Friday 24 February 2017

पाथर कंकड़

लमहे-दर-लमहे, कहे अनकहे
फलित अफलित, घटित अघटित
सत्व-तमस, तत्व-रजस
छूये अनछूये,दहे ढ़हे
हद-अनहद, गरल वेदना का,
प्रेम तरल, सृष्टि-प्रवाह बन
बूँद-दर-बूँद,
गटकते रहे
नीलकंठ मैं !

अपलक नयन, योग शयन
गुच्छ-दर-गुच्छ विचारों की जटायें
लपेटती भावनाओं की भागीरथी
उठती गिरती, सृजन विसर्जन
चंचल लहरें घुलाती
चाँदनी की शांत मीठास
जगन्नाथ की ज्योत्स्ना
से जगमग
चन्द्रशेखर मैं !

स्थावर जंगम, तुच्छ विहंगम
कोमल कठोर, गोधूली भोर
साकार निराकार, शून्य विस्तार
अवनि अम्बर, श्वेताम्बर दिगम्बर 
ग्रह विग्रह, शाप अनुग्रह
प्रकृष्ट प्रचंड, प्रगल्भ अखंड
परिव्राजक संत, अनादि अनंत
पाथर कंकड़
शिवशंकर मैं !

















Tuesday 21 February 2017

नर- नारी.

तू रामायण, मैं सीता,
तू उपनिषद, मैं गीता.

मैं अर्थ, तू शब्द,
तू वाचाल, मैं निःशब्द.

तू रूप, मैं छवि,
तू यज्ञ, मैं हवि.

मैं वस्त्र, तू तन
तू इन्द्रिय, मैं मन.

मैं त्वरण, तू गति
तू पुरुष, मैं प्रकृति.

तू पथ, मैं यात्रा
मैं ऊष्मा, तू मात्रा.

मैं काल, तू आकाश
तू सृष्टि, मैं लास.


मैं चेतना, तू अभिव्यक्ति,
तू शिव, मैं शक्ति.

तू रेखा, मैं बिंदु,
तू मार्तंड, मैं इंदु.

तू धूप, मैं छाया,
तू विश्व, मैं माया.

मैं दृष्टि, तू प्रकाश
मैं कामना, तू विलास.

तू आखर, मैं पीव
मैं आत्मा, तू जीव.

मैं द्रव्य, तू कौटिल्य,
मैं ममता, तू वात्सल्य.

तू जीवन, मैं दाव,
तू भाषा, मैं भाव.

मैं विचार, तू आचारी,
तू नर, मैं नारी.  
      

   

Wednesday 8 February 2017

ज्ञाता,ज्ञान और ज्ञेय


     (१)
चटकीली चाँदनी की
दुधिया धार में धुलाई,
बांस की ओरी में टंगी सुतली.  
हवा की सान पर
झुलती, डोलती
रात भर खोलती,  
भ्रम की पोटली
मेरी अधजगी आँखों में.
किसी कृशकाय कजराती  
धामिन सी धुक धुकाकर,
बँसवारी सिसकारती रही
मायावी फन की फुफकार.

       (२)
कुतूहल, अचरज, भय, विस्मय
की गठरी में ठिठका मेरा 'मैं'.
बदस्तूर उलझा रहा,
माया चित्र में, होने तक भोर.
उषा के  अंजोर ने
उसे फिर से, जब
सुतली बना दिया.
सोचता है मेरा 'मैं'
इस भ्रम भोर में,
वो सुतली कहीं 
मेरे होने का
वजूद ही तो नहीं?


   (३)
दृश्यमान जगत
की बँसवारी में
मन की बांस
से लटकी सुतली
अहंकार की.
सांय सांय सिहरन
प्राणवंत पवन  
बुद्धि की दुधिया चांदनी
में सद्धःस्नात,
भर विभावरी
भरती रही भ्रम से
जीवन की गगरी.
    
     (४)
परमात्मा प्रकीर्ण प्रत्युष
चमकीली किरण
की पहली रेख  
मिटा वजूद, प्रतिभास सा,
जो सच नहीं!
शाश्वत सत्य का
सूरज चमक रहा था
साफ साफ दिख रहे थे
बिम्ब अनेक,
ज्ञाता,ज्ञान और ज्ञेय
हो गए थे किन्तु

सिमटकर एक!      

Tuesday 7 February 2017

सजीव अहंकार

मेरी उचाट आत्मा
भर नींद जागती रही.
सपनों में ही सही!
और ये बुद्धिमान मन
जागे जागे सोया रहा.
अहंकार फिर भी सजीव था!

एक रात की नींद में जगना
खोये में जागना
न हो के होना
अभाव में भाव
और मौन में संवाद,
जहां स्थूल से सूक्ष्म सरक जाता है!

दूसरा, दिन का सपना
जगे जगे खोना
हो के न होना
भाव में अभाव
और आलाप में मौन  
जहां सूक्ष्म स्थूल में समा जाता है!