव पाषाण युगीन अन्य यूरेशियायी स्थलों की तुलना में यह संख्या अपने आप में अनूठी है (लसोटा-मोस्कालेवस्का २००९:१४-१५)। अश्व वंश के अवशेषों की बहुत अधिक मात्रा (यहाँ तक कि कहीं-कहीं ४१ प्रतिशत से भी अधिक अवशेष अश्व-वंश के ही हैं), उनके कंधों की ऊँचाई और खुरों की चौड़ाई जैसे अनेक  ढेर सारे कारकों और सबूतों के आधार पर यहीं स्थापित होता है कि ये अवशेष किसी ऐसे जानवर के हैं जिनकी ऊँचाई आम जंगली जानवरों की औसत ऊँचाई से काफ़ी अधिक होती थी। बहुत हद तक इनकी आकृति  पालतू घोड़ों से मिलती जुलती थी। इन अश्ववंशी जानवरों के साथ-साथ पालतू स्तनपायी अन्य जानवरों यथा – भेड़, बकरी, सुअर और कुत्तों के जीवाश्म के अवशेष भी इन स्थलों से निकाले गए हैं। ये सारे तथ्य इसी बात को स्थापित करते हैं कि घोड़े मध्य एशिया के निचले भागों में नव पाषाण काल के प्रारम्भ से ही पाले जाने लगे थे और यह काल ९००० से ८००० अंशांकित काल पूर्व (cal BP) का समय है। साथ ही हमारे लिए आज की तिथि में घोड़ों को पालतू बनाए जाने के  सबसे शुरू के समय के रूप में यही काल स्थापित है (लसोटा-मोस्कालेवस्का २००९:१९-२०)।

कहने का तात्पर्य यह है कि इस बात में कोई जान नहीं है कि ३००० साल ईसा पूर्व दक्षिण रूस के मैदानी भागों को छोड़कर आने वाले ‘आर्यों’ के साथ घोड़ों का प्रवेश यहाँ हुआ। चाहे पूरी तरह से घरेलू और पालतू पशु के रूप में हों या फिर पालतू और घरेलू बनाने की प्रक्रिया में हों – अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी क्षेत्र में बसी सभ्याताओं में  ये घोड़े ईसा से ६००० साल पहले से ही पाए जाते रहे हैं। यहाँ यह भी बात उतनी ही ध्यान देने लायक़ है कि भारतीय मूलभूमि का तात्पर्य भारत के अंदरूनी हिस्सों तक ही सिमटा हुआ नहीं है। इस बात के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं कि ऋग्वेद के समय से भी काफ़ी पहले ‘दृहयु’ और ‘अणु’ जनजातीय समुदाय भारत के भीतरी इलाक़ों से निकलकर मध्य एशिया और अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी भागों तक फैल चुके थे।  ऋग्वेद के पुराने मंडलों का रचना काल ईसा से ३००० साल से भी पीछे तक जाता है। उस काल तक ‘प्रोटो-अनाटोलियन’ और ‘प्रोटो-टोकारियन’ आबादी के साथ-साथ ‘दृहयु’ जनजाति की पहली पंक्ति की बसावट मध्य एशिया में बस चुकी थी। दृहयु-अणु-पुरु आबादी के उत्तर में फैले वितान के दृहयु छोर तक के भूभाग घोड़ों से भरे-पूरे क्षेत्र थे और इस क्षेत्र में पालतू बनकर घोड़े घरेलू जानवर के रूप में रच-बस चुके थे। पालतू घोड़ों का यह काल ३००० साल ईसा पूर्व से पहले तक का काल है। इसलिए उस समय के एक ऐसे अनोखे पशु, चाहे वह जंगली हो या पालतू, के लिए एक ही तरह  के प्रोटो भारोपीय नामों के अपनाए जाने या विकसित होने के दृष्टांत यदि मिलते हैं तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है।

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