धू-धू कर, मैं चिता में जल रही,
धूम्र बनकर, वायु तुम मंडरा रहे हो।
देही थे तुम, देह अपनी छोड़कर,
नष्ट होने पर मेरे इतरा रहे हो!
सुन लो, हे अज, नित्य और शाश्वत!
चेतना का, दंभ तुम जो भर रहे हो!
छोड़ मुझ जर्जर सरीखी देह को,
भव सागर, आज जो तुम तर रहे हो!
तुम पुरुष हिरण्य बनकर आ गिरे,
मुझ प्रकृति का ही गर्भ पाए थे।
घोल अपनी चेतना जीव द्रव्य में,
गीत मेरे संग सृजन के गाए थे।
मुक्ति का जो भाव लेकर जा रहे,
हम निरंतर उस धारा में बह रहे।
पंच मात्रिक तत्वों की मैं प्रकृति,
राख बन अपने स्वरूप ही दह रहे।
फिर, कोई तुम - सा भ्रमित पथिक,
अहंकार चेतना का लायेगा।
पांच तत्वों की मुझ प्रकृति में,
अपनी बुद्धि और मन को पाएगा।
हे पुरुष, भटके तुम जंगम, सुन लो!
स्थावर रूप मेरा, ही तुम्हारा वास है।
न मैं बंधी, और न हो, मुक्त तुम!
सहवास हमारा, ही समय आकाश है।
मेरी प्रकृति के अणु परमाणु में,
होता पुरुष विराट का विस्तार है।
'सो अहं, तत् त्वं असि', यह मंत्र ही,
सृष्टि की, अद्भुत छटा का सार है।