"घन घन घनन
घुँघर कत बाजय
हन हन कर तुअ
काता
बिद्यापति कवि
तूअ पद सेवक
पुत्र बिसरी जनु
माता..."
श्री हनुमान सतबार पाठ समारोह में कीर्तन गायन
की तैयारी के क्रम में 'माइक चेक' करते मेरे शतकवय बाबा (दादाजी) ने बिना किसी साज-संगीत के जब
इन पंक्तियों की तान भरी तो मैं अनायास पवन तरंगों पर तैरती इन मधुर स्वर-लहरियों
में गोते लगाने लगा। भक्ति की अद्भुत भाव भंगिमा में पगी इन पंक्तियों ने मानो सहज
साक्षात माँ भवानी को सम्मुख उपस्थित कर दिया हो ! विद्यापति की रचनाओं का भक्ति
रस बरबस अपनी मिठास से मन प्रांतर के कण-कण को आप्लावित कर देता है। बाद में, मैंने
उनसे विद्यापति के कुछेक दूसरे भजन भी बड़े चाव से सुने।
ये गीत अब भी मेरे कर्ण-पटल को अपनी स्वाभाविक
मधुरता और भक्ति-भाव से झंकृत करते रहते हैं।
इसीलिए, जब दरभंगा से सीतामढ़ी जाने के क्रम में
मेरी दृष्टि सडक पर लगी पट्टिका पर पड़ी " विद्यापति जन्म स्थान 'बिसपी' 7
किलोमीटर " तो भला मै उस पुण्य भूमि को देखे बिना आगे न बढ़ जाने का लोभ कैसे
न संवरण कर पाता ! तबतक गाडी थोड़ी आगे सरक चुकी थी। मैंने वाहन चालक को आग्रह किया
कि वह गाड़ी को पीछे लौटाए और बिसपी गाँव की ओर मोड़ लें। चालक महोदय मिथिलांचल के
ही थे। उनकी आँखों में मैंने एक अदृश्य गर्व भाव के दर्शन किये कि कोई व्यक्ति
उनकी भूमि की महिमा को आत्मसात कर रहा है।
रास्ते में एक डायवर्सन को पार कर हम
प्रधानमंत्री सड़क-निर्माण योजना के तहत एक नवजात वक्रांग सड़क पर रेंगते हुए करीब
बीस मिनट की यात्रा कर भवानी के इस भक्त बेटे महाकवि बिद्यापति के अवतार स्थल पर
पहुंचे. चाहरदिवारियों से घिरा एक अलसाया परिसर और उसके बड़े गेट पर लटका ताला !
गेट की दूसरी ओर परिसर के अन्दर विद्यापति की पाषाण मूर्ति साफ़ साफ़ दिख रही थी। हम
बाहर से ही दर्शन कर अघाने की प्रक्रिया में थे, किन्तु भला ड्राईवर साहब कहाँ
मानने वाले थे इस बात से कि वो बाहर से ही हुलका के हमें लौटा ले जाएँ ! वह मुझे झाँकते छोड़ गाँव की ओर निकल गए और करीब दस मिनट बाद चाभी लिए एक अर्धनग्न कविनुमा
व्यक्ति को लेकर पहुंचे, जिन्होंने बड़ी आत्मीयता से हमारा दृष्टि-सत्कार किया और
गेट खोलकर हमें अन्दर ले गए। हमारे इस ग्रामीण गाइड ने धाराप्रवाह अपनी मीठी बोली में हमें विद्यापति
की कहानी सुनानी शुरू की। मेरे मानसपटल पर शनैः शनैः उनकी साहित्यिक आकृति उभरनी
शुरू हो गयी।
दसवीं
कक्षा के पाठ्यक्रम में विद्यापति से मेरा नाता बस अंक बटोरने तक रहा था। किन्तु,
बाद में जब उनकी सृजन-सुधा का पान करने का अवसर फुर्सत में मिला तब जाके लगा कि
साहित्य की सतरंगी आभा क्या होती है! सरस्वती के इस बेटे ने विस्तार में बताया कि
भक्ति, श्रृंगार और लोक जीवन आपस में किस कदर गूँथ जाते है और इस बात का तनिक आभास
भी नहीं मिलता कि भावनाएँ जब अपनी प्रगाढ़ता के अंतस्तल में मचलती हैं, तो कब श्रृंगार-भावना भक्ति के परिधान में सज जाती हैं! उनकी रचनाएँ भावनाओं के विशुद्धतम फलक पर अवतरित
होती हैं, जो पांडित्यपूर्ण पाखण्ड और बौद्धिक छल से बिलकुल अछूती रहती हैं। राधा-कृष्ण का श्रृंगार जब वे रचते हैं, तो पूरी तन्मयता से वह स्वयं उसमे रच बस जाते
हैं। जब वह राधा का चित्र खींचते हैं, तो कृष्ण बन जाते है:
' देख देख
राधा रूप अपार।
अपरूब के बिहि आनि मेराओल खित-तल लावनि सार॥
अंगहि अंग अनंग मुरछाएत हेरए पड़ए अथीर।
मनमथ कोटि-मथन करू जे जन से हेरि महि-मधि गीर॥"
चढ़ती उम्र की
बालिकाओं में शारीरिक सौष्ठव और सौंदर्य
उन्नयन की भौतिक प्रक्रिया के साथ-साथ उनकी बिंदास अल्हड़ता में नित-नित नवीन कलाओं के कंगना खनकते रहते हैं और तद्रूप
मनोभाव उनके श्रृंगारिक टटके नखड़े में नख-शिख झलकते रहते हैं। कवि की दिव्य दृष्टि से राधारानी के ये लटके झटके अछूते नहीं
रहते और उनकी अखंड सुन्दरता अपनी सारी सूक्ष्मताओं की समग्रता के साथ उनके
सौन्दर्य वर्णन में समाहित हो जाते हैं, मानों ये वर्णन और कोई नहीं, स्वयं
प्रियतम कान्हा ही अपनी प्रेयसी का कर रहे हों!
" खने-खने नयन कोन अनुसरई;खने-खने-बसन-घूलि तनु भरई॥
खने-खने दसन छुटा हास, खने-खने अधर आगे करु बास॥
.............................................................................................
बाला सैसव तारुन भेट, लखए न पारिअ जेठ कनेठ॥
विद्यापति कह सुन बर कान, तरुनिम सैसव चिन्हए न जान॥ "
विद्यापति की रचनाओं में राधा
की सौन्दर्य सुधा का पान करते साक्षात् कृष्ण ही नज़र आते हैं।
सहजि आनन सुंदर रे,
भऊंह
सुरेखलि आंखि।
पंकज मधु पिबि मधुकर रे, उड़ए पसारल पांखि॥
ततहि धाओल दुहु लोचन रे, जेहि पथममे गेलि बर नारि।
आसा लुबुधल न तजए रे, कृपनक पाछु भिखारी॥ "
और, जब विद्यापति कृष्ण की छवि उकेरते हैं तो राधा की आँखे ले
लेते हैं। अपने प्रिय के अलौकिक सौन्दर्य पर रिझती राधा कान्हा को अपने नयनों में
बसाए घुमती रहती हैं:
" ए सखि पेखलि एक अपरूप। सुनईत
मानब सपन-सरूप॥
कमल जुगल पर चांदक माला। तापर उपजल तरुन तमाला॥
तापर बेढ़लि बीजुरि-लता। कालिंदी तट धिरें धिरें
जाता॥
साखा-सिखर सुधाकर पांति। ताहि नब पल्लब अरुनिम
कांति। "
राधा-कृष्ण के सौन्दर्य वर्णन
पर ही कवि का चित्रकार चित विराम नहीं लेता। एक दूसरे के अपूर्व प्रेम में छटपटाते
प्रेमी युगल के साथ प्रकृति की सहभागिता में भी कवि ने मानवीय प्राण डाल दिए हैं। यहाँ मौसम की छटा प्रेम का वितान नहीं तानती, प्रत्युत गगन में गरजती घटा अपने
विघ्नकारी रूप में उपस्थित होकर प्रिय से मिलने निकली प्रेयसी का रास्ता रोक लेती
है और प्रिय-दर्शन को आकुल-व्याकुल आत्मा विरह-व्यथा में चीत्कार कर उठती है:
" सखि हे हमर दुखक नहि ओर
इ भर बादर माह भादर सुन मंदिर मोर॥
झांपि घन गरजति संतत, भुवन भरि बरंसतिया।
कन्त पाहुन काम दारुन, सघन खर सर हंतिया।
कुलिस कत सत पात,
मुदित, मयूर नाचत मातिया।
मत्त दादुर डाक डाहुक, फाटि जायेत छातिया।
तिमिर दिग भरि घोरि यामिनि, अथिर बिजुरिक पांतिया।
विद्यापति कह कैसे गमाओब, हरि बिना दिन- रातिया॥"
फिर, जब मिलन की वेला आ जाती
है तो प्रेयसी के सारे उपालंभ तिरोहित हो जाते हैं। मन में इसी प्रकृति के प्रति उसके मन में
अभिराम भाव अंकुरित हो उठते हैं:
" हे हरि हे हरि सुनिअ स्र्वन
भरि, अब न बिलासक बेरा।
गगन नखत छल से अबेकत भेल, कोकुल कुल कर फेरा॥
चकबा मोर सोर कए चुप भेल, उठिअ मलिन भेल चंद।
नगरक धेनु डगर कए संचर, कुमुदनि बस मकरंदा। "
मैंने विद्यापति
का अवलोकन सर्वदा एक आम लोक गायक के रूप मे ही किया है। उनके गीतों या पदावलियों
में एक आम आदमी का उछाह है। कहीं कोई कृत्रिमता या वैचारिक प्रपंच नहीं दिखता। सब
कुछ सजीव! सब कुछ टटका ! जैसा है वैसा है. बिकुल जीवंत! लगता है, कोई जीता जागता
चित्र सामने से गुजर रहा है।
मानवीकरण से ओत प्रोत. भगवान् शिव को एक गृहस्थ शिव
के रूप में खडा कर दिया है उन्होंने जहाँ गृहिणी गौरा उपालंभ के तीर मारती हैं। अपने निकम्मे-से पति को हल-फाल लेकर खेती करने जाने को उकसाती हैं। घर में हाथ पर
हाथ धर बैठने से कुछ होने वाला नहीं! खटंग को हल और त्रिशूल को फार बनाकर बसहा बैल
लेकर खेती करने वे जाएँ अन्यथा उनकी निर्धनता और आलस्य लोगों के उपहास का विषय बन
जायेगी! अब मै कोई साहित्य समीक्षक या सामजिक चिन्तक तो हूँ नहीं कि इन पंक्तियों
में मैं वामपंथ की प्रगतिवादी जड़ खोज लूँ, किन्तु इतना अवश्य है कि अपने आराध्य
भोले और गौरा के प्रकारांतर में कवि ने आम लोक जीवन में निर्धनता का दंश झेल रही एक
गृहिणी के उसके नशेड़ी आलसी पति के प्रति व्यथित उद्गारों को वाणी प्रदान की है:
बेरि बेरि सिय,
मों तोय बोलों
फिरसि करिय मन मोय
बिन संक रहह, भीख
मांगिय पय
गुन गौरव दूर जाय
निर्धन जन बोलि सब
उपहासए
नहीं आदर अनुकम्पा
तोहे सिव ,
आक-धतुर-फुल पाओल
हरि पाओल फुल चंदा
खटंग काटि हर हर
जे बनाबिय
त्रिसुल तोड़ीय करू
फार
बसहा धुरंधर हर लए
जोतिए
पाटये सुरसरी धार.
यहाँ कहीं ऐसा तो
नहीं कि प्रकृति रूपिणी शक्ति अपने पुरुष में प्रेरणा के स्वर भर सृष्टि का सन्देश
दे रहीं हो ! शक्ति के बिना शिव शव मात्र रह जाते हैं। कहीं इसीसे सृजन का बीज
लेकर कामायनी में जयशंकर प्रसाद की ' श्रद्धा ' अपने मनु को यह सन्देश देते तो
नहीं दिखती कि :
"कहा आगंतुक
ने सस्नेह , अरे तुम हुए इतने अधीर
हार बैठे जीवन का
दाँव , मारकर जीतते जिसको वीर."
जो भी हो, इन लोक लुभावन लौकिक पंक्तियों में
विद्यापति ने एक ओर भक्ति की सगुन सुरसरी की धारा बहायी है, तो फिर उसमें उच्च कोटि
के आध्यात्मिक दर्शन की चाशनी भी घोल दी है ।
हमारे ग्रामीण
गाइड महोदय हमें महत्वपूर्ण सूचनाएँ दे रहे थे। अभी हाल में बिहार सरकार के सौजन्य
से विद्यापति महोत्सव का आयोजन होने लगा है। उनके जन्म के काल के बारे में कोई
निश्चित मत तो नहीं है लेकिन यह माना जाता है कि चौदहवीं शताब्दी के उतरार्ध में
उनका जन्म हुआ था। कपिलेश्वर महादेव की आराधना के पश्चात श्री गणपति ठाकुर ने इस
पुत्र रत्न को पाया था। उनकी माता का नाम हंसिनी देवी था। बचपन से ही कुशाग्र
बुद्धि के स्वामी विद्यापति को अपने बालसखा और राजा शिव सिंह का अनुग्रह प्राप्त
हुआ। उनके दो विवाह हुए। कालांतर में उनका परिवार बिसपी से विस्थापित होकर मधुबनी
के सौराठ गाँव में बस गया। उनकी कविताओं में उनकी पुत्री ' दुल्लहि ' का विवरण
मिलता है।
हमारे सरस मार्गदर्शक बड़ी सदयता से हमें विद्यापति
से जुडी किंवदंतियों की जानकारी दे रहे थे। धोती-गमछा लपेटे ऊपर से
साधारण-से दिखने वाले सज्जन की आतंरिक विद्वता अब धीरे धीरे प्रकाश में आने लगी थी। उन्होंने बताया कि विद्यापति शिव के अनन्य भक्त थे। उनकी भक्ति की डोर में बंधे
शिव उनके दास बनने को आतुर हो उठे। वह 'उगना' नाम के सेवक के रूप में उनके यहाँ
नौकरी मांगने आये। विद्यापति ने अपनी विपन्नता का हवाला देकर उन्हें रखने से मना
कर दिया। उगना बने शिव कहाँ मानने वाले! उन्होंने उनकी पत्नी सुशीला की चिरौरी कर
मना लिया और उनके नौकर बन उनकी सेवा करने लगे। एक दिन उगना अपने मालिक के साथ
चिलचिलाती धुप में राजा के घर जा रहा था। रास्ते में मालिक को प्यास लगी। आसपास
पानी नहीं था। उन्होंने उगना को पानी लाने को कहा। उगना पानी लाने गया। थोड़ी दूर
जाकर उगना बने शिव ने अपनी जटा से गंगा जल निकाला और पात्र में लेकर मालिक को पीने
के लिए दिया। माँ सुरसरी के अनन्य सेवक, भक्त और पुजारी बेटे विद्यापति को गंगाजल
का स्वाद समझते देर न लगी। उन्हें दाल में कुछ काला नज़र आया और लगे जिद करने कि 'बता! ये गंगा जल कहाँ से लाया!' मालिक की जिद के आगे उगना की एक न चली। उसे अपने
सही रूप में आकर रहस्योद्घाटन करना पड़ा, लेकिन एक शर्त पर कि मालिक भी यह भन्डा
किसी के सामने नहीं फोड़ेगा। नहीं तो, शिव अंतर्धान हो जायेंगे ! दिन अच्छे से कटने
लगे। मालिक भक्त और सेवक भगवान ! एक दिन
मालकिन सुशीला ने उगना को कुछ काम दिया। ठीक से नहीं समझ पाने से वो काम उगना से
बिगड़ गया। फिर क्या! मालकिन भी बिगड़ गयी और 'खोरनाठी' (आग से जलती लकड़ी) से उगना
की पिटाई शुरू हो गयी। विद्यापति ने ये नज़ारा देखा तो रो पड़े. उनके मुँह से बरबस
निकल पड़ा " अरे ये क्या कर डाला? ये तो साक्षात शिव हैं!" बस इतना होना
था कि शिव अंतर्धान हो गए। उगना के जाते ही विद्यापति विक्षिप्त हो गए और महादेव
के विरह में पागलों की तरह विलाप करने लगे। निश्छल भक्त की यह दुर्दशा देखकर
महादेव की आँखों में आँसू आ गए। वह फिर प्रकट हुए और भक्त से बोले " मैं
तुम्हारे साथ तो अब नहीं रह सकता लेकिन प्रतीक चिन्ह में लिंग स्वरुप में तुम्हारे
पास स्थापित हो जाउंगा। मधुबनी जिले के भगवानपुर में अभी भी उगना महादेव अपने भक्त
शिष्य को दिए गए वचन का निर्वाह कर रहे हैं।
हमें इस कहानी को
सुनाने के बाद ग्रामीण महोदय ने एक लोटा मीठा जल पिलाया । इसे हमने मन ही मन उगना
का गंगाजल ही माना। फिर उन्होंने विद्यापति के माँ गंगा से अनन्य प्रेम और उत्कट
भक्ति की अमर कथा सुनायी। काफी वय के हो जाने के बाद विद्यापति ठाकुर (मिथिला के
इस कोकिल कवि का पूरा नाम) रुग्ण हो चले थे । अपना अंतिम समय अपनी परम मोक्षदायिनी माँ भागीरथी के सानिद्ध्य में वे बिताना चाहते थे। इसे यहाँ गंगा सेवना कहते हैं। कहारों ने विद्यापति की पालकी
उठायी और सिमरिया घाट की ओर चल पड़े । पीछे-पीछे पूरा परिवार। रात भर चलते रहे। भोर की
वेला आयी। अधीर विद्यापति ने पूछा "कितनी दूर और है"? कहारों ने बताया
"पौने दो कोस". पुत्र विद्यापति अड़ गया. "पालकी यहीं रख दो. जब
पुत्र इतनी लम्बी दूरी तय कर सकता है तो माँ इतनी दूर भी नहीं आ सकती?" पुत्र
की आँखों से अविरल आँसू बह रह थे। माँ भी अपनी ममता को आँचल में कब तक बाँधे रह
सकती थी! हहराती हुई पहुँच गयी अपने लाल को अपने आगोश में लेने ! अधीर पुत्र ने
अपनी पुत्री दुल्लहि से कहा:
दुल्लहि तोर कतय
छठी माय
कहुंन ओ आबथु एखन
नहाय
वृथा बुझथु
संसार-बिलास
पल पल भौतिक नाना
त्रास
माए-बाप जजों
सद्गति पाब
सन्नति काँ अनुपम
सुख पाब
विद्यापतिक आयु
अवसान
कार्तिक धबल
त्रयोदसी जान.
पुत्र विद्यापति
को उसके जीवन का सर्वस्व मिल चुका था। उसका पार्थीव शरीर अपनी माँ की गोद में समा
चुका था। उसके अंतस्थल से माता के चरणों में श्रद्धा-शब्दों का तरल प्रवाह फूट रहा
था:
बड़ सुख सार पाओल
तुअ तीरे
छोड़इत निकट नयन बह
नीरे
करजोरी बिलमओ बिमल
तरंगे
पुनि दरसन होए
पुनमति गंगे
एक अपराध छेमब मोर
जानी
परसल माय पाय तुअ पानी
कि करब जप ताप जोग
धेआने
जनम कृतारथ एकही सनाने
माँ गंगा अपने बेटे
को गोदी में लिए बहे जा रही थी। नयनों में स्मृति-नीर लिए हम वापस अपने गंतव्य को चले
जा रहे थे............." उगना के मालिक, विद्यापति, अपनी अंतिम गति को प्राप्त कर रहे थे!"