Tuesday, 23 June 2015

हार की जीत्

भारतीय साहित्य में कुछ कहानियो के अनमोल वचन समय और स्थान से परे सत्य की शाश्वतता से लबरेज़ हैं। यथा बुद्ध के वचन डाकू अंगुलिमाल को-"मैं तो ठहर गया, भला तू कब ठहरेगा।" 
'पञ्च परमेश्वर ' में खाला जान की झकझोरु आवाज-" बेटा, क्या बिगाड़ की डर से ईमान की बात नहीं कहोगे।" 
इसी परम्परा में संत बाबा भारती के स्वर गूंजते हैं-".....नहीं तो लोगो का दीन-दुखियों से विश्वास उठ जायगा।"
सुदर्शन की यह कालजयी कथा वस्तुतः उस दर्शन का चित्रण है जहां सत्य प्रारम्भ में प्रताड़ित तो होता है परंतु पराजित कदापि नहीं होता। पूर्व प्रताड़ित हार अंततः जीत बनकर ' सत्यमेव-जयते' का उद्घोष करती है।
कहानी तो है बड़ी सरल। एक संत , बाबा भारती, और उनका सुघड़ घोड़ा, सुल्तान। उस घोड़े में जान बसती है उस संत की।प्रेम समर्पण की अतल गहराई में डूबकर संत की कमजोरी और भय बन जाता है।ठीक वैसे, जैसे माँ के लिए उसकी आँखो का तारा उसका राज दुलारा या किसान की जिंदगी की प्यारी ग़ज़ल उसके पसीने से भींगी उसकी लहलहाती फसल ।
इलाके का आतंक डाकु खडग सिंह। उसकी नज़रे लग जाती हैं उस अभिराम अश्व पर।उसे हड़पने के लिए वह बल और छल में छल का सहारा लेता है।किन्तु संत की निर्बल काया में एक बलवान आत्मा निवास कराती है।उस ज्योतिर्मय रूह से एक नैसर्गिक नसीहत निकलती है-" यह घटना दूसरों को मत बताना, नही तो लोगों का दीन-दुखियों से विश्वास उठ जाएगा।" दीन-दुखी के छद्म वेष में प्रवंचना का सहारा लिए डाकू अंदर से हिल जाता है।प्रताड़ित सत्य के सम्मुख अहंकारी असत्य घुटने टेक देता है।अँधेरे में वापस वह घोड़े को संत के अस्तबल में छोड़ जाता है।संत की पदचाप और घोड़े की हिनहिनाहट मानों सत्य के आलोक में नवजीवन का प्रस्फुटन हो।