Wednesday, 14 February 2018

Saturday, 3 February 2018

इन्द्रधनुष

भरी बदरी में बंसवारी के भीतर
भुवन के भव्य भीत महल में,
जिंदगी की ओदाई लकड़ियों को सुलगाती,
उसकाकर आग आस की,
पनियाई आँखों से फूंक फूंककर चुल्हा.
थपथपाती रोटी, भोर भिनसारे.
मुझे प्लास्टिक पर लिटाकर
  माँ!
.................................
पानी से लबलब खेत,
कोने पर खड़े पेड़ के नीचे
पड़े मेड़.
सुता देती मुझे
भरोसे घोंघो सितुओं
और पनिआवा सांपो के.
जो चकुदारी कम,
चुहलकदमी जादा करते
मेरे उठते गिरते
पैरों की लय में.

मैं शिशु  'कर्ण' सा, 
निहारता आसमान 
प्रतिबिम्ब वसुधा का.
..................
दिखती माँ,
गाती झूमर,
उठाये ठेहुने तक लुग्गा,
कमर में खोंसे, रोपती धान
मिलाती सुर, कृषक-कन्याओं संग
झमझम बरखा के बहार में
घुलाती तुहिन श्वेत स्वेद कणों को.

क्रांतिकारी कीड़ों के तुमुल कलरव
और ढाबुस बेंगो के उन्मादी रोर  में,
समाजवाद की मेड़ पर पड़ा
 मेरा पूंजीवादी मन,
ढूंढता निहारता
उदारवादी  अंतरिक्ष में
'सूर्य' से पिता को !

बैंगनी कोर वाली नीली साड़ी,
आसमानी ओढनी,
खनखनाती हरी चूड़ियाँ,
पसीजता पीतास मन पिता का!
फाड़कर चादर बादलों की
अपनी पीताभ किरणों से
पोंछता पसीने कपाल के
नारंगी आभा उगते कपोल पर,
श्रम सीकर सिक्त लोल ललनाओं के.
दूर गरजता, होकर इंद्र लाल!

बैंगनी, नीला, आसमानी
हरा, पीला, नारंगी
और लाल!
ये सारे रंग समवेत
धारियों में सज झलमलाते
मेरी आँखों में
और तन जाते
क्षितिज के
इस पार से उस पार.
बनकर मुआ पनसोखे!
सतरंगे इन्द्रधनुष!
बैनीआहपीनाला
अम्बर से ढलकी
अवनी पर दृश्यहाला

.......................
मुद्दतों बाद आज
झलमलाया, मेरी
'मुक्तिबोधी-फंतासी-सी'
अधखुली अपलक धनुषी
आँखों में
रंगों का वही मज़मा
कर गुफ्तगू 'वर्ड्सवर्थ' से
"चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन".
घिरनी की गति से
काटती क्रांति की सूत
समय की तकली.
और, नाच रही है
समरस समाज की सतरंगी
"न्यूटन-चकरी"
जहां सभी 'कलर'
मिलकर हो गए हैं
वर्णहीन, शफ्फाक श्वेत !
पर.....
जैसे 'ययाति-ग्रंथि' से पीड़ित
सतरंगी कामनाएं!
फिर से जी उठी हैं,
मेरे मन के आकाश में
स्मृतियों का इन्द्रधनुष!!!