Sunday, 16 July 2017

अहल्या अस्थान- अहियारी

बिसपी गाँव से वापस सीतामढ़ी की ओर बढ़े मुश्किल से आठ या दस किलोमीटर भी नहीं हुए थे कि सड़क की बायीं ओर कमतौल स्टेशन जाने की दिशा में लगी एक पट्टिका ने अचानक मेरे मन को खींच लिया. पट्टिका पर तीर के दिशा-निर्देशक चिन्ह के साथ लिखा था ' अहल्या अस्थान'. दिशा सन्देश पढ़ते ही बरबस हमें महाकवि तुलसी की इन पंक्तियों का स्मरण हो आया :-
'गौतम नारी श्राप वश उपल देह धरी धीर,
चरण कमल राज चाहति कृपा करहु रघुबीर.'
                ताड़का, मारीच और सुबाहु का संहार करने के पश्चात मुनि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को धनुष यज्ञ दिखाने मिथिला नरेश राजर्षि जनक की राजधानी जनकपुर इसी रास्ते से ले जा रहे थे. अत्यंत रमणीक यह वन प्रांतर निरभ्र, शांत, पशु-पक्षी विहीन और निर्जन था. एक सुनसान आश्रम था जहाँ एक भी मुनि दृष्टिगोचर नहीं होने पर राम ने कुतूहल वश विश्वामित्र से निर्जनता के इस रहस्य के विषय में प्रश्न किया. गाधि पुत्र विश्वामित्र ने फिर उस सुनसान आश्रम की कहानी सुनाई. बहुत वर्ष पूर्व यह गौतम ऋषि का आश्रम था जहाँ वह अपनी पतिव्रता यशस्विनी पत्नी अहल्या के साथ तपश्चर्या कर्म करते थे. देवराज इंद्र  चन्द्रमा के साथ मिलकर छल से गौतम का वेश बनाकर रात्रि प्रहर में अहल्या के समक्ष समागम को प्रस्तुत हुए. समागम के पश्चात गौतम के द्वारा पकडे जाने पर इंद्र और अहल्या दोनों उनके शापभाजन बने. अहल्या को उन्होंने शाप दिया कि वह कई हज़ार वर्षों तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाते हुए राख में समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर पड़ी रहेगी. जब राम का इस आश्रम में पदार्पण होगा उस समय वह पवित्र होगी और उनके आतिथ्य सत्कार से उसके समस्त ऐन्द्रिक और मानसिक दोष दूर हो जायेंगे. फिर वह अपना पूर्व शरीर धारण कर लेगी. ऐसा शाप भंजन कर कुपित गौतम हिमालय पर तपस्या करने चले गए.
अब राम और लक्ष्मण ने विश्वामित्र के साथ उस आश्रम में प्रवेश किया. मनुष्य, देव और असुरों को अदृश्य अहल्या को राम ने देखा - महासौभाग्यशालिनी अहल्या अपनी तपस्या से देदीप्यमान हो रही थी. श्री राम का दर्शन हो जाने से जब उनके शाप का अंत हो गया तो वह सबको दिखाई देने लगी. राम और लक्ष्मण ने उनके चरण स्पर्श किये. अहल्या ने उनका आतिथ्य-सत्कार किया और शापमुक्त होकर अपने दिव्य रूप में अपने पति गौतम का साहचर्य ग्रहण किया.
               ये कहानी मैंने वाल्मीकि रामायण में पढ़ी थी. हालांकि तुलसी के रामचरितमानस तक आते आते अहल्या पत्थर की बन चुकी थी और वाल्मीकि रामायण में उनका चरण स्पर्श करने वाले राम यहाँ अब अपने चरणों के स्पर्श से उनका उद्धार करने लगे थे. यह आदि काल से मध्य कल तक की हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक यात्रा के प्रदुषण की प्रक्रिया की राम गाथा है. हालांकि, इस विषय पर न मेरा कभी वाल्मीकि से मतैक्य रहा और न तुलसी से ही; और न उन तमाम अहल्या-इंद्र-गौतम प्रसंगो से जो पद्मपुराण , विष्णु पुराण या अन्य पौराणिक ग्रंथो में यत्र तत्र कपोल कल्पित मिथ्या मिथकों का गाल बजा रहे हैं. अपनी अटूट आध्यात्मिक और पावन परंपरा में हम जिन पञ्चकन्यायों को पूजते हैं वे सभी- कुंती, तारा, मंदोदरी, द्रौपदी और अहल्या - अपने समय की फेमिनिस्ट थी . उन्होंने तत्कालीन नारी विरोधी मान्यताओं को चुनौती दी तथा वे सारे कार्य संपन्न किये जो पुरुष समाज के मिथ्या अहंकार को तार तार कर देते हों. हमें तो यही लगता है कि वैदिक युग के बाद जब मर्यादाओं का अवनयन काल आया तो कुटिल प्रवंचकों ने पुराण की रचना करते समय अपनी थोथी दलीलों को अपने ग्रंथों में थोप दी. नारी को पुरुष से नीचा रखने का सारा कुचक्र रच दिया. बातों को तोड़ मरोड़कर कुतर्कों का जाल फैला दिया. परम पूजनीय पञ्चकन्यायों को प्रपंच पूर्ण प्रसंगों के प्रकारांतर में पातकी प्रमाणित कर दिया और प्रताड़ित भी किया. और तो और , शाप के प्रकोप के निवारण में भी ऐसा विधान रचा कि पुरुष इंद्र का शाप अंग प्रत्यारोपण से छू मंतर हो गया ! जबकि, नारी अहल्या को अप्रमेय प्रक्रिया से पाषाण में परिवर्तित कर दिया !
              प्रमाण , प्रमेय , अनुमान , सिद्धांत आदि ... ये सब न्याय दर्शन के आवश्यक अंग हैं. और न्याय दर्शन के जनक मुनि अक्षपाद गौतम अपनी पत्नी को पत्थर बना देने में स्वयं अप्रमेयता का आखेट बन जाते हैं ! कैसी बिडम्बना है हमारे पौराणिक कथाकारों के साथ! इंद्र देवराज हैं. परस्त्रीगमन करते हैं. इंद्र अहल्या के पास गए थे न! अहल्या तो अपने आश्रम में ही थी. सह षड्यंत्रकारी चन्द्रमा है. इंद्र पुरुष! चन्द्रमा पुरुष! न्यायी पति गौतम पुरुष! और पुरुषार्थ के प्रतीक-पुरुष इंद्र को शाप से मुक्ति की तरकीब सिखाने वाले सारे पंडित, ब्रह्माजी भी, पुरुष! इन सब पुरुषों के बीच एक पाषाणी नारी- अहल्या!
              थाईलैंड में प्रचलित रामकथा, रामकिन, में तो यहाँ तक रच दिया गया है कि सूर्य और इंद्र के समागम से अहल्या ने सुग्रीव और बाली को जन्म दिया जिसका भांडा अहल्या की पुत्री अंजनी ने अपने पिता के सामने फोड़ा. उससे कुपित होकर गौतम ने दोनों पुत्रों को बन्दर बनाकर घर से निकाल दिया. फिर अहल्या के शाप से अंजनी को भी बन्दर रूप पुत्र हनुमान हुए. कुल मिलाकर, नारी इन समस्त प्रपंचों की प्रयोगशाला बनी रही. पुरुष प्रयोग करता रहा!
                विश्वामित्र और राम लक्ष्मण के जनकपुर पहुचते ही अहल्या के बेटे शतानन्दजी जो राजा जनक के राजपुरोहित हैं, पहला प्रश्न यहीं पूछते हैं - " मुनिवर! मेरी यशस्विनी माता अहल्या बहुत दिनों से तपस्या कर रही थी. क्या आपने राजकुमार श्री राम को उनका दर्शन कराया? क्या मेरी महातेजस्विनी एवं यशस्विनी माता अहल्या ने वन में होने वाले फल फूल आदि से समस्त देह धरियों के लिए पूजनीय श्री रामचन्द्रजी का पूजन किया? क्या अपने श्री राम से वह प्राचीन वृतांत कहा था , जो मेरी माता के प्रति देवराज इंद्रा द्वारा किये गए छल-कपट एवं दुराचार द्वारा घटित हुआ था?"
              तो छल इंद्र का! सहषड्यंत्र चन्द्रमा का! दण्ड गौतम के न्याय का! और पत्थर की प्रतिमा अहल्या की! और तो और, ये आँखों देखा हाल सुनाने वाले विश्वामित्रजी ने भी एक अन्य धारावाहिक में इंद्र की ही छल क्रीडा में रम्भा को दस हज़ार वर्षों तक पत्थर की प्रतिमा बना कर खडा करा चुके थे!
              हमने इन प्रसंगों के बाद आधुनिक युग में यशस्वी लोगों की लन्दन में तुशाड की प्रतिमा के बारे में जरुर सुना है लेकिन अभी तक किसी ऐसी प्रावैधिकी से मेरा साक्षात्कार नहीं हुआ जहां सजीव प्राणी को निर्जीव पाषण प्रतिमा में परिवर्तित कर पुनः उसे वापस पूर्ववत सजीव रूप में ला दिया जाय. अर्थात पहले रासायनिक परिवर्तन, और फिर दूसरा प्रतिगामी रासायनिक परिवर्तन और दोनों मिलकर एक पूर्ण भौतिक परिवर्तन! बीच का काल हरिकीर्तन! प्रसिद्द बंगाली फिल्मकार सुजय घोष ने अपनी कल्पनाओं की अहल्या कथा पर चौदह मिनट का एक लघु वृत्त चित्र 'अहल्या' भी बनाया है.
              मेरा अभिप्राय इन मिथकों का मज़ाक उडाना नहीं, प्रत्युत उनकी अवैज्ञानिकता, नारी विरोधी कुत्सित कुसंस्कारों और  सामंती मान्यताओं  को अस्वीकार करना भर है.                
              इस बार हमें गाडी वापस लौटाने की नौबत नहीं आयी क्योंकि हमारे वाहन चालक महोदय ने पहले से ही हमारी भावनाओं को ताड़ लिया था. उन्होंने गाड़ी को अहियारी गाँव की ओर मोड़ दिया था. और जितनी देर तक हम अपने विचारों में डूबते उतराते रहे हमारी गाड़ी घनघोर विशाल वृक्ष की सघन शीतल छाया तले तपस्विनी अहल्या के 'अस्थान' में प्रवेश कर चुकी थी. वहाँ हमें एक आत्यंतिक नैसर्गिक सुख का आभास हुआ. हमने मंदिर के प्रशांत प्रांगण में चबूतरे पर थोड़ी देर  तक 'शांत अमिताभ' मुद्रा में विश्राम किया. मंदिर का जालीदार द्वार यहाँ भी बंद था जिसके पार माँ अहल्या की प्रतिमा दृश्यमान थी. एक धातु पट टंगा था जिसपर लिखा था - " ' अहल्या कुटी ', ऐसा प्रमाणित है कि यहीं पर माँ अहल्या ऋषि गौतम के शाप से पाषाणी हुई थी, जो श्री राम के चरण स्पर्श से शाप मुक्त हुई थी." मंदिर की दीवार रामचरितमानस की अहल्या विषयक चौपाइयों और दोहों से पटी थी.
                मुख्य मंदिर के ठीक सामने आँगन में एक स्तम्भ गड़ा था जिस पर लिखा था - " संस्थापक , गुंटूर आंध्र प्रदेश के श्री श्री श्री त्रिदंडी श्रीमन्नारायण स्वामी. इस श्री राममहाक्रतु: स्तम्भ में एक करोड़ राम यंत्र और मूल रामायण विद्यमान है. इसकी स्थापना  १९६० के दशक में की गयी. यह स्थान वैष्णव मतावलंबियों के द्वारा विवाह , अनुष्ठान , रामार्चा, सत्यनारायण एवं श्राद्ध कर्म के लिए मंगलकारी है ." इन पंक्तियों ने वैष्णव दर्शन के इस मर्म का साक्षात्कार कराया कि श्राद्ध का भी मंगलकारी होना इस बात का प्रतीक है कि जीवात्मा का जन्म-मरण के भवसागर से मुक्त होकर परमात्म विलय की मोक्षवास्था को प्राप्त हो जाना ही समस्त मंगल का मूल है.
                समीप के कमरे में भोजन बना रही एक महिला पुजारी ने आग्रह करने पर बड़ी आत्मीयता से मन्दिर का दरवाज़ा खोलकर दर्शन कराया. वहीँ पर एक बालक अपनी माँ के साथ पूजा सामग्री की दुकान लगाये बैठा था जिसपर अन्य सामग्रियों के साथ चूड़ी और बैगन रखे थे. पूछने पर पता चला कि ' अईला ' नमक एक विशेष प्रकार के दानेदार चर्मरोग के रोगी यहाँ माँ अहल्या का पुजन कर यहाँ की मिट्टी अपने रोग ग्रस्त भाग पर लगाते हैं जिससे यह बीमारी दूर हो जाती है. रोगमुक्त होने पर बैगन को चढ़ावे के रूप में अर्पित किया जाता है. मैंने मन ही मन मिट्टी की मरहमी ताकत को नमन किया. इसी बीच सजी संवरी महिलाओं के एक झुण्ड ने एक नवविवाहित वर वधु के जोड़े के साथ सुमधुर स्वर में समवेत विवाह के गीत गाते प्रवेश किया. हमने माँ अहल्या को प्रणाम किया और उनकी उसी छवि की आभा को अपनी आँखों में बसाये वहां से विदा लिया जो छवि भगवान राम ने अदिकवि वाल्मीकि के वर्णित इन छंदों में की थी :-

"स तुषार आवृताम् स अभ्राम् पूर्ण चन्द्र प्रभाम् इव |
मध्ये अंभसो दुराधर्षाम् दीप्ताम् सूर्य प्रभाम् इव ||

अर्थात
 " तप से देदीप्यमान रूप वाली, बादलों से मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान तथा प्रदीप्त अग्नि

 शिखा और सूर्य से तेज के समान अहिल्या तपस्या में लीन थी।"