Wednesday 24 February 2021

कासे कहूँ- समीक्षा डॉ प्रोफेसर उषा सिन्हा

 



(कृपया आठ मिनट बीतने के बाद के अंश का श्रवण करें। असुविधा के लिए खेद है।)

Tuesday 23 February 2021

काल-चक्र की क्रीड़ा-कला!

कई दिनों से रूठी मेरे,

अंतर्मन की कविता।

मनहूसी, मायूसी, मद्धम,

मंद-मंद मन मीता।


शोर के अंदर सन्नाटा है,

शब्द, छंद सब मौन।

कांकड़-पाथर-से भये आखर,

भाव हुए हैं गौण।


थम गई पत्ती, चुप है चिड़िया,

और पवन निष्पंद।

पर्वत बुत-से बने पड़े हैं,

नदियों का बहना बंद।


हिमकाल के मनु-से मेरे,

मन में बैठी इड़ा।

बुद्धि की बेदिल देवी, क्या!

परखे पीव की पीड़ा?


अभिसार-से सुर श्रद्धा के,

नहीं सुनाई देते।

सुध धरा की व्याकुलता का,

बादल भी नहीं लेते।


चाँद गगन में तनहा तैरे,

आसमान है बेदम।

जुगनू जाकर जम गए तम में,

करे पलायन पूनम।


नि:शक्त शिव शव स्थावर,

निश्चेतन जीव जगत है।

समय चक्र की सतत कला का,

यही नियति आगत है।


प्रलय काल में क्षय के छोर पर,

हो, शक्ति की आहट।

स्फुरण में चेतन के फिर,

जागेंगे शिव औघट।


शिव के डमरू से निकलेगा,

प्रणव-नाद का गान।

और कन्हैया की मुरली से,

प्रणय-रास की तान।


अक्षर वर्ण शब्दों में ढलकर,

गढ़े ज्ञान की गीता।

अनहद चेतन अंतर्मन में,

मानेगी मेरी कविता!!!


राह निहारूँ उस पहरी की,

मनमीता मोरी मानें।

काल-चक्र की क्रीड़ा-कला,

जड़-चेतन सब पहचानें।













Thursday 11 February 2021

कृष्ण-कन्हैया

 पल-पल पुलकित पलकों में,

जो,  प्रीत तू अबतक पाली।

नित नयनों में तेरे उतराए,

वह बिम्ब कौन री व्याली!


उर की धडकन में धक-धक,

जो धड़क-धड़क कर बोले।

चतुर-चितेरा, चहक-चहक,

 मन वेणी,   तेरी  खोले।


कूल-कालिंदी से कलकल,

कलरव करती किल्लोलें।

हिय वह हौले-हौले तेरे,

नेह मधुर रस  घोले।


मूंदे दृग-पट अपना तू,

करता वह  नैन बसेरा।

आँखों के आँगन में,

तेरे, डाला उसने डेरा।


चमके चिर चितवन चंचल,

वह, तेरे कपोल की लाली।

कौन! कहाँ? वह कृष्ण-कन्हैया!

तू,  किस हारिल की डाली!


वैलेंटाइन सप्ताह

11.2.2021

पटना


Monday 1 February 2021

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१९)

(भाग - १८ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (त)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


शीतोष्ण, अर्द्ध-शीतोष्ण और भारतीय प्राणी एवं वानस्पतिक जगत 

इन खंडन-मंडन करने वाले भाषाविदों के लिए सबसे अधिक विडम्बना और उससे भी अधिक दुर्भाग्य का विषय तो यह है कि प्रोटो-भारोपीय भाषाओं में पुनर्रचित प्राणी-जगत के कुछ ऐसे नाम हैं जो भारत में तो पाए जाते हैं किंतु यूरोप के मैदानी भागों में नहीं पाए जाते। इस आधार पर तो यह बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि इनकी मूल भूमि भारत है न कि दक्षिणी रूस का मैदानी भाग या यहाँ तक कि अनाटोलिया भी! दृष्टांत के लिए ये जानवर हैं – बाघ, सिंह, चीता, लंगूर और हाथी। सामान्य तौर पर विवेचनाओं में इस बिंदु की अवहेलना कर ये ‘खंडन-मंडन-पारंगत’ विद्वान आगे बढ़ जाते हैं :

बाघ : ‘*विहाघ्रस’, तीन शाखाओं में इसके रुप इस प्रकार हैं –

भारतीय आर्य : व्याघ्र, ईरानी (पारसी) : बब्र, अर्मेनियायी : वग्र ( इसी शब्द को आभारोपीय भाषा कौकेसियन जौरजियन        में ‘विग्र’ के रूप में लिया गया है।

सिंह : ‘*सिंघोस’, दो शाखाओं में इसके रूप इस प्रकार हैं –

भारतीय-आर्य : सिंह, अर्मेनियायी : इंज ( यहीं नाम चीता के लिए है)

चीता : ‘*पर्ड’, चार शाखाओं में इसके नाम इस प्रकार हैं – 

भारतीय-आर्य : प्रदाक़ु, ग्रीक : पार्डस/पर्डलिस, ईरानी पारसी : फ़र्स-, अनाटोलियन (हित्ती) : पर्सना 

बंदर : ‘*क्व्हे/ओप्फ’, चार शाखाओं में इसके रूप इस प्रकार हैं –

शुरू के ‘क्व्हे’ को लेकर भारतीय-आर्य भाषा में कपि-, ग्रीक : केपोस, बिना ‘क्व्हे’ को लिए जर्मन और आइसलैंड की प्राचीन भाषा में ‘अपि’, स्लावी : ओपिका 

और इन सभी में सबसे महत्वपूर्ण हाथी है।

हाथी : ‘*लहभो-न्थ-‘ या ‘*हभो-न्थ’। इसके रूप कम-से-कम चार शाखाओं में प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं –

भारतीय-आर्य : इभा-, ग्रीक : एलिफ़स, (माइसिनियन ग्रीक : एरेपा), इटालिक (लैटिन) : एबर, हित्ती : लहफ़ा (इनके वैकल्पिक अर्थ भी हैं और एक अर्थ ‘हाथी का दाँत भी है)। ऊँट के अर्थ में यह शब्द दो भाषाओं में प्रयुक्त होता है – जर्मन (गोथिक) : उलबंदुस और स्लावी : वेलिबोदु 

जानवरों के ये प्रोटो-भारोपीय अपभ्रंश नाम इस अवधारणा को पूरी तरह ख़ारिज करते हैं कि इनसे ताल्लुक़ रखने वाली वानस्पतिक आबोहवा या प्राणिक जलवायु उत्तर का ठंडा या शीतोष्ण परिवेश ही रहा होगा। इसलिए आर्य-आक्रमण अवधारणा के अधिकांश पैरोकार अपनी दलीलों में मात्र भारत में पाए जानेवाले इस महत्वपूर्ण बिंदु को नज़रंदाज़ करते हुए कुटिलता से केवल उन्ही प्राणियों या पेड़-पौधों के नामों की चर्चा करते हैं जो शीतोष्ण जलवायु वाले प्रदेशों के साथ-साथ ‘भारत में भी’ पाये  जाते हैं। 

लेकिन इन सभी नामों में सबसे ज़्यादा प्रमुख हाथी का नाम है :

१ – यह शब्द समूची भारोपीय शाखाओं के पटल पर छाया हुआ मिलता है। यह 

क - एशिया और यूरोप, दोनों में पाया जाता है, 

ख – दक्षिण-पूर्वी सीमांत शाखा, भारतीय-आर्य और पश्चिमोत्तर सीमांत शाखा, जर्मन दोनों में पाया जाता है,

ग – भारोपीय परिवार की प्राचीनतम दर्ज भाषाओं, हित्ती, माइसेनियन ग्रीक और पुरातन भारतीय-आर्य भाषाओं, में पाया जाता है (मल्लोरी-आडम्स २००६ : ९९)

घ – साथ ही, समूचे यूरोप में पुरातन काल की प्रामाणिक यूरोपीय शाखा की लैटिन, गोथिक और गिरिजाघरों में बोली जाने वाली स्लावी भाषाओं में पाया जाता है।

मल्लोरी और आडम्स के अनुसार किसी शब्द के पक्के तौर पर प्रोटो भारोपीय होने की बस एक ही कसौटी है कि ‘यदि अनाटोलियन और किसी भी एक भारोपीय भाषा में उस शब्द के सपिंडी या सजातीय शब्द पाए जाते हों तो वह शब्द निश्चित तौर पर भारोपीय ही है।‘ इसमें आगे वह यह जोड़ देते हैं कि ‘भले ही यह नियम सबको नहीं रुचे लेकिन यहाँ पर यहीं लागू होता है (मल्लोरी-आडम्स २००६:१०९-११०)।‘ यहाँ पर हाथी के सजातीय या सपिंडी शब्द अनाटोलियन  के साथ-साथ पाँच अन्य भारोपीय भाषाओं में पाए जाते हैं।

२ – ऊपर वर्णित अन्य जानवरों के विपरीत, ऐतिहासिक भारोपीय पर्यावास के मात्र एक ही ठिकाने पर हाथी पाया जाता है – वह है ‘भारतीय-आर्य भूमि।‘ हाथी की दो स्पष्ट प्रजातियाँ हैं। पहली प्रजाति है - भारतीय हाथी (इलेफ़स मैक्सिमस) जो सिर्फ़ भारत और इसके पूरब स्थित दक्षिण एशिया के क्षेत्रों में पाया जाता है। दूसरी प्रजाति है – अफ़्रीकी हाथी (लोक्सोडोंटा अफ़्रीकाना) जो अफ़्रीका के सहारा के आस-पास के क्षेत्रों में पाया जाता है। दोनों प्रजातियों की रिहाईश भारोपीय भाषा की ऐतिहासिक भूमि से सुदूर भारतीय-आर्य भाषी भूमि है।

हाथी और अन्य चार जानवरों के ऊपर दिए गए दृष्टांत की विवेचना से निष्पन्न तथ्य पूरी तरह से न केवल भारत की मूलभूमि होने की अवधारणा को स्थापित करते हैं, प्रत्युत दक्षिणी रूस के मैदानी भाग में इनकी मातृभूमि की परिकल्पना को पूरी तरह से नकारते भी हैं। ऋग्वेद में भी हाथियों का वर्णन देशी पशु के रूप में एक पालतू प्राणी की तरह मिलता है। किंतु, दुर्भाग्य से पूर्वाग्रही विद्वानों की एक जमात ने इस तथ्य से यूँ अनभिज्ञता प्रकट की है, मानों हाथी कभी इस भूमि में रहा ही नहीं!

विद्वानों  द्वारा हाथियों के इस तथ्य को नज़रंदाज़ करेने के पूर्वाग्रही और पुरज़ोर प्रयासों की विशद विवेचना श्रीकांत तलेगरी ने अपनी पुस्तक ‘The Elephant and the Proto-Indo-European Homeland (हाथी और प्रोटो-भारोपीय मूलभूमि)’  में की है। उसी पुस्तक में हाथियों के अत्यंत प्राचीन काल से भारत भूमि में विचरने के प्रमाण ऋग्वेद की ऋचाओं में तलाशे गए हैं। ऋग्वेद के प्राचीन और अर्वाचीन, दोनों मंडलों में हाथियों का उल्लेख मिलता है। इनके स्पष्ट रूप से तीन नाम पाए जाते हैं – इभा-, वार्णा और हस्तिन। आगे चलकर ऋग्वेद में ही कुछ और भी नामों, जैसे गज, मतंग, कुंजर, दंती, नाग, करी आदि का उल्लेख मिलता है। ग्रिफ़िथ और विल्सन ने हाथी के लिए दो और शब्दों को ऋग्वेद में खोजा है – अप्स: (८/४५/५६) और श्रणी (१०/१०६/६)। 

स्पष्ट तौर पर यह वैदिक लोगों का एक जाना-पहचाना जानवर है जो पूरी तरह से उनके संस्कारों और वैदिक वातावरण में घुला-मिला है। ४/१६/१४ में इंद्र की ताक़त की तुलना हाथी से की गयी है। तीन ऋचाओं (१/६४/७, १/१४०/२ और ८/३३/८) में जंगली हाथी के द्वारा जंगल में घनी झाड़ियों को कुचलते विचरता दिखाया गया है। इसमें तीसरी ऋचा में ‘भीषण ताप से उन्मत्त हाथी इधर-उधर भटक रहा है (ग्रिफ़िथ)’। १०/४०/४ में दो जंगली हाथियों का पीछा करते शिकारियों की टोली दिखायी दे रही है। १/८४/१७ में धनिक व्यक्ति के दरवाज़े पर उसका पालतू हाथी उसके परिवार के सदस्य की भाँति खड़ा है। ४/४/१ में शक्तिशाली राजा के राज जुलूस में सवारी के रूप में शक्तिशाली हाथी का विवरण मिलता है। ९/५७/३ में एक भव्य समारोह में सज़ा-धजा हाथी मिलता है। ६/२०/८ में लड़ाई के मैदान में डटी गज-सेना का ज़िक्र मिलता है। वैदिक संस्कृति और अर्थतंत्र में हाथी और हाथी के दाँतों के महत्व के सिलसिले में तुग्र, भुज्य, इभ्य, वेतसु, दशनी, ऋभु आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है।

हाथी और उसके दाँतों के लिए प्रयुक्त शब्द अपनी व्युत्पति के गर्भ में ही गहरे अर्थ समेटे हुए हैं। प्रोटो भारोपीय भाषा के अपभ्रंश स्वरूप में हाथी के लिए ‘*लभ/*ल्भोंथ-‘ शब्द है। इसकी व्युत्पति का मूल संस्कृत का ‘ऋभ/लभ’ है। ‘भारत-मूलभूमि-परिकल्पना' में न केवल भारोपीय भाषाओं के इस भूमि से बिछुड़कर बाहर चले जाने के समय से, बल्कि उससे भी बहुत पहले के काल से हाथी इस भूमि के अत्यंत महत्वपूर्ण सदस्य रहे हैं। इसलिए इनके नामों के शब्द ऋग्वेद के ज़माने से भी बहुत पहले के और भारोपीय भाषा से भी पहले के शब्द हैं।  यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि ‘इभ-‘ शब्द की व्युत्पति का स्त्रोत अज्ञात है। पाणिनि ने इस शब्द के उद्भव का कोई आधार नहीं दिया है। ‘ऊणादि-सूत्र' में ऐसे शब्दों की सूची है जिनकी  व्युत्पति का आधार मालूम नहीं है। वहाँ पर इस शब्द का अर्थ ‘हस्ति’ अर्थात हाथी बताया गया है। सामन्य तौर पर ‘आर्य-आक्रमण-परिकल्पना’ के पैरोकार इसे आक्रांता आर्यों के अपनी स्थानीय बोली से लाया गया शब्द बता देते हैं, लेकिन इस शब्द का ज़िक्र किसी भी अभारोपीय भारतीय भाषा में नहीं मिलता है, हालाँकि इसके सपिंडी और सजातीय शब्द अनेक भारोपीय भाषाओं में मिला जाते हैं। फिर तो यही मानने को बच जाता है कि ‘इभ’ एक असाधारण कोटि का शब्द है जो ऋग्वेद के युग से भी काफ़ी पुरातन है और ऋग्वेद के रचे जाने तक वह अपने प्राकृत रूप को प्राप्त कर चुका था। तार्किक रूप से ‘इभ’ अपनी प्राकृत अवस्था पाने से पूर्व ‘ऋभ’ रूप में ही रहा होगा, जैसा कि आम लहजे में नियमित रूप से ‘ऋभ’ का प्रचलन हाथी की सूँड़ या उसके दाँतों के अर्थ में होता रहा है। हित्ती भाषा में इसके लिए ‘लहफ़ा-‘, लैटिन में ‘एबर-‘ और माइसेनियन ग्रीक में ‘एरेपा-‘ है। ग्रीक भाषा के ‘एलिफ़स’ और ऋग्वेद के ‘इभ’ शब्दों के दो अर्थों में एक अर्थ हाथी ही है। ग्रीक शब्द ‘एलिफ़ंता’ और जर्मन शब्दों (‘उलबंद’ आदि और उनसे संबंधित शब्दों) के प्रत्यय की व्याख्या हम ‘–वंता’ जैसे प्रत्यय शब्दों में ढूँढ सकते हैं। ‘*ऋभ-वंत’ का अर्थ हाथी होता है।

ऋग्वेद में हमारा परिचय ‘ऋभु’ शब्द से होता है। इसका संबंध पारलौकिक शिल्पकारों की एक प्रजाति से है। अपनी पौराणिक व्युत्पति में ये जर्मनी की पौराणिक लोककथाओं में पायी जाने वाली योगिनियों के समकक्ष बैठती हैं। मैकडौनेल के अनुसार ‘ऋभु’ शब्द का उद्भव ‘रभ’ शब्द अर्थात ‘मुट्ठी’ से हुआ है जिसका मतलब होता है हाथों की निपुणता (मैकडौनेल १८९७ :१३३)। वैदिक भाषा में ‘र’ और ‘ल’ शब्द के आपसी अदला-बदली की प्रवृत्ति के कारण इस मूल शब्द के ऋग्वेद में दो रूप पाए जाते हैं –‘रभ’ और ‘लभ’। दोनों का एक ही अर्थ होता है। ‘रभ’ का अर्थ होता है – पकड़ना, मुट्ठी में बाँधना, आलिंगन (मोनियर-विलियम्स १८९९ : ८६७) और ‘लभ’ का अर्थ होता है – लेना, ज़ब्त कर लेना, पकड़ना (मोनियर- विलियम्स १८९९ : ८९६)। ‘ऋभु’ शब्द के लिए प्रचलित विशेषण ‘सु-हस्त:’ है जिसका अर्थ होता है ‘कुशल हाथों वाला’ (४/३३/८, ३५/३/९, ५/४२/१२, १०/६६/१०)। इस तरह से ‘इभा’ और ‘ऋभा’ दोनों शब्द ‘रभ’ और ‘लभ’ से व्युत्पन्न हैं। इस मामले में हमें पाणिनि की तुलना में एक अतिरिक्त सहूलियत यह है कि बाक़ी भारोपीय भाषाओं में प्राप्त शब्दों की तुलना से प्राप्त अर्वाचीन साक्ष्य हमारे सामने मौजूद हैं। यह ‘इभ’ शब्द की वैदिक व्युत्पति पर तो प्रकाश डालता ही है, साथ-साथ प्रोटो-भारोपीय भाषा के व्युत्पति-विज्ञान की भी स्पष्ट समझ दे देता है जैसे कि ग्रीक और हित्ती संस्करणों में ‘ल’ तत्व की व्याख्या (और प्रोटो भारोपीय के अपभ्रंश रूप में ‘लेभ-’ शब्द!)। [ यहाँ यह ग़ौर करने वाली बात है कि ‘इभ’ शब्द की व्युत्पति भी ‘कुशल हाथ’ वाले अर्थ से ही हुई है और इसका भी भाव वहीं है जो ‘हस्तिन’ शब्द का है। लेकिन विडम्बना का विषय तो यह बेजान और बेस्वाद तर्क है कि इस साफ़-साफ़ समझ में आने वाले ‘हस्तिन’ शब्द का अर्थ भी आक्रमणकारी आर्यों द्वारा अपने साथ लाए एक नए जानवर के रूप में परोस दिया गया]।

भारत में हाथियों के दाँत के व्यापार के प्राचीन महत्व से ‘इभ-‘ शब्द के दो अर्थ प्रकट होते हैं। ऋग्वेद में ‘इभ-‘ का अर्थ  ‘हाथी/हाथी का दाँत (‘रभ’, ‘लभ’ से व्युत्पन्न ‘ऋभा’) है। ‘इभ्य’ का अर्थ धनवान, धनिक या अमीर (रभ्य, लभ्य) है। मूल शब्द ‘लभ’ बाद में लाभ, धन-दौलत या समृद्धि के अर्थ में प्रकट होने लगा। धन की देवी ‘लक्ष्मी’ को हाथियों से घिरा प्रदर्शित किया जाने लगा और यहाँ तक कि उनके नाम का विस्तार कर उन्हें ‘लाभ-लक्ष्मी’ और ‘गज-लक्ष्मी’ भी कहा जाने लगा। 

“ठीक वैसे ही ‘ऋभु’ को ‘धन या सम्पत्ति भी कहा जाता है जैसा कि ऋग्वेद के ४/३७/५ और ८/९३/३४ में हम पाते हैं’(मोनियर विलियम्स १८९९ : २२६) और दो सूक्तों (४/३७/५ और ८/९३/३४) में इसका अनुवाद धन-दौलत के रूप में किया गया है (विल्सन और ग्रिफ़िथ)।

“ सारत:, अकेले हाथी ही इस बात का पर्याप्त सबूत दे देता है कि आर्य बाहर से नहीं आए बल्कि अपनी मूल जन्मभूमि  भारत से ही बाहर की ओर फैले थे। 

२ – ऋग्वेद और वैदिक ग्रंथों में वर्णित पूर्वी बनाम पश्चिमी क्षेत्र 

ऋग्वेद के पुराने और नए मंडलों में वर्णित प्राणी और वानस्पतिक जगत का अवलोकन अत्यंत शिक्षाप्रद है।  

 पूर्वी जगत  

 सबसे पहले तो पूर्वी भारत के भीतरी भागों में बसने वाले ऐसे प्राणियों पर ध्यान केंद्रित करें जो सामान्य तौर पर पश्चिमोत्तर सीमा या उससे सटे अफगनिस्तान और अन्य पश्चिमी भागों के बाशिंदे नहीं हैं। जैसे – हाथी (इभा-, वारण, हस्तिन), भारतीय बाइसन या बिजोन या गवल (गौर), मोर (मयूर), भैंस (महिष) और धारीदार हिरण या चीतल (पृष्टि/पृश्दश्व)


पश्चिमी जगत

 ऋग्वेद के संदर्भ में पश्चिमी जगत के प्राणियों से तात्पर्य उन जंतुओं से है जो भारत के पश्चिम अर्थात कश्मीर और इसके आस-पास के क्षेत्रों से उत्तर की ओर, पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेशों में और अफ़ग़ानिस्तान में पाए जाते हैं।  वैसे तो जंगली बकरियाँ पूर्वी हिमालय में, नीलगिरी तहर (जंगली बकरियों की एक प्रजाति) तमिलनाडु में नीलगिरी की पहाड़ियों के दक्षिण में और जंगली सुअर दक्षिण तथा पूरब के भूभागों में भी पाए जाते हैं। पश्चिमी जगत के जंतुओं में पहाड़ी बकरी (छग), भेड़ (मेष), मेमना (ऊरा), बैक्ट्रियायी ऊँट (ऊष्ट्र), अफ़ग़ानी घोड़ा (मथ्र) और जंगली सुअर (वराह) आदि उल्लेखनीय हैं। पश्चिमोत्तर में पाए जाने वाले इन जंतुओं में से अधिकांश, जैसे कि ‘माएस’(भेड़), ‘ऊरा’(मेमना), ‘ऊष्ट्र’(ऊँट) और ‘वराज’(सुअर), का विवरण अवेस्ता में भी मिलता है। ठीक इसके उलट, जिन पूर्वी जंतुओं का ऊपर हमने ज़िक्र किया उसमें किसी का भी विवरण अवेस्ता में नहीं मिलता। 

अब इन पश्चिमी जंतुओं का ज़िक्र भी नए मंडलों में ही मिलता है। यहाँ तक कि नए मंडलों में भी जो सबसे पुराना पाँचवाँ मंडल है, उसमें भी ये नदारद हैं। इससे एक बात तो साफ़ हो जाती है कि जबतक वैदिक आर्य अपनी मूल पूरबिया भूमि से पश्चिमोत्तर की ओर नहीं बढ़े थे तबतक वे इन पश्चिमोत्तर प्राणियों से बिल्कुल अनजान ही थे। इन जंतुओं की चर्चा का ऋग्वेद में वितरण इस प्रकार है :

१ – पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : कोई सूक्त नहीं और कोई ऋचा नहीं 

२ – पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ के पुनर्संशोधित सूक्तों में : कोई सूक्त नहीं और कोई ऋचा नहीं।

३ – नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : ३३ सूक्त, ३५ मंत्र या ऋचायें 


यदि हम तथ्यों की थोड़ी और गहरायी में जाकर पड़ताल करें तो पश्चिमी पालतू जानवरों में गदहों (गर्दभ, रासभ) और सुअरों (सुकर) का ज़िक्र तो हमें पुनर्संशोधित और नए मंडलों में तो मिलता है लेकिन पुराने मंडलों में नहीं मिलता। यहाँ पर अवेस्ता के ‘हुकर’ और टोकारिया के ‘केर्चापो’ की चर्चा भी समीचीन होगा। गदहे के लिए अवेस्ता का शब्द ‘क्षर’  सूत्रों में ‘खर’ के रूप में पाया जाता है।

पुनर्संशोधित मंडल :

तीसरा मंडल – ५३/(५, २३)

सातवाँ मंडल – ५५/४

नए मंडल :

पहला मंडल – ३४/९, ११६/२, १६२/२१

आठवाँ मंडल – ८५/७

यद्यपि पूरब के वैदिक आर्य भेड़ों से परिचित नहीं थे किंतु पश्चिम से आयातित ऊन से वे अवश्य परिचित थे जिसमें वे ‘सोम’ को छानकर पीते थे। जैसे-जैसे पश्चिम की ओर वे बढ़ते गए उनका यह परिचय गहराता गया। ‘भेड़’ के लिए प्रोटो-भारोपीय भाषा में नियमित शब्द ‘आवि-’ है। ऋग्वेद में सोमरस को छानने के लिए ऊनी कपड़े के लिए ‘आवि-‘ और इससे व्युत्पन्न शब्द ‘आव्य-‘, ‘आव्यय-’ और ‘अव्याय-‘ का प्रयोग हुआ है। ‘ऊन’ के लिए प्रोटो भारोपीय शब्द ‘ऊर्ण-’ या ‘ऊर्णा-‘ है, जिसके सजातीय और सपिंडी शब्द अधिकांश भारतीय-आर्य भाषाओं में मिल जाते हैं। ‘आवि-‘ शब्द का प्रयोग हमें ऋग्वेद में इस प्रकार मिलता है – तीन सबसे पुराने मंडल ६, ३ और ७ के पुराने सूक्तों में यह शब्द कहीं नहीं मिलता। केवल बीच के मंडल ४ और २ के पुराने सूक्तों, पुनर्संशोधित मंडलों और नए मंडलों में ही यह शब्द पाया जाता है।

पुराने सूक्त (मंडल ४ और २)  :

चौथा मंडल – २/५, २२/२

दूसरा मंडल – ३६/१

पुनर्संशोधित मंडल :

छठा मंडल – १५/१६

नए मंडल : 

                                                                                                                               (क्रमशः)