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Sunday, 5 September 2021

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२६

वैदिक वांगमय और इतिहास बोध-२६
(भाग – २५ से आगे)

श्री तलगेरी जी के शोध प्रबंध से हमें ऋग्वेद के भिन्न-भिन साहित्यिक एवं भाषिक पहलुओं के साथ इससे जुड़े अन्य अनेक महत्वपूर्ण आयामों का विस्तृत परिचय मिलता है और इससे हमें  अपनी एक स्वतंत्र राय विकसित  करने की दिशा में भी पर्याप्त खुराक मिल जाती है। हमने प्रारम्भ में सरस्वती की चर्चा भी की थी। हमने मूलर  के इस विचार को भी पढ़ा कि सरस्वती आज के अफ़ग़ानिस्तान में बहने वाली हेलमंड नदी है। हमने यह संकेत भी दिया था कि इस लेख के क्रमिक विकास  में हम सरस्वती पर विस्तार से चर्चा  करेंगे। किंतु, सरस्वती के प्रसंग का श्री गणेश करने के पूर्व हम थोड़ा-सा विराम लेकर पहले वैदिक वांगमय के स्वरूप का परिचय ले लेते हैं। अर्थात, वैदिक वांगमय या वैदिक साहित्य कहने से हमारा क्या अभिप्राय है और इस साहित्य का आकार एवं विस्तार कहाँ तक है। वैदिक साहित्य का अर्थ क्या केवल ऋग्वेद ही है या इससे इतर भी कुछ और रचनाएँ हैं। वे अन्य रचनाएँ कौन सी हैं जो वैदिक वांगमय की आकाशगंगा को अपनी ज्योति से आलोकित करती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऋग्वेद इसमें से सबसे प्राचीन और सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। सच कहें तो वैदिक साहित्य का विस्तार ऋग्वेद के काल से लेकर बौद्ध-साहित्य रचे जाने के पहले के थोड़े समय के शून्यता-काल के पहले तक   का था। या यूँ कह लें कि भाषा के स्तर पर यह वैदिक संस्कृत से प्रारम्भ होकर उस रचनात्मक शून्यता वाले  मध्यांतर की अवधि  के प्रारम्भ तक चली आती है जिसके  बाँये सिरे पर लौकिक संस्कृत और दाहिने सिरे पर पाली भाषा है। रचनाओं में लौकिक संस्कृत के क्षीण होने से लेकर पाली भाषा के उदय होने तक के मध्यांतर में आश्चर्यजनक  रूप से साहित्य-सृजन  के क्षेत्र में एक अप्रत्याशित सूखा-सा  दिखाई देता है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि भाषा के  लोकोन्मुखी होने के इंतज़ार में रचनात्मक भावों ने विश्राम ले लिया हो  और सृजन की धारा थम-सी गयी। या,  फिर जन-मानस उपनिषद के गूढ़ दर्शन को समझते-समझते ऊब-सा गया था और पुराणों के तथाकथित प्रपंच के प्रबल ताप में तपता वह  अब आध्यात्मिक  जटिलता से निकलकर जीवन के दुःख से मुक्ति पाने की  किसी सरलतर युक्ति की आस लगाए बैठा था। उसकी यह प्यास आम बोली की भाषा पाली में बौद्ध साहित्य ने बुझायी होगी । यह परंपरा प्राकृत में जैन साहित्य में अनवरत बनी रही। लेकिन एक बात तो तय है कि आगे के काल में यहाँ तक कि आज तक भी जो साहित्य रचे गए या रचे जा रहे हैं, उनकी भाषा, शैली, शिल्प या अन्य बाहरी आवरण जो भी हो, उनमें से अधिकांश का बीज  कहीं न कहीं वैदिक साहित्य में पड़ा हुआ है। चाहे आधुनिक काल में  दिनकर की ज्ञानपीठ अलंकृत कृति ‘उर्वशी’ हो या स्वर्ण-काल के कालिदास का नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम’, इनकी प्रेरणा  का गोमुख तो ऋग्वेद के दशम मंडल का ‘पुरुरवा -उर्वशी-संवाद’ ही है। और तो और, परवर्ती कालों में भी आज तक हम  इस वैदिक साहित्य से बड़ी  कोई रेखा नहीं खींच  पाए। न ही, इन साहित्य में गुँजित छंदों से आगे बढ़ पाए, न कोई नया वैज्ञानिक व्याकरण गढ़ पाए, न किसी नए वेदांत-दर्शन की रचना कर पाए और न  अपनी और अपनी नयी पीढ़ी के  हारे एवं थकित मन को गीता के अध्यात्म से बड़ी कोई मनोवैज्ञानिक कुंजी  ही  सौंप पाए। सच कहें,  तो  अपने पूरे वैदिक साहित्य को समझने की बात तो दूर,  उसे अभी तक हम भली-भाँति निरख भी नहीं  पाए हैं। जितनी बार देखते हैं उतने ही नवीन रूप में वह हमारे  सामने खड़ा हो जाता  है। जितना समझते हैं, उतना ही उसकी अनुभूति मात्र हमारे ज्ञान को लजा देती है, हम उसकी बातों में विश्वास करने के बजाय उसे जानने और अनुभव करने लगते  हैं। 

 ऋग्वेद जो आज यूनेस्को की विश्व धरोहर में शामिल है से प्रारम्भ होकर  यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत,  ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, सूत्र-साहित्य  होती हुई पुराणों में विस्तार पाने वाली वैदिक साहित्य की  अमृत-धारा ने न केवल भारतीय वांगमय अपितु समस्त विश्व-मानस को प्रक्षालित किया है। आगे भी,  इन साहित्यिक रचनाओं पर लिखी गयी टीकाओं को भी उन्ही की परम्परा में यदि डाल लें तो इसका विस्तार काफ़ी आगे तक हो आता है।  यास्क, सायण, गौड़पदाचार्य, शंकराचार्य, स्कंदगुप्त आदि के  द्वारा अपने भाष्यों  में वैदिक साहित्य को समझने हेतु जो अद्भुत रचनात्मक उद्यम किया गया, उसे भला इस उदात्त वैदिक परम्परा से अलग कर के हम कैसे देख सकते हैं। वेदों के बारे में एक और बड़ा सत्य यह है कि अपौरुषेय माने जाने वाले ये ग्रंथ व्यास के द्वारा लिखित नहीं अपितु संकलित हैं। अर्थात मूल रूप से इनकी रचना कब हुई ये तो अनवरत शोध का विषय रहा है और विज्ञान का जैसे-जैसे  विकास होगा वैसे- वैसे शोध की इस गति को और बल तथा सार्थक दिशा मिलेगी। इसके हल की कुंजी अब विज्ञान और इतिहास  तथा साहित्य के मूल्यांकन के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के हाथों में ही है, न कि मूलर  और इस धरती के अन्य कथावाचक इतिहासकारों के हाथ में। हाँ, मूलर  के प्रति इस बात के लिये  आभार नहीं प्रकट करना हमारी कृतघ्नता अवश्य होगी कि उन्होंने सारे संसार की दृष्टि और ध्यान इस साहित्य की ओर खींचा। 
हमने वेदों के संकलन की बात इसलिए कही कि यदि मूल रूप में कोई पुस्तक अपने सम्पूर्ण रूप में उपलब्ध होती है तो उसके पहले शब्द से अंतिम शब्द तक  पढ़ने के बाद हमें  पुस्तक की कथावस्तु के साथ-साथ लेखक का उद्देश्य और उस पुस्तक की रचना से जुड़े तमाम पहलुओं की सीधी जानकारी मिल जाती है। लेकिन यहाँ समस्या बहुरूपी है। एक तो ये अपौरुषेय-ग्रंथ काल और स्थान के अलग-अलग खंडों में अलग-अलग ऋषियों या ऋषि-कुल द्वारा अनुभव किए गए, सुने गए, वाचे गए और श्रुति परम्परा द्वारा आगे के कुलों या पीढ़ियों में संचारित किए गए। इसलिए उनके जो भाग ईश्वरीय शक्ति की अर्चना-उपासना के प्रति समर्पित थे, उनमें किसी ने कोई जोड़-तोड़ या छेड़-छाड़ नहीं की। परिणामतः, यह हमारा परम सौभाग्य रहा कि ये वैदिक ऋचाएँ अपने शुद्धतम स्वरूप में हमारे समक्ष ज्यों-की-त्यों आज उपस्थित हैं। ये मंत्र ऋषि-मुनियों  के मन से नि:सृत  होकर अपनी वाचिक परम्परा में ही आज हमारी पीढ़ी को हाथ लगे। इसलिए इनके लिखित रूप में लिए जाने तक इन्हें नालंदा विश्वविद्यालय की पुस्तकों  के समान किसी बख़्तियार ख़िलजी से जलाकर नष्ट किये  जाने की त्रासदी से नहीं  गुज़रना पड़ा। अत: उस रूप में  महज़ साहित्य न होकर  ये हमारे मूल्य और हमारी परंपराएँ ज़्यादा हैं या यूँ कहें कि हमारी आध्यात्मिक चेतना  हैं,  जिनके लिए इसी साहित्य की ये पंक्तियाँ सार्थक होती हैं :
“नैनं छिन्दंति शस्त्राणि , नैनं दहती पावक:।
न च एनं क्लेदयंति आप:, न शोषयति मारूत:।।“
दूसरी बात यह,  कि संकलन-कर्ता  भी मेरी दृष्टि में एक व्यक्ति न होकर उसकी परम्परा के अन्य कई किरदार हैं। यह सही है कि कृष्ण-द्वैपायन व्यास ने इसके  संकलन के श्री गणेश का बीड़ा उठाया होगा। किंतु जिस दीर्घ काल तक इसके संकलन का आभास मिलता है, उससे तो यही लगता है कि  आगे का काम उस परम्परा में व्यास की गद्दी सम्भालने वाले अन्य व्यासों ने किया होगा। आज भी बिहार-उत्तर प्रदेश समेत भारत  के बड़े भूभाग में आध्यात्मिक प्रवचन, धार्मिक भजन-कीर्तन और उपासना मंडलियों के मुख्य आचार्य को ‘व्यास’ ही कहा जाता है जो इस परम्परा के जीवित होने के प्रमाण के रुप में देखा जा सकता है। हमें  नहीं लगता कि इस तरह की परम्परा पश्चिमोतर एशिया, दक्षिणी रूस या यूरोप के अन्य भागों में कहीं क्षीण अवशेष रूप में भी विद्यमान  है जहाँ  से इन व्यासों (आर्यों) के आगमन की बात कही जाती है। ऐसी ही बात व्यास के साथ-साथ अन्य आचार्यों यथा- गृत्समद, विश्वामित्र,  वामदेव, अत्रि, भारद्वाज, वशिष्ठ, अंगिरा, कण्व, भृगु सरीखे अन्य ऋषियों के साथ भी रही होगी जिनकी एक गुरुकुल या गोत्र परम्परा रही होगी और उस परम्परा का मुख्य आचार्य उस आदि ऋषि के नाम से जाना जाता होगा। प्रत्येक गुरुकुल अपने आचार्य के नेतृत्व में अधिदैहिक, अधिदैविक और आध्यात्मिक अनुसंधान में रत रहता था  और एक साझे दार्शनिक अनुभवों के माध्यम से जुड़ा रहता था। आचार्य ऋषि अपनी अंतर्दृष्टि से न केवल अपने बाह्य का साक्षात्कार (see)  करता था, बल्कि उसे प्रकट रूप में सूक्ष्मातिसूक्ष्म  स्तर पर अनुभव (realize) भी करता था। ये अनुभूतियाँ  अपौरुषेय ऋचाओं की स्वर लहरियाँ बन उनके कानों में गूँजती थी और वे तन्मय  होकर इसका श्रवण करते थे। ऋचाओं को सुनने के कारण वे ‘ऋषि’ कहलाए। उन्होंने वाचिक परम्परा में इसे अपने शिष्यों को सुनाया और श्रुति (सुनने) के द्वारा शिष्यों ने इसे संरक्षित कर आगे संचरित किया। आध्यात्मिक अनुसंधान (यज्ञ) की यह परम्परा भिन्न-भिन्न ऋषि-कुलों का संस्थागत संस्कार था। इस तरह से अलग-अलग गुरुकुलों ने अलग-अलग मंडलों की रचना की जिसका बाद में संकलन व्यास के गुरुकुल ने किया। समूचा वैदिक साहित्य इस दर्शन का अटूट प्रमाण है कि इस सृष्टि का प्रत्येक तंतु आपस में, अपने पूर्वजों से और अपने सृजन के कारण से  अपने पदार्थीय अस्तित्व, ऊर्जा, आत्मिक स्पंदन और चैतन्य  अनुभूतियों के स्तर पर अविछिन्न रूप से जुड़ा  हुआ है। प्रसिद्ध मनोविज्ञानी कार्ल जंग का ‘सामूहिक अवचेतन सिद्धांत ( collective unconscious theory)’ इसी वैदिक दर्शन का मनुष्यों पर सीमित सिद्धांत है। आधुनिक भौतिकी में भी यह बात अब प्रमाणित होने लगी है कि एक ही स्त्रोत से निकली वस्तुओं में एक घनिष्ट आवृति मूलक तादात्म्य  होता है। 
                                                                                                                        क्रमशः .................

Friday, 25 September 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध-------(७)



(भाग - ६ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (घ )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)

अन्य वैदिक ग्रंथों का रचनाकाल

दूसरा मुख्य बिंदु है, अन्य वैदिक ग्रंथों यथा – अन्य संहिताएँ, ब्राह्मण ग्रंथों, अरण्यकों, उपनिषद और ब्रह्म-सूत्रों की रचना के काल को ऋग्वेद के सापेक्ष निर्धारित करना।

क्योंकि अब यदि आप ऋग्वेद को ही १५०० ईसा पूर्व का मानने लगें तो क्या इसका यह मतलब निकाल लें कि बाक़ी ग्रंथ भी अनुवर्ती क्रम में क्रमशः लिखाते  चले गए?

सच में, ऐसा सोचने के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं  कि इन सभी रचनाओं के  काल का  आपस में कुछ लेना-देना नहीं है। हालाँकि, सभी रचनाओं का एक मान्य अनुवर्ती कालक्रम है, लेकिन तब भी इस बात को मानने का कोई कारण नहीं है कि सभी ग्रंथों की अपनी पूर्णता में रचे जाने का समय एक दूसरे से बिल्कुल  हटकर है। अधिकांश पौराणिक ग्रंथों का या पुराणों के सबसे पुरातन भाग की रचना भी उत्तर वैदिक काल के भिन्न-भिन्न काल-खंडों में ऋग्वेद के नए मंडलों के साथ-साथ ही शुरू हो गयी होगी। पूजा-पाठ में प्रयोग होने के कारण ऋग्वेद की ऋचाएँ अपने मौलिक और शुद्धतम स्वरूप को क़ायम रखने में सफल हो गयीं जबकि अन्य ग्रंथों को यह कामयाबी नहीं मिली। इसी कारण नए मंडल भी भाषा के पुराने आवरण में ही बँधे रहे, जबकि बाक़ी ग्रंथों की भाषा में संशोधन, परिष्करण, और परिमार्जन की प्रक्रिया चलती रही।  अब इनके रचे जाने के काल-क्रम की सही-सही गणना के लिए विस्तार से इनकी जाँच-परख करनी पड़ेगी। विशेष रूप से उन तमाम खगोलीय बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना होगा जिनकी चर्चा इन ग्रंथों में है।


ग्रंथों में उपलब्ध सामग्रियों के भौगोलिक सबूत :

क्या ऊपर वर्णित सामग्रियों के आलोक में ऐसे परिदृश्य की सर्जना सम्भव है जिसमें भारतीय आर्यों का विस्थापन ३००० ईसापूर्व में बाहर से भारत के भीतर  की ओर हो अर्थात उत्तर भारत में उनके विस्तार की दिशा पश्चिम से पूरब की ओर हो?  ऋग्वेद में मौजूद साक्ष्य तो उलटी दिशा में ही गंगा बहाते हैं।  मतलब, भारतीय आर्यों के भारत के अंदर से भारत के बाहर पूरब से पश्चिम की ओर चलने की कहानी कहते हैं।

ऋग्वेद के भौगोलिक विस्तार को मुख्यतः तीन भागों में बाँटा जा सकता है :-



पूर्वी भाग 

यह सरस्वती नदी के पूरब की ओर, अर्थात आज के हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र हैं।

मध्य भाग 

सप्तसिंधु क्षेत्र जो सरस्वती और सिंधु के बीच का भाग है। यह मुख्य रूप से आज के पाकिस्तान के ऊपर का आधा और उससे सटे  भारत वाले पंजाब का भाग है।

पश्चिमी भाग 

यह सिंधु  और इसके पश्चिम का भाग है जो मुख्यतः अफगानिस्तान और उससे सटा पाकिस्तान का पश्चिमोत्तर भाग है।


पूर्वी भाग वाले वैदिक क्षेत्र की भौगोलिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं :- 


नदियों के नाम : सरस्वती, द्रसद्वती/हरियुपिया/याव्यवती, अपय, अश्मावती, अंशुमाली, यमुना, गंगा, जाह्नवी।

जगहों के नाम : किकत, इलास्पद/इल्यास्पद (परोक्ष रूप से ‘वार-अ-पृथिव्या’, ‘नभ-पृथिव्या’)। 

पशुओं के नाम : इभा/वरण/हस्तिन/सरणी (हाथी), महिष (भैंस), ग़ौर (भारतीय बैल), मयूर (मोर), प्रस्ती (चीतल, धारीदार हिरन)।  

झील के नाम : मानस 


मध्य भाग वाले क्षेत्र की भौगोलिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं : -

नदियों के नाम : सतुद्री, विपाशा, परस्नी, असिक्नि, वितस्ता, मरूद्वर्धा।

जगहों के नाम : सप्त-सैंधव ( परोक्षत: सप्त+सिंधु)।


पश्चिमी भाग की भौगोलिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं :-

नदियों के नाम : त्रस्तमा, सुस्रतु, अनिताभ, रस, श्वेत्य, कुभा, क्रिमु, गोमती, सरयू, महत्नु, श्वेत्यवारी, सुवत्सु, गौरी, सिंधु (सिंधु नदी), सुसोमा, आर्ज़िक्य।

जगह का नाम : गांधार।

पहाड़ों के नाम : सुसोम, अर्जिक, मुजावत।

पशुओं के नाम : ऊष्ट्र (बैक्ट्रियायी ऊँट), मथ्र (अफ़ग़ानी घोड़े), छाग (पहाड़ी बकरी), मेष (पहाड़ी भेड़), वर्स्नि (मेमना), ऊरा(बकरा), वराह/वराहु (सुअर)

झील के नाम : सर्यानवत(ती)


हम जैसा कि देख चुके हैं कि ऋग्वेद के पुराने मंडलों के रचे जाने का समय ३००० ईसापूर्व से भी काफ़ी पहले का है। अब यदि भारतीय-आर्य पश्चिमोत्तर दिशा से भारत में घुसे थे और बाद में  पूरब की ओर उत्तर भारत में फैले तो उन्हें उत्तर-पश्चिम के भूगोल का ज्ञान पहले होता और पूरब के भूगोल से परिचय बाद में। फिर ऋग्वेद में भी दोनों भागों के भूगोल का वर्णन भी उसी क्रम में मिलता। लेकिन तथ्य बिल्कुल विपरीत है। ऋग्वेद को पढ़ने पर साफ़-साफ़ दिखता है कि  पुराने मंडलों के लिखे जाने के समय  भारतीय आर्य उत्तर-पश्चिम के भूगोल से बिल्कुल अनजान थे। जैसे-जैसे पुराने मंडलों से नए मंडलों की ओर बढ़ते  हैं वैसे-वैसे उनके भारत के अंदरूनी हिस्सों से पश्चिम की ओर भौगोलिक विस्तार की तस्वीर साफ़ होती  जाती है।


नदियों को छोड़कर पूरब और पश्चिम की शेष भौगोलिक विशेषताओं की तुलना :

पूरब – ऋग्वेद में नदियों को छोड़कर पूरब की बाक़ी भौगोलिक विशेषताओं के वर्णन का विवरण इस प्रकार है।

पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : २२ सूक्त, २३ मंत्र और २४ नाम।

संशोधित मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : ४ सूक्त, ६ मंत्र और ७ नाम।

नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : ६९ सूक्त, ८१मंत्र और ८५ नाम। 



                  ऊपर के अध्ययनों से यह स्पष्ट दिखता है कि पूरब के भौगोलिक संदर्भों का विवरण पूरे ऋग्वेद में पुराने मंडलों से लेकर नए मंडलों तक छितराया हुआ है। हम इन्हें प्राचीनतम सूक्तों से लेकर सबसे अर्वाचीन मंत्रों तक में समान रूप से उपस्थित पाते हैं। और दूसरी बात यह है कि सिर्फ़ पूरब की इन भौगोलिक विशेषताओं की ऋग्वेद के पुराने से लेकर नए मंडलों में समवेत उपलब्धता तक ही बात सीमित नहीं है, बल्कि जिन संदर्भों में और जितनी स्पष्टता से उनका उल्लेख हुआ है, यह पूरब से उनके प्राचीन और प्रचुर परिचय की प्रगाढ़ता को प्रदर्शित करता है। इन पशुओं का उल्लेख कोई ऐसे ही हल्के में केवल नाम गिनाने के लिए नहीं कर दिया गया है, बल्कि समयुगीन लोक-परम्परा और समकालीन परिवेश में ये पशु वैदिक लोकजीवन के कितने अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग थे, इनका स्पष्ट चित्र ऋग्वेद में इन पशुओं के वर्णन से मिलता है।  उदाहरण के तौर पर मरुत के राजसी रथ को खींचने वाले दागधारी हिरन हैं। भिन्न-भिन्न देवताओं के शौर्य और शक्ति के अलंकरण के रूप में भैंसों और साँड़ों का नाम लिया गया है। यज्ञ की वेदी पर सोमरस का पान करने वाले सोम-पिपासु देवताओं की तुलना उन  प्यासे जंगली भैंसों  के उतावलेपन  से की गयी है जो अपनी प्यास बुझाने वन-सरोवर की ओर दौड़ते हैं।  इंद्र के घोड़े की पूँछ के फैले गुच्छे की उपमा  मोर के पंखों के विस्तार से की गयी है। हाथी तो वैदिक लोगों की परम्परा और संस्कृति में ऐसे घुले-मिले हैं मानों उनके परिवार के सदस्य ही हों। कहीं इंद्र की ताक़त की तुलना हाथी से की गयी है [६/१६/(१४)], कहीं जंगल की झाड़ियों को चीरकर अपनी राह बनाते गजदल का वृतांत है [१/६४/(७), १/१४०/(२)], कहीं भीषण गरमी से मतवाले हाथी के दौड़ने का दृश्य है [८/३३/(८)], कहीं शिकारियों द्वारा जंगली हाथियों के पीछा किए जाने की चर्चा है [१०/४०/(४), कहीं धनिक घर के दरवाज़े पर पालतू हाथियों के परवरिश की कहानी है [१/८४/(१७)], कहीं शक्तिशाली राजा की सवारी के रूप में सजे-धजे ऐरावत की ऐश्वर्य- महिमा है [४/४/(१), कहीं पारम्परिक उत्सवों में उनकी सहभागिता के श्लोक हैं [९/५७/(३) तो कहीं युद्ध-भूमि को प्रयाण कर रही गज-सेना का वृतांत है [६,२०,(८)]।


पश्चिम :   

अब पश्चिम के भौगोलिक संदर्भों के ऋग्वेद में वर्णन के विवरण को देखें –

पुराने मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : कोई सूक्त नहीं, कोई मंत्र नहीं।

संशोधित मंडल २, ३, ४, ६ और ७ : कोई सूक्त नहीं और कोई मंत्र नहीं।

नए मंडल १, ५, ८, ९ और १० : ४४ सूक्त, ५२ मंत्र और ५३ नाम।


उपरोक्त तथ्यों के अवलोकन से यह पता चलता है कि पुराने मंडलों में पश्चिम के भौगोलिक संदर्भ बिल्कुल ग़ायब हैं, जबकि पूरब के इन तत्वों के साथ ऐसी बात नहीं। पश्चिम के भौगोलिक संदर्भों का तो पाँचवा मंडल जो ऋषिकुल द्वारा ही रचित है लेकिन सबसे अर्वाचीन है, उसमें भी कोई उल्लेख नहीं मिलता है। ध्यान रहे पाँचवाँ मंडल बाक़ी मंडल (१, ८, ९ और १०) जो ऋषिकुल द्वारा नहीं रचे गए हैं, उनसे पहले का है। सबसे रोचक तो यह है कि गांधार से मिलता जुलता एक शब्द ‘गंधर्व’ है जो पश्चिम के पहाड़ों में सोम के स्वामी के रूप में प्रकट होता है। यह शब्द भी मात्र नए मंडलों में ही आता है, संशोधित मंडल में मात्र एक बार आया है और पुराने मंडलों में तो कभी भी नहीं आया है।



इस तरह पुराने और नए मंडलों के भौगोलिक धरातल का अंतर साफ़-साफ़ दिखायी देता है। पुराने मंडलों  का भूगोल पूरी तरह से पूरब के तत्वों से पटा हुआ है जब कि नए मंडलों के भूगोल का विस्तार पूरब से लेकर पश्चिम तक है। नदियों से इतर भौगोलिक तत्व वैसे सांस्कृतिक परिवेश की ओर संकेत करते हैं, जिनमें ऋग्वेद के सूक्तों के रचयिता पूरी तरह से रमे हुए थे। पूरब के सांस्कृतिक परिवेश इन ऋषियों के स्वभाव में ऋग्वेद की रचना के हर काल में परिलक्षित होते-से प्रतीत होते हैं। जबकि पश्चिमी तत्व बाद के मंडलों में ही दिखते हैं, पुराने और यहाँ तक कि  पाँचवे मंडल  में भी इनके कोई चिह्न नहीं दिखायी देते। सच कहें तो बाद के वे मंडल जो ऋषिकुलों में नहीं लिखे गए, उनमें ही पश्चिम के भौगोलिक तत्वों का संदर्भ आता है। 


Friday, 4 September 2020

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध-------(६)

(भाग - ५ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ग)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


मिती  पुरा(तात्विक)-सामग्री
अब इतनी बात मान लेते हैं कि मिती , भारतीय और ईरानी पहले एक साथ थे। फिर सबसे पहले मिती  अलग हो गए। उसके बाद भारतीय-आर्य और ईरानी भी अलग हो गए।यह भी मान लेते हैं कि मिती  संस्कृति भारतीय आर्य संस्कृति से पहले की है।तो, अगर ऐसा है तो मिती  (और साथ में अवेस्ता भी) के जो तत्व हमारे ऋग्वेद से मिलते हैं उनका यह मिलना ऋग्वेद के पुराने मंडलों के साथ ज़्यादा होना चाहिए क्योंकि  उनके अलग होने की दशा और दिशा के काल-प्रवाह के हिसाब से पुराने मंडल नए मंडलों (जो बाद में रचे गए) की अपेक्षा उनके ज़्यादा नज़दीक हैं। पुराने मंडलों  के संशोधित सूक्त और नए मंडलों की रचना के आते-आते उनके मध्य एशिया में सहवास  की स्मृतियाँ  काल-प्रवाह की लहरों में ज़्यादा धुल चुकी होंगी। लेकिन यह अत्यंत ही आश्चर्यजनक  और रोचक तथ्य है कि असलियत में जो हम पाते हैं वह बिल्कुल उलटा है। ऋग्वेद के पुराने मंडलों के पुराने सूक्तों की लेशमात्र भी समानता हमें मिती  या अवेस्ता के साथ नहीं मिलती। पुराने मंडलों के संशोधित सूक्तों की थोड़ी बहुत समानता मिलती है और सबसे हैरतंगेज़ तथ्य यह है कि ऋग्वेद के बाद में रचे गए  नए मंडलों और उनके भी  बाद रचित अन्य पौराणिक ग्रंथों  के  तो मिती  संस्कृति और अवेस्ता में समानता के प्रचुर तत्व मिलते हैं।
अब आप इन उपसर्गों  और प्रत्ययों की इस झलकी का दृश्यपान करें जो  वैदिक-मिती  नामों में अपनी तात्विक समानता का रस घोलते हैं : -अस्व-, -रथ-, -सेना-, -बंधु-, -उत-, -वसु-,  -र्त-,  -प्रिय- (प्रसिद्ध भारतविद पी ड्यूमौन्ट ने इसे खोज निकाला है), -ब्रुहद-, -सप्त-, -अभि-, -उरु-, -चित्र-, -क्षत्र-, -यम-, यमी- आदि। एक शब्द और मिला है  ‘मणिजो माला या आभूषण के अर्थ में प्रयुक्त  हुआ है।

अ१रचनाकारों के नामों के दृष्टांत  
    
ऋग्वेद में उपरोक्त उपसर्ग एवं प्रत्ययों के संयोग से बने नामों के विस्तार का ब्योरा इस प्रकार है : -
मंडल , , , और के पुराने सूक्त : कोई सूक्त नहीं।
मंडल , , , और के संशोधित सूक्त : कोई सूक्त नहीं।
मंडल , , , और १० के नये सूक्त : १०८ सूक्त।

मंडल
             सूक्त संख्या
सूक्तों की कुल संख्या
(नया)
से , २४, २५, २६, ४६, ४७, ५२ से ६१, ८१ और  ८२
२१
(नया)
१२ से २३, १००
१३
(नया)
से , २३ से २६, ३२ से ३८, ४६, ६८, ६९, ८७, ८९, ९०, ९८ और ९९
२४
(नया)
, २७ से २९, ३२, ४१ से ४३ और ९७
१०
(नया)
१४ से २९, ३७, ४६, ४७, ५४ से ६०, ६५, ६६, ७५, १०२, १०३, ११८, १२०, १२२, १३२, १३४, १३५, १४४, १५४, १७४, और १७९
४१
उपरोक्त उपसर्ग या प्रत्यय लगे नामों के किसी एक भी रचनाकार का नाम ऋग्वेद के किसी भी पुराने मंडल में नहीं आता है।

अ२नामों के संदर्भों का दृष्टांत

रचनाकारों से इतर उपरोक्त उपसर्ग और प्रत्यय लगे अन्य  नाम औरमणिशब्द के जो संदर्भ ऋग्वेद में मिलते हैं, उनका ब्योरा इस प्रकार है : -
मंडल , , , ६और के पुराने सूक्त : कोई सूक्त नहीं और कोई मंत्र नहीं।
मंडल , , , और के संशोधित सूक्त : दो सूक्त और दो मंत्र।
मंडल , , , और १० के नये सूक्त: अठहत्तर सूक्त और एक सौ अट्ठाईस मंत्र।




मंडल
सूक्त संख्या/(मंत्र संख्या)
कुल सूक्त
कुल मंत्र/नाम  
(संशोधित)
३३/()
/
(संशोधित)
३०/(१८)
/
(नया)
१९/(), २७/(, , ), ३३/(), ३६/(), ४४/(१०), ५२/(), ६१/(,१०), ७९/(), ८१/(
१२/१२
(नया)
३३/(), ३५/(), ३६/(१०, ११, १७, १८), ३८/(), ४५/(, ), ८३/(५०, १००/(१६, १७), ११२/(१०, १५, २०), ११६/(, , १६), ११७/(१७, १८), १२२/(, १३, १४), १३९/(), १६३/(), १६४/(४६)
१४
२६/२६
(नया)
/(३०, ३०, ३२), /(३७, ४०), /(१६), /(२०), (२५), /(४५), /(१८, २०), (१०), २१(१७, १८), २३/(१६,२३,२४), २४/(१४, १२, २३, २८, २९), २६/(, ११), ३२/(३०), ३३/(), ३४/(१६), ३५/(१९, २०, २१), ३६/(), ३७/(), ३८/(), ४६/(२१, २३), ४९/(), ५१/(, ), ६८/(१५, १६), ६९/(, १८), ८६/(१७), ८७/()
२४
४२/४४
(नया)
४३/(), ६५/()
/
१० (नया)
१०/(, , १३, १४), १२(), १३(), १४/(, , , , , १०, ११, १२, १३, १४, १५), १५/(), १६/(), १७/(), १८/(१३), २१/(), ३३/(), ४७/(), ४९/(), ५१/(), ५२/(), ५८/(), ५९/(), ६०/(, १०), ६१/(२६), ६४/(),७३/(११), ८०/(), ९२/(११), ९७/(१६), ९८/(, , ), १२३/(), १३२/(, ), १३५/(१७), १५४/(, ), १६५/()
२९
४६/४७


पुराने मंडल के मात्र दो संशोधित सूक्तों में ऐसा संदर्भ देखने को मिलता है।
ऊपर के तथ्यों में किसी भी तरह के भ्रम या संदेह की तनिक भी गुंजाइश नहीं है और अब यह शीशे की तरह बिल्कुल साफ है कि ऋग्वेद और मिती , दोनों ग्रंथों या संस्कृतियों में पाये  जानेवाले  एक समान तत्व या संदर्भ  ऋग्वेद के पूर्व के किसी ऐसे कपोलकल्पित काल में मध्य एशिया की वह सौग़ात नहीं थी जो भारतीय आर्यों को भारतमें घुसनेसे पहले मिली थी। वे ऋग्वेद के बाद के उस काल की उपज हैं जब ऋग्वेद के ही नए मंडलों की ऋचाएँ रची जा रही थी।

– ‘अवेस्ताग्रंथ में उपलब्ध सामग्री

सांस्कृतिक तत्वों की यह एकरूपता केवल वैदिक-मिती  संस्कृति की ही बात नहीं है, प्रत्युत यह वैदिक-मिती-ईरानी लोगों की सांस्कृतिक साझेदारी का प्रकट तत्व है। मसलन, हम अवेस्ता में वर्णित नामों या नामसूचक शब्दों की पड़ताल कर सकते हैं इस बात को परखने के लिए कि ऋग्वेद के नए मंडलों की कितनी छाप  बाद में पनपने  और पसरने वाली  वैदिक संस्कृति पर पड़ी और  इस बात का सीधा  गवाह  ईरान भी है। अवेस्ता की सामग्रियों का आकार मिती  सामग्रियों की तुलना में केवल अपार है, बल्कि बाद में रचित वेदों के मंडलों से शब्दों के साथ-साथ छंदों की एकरूपता के तत्व भी  उसमें प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। पहले बताए गए वैसे उपसर्ग और प्रत्यय जो वेदों के समान मिती  संस्कृति में पाए जाते हैं उनसे भी ज़्यादा ऐसे नामों  और नामसूचक उपसर्ग और प्रत्ययों की अवेस्ता में भरमार है। ‘-अश्व-‘, ‘-रथ-‘, ‘मा-‘, ‘-चित्र-‘, ‘-प्रस-‘, ‘-अयन-‘, ‘-द्वि-‘, ‘-अस्त-‘, ‘-अंति-‘, ‘-ऊर्ध्व-‘, ‘-ऋजु-‘, ‘-सम-‘, ‘-स्वर-‘, ‘-मानस-‘, ‘-सवस-‘, ‘-स्तुत-‘, ‘-सुर-‘, ‘-नर-‘, ‘-विदद-‘, ‘-नर-‘, ‘-प्रसाद-‘, ‘-पृथु-‘, ‘-जरत-‘, ‘-माया-‘, ‘-हरि-‘, ‘-सृत-‘, ‘-स्यव-‘, ‘-तोष-‘, ‘-तनु-‘, ‘-मंत-‘, क्रतु-‘ आदि उपसर्ग और प्रत्ययों के प्रयोग से सजे नामों की अवेस्ता में एक लम्बी सूची है।  कुछ तो ऐसे नाम अवेस्ता में हैं जो हू--हू ऋग्वेद  के उन नए मंडलों से लिए गए प्रतीत होते हैं,  जो बाद में रचे गए थे। जैसेघोड़ा, अपत्या, अथर्व, उसिनर, अवस्यु, बुध, रक्ष, गंधर्व, गया, समाया, कृपा, कृष्ण, मायाव, सास, त्रैतन, उरक्ष्य, नाभानेदिष्ट, वर्षणी, वैवस्वत, विराट आदि। ऋग्वेद में प्रयुक्त कुछ शब्द अवेस्ता में शब्दों के साथ-साथ नामों के संदर्भ में भी प्रयुक्त हुए हैं और ऋग्वेद के कुछ नाम अवेस्ता में मात्र शब्दों के तौर पर भी प्रयोग में लाए गए हैं। ऐसे शब्दों में उदाहरण के तौर परप्राण’, ‘कुम्भजैसे शब्द और कुछ जानवरों के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अलावा हौपकिंस जैसे पुराने भारतविद और लुबोत्सकी एवं विजेल जैसे आधुनिक भारतशास्त्रियों ने ऐसे प्रचुर शब्दों को चिन्हित कर लिया है जिनके तत्व भारतीय आर्य और ईरानी भाषा-शाखाओं से मिलते  हैं और अन्य भाषाओं से इनका साम्य दूर-दूर तक नहीं बैठता। यथाकद्रु, तिस्य, फल, सप्तर्षि, स्तक, स्त्री, क्षीर, उदर, स्तन, कपोत, वृक, शनै:, भंग, द्वीप आदि।
- रचनाकारों के नाम
ऋग्वेद की  रचनाओं के नाम में प्रयुक्त उपसर्ग और प्रत्ययों से अवेस्ता की समानता के दृष्टांतों का विवरण इस प्रकार है :
१-      मंडल , , , और के पुराने सूक्तकोई सूक्त नहीं और कोई मंत्र नहीं।
२-     मंडल , , , और के संशोधित सूक्तएक सूक्त और तीन मंत्र (अठारह मंत्रों में अंतिम तीन मंत्र)
३-     मंडल , , , और १० के नए सूक्त३०९ सूक्त और ३३८९ मंत्र।

मंडल
             सूक्त संख्या/(मंत्र संख्या)
कुल सूक्त
कुल मंत्र
(संशोधित)
३६/(१६, १७, १८)
(नया)
, -, , १०, २०, २४-२६, ३१, ३३-३६, ४४, ४६-४९, ५२-६२, ६७, ६८, ७३-७५, ८१, ८२
३९
३६२
(नया)
१२-३०, ३६-४३, ४४-५०, ९९, १००, १०५, ११६-१३९
६१
७१०
(नया)
-, १०, १४, १५, २३-३८, ४३-५१, ५३, ५५-५८, ६२, ६८, ६९, ७५, ८०, ८५-८७, ८९, ९०, ९२, ९७-९९
५२
८७८
(नया)
, , -२४, २७-२९, ३२-३६, ४१-४३, ५३-६०, ६३, ६४, ६८, ७२, ८०-८२, ९१, ९२, ९४, ९५, ९७, ९९-१०३, १११, ११३, ११४
६२
५४७
१०
(नया)
-१०, १३-१९, ३७, ४२-४७, ५४-६६, ७२, ७५-७८, ९०, ९६-९८, १०१-१०४, १०६, १०९, १११-११५, ११८, १२०, १२२, १२८, १३०, १३२, १३४, १३५, १३७, १३९, १४४, १४७, १४८, १५१, १५२, १५४, १५७, १६३, १६६, १६८, १७०, १७२, १७४, १७५, १७९, १८६, १८८, १९१
९५
८९२
  
पुराने मंडल में ऐसे दृष्टांत मात्र तीसरे मंडल के ३६वें सूक्त में दृष्टिगोचर होते हैं जहाँ अठारह मंत्रों के अंतिम तीन (मंत्र संख्या १६, १७, और १८) में ऐसा हुआ है। यह ऐतरेय ब्राह्मण के छठे मंडल के अठारहवें सूक्त से संबद्ध ऋग्वेद के तीसरे मंडल (पुराने) में किया गया संशोधन है।




- सूक्तों के अंदर के दृष्टांत :

ऋग्वेद और अवेस्ता के सूक्तों  में  प्रयुक्त उपसर्गों और प्रत्ययों की भारतीय-ईरानी तात्विक समानता और समरूपता के दृष्टांतों का विवरण इस प्रकार है:
१-     मंडल , , , और के पुराने सूक्त : कोई सूक्त नहीं, कोई मंत्र नहीं।
२-      मंडल , , , और के संशोधित सूक्त : १४ सूक्त और २० मंत्र।
३-     मंडल , , , और १० के नए सूक्त : २२५ सूक्त और ४३४ मंत्र।

मंडल
सूक्त संख्या/(मंत्र संख्या)
कुल सूक्त
कुल मंत्र/नाम
(संशोधित)
१५/(१७), १६/(१३, १४), ४७/(२४)
/
(संशोधित)
३८/(), ५३/(२१)
/
(संशोधित)
३३/(, १२, १३), ५५/(, ), ५९/(१२), १०४/(२४)
/
(संशोधित)
३०/(, १८), ३७/(), ५७/(, )
/
(संशोधित)
३२/(), ४१/(, १२)
/
(नया)
१०/(, ), १८/(), १९(, ), २७(, , , ), ३०/(, १२, १४), ३१(१०), ३३(, १०), ३४(), ३५(), ३६(, ), ४१(, ), ४४(, १०, १०, १०, ११, ११,  १२, १२), ४५/(११), ५२/()५३/(१३), ५४/(१३), ६१/(, , , १०, १८, १९), ६२/(, , ), ६४/(), ७४/(), ७५/(), ७९/(), ८१()
२३
४२/४७
(नया)
(), १०/(), १८/(),२२/(१४), २३/(२२), २४/(१२, १३), २५/(१५), ३०/(,), ३३/(, १४, १५)३५/ (), ३६(१०,१०, १०, ११, १७, १७, १८), ३८(), ३९(), ४२(), ४३/(, ), ४४/(), ४५/(, , , ), ५१/(, , १३), ५२/(), ५९/(), ६१(), ६६(), ८०/(१६), ८३/(, ), ८८/(, ), ९१/(), १००/(१६,१७), १०४/(), ११२/(,, १०, १०, ११, १२, १५, १५, १५, १९, २०, २३, २३), ११४/(), ११६/(, , , , १२, १६, १६, २०, २१, २३), ११७/(, , , १७, १७, १८, १८, २०, २२, २४), ११९/(), १२१/(११), १२२/(, , , , १३, १४), १२५/(), १२६/(), १३८/(), १३९/(), १४०/(), १५८/(), १६२/(, , १०, १०, १५), १६३/(, ), १६४/(, १६, ४६), १६७/(, , ), १६९/(), १८७/(१०), १८८/(), १९०/(), १९१/(१६)
५०
९५/११३
(नया)
/(११/३०, ३०, ३२), /(, , ३७, ३८, ४०, ४०, ४१), /(, १०, १२, १२, १२, १६), /(, , , १९, २०), /(२५, २५, ३७, ३७, ३७, ३८, ३९), /(, ३९, ४५, ४६, ४६, ४८), /(२३), /(१८, २०), /(, १०, १५), १२/(१६), १७/(, १२, १४), १९/(, , ३७, ३७, ३७, ३८, ३९), /(, ३९, ४५, ४६, ४६, ४८), /(२३), /(१८, २०), /(, १०, १५), १२/(१६), १७/(, १२, १४), १९/(, , ३७), २०/(), २१/(१७, १८), २३/(, १६, २३, २४, २४, २८), २४/(, १४, १८, २२, २३, २८, २८, २९), २५/(, २२), २६/(, , ११), २७/(१९), ३२(, , ३०), ३३/(, १७), ३४/(, १६), ३५/(१९,२०,२१), ३६/(), ३७/(), ३८/(), ४५/(, ११, २६, ३०), ४६/(२१, २१, २१, २२, २४, २४, ३१, ३३), ४७/(१३, १४, १५, १६, १७), ४९/(), ५०/(), ५१/(, , , , , , ), ५२/(, , , , ), ५४/(, , , ), ५५/() ५६/(२। ), ५९/(), ६२/(१०), ६६/(), ६८/(१०, १५, १५, १६, १६, १७), ६९/(, १८), ७०/(, ), ७१/(, १४), ७४/(, , १३, १३, १३), ७५/(), ७७/(, , १०, १०), ८०/(), ८५/(, ), ८७/(), ९१/(, ),  ९२/(, २५), ९३/(), ९७/(१२), ९८/(), १०३/()     
५५
१२८/१५७
(नया)
/(), ११/(, ), ४३/(), ५८/(), ६१/(१३), ६५/(), ६७/(३२), ८३/(), ८५/(१२), ८६/(३६, ४७), ९६/(१८), ९७/(, १७, ३८), ९८/(१२), ९९/(), १०७/(११), ११२/(), ११३/(, ), ११४/()
१८
२३/२३
१०
(नया)
/(), /(), १०/(, , , , १४), ११/(), १२/(), १३/(), १४/(, , , , , , , , , १०, ११, १२, १३, १४, १५), १५/(), १६/(), १७/(, , , ), १८/(१३, १३), २०/(१०), २१/(, ), २३/(, ), २४/(), २७/(, १०, १७), २८/(), ३१(११), ३३/(), ३४/(, ११), ३९/(), ४७/(, ), ४८/(), ४९/(, ), ५१/(), ५२/(), ५५/(), ५८/(, ), ५९/(, , १०), ६०/(, , १०, १०, १०,), ६१/(१३, १७, १८, २१, २६), ६२/(), ६३/(१७), ६४/(, , , १६, १७), ६५/(१२, १२), ६७/(), ७२/(, ), ७३/(११), ८०/(), ८२/(), ८५/(, , ३७, ३७, ४०, ४१), ८६/(, , २३, २३), ८७/(१२, १६), ८९/(), ९०(, १३), ९१/(१४), ९२/(१०, ११), ९३/(१४, १५, १५), ९४/(१३), ९५/(, १५), ९६/(, , ), ९७/(१६), ९८/(, , , , , ), ९९/(, ११), १०१(), १०३/(), १०५/(), १०६/(, ), १०९/(), ११५/(, ), १२०/(, ), १२३/(, , ), १२४/(), १२९/(), १३०/(), १३२/(, ), १३५/(, ), १३६/(), १३९/(, ), १४६/(), १४८/(), १५०/(), १५४/(, ), १५९/(), १६४/(), १६५/(, , , , , ), १६६/(), १७७/(), १८९/()     
७९
१४६/१६०

पुराने मंडलों के मात्र चौदह संशोधित सूक्तों में ही समरूपता के ये तत्व पाए गए हैं।


ब३अष्टवर्णी या अष्टमातृक छंद

वेद और अवेस्ता दोनों में छंद-योजना को लेकर एक अद्भुत समानता यह है कि दोनों में आठ वर्णों या मात्राओं वाले छंद विधान का प्रयोग हुआ है।  ऋग्वेद के पुराने मंडलों के आठ-आठ वर्णों के तीन पद वाले गायत्री छंद (++) और चार चरणों वाले अनुष्टुप छंद (+++) के प्रयोग को छोड़कर बाक़ी नए मंडलों और अवेस्ता में पंक्ति (++++), महापंक्ति (+ ++ ++) और शक्वरी (++++++) छंदों की समानता मिलती है। इनका विस्तृत विवरण इस प्रकार है:
१-     पुराने मंडल , , , और के सूक्त: कोई सूक्त और कोई मंत्र नहीं।
२-     पुराने मंडल , , , और के संशोधित सूक्त : एक सूक्त और एक मंत्र।
३-      नए मंडल , , , और दस के नए सूक्त : पचास सूक्त और दो सौ पचपन मंत्र।

मंडल
          सूक्त संख्या/(मंत्र संख्या)
कुल मंत्र
(संशोधित)
७५/(१७)
(नया)
/( से १०), /(१०), /(, ), १०/(, ), १६/(), १७/(), १८/(), २०/(), २१/(), २२/(), २३/(), ३५/(), ३९/(), ५०/(), ५२/(, १६, १७)६४/(), ६५/(), ७५/( से ), ७९/( से १०)
४९
(नया)
२९/( से ), ८०/( से १६), ८१/( से ), ८२/( से ), ८४/(१० से १२), १०५/( से और से १८), १९१/(१० से १२)
६०
(नया)
१९/(३७), ३१/(१५ से १८), ३५/(२२, २४), ३६/( से ), ३७/( से ), ३९/( से १०), ४०/( से ११), ४१/( से १०), ४६/(२१, २४, ३२), ४७/( से १८), ५६/(), ६२/( से और १० से १२), ६९/(११, १६), ९१/( और )
८६
(नया)
११२/( से ), ११३/( से ११), ११४/( से )
१९

१०
(नया)
५९/(, ), ६०/(, ), ८६/( से २३), १३३/( से ), १३४/( से ), १४५/(६०, १६४/(), १६६/()
४१
  
पाँच पुराने मंडलों में मात्र एक छठा मंडल है जिसमें काफ़ी बाद का बस एक ही संशोधित सूक्त है जो अपने छंद-शिल्प में अवेस्ता से मिलता है।
कुल मिलाकर ऋग्वेद से अवेस्ता और मिती  ग्रंथों के सांस्कृतिक तत्वों की तुलना से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि
क-    ऋग्वेद के पुराने पाँच मंडलों के २८० सूक्तों के २३५१ मंत्रों में इनसे समानता के तत्व का लेशमात्र भी नहीं है।
ख-    पुराने मंडल के ६२ ऐसे सूक्त जो नए मंडलों के रचनाकाल में संशोधित हुए, उनके ८९० संशोधित मंत्रों में समानता के छिटपुट तत्व मिलते हैं और
ग-     बाद में सृजित पाँच नए मंडलों के ६८६ नए सूक्तों के ७३११ नए मंत्रों और उसी काल में या बाद में रचित अन्य पौराणिक ग्रंथों या संस्कृत साहित्य में समानता के तत्व प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।

सारांश रूप में कहें तो नए मंडलों में हुए संशोधनों को भटकाव मानते हुए भी पुराने मंडलों के साथ ऊपर विस्तार में दिए गए विवरणों का एकपक्षीय स्वरूप जो उभरता है वह इस प्रकार है :

सम्पूर्ण ऋग्वेद के समस्त मंडलों में रचनाकारों
के नाम, अन्य नाम और छंद विधान की मिती  ग्रंथ और अवेस्ता के साथ तात्विक तुलना (* पुराने मंडल के संशोधित सूक्तों और मंत्रों को छोड़कर)
पुराने मंडल
(, , , , )
सूक्तों की संख्या
पुराने मंडल
(, , , , )
मंत्रों की संख्या
नए मंडल
(, , , , १०)
सूक्तों की संख्या
नए मंडल
(, , , , १०)
मंत्रों  की संख्या
सम्पूर्ण ऋग्वेद *
२८०
२३५१
६८६
७३११
रचनाकारों के नाम के तत्व की समानता
कोई नहीं
कोई नहीं
३०९
३३८९
अन्य संदर्भों में नाम के तत्व की समानता
कोई नहीं
कोई नहीं
२२५
४३४
छंद- विधान के तत्व की समानता
कोई नहीं
कोई नहीं
५०
२५५

ऋग्वेद के नए मंडलों की मिती  ग्रंथों और ईरानी अवेस्ता के साथ ऊपर वर्णित तात्विक समानता हमें ऋग्वेद की रचना के काल में झाँकने की एक वैज्ञानिक दृष्टि देती है।

सीरिया और इराक़ के भूभाग में मिती  साम्राज्य का उदय ईसा से क़रीब १५०० साल पहले के आसपास हुआ था। किंतु जो भी दर्ज सबूत हासिल हैं उनसे यही मालूम होता है कि अपनी साम्राज्य-स्थापना से लगभग दो सौ से भी अधिक वर्षों पहले वे पश्चिमी एशिया में रहते थे। साथ ही १७५० ईसा पूर्व के आसपास बेबिलोन (इराक़) में मिती  लोगों के समान ही कासाइट  लोगों की उपस्थिति का प्रमाण मिलता है। इन, कासाइट लोगों, के राजा का नामअधिरथ’ (‘-रथ-‘ प्रत्यय लगा हुआ) था।  यह मिती  लोगों में बाद के दिनों में प्रचलित नामों में हुआ करता था।

   ईसापूर्व १८वीं सदी में सीरिया-इराक़ के इलाक़े में जीवन यापन कर रहे मिती  और कासाइट लोगों की ज़िंदगी में ऋग्वेद के नए मंडलों के सांस्कृतिक तत्वों के पाए जाने के बाद से ऋग्वेद का रचनाकाल और काफ़ी पीछे की ओर खिसक जा रहा है। ग़ौरतलब है कि मिती  और कासाइट, दोनों की भाषा अभारोपिय भाषा थी। विजेल (२००५:३६१) ने मिती  लोगों की भाषा में उपस्थित भारतीय-आर्य तत्वों का अध्ययन किया है और उन तत्वों के वर्गीकरण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि असल में ये तत्व मिती  लोगों द्वारा काफ़ी पहले अतीत में बोली जाने वाली हुर्राइट भाषा के भारतीय-आर्य तत्वों के अवशेष थे। जे पी मेलोरी (१९८९:४२) ने तो इसे एक मरी हुई हुर्रियन भाषा के अंदर से निकलती वह जीवित आवाज़ बताया है जो हमें इतिहास की यह आहट सुनाती है कि सहजीविता की सदियों लम्बी प्रक्रिया की यात्रा तय करने के बाद मिती  भाषा अपने वजूद में आयी होगी। चाहे हम अपने आकलन में  कितनी भी अतिरिक्त सतर्कता बरत लें इतना तो पक्का ही है कि १८०० ईसा पूर्व में ये वैदिक तत्व कम-से-कम पश्चिमी एशिया में तो विद्यमान थे ही।

अब इसमें तो कोई विवाद नहीं कि ऋग्वेद के पुराने मंडल से लेकर नए मंडल तक संस्कृति  की एक ही विराट धारा का अनवरत प्रवाह हुआ है और सच कहें तो अपने नैरंतर्य के तत्व में उसका प्रवाह अद्यतन अछूता ही रहा है। यही सांस्कृतिक निरंतरता उसकी मूल पहचान है। अतः, नए मंडलों में आने वाले नवीन तत्व ऋग्वेद की रचना के भूभाग में पुराने मंडलों (, , , , ) की रचनाकाल से लेकर नए मंडलों (, , , , १०) के रचे जाने के काल तक के सांस्कृतिक विकास  के  निरंतर प्रवाह से निष्पन्न लहरियाँ  हैं। और, तय है कि नए मंडलों के रचना काल में तरंगायित इन सांस्कृतिक लहरियों ने अपने समकालीन भूभाग के एक बड़े विस्तार को भिगोया होगा जिसके तत्व हमें मिती  संस्कृति या अवेस्ता-ग्रंथ के सांस्कृतिक तत्वों की समरूपता में दिखायी दे रहे हैं।  अब ऋग्वेद के भूगोल को भी याद कर लें। इस भौगोलिक वितान का विस्तार पूरब में पश्चिमी उत्तर-प्रदेश और हरियाणा से लेकर पश्चिम में अफगनिस्तान के पूरबी किनारे को छूता था और यहीं वह क्षेत्र है जहाँ से निकलकर  मिती  लोगों के भारतीय-आर्य पूर्वज और अवेस्ता रचने वालों के ईरानी पूर्वज अपनी संस्कृति और विरासत को अपने माथे पर  ढोते अपना  इतिहास रचने अपने-अपने क्षेत्रों में जाकर बस गए थे।

अब यदि पश्चिमी एशिया अर्थात सीरिया-इराक़ के इलाक़े में १८०० ईसापूर्व के इन  मितानियों के संस्कृति-तत्व अपने भारतीय-आर्य पूर्वजों की संस्कृति केअवशेषयाबचे-खुचे अंशथे, तो उन पूर्वजों का पश्चिम एशिया में कम-से-कम २००० ईसापूर्व तक तो रहना तय है।  इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि  ऋग्वेद की भूमि से निकलकर वे पूर्वज उससे भी कई सदियों पूर्व पश्चिमी एशिया में आकर बस गए थे और ऋग्वेद के तत्कालीन रचित नए मंडलों के सांस्कृतिक तत्वों को अपने साथ सहेजकर लेते गए थे। यह काल किसी भी तर्क की कसौटी पर ईसा से तीसरी सदी पूर्व का ही ठहरता है।

जिस संस्कृति को ये पूर्वज अपने साथ पश्चिम एशिया में लेकर गए, वह ऋग्वेद की भूमि पर पूरी तरह से विकसित और खिला हुआ संस्कृति-कुसुम था जिसकी सुरभि आगे कई सदियों तक केवल पश्चिमी एशिया बल्कि उससे मिती  साम्राज्य और अवेस्ता की ईरानी भूमि की ओर बहकर जाने वाली हवाओं  में भी घुलकर उस समस्त भूभाग को आने वाली कई सदियों तक सुवासित करती रही। इस आधार पर ऋग्वेद के नए मंडलों से खिलने वाले इस संस्कृति-कुसुम का काल कम-से-कम २५०० ईसापूर्व के पास तो जाकर ठहरता ही है या उससे भी पीछे यदि चला जाय तो कोई चौंकने की बात नहीं।

अब ऋग्वेद के पुराने मंडलों की ज़रा बात कर लें। रचना काल के आधार पर इन मंडलों को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है। सबसे पुराने मंडल (, और ) कोसबसे पुरातन कालके और मंडल ( और ) कोबाद के पुरातन कालयामध्य-पुरातन कालका कह सकते हैं। इन दोनों कालों की रचनाओं में नये  मंडलों की रचनाओं के सांस्कृतिक तत्व पूरी तरह से अनुपस्थित दिखते हैं। अतः इनकी रचनाओं का काल निश्चित तौर पर २५०० ईसापूर्व से काफ़ी पीछे जाएगा और किसी भी स्थिति में यह ३००० ईसापूर्व के बाद का तो हो ही नहीं सकता।

कालक्रम की इस गणना की वैज्ञानिकता को इस बात से भी बल मिलता है कि तीसरी सदी ईसापूर्व के उत्तरार्द्ध में कुछ ऐसे तकनीकी खोजों और प्राद्यौगिक ईजादों का हवाला मिलता है जिसका उल्लेख ऋग्वेद के नए मंडलों में तो है लेकिन पुराने मंडलों में उनका कहीं भी कोई ज़िक्र नहीं है।

उसी काल में मध्य एशिया के आसपास  आरेदार पहिए की खोज हुआ मानते हैं। उसी तरह विजेल ने यह प्रमाण इकट्ठा किया है कि बैक्ट्रियायी ऊँटों को मध्य एशिया में पालतू बनाए जाने का भी समय वही तीसरी सदी ईसापूर्व का अपराह्न काल है। आरेदार पहियों और पालतू ऊँटों की चर्चा ऋग्वेद के बाद के मंडलों में पाए जाने का दृष्टांत इस प्रकार है :

मंडल
सूक्त-संख्या/(मंत्र-संख्या)
(नया)
१३/(), ५८/(
(नया)
३२/(१५), १४१/(), १३८/(), १६४/(११, १२, १३, ४८)
(नया)
/(३७), /(४८), २०/(१४), ४६/(२२, ३१), ७७/()
१०(नया)
७८/()

ऋग्वेद के पुराने मंडलों के पश्चिमी उत्तरप्रदेश और हरियाणा से लेकर अफगनिस्तान की  पूर्वी सीमा को छूती भूमि तक फैले विस्तृत भूभाग में ३००० साल ईसापूर्व रचे जाने के इस तथ्योद्घाटन से अब दो बड़े ज़रूरी सवाल उभरते हैं।
पहला सवाल तो यह कि  ३००० वर्ष ईसा पूर्व या इसके आसपास का यही काल है जब उस समय यहाँ पर विकसित सभ्यता की पुरातात्विक पहचान की गयी है, जिसे हमसिंधु-घाटी सभ्यतायाहड़प्पा-सभ्यताया अबसिंधु-सरस्वती सभ्यताके नाम से जानते हैं।
और दूसरा सवाल यह कि भाषायी खोजों से प्राप्त सबूत इस तथ्य की ओर इंगित करते हैं कि भारोपीय भाषाओं की बारहों शाखाओं को बोलने वाली जनजातियाँभारोपीय भाषाओं की जन्मभूमियाप्राक-भारोपीय-भाषा की अपनी मातृभूमिमें ३००० वर्ष ईसापूर्व तक साथ-साथ रहती थीं। तो, क्या यह मान  लिया जाय कि  समस्त भारोपीय भाषाओं की जननी और जन्मभूमि उत्तर भारत की यहीं भूमि है!