Friday, 15 January 2021

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१८)

(भाग - १७ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ण)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


प्राणी और वनस्पति  जगत के नामों के साक्ष्य 

 प्रोटो-भारोपीय भाषाओं के मूल स्थान से संबंधित भाषायी गवेषणाओं और शास्त्रार्थों में वनस्पति एवं जीव-जंतुओं के समाविष्ट स्वरूप की चर्चा एक विशेष स्थान रखती है। मल्लोरी और ऐडम्ज़ का विचार है कि “अमूमन हाथ में शब्दकोश थामकर  भारोपीय मूलभूमि की तलाश में निकले लोग प्राणी और वनष्पति जगत से मिले सबूतों पर ही अमल करते हैं।“ [मल्लोरी-ऐडम्ज़  :२००६:१३१]

इन सबूतों की जाँच हम नीचे करेंगे :

१ – शीतोष्ण बनाम ऊष्ण- कटिबंधीय क्षेत्र  

२ – ऋग्वेद और वैदिक ग्रंथों में वर्णित पूर्वी बनाम पश्चिमी क्षेत्र 

३ – पश्चिमोत्तर और उसके आगे का प्रोटो(प्राक/आद्य) भारोपीय क्षेत्र 

४ – सोम का सबूत 

५ – शहद का सबूत 

६ – सुरा और जंगली भैंसों का सबूत 

७ – घोड़ों का सबूत 

८ – गायों का सबूत 

[तलगेरी जी की पुस्तक ‘हाथी और आद्य-भारोपीय मूलभूमि (The elephant and the Proto Indo-European Homeland)’ में उपरोक्त सबूतों का वृतांत विस्तार में मिलता है।]

१- शीतोष्ण बनाम ऊष्ण- कटिबंधीय क्षेत्र  

शीतोष्ण क्षेत्र का प्राणी और वनष्पति जगत 

साधारण तौर पर यह दलील दी जाती है कि प्राणियों और पेड़-पौधों के नाम पर आधारित सबूत यहीं स्थापित करते हैं कि भारोपीय भाषाओं का मूल-स्थान भारत के बाहर के मैदानी भाग हैं। इसका कारण यह है कि भारोपीय परिवार की भिन्न-भिन्न शाखाओं में जीव-जंतुओं और पौधों के वही एक तरह के नाम हैं जो शीतोष्ण क्षेत्रों के नाम हैं न कि भारत जैसे ऊष्ण-कटिबंधीय या उप-ऊष्ण-कटिबंधीय क्षेत्रों वाले नाम। 

उदाहरण स्वरूप हम विजेल की इन बातों का स्मरण कर सकते हैं कि “सामान्यतया, आद्य-भारोपीय प्राणी-जगत और पौधों का संसार शीतोष्ण जलवायु का है [विजेल २००५:३७२] और ऋग्वेद में ‘भेड़िये’ और ‘बर्फ़’ के लिए आने वाले शब्द ठंडी आबोहवा की भाषायी यादों की ओर इशारा करते हैं [विजेल २००५ :३७३]

विजेल और आगे बढ़कर यह भी जोड़ते हैं कि ‘चाहे वह पड़ोस में सटा पुराना इरान हो या पूर्वी या पश्चिमी यूरोप का कोई क्षेत्र, दक्षिण एशिया से बाहर कोई भी पुराना खाँटी भारतीय शब्द हमें कहीं नहीं मिलता है। आर्यों के भारत से बाहर जाने के परिदृश्य में आम धारणा यह ज़रूर बनती है कि शेर, बाघ, हाथी, चीता, कमल, बाँस और स्थानीय भारतीय वृक्षों के लिए भारतीय शब्दों में कम-से-कम कुछ तो यहाँ भी बचे रहते [विजेल २००५:३६४-३६५]। अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए विजेल कहते हैं, ‘पश्चिम में कमल, बाँस और अन्य भारतीय पौधों के भारतीय नाम (अश्वत्थ, बिल्व, जंबु आदि) को खोजने पर कुछ भी हाथ नहीं लगता। ये नाम तो क्या, अन्य अर्थों में भी ऐसे नाम वहाँ कदापि नहीं मिलते।‘

इस बात में इस तथ्य को बिलकुल नज़र अन्दाज़ कर दिया गया है कि अधिकांश भाषाएँ सामान्य तौर पर उन्हीं जंतुओं और पौधों के नाम को बचा कर रखती हैं जो उसी भाषायी क्षेत्र में पाये जाते हैं। उन प्राणियों या पौधों के नाम वे संरक्षित नहीं कर पाती जो उनके क्षेत्र में नहीं पाए जाते या फिर बाहर के क्षेत्रों में पाए जाते हैं।  संक्षेप में हम यह भी कह सकते हैं कि दक्षिणी रूस के मैदानी भाग में पाए जाने वाले या फिर भारतीय भूभाग में नहीं पाए जाने वाले किसी भी प्राणी या पौधों के नाम भारतीय आर्य भाषाओं में नहीं पाए जाते। विजेल की बातों को हम दूसरे रूप में ऐसे भी व्यक्त कर सकते हैं कि ‘भारत में स्टेपी (दक्षिणी रूस के मैदानी भाग) के प्राणियों या पौधों के नाम खोजने पर कुछ भी हाथ नहीं लगता। ये नाम तो क्या, अन्य अर्थों में भी ऐसे नाम यहाँ कदापि नहीं मिलते।‘

अब जहाँ तक भेड़ियों और बर्फ़ का सवाल है, तो यह बात भी उतना ही सच है कि ये दोनों भारत के एक बड़े भूभाग में उतने ही स्थानीय और देसी हैं जितना उन मैदानी भागों की ठंडी आबोहवा वाले क्षेत्रों में। रुडयार्ड किप्लिंग ने अपनी किताब ‘जंगल-बुक’ में जब एक बच्चे का भेड़ियों के द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने की कहानी लिखी तो उनका संदर्भ भारतीय बालक, भारत का जंगल और भारतीय भेड़िया था न कि उनकी भाषायी स्मृतियों में संचित कोई ब्रितानी भेड़िया। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि किप्लिंग वास्तव में ब्रिटेन के निवासी थे।

बर्फ़ का भी वजूद भारत में भी उतना ही है जितना पश्चिम में। ‘इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ के अनुसार ध्रुवीय क्षेत्रों से बाहर स्थित यदि कोई ऐसा भूभाग है जिसका अधिकतम क्षेत्र स्थायी रूप से बर्फ़ से आच्छादित रहता है, तो वह है भारत का हिमालय। ऐसे भी ‘बर्फ़’ ऋग्वेद में अतीत की किसी भाषायी स्मृति के चिर प्रतिबिम्ब के रूप में चित्रित नहीं है। यह शब्द इसके नए मंडलों में मात्र एक या दो बार आता है जब वैदिक आर्य अपनी मूल भूमि हरियाणा से पश्चिम की ओर पंजाब होते हुए पशिमोत्तर में हिमालय का स्पर्श करते हुए अफ़ग़ानिस्तान की ओर बढ़ते हैं। ‘हिम’ शब्द ऋग्वेद के दस सूक्तों में जाड़े के मौसम के रूप में आया है। ये दस सूक्त १/३४/१, १/६४/१४, १/११६/८, १/११९/६, २/३३/२, ५/५४/१५, ६/४८/८, ८/७३/३, १०/३७/१० और १०/६८/१० है। जाड़े की ऋतु भारत के सभी भागों में आती है। मराठी में इसके लिए ‘हिवाला’ शब्द है। अतः ‘जाड़ा’ भी कोई ऐसा शब्द नहीं है जिसे हम ख़ास अर्थों में किसी भाषायी स्मृति के रूप में मान लें।  उसमें भी ऊपर के दस सूक्तिय संदर्भों से चार में तो इसका वर्णन भीषण गरमी से निजात दिलाने वाले मौसम के रूप में आया है न कि किसी सर्द मौसम की याद के रूप में! तीन सबसे पुराने मंडलों में तो बस एक ही जगह ६/४८/८ में यह शब्द आया है, जो कि पुनर्संशोधित मंडल है। इसका अत्यंत अर्वाचीन संदर्भ १०/१२१/४ में है, जहाँ इसका मतलब बर्फ़ है जो पश्चिमोत्तर में हिमालय की चोटियों को चादर की तरह लपेटे हुए हैं। नए मंडल में ८/३२/२६ में इस शब्द का एक और विवरण मिलता है जो बर्फ़ से बने हथियार के अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। 

अब आइए हम विजेल द्वारा प्रस्तुत तर्कों की तनिक छानबीन कर लें :

विजेल का कहना है कि ‘भारतीय जंतुओं और फूल-पौधों के नाम भारत के बाहर की किसी भारोपीय भाषा में नहीं मिलते हैं। इसलिए, यह बात ख़ारिज हो जाती है कि इन भारोपीय भाषाओं का उद्गम स्थल भारत था।‘ दूसरी ओर वह यह भी कहते हैं कि ‘भारत के बाहर के किसी भी भारोपीय प्राणी या पौधों के नाम भारत में नहीं मिलते।‘ लेकिन, यहाँ इसका कारण वह ढूँढ लेते हैं कि इन नामों का प्रयोग नहीं होने के कारण इस भारत भूमि से ये नाम लुप्त हो गए। फिर तो, इसी कारण को अपने पहले वक्तव्य में न लागू करने के पीछे उनका पूर्वाग्रही कुतर्क ही दिखायी पड़ता है। हम अब यह भी देखेंगे कि कुछ भारतीय जंतुओं यथा – सिंह, हाथी, चीता, लंगूर के नाम बाहर की भाषाओं में भी पाए जाते हैं।  कहीं-कहीं तो विजेल का तर्क अत्यंत हास्यास्पद हो जाता है। वह कहते हैं कि ‘ख़ानाबदोश जिप्सी लोगों ने बहुत हद तक भारतीय-आर्य भाषा के काफ़ी शब्दों (फ़राल ‘ब्रदर’, पानी ‘वाटर’, करल ‘वह करता है’ आदि) को पिछले हज़ार सालों से संजो कर रखा है। इस दौरान वह पूर्वोत्तर, उत्तरी अफ़्रीका और यूरोप में भटकते रहे (विजेल २००५:३६६)। भारत के काफ़ी भीतरी हिस्से से निकलकर जिप्सी हज़ारों साल पहले बाहर चले गए और उनकी भाषा, रोमानी, एक भारतीय आर्य भाषा है। अब यहाँ तक कि यदि रोमानी भाषा अपने सारे शब्दों को बचा कर नहीं रख पायी, तो भला भारोपीय परिवार की उन अन्य ग्यारह शाखाओं से, जो अपनी पश्चिमोत्तर भारत की बाहरी छोर की भूमि छोड़कर काफ़ी हज़ार साल पहले बाहर चली गयीं, कैसे आशा की जा सकती है कि वे अपने सारे शब्दों को संजो कर रखें! 

भारोपीय भाषाओं को बोलने वाले अलग-अलग समुदाय अपने जंतुओं और पेड़-पौधों के उन्ही नामों को संजो पाए जो उनके अपने मौलिक और भौगोलिक आवास में पाए जाते थे। वहाँ से बाहर के नामों को बचाए रखने में वे असमर्थ थे। इसीलिए, सामान्य तौर पर सिर्फ़ प्राणियों और वनस्पति जगत के नामों के विश्लेषण के आधार पर हम भारोपीय भाषाओं की मूल जन्मभूमि का निर्धारण नहीं कर सकते। 

शीतोष्ण क्षेत्र में पाए जाने वाले जानवरों के नाम (भेड़िया, भालू, बनबिलाव, लोमड़ी, गीदड़, हिरन, मृग, साँड़, गाय, ख़रगोश, चमगादड़, ऊद, ऊदबिलाव, मूषक, हंस, बत्तख़, कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा, भेड़, सुअर आदि) भारतीय-आर्य और भारोपीय दोनों भाषाओं में एक जैसे ही हैं। इसका एक कारण तो यह है कि इसमें से सभी जानवर भारतीय भूभाग में पाए जाते हैं। दूसरी बात यह है कि जो जानवर (या नाम) यदि भारतीय भूभाग में नहीं पाए जाते तो वे निश्चित तौर पर भारत के उन पश्चिमोत्तर प्रांतों में तो अवश्य ही पाए जाते हैं जिन्हें पूरी तरह से भारतीय संस्कृति का ही गुरुत्व-क्षेत्र कहा जा सकता है। साथ ही इन पश्चिमोत्तर क्षेत्रों के साथ यह भी उतना ही सच है कि भारत से बाहर निकलने वाले समुदाय इसी रास्ते अपने नए ठिकानों की ओर प्रस्थान किए थे। 

इस विषय में डाइन्स (Dyens) की बातें भी ध्यान आकर्षित करती हैं, “प्रोटो-भारोपीय भाषाओं के बोले जाने वाली जगहों के बारे में पर्याप्त संकेत भारोपीय भाषाओं में प्राणी जगत एवं वानस्पतिक जगत के नामों के लिए प्रयुक्त शब्दों में मिल जाते हैं। जानवरों में ‘भालू’ और वृक्षों में ‘बीच’ के पेड़ इसके सुपरिचित उदाहरण हैं। औषधीय महत्व वाले पौधों के प्राकृतिक पर्यावास का वानस्पतिक  मानचित्र खींचने के उपरांत भाषाविदों ने यह साबित कर दिया है कि इन पौधों की क़ुदरती पैदाइश और असली रिहाईश शीतोष्ण आबोहवा की ज़मीन ही है। (ड़ाइंस १९८८:४)”

अब इस वक्तव्य में चर्चित उदाहरण ‘बीच’ के पेड़ और ‘भालू’ पर विचार करें जिनका मूल आवास शीतोष्ण क्षेत्र बताया गया है :

१ – ‘बीच’ का पेड़ केवल यूरोप में पाया जाता है और ‘इसके लिए तथाकथित प्रोटो-भारोपीय शब्द भी सिर्फ़ यूरोप में ही पाया जाता है!’ मात्र पाँच ही ऐसी यूरोपीय भाषाएँ (इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक और स्लावी) हैं, जिसमें ‘बीच’ के सजातीय और इसके यूरोपीय अपभ्रंश ‘बा:को’ से बने शब्दों का प्रचलन मिलता है। यहाँ तक कि इसके लिये प्रयुक्त बाल्टिक और स्लावी भाषाओं के शब्द भी जर्मन से ही लिए गए लगते हैं (गमक्रेलिज १९९५ :५३४)। ग्रीक और अल्बानी भाषा में ‘बीच’ के लिए अलग शब्द हैं। वे शब्द भी जो अपभ्रंश ‘बा:को’ से व्युत्पन्न प्रतीत होते हैं, उनका मतलब ‘ओक’ के वृक्ष से है। एशियायी शाखाओं की अनाटोलियन, टोकारियन, अर्मेनियायी, ईरानी और भारतीय-आर्य भाषाओं में ऐसे  शब्द की कोई आहट मात्र भी नहीं है। फिर भी, ‘बीच’ के वृक्ष और शीतोष्ण जलवायु को आधार बनाकर यह दलील सदियों से दी जाती रही है कि यूरोप ही भाषाओं की मूलभूमि है।

२ – शीतोष्ण जलवायु को भाषाओं की मूलभूमि होने के तर्क के समर्थन में ‘भालू’ को भी खड़ा किया जाता रहा है। मूल तथ्य यह है कि:

क – इस संसार में भालुओं की आठ प्रजातियाँ हैं। उसमें तीन तो अपनी ऐतिहासिक भारोपीय मूलभूमि से बाहर के क्षेत्रों तक ही सीमित हैं। और, पाँच भारत में रहने वाले। भूमंडल में इन सभी प्रजातियों की बसावट को इस सारणी से समझा जा सकता है : 

ऊपर की सारणी से यह स्पष्ट होता है कि आधी से अधिक प्रजातियाँ तो बहुलता में भारत में ही पायी जाती हैं। इसमें आलसी भालू तो प्रमुखता से केवल भारत में ही पाया जाता है। दूसरी ओर इस जनसंख्या वितरण पर बारीकी से ग़ौर करें तो मुख्य रूप से एक ही प्रजाति ‘शीतोष्ण’ जलवायु वाले क्षेत्र में पायी जाती है। इस आधार पर ‘शीतोष्ण- जलवायु में भालू’ वाली दलील दम तोड़ती नज़र आ रही है। 

ख – साथ ही, ‘भालू’ के सजातीय शब्दों की व्युत्पति के जो साझे स्त्रोत हैं वे बाक़ी की ग्यारह शाखाओं में नहीं पाये जाते हैं।

(क्रमशः )


Friday, 1 January 2021

वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध ------ (१७)


(भाग - १६ से आगे)

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ढ)

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)


दशमलव के विकास की चौथी अवस्था 

दशमलव पद्धति के विकास की चौथी अवस्था मात्र उत्तर भारत की भारतीय आर्य भाषाओं को ही प्राप्त हुई।  यहाँ तक कि सिंहली सरीखी उत्तर भारत की वे आर्य भाषाएँ जो यहाँ कि मिट्टी से बाहर चली गयी, वे भी विकास की इस अवस्था से वंचित रहीं। इस अवस्था में भाषाओं में १ से १० तक की संख्याएँ, दहाई की २० से ९० तक की संख्याएँ और १०० की संख्या के लिए शब्दों की उपलब्धता है। ११ से १९ तक की संख्यायों के लिए एक ख़ास ढंग से शब्दों का गठन है। बाक़ी संख्यायों ( २१-२९, ३१-३९, ४१-४९, ५१-५९, ६१-६९, ७१-७९, ८१-८९ और ९१-९९) के लिए शब्दों का गठन दूसरे प्रकार का है। गठन का यह तरीक़ा न तो सीधे-सीधे ढंग से ही है और न ही इनकी कोई नियमित व्यवस्था ही है।  पूरी दुनिया में अपने आप में यह ढंग इतना अनोखा है कि इसमें १ से १०० तक की संख्यायों को रटने के सिवा और कोई चारा शेष नहीं रहता है। उदाहरण के लिए हम हिंदी, मराठी और गुजराती भाषाओं में संख्यायों के लिए प्रयुक्त शब्दों के गठन पर विचार करें।

 हिंदी   

१-९ : एक, दो तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ, नौ, दस। 

११-१९ : ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पंद्रह, सोलह, सत्रह, अठारह, उन्नीस।

दहाई अंक १०-१०० : दस, बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी, नब्बे, सौ।

अन्य संख्याएँ ‘इकाई रूप + दहाई रूप’ के संयोग से बनाती हैं। जैसे २१ : एक + बीस = इक्क-ईस। यहाँ पर ‘एक’ का ‘इक्क’ और ‘बीस’ का ‘ईस’ में रूपांतरण हो जाता है। इस तरह के रूपांतरण २१ से लेकर ९९ तक की संख्यायों में देखे जा सकते हैं :


दहाई रूप 

२० बीस : -ईस (२१, २२, २३, २५, २७, २८), -बीस (२४, २६) 

३० तीस : -तीस (२९, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८)

४० चालीस : -तालीस (३९, ४१, ४३, ४५, ४७, ४८), -यालीस (४२, ४६), -वालीस (४४)

५० पचास : -चास (४९), -वन (५१, ५२, ५४, ५७, ५८), -पन (५३, ५५, ५६)

६० साठ :  -सठ (५९, ६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८)

७० सत्तर :  -हत्तर (६९, ७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८)

८० अस्सी :  -आसी (७९, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८, ८९)

९० नब्बे  :  -नवे (९१, ९२, ९३, ९४, ९५, ९६, ९७, ९८, ९९)


इकाई रूप 

१ एक : इक्क- (२१), इकत- (३१), इक- (४१, ६१, ७१), इकी- (८१), इक्या- (५१, ९१)

२ दो : बा- (२२, ५२, ६२, ९२), बत- (३२), ब- (४२, ७२), बे- (८२)

३ तीन : ते- (२३), तें- (३३, ४३), तिर- (५३, ६३, ८३), ति- (७३), तीरा- (९३)

४ चार : चौ- (२४, ५४, ७४), च- (४४), चौं- (३४, ६४), चौर- (८४), चौरा- (९४)

५ पाँच : पच्च- (२५), पै- (३५, ४५, ६५), पच- (५५, ७५, ८५), पंचा- (९५)

६ छः : छब- (२६), छत- (३६), छी- (४६, ७६), छप- (५६), छिया- (६६, ९६), छिय- (८६)

७ सात : सत्ता- (२७, ५७, ९७), सै- (३७, ४७), सड़- (६७), सत- (७७), सत्त- (८७)

८ आठ : अट्ठा- (२८, ५८, ९८), अड़- (३८, ४८, ६८), अठ- (७८, ८८)

९ नौ :  उन- (२९, ३९, ५९, ६९, ७९), उनन- (४९), नव- (८९), निन्या- (९९)


मराठी  

१-९ : एक, दों, तीन, चार, पाँच, सहा, सात, आठ, नौ 

११- १९ : अकरा, बारा, तेरा, चौदा, पंढरा, सोला, सतरा, अठरा, एकोनिस 

दहाई अंक १०-१०० : दहा, वीस, तीस, चालीस, पन्नास, साठ, सत्तर, अईसी, नव्वद, शम्भर 

अन्य संख्याएँ इकाई और दहाई रूपों के संयोग से बनाती हैं। जैसे – २१ : एक + वीस = एक-वीस 

२१-९९ तक की संख्यायों के इकाई और दहाई रूपों में भी रुप-परिवर्तन के तत्वों को देखा जा सकता है :

दहाई रूप 

२० वीस : -वीस (२१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८)

३० तीस : -तीस (२९, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, २७, ३८)

४० चालीस : -चालीस (३९, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८)

५० पन्नास : -पन्नास (४९), -वन्न (५१, ५२, ५५, ५७, ५८), -पन्न (५३, ५४, ५६)

६० साठ : -साठ (५९), -सश्ठ (६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८)

७० सत्तर : -सत्तर (६९), -हत्तर (७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८)

८० अईसी : -अईसी ( ७९, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८)

९० नव्वद : -नव्वद (८९), -न्नव (९१, ९२, ९३, ९४, ९५, ९६, ९७, ९८, ९९)  

इकाई रूप १ एक : एक- (२१, ३१, ६१), एक्क- (४१), एक्क्या- (८१, ९१), एक्का- (५१, ७१)

२ दों : बा- (२२, ५२, ६२, ७२), बत- (३२), बे- (४२), बया- (८२, ९२)

३ तीन : ते- (२३), तेह- (३३), तरे- (४३, ५३, ६३), तरया- (७३, ८३, ९३)

४ चार : चो- (२४), चौ- (३४, ५४, ६४), चव्वे- (४४), चौरया- (७४, ८४, ९४)

५ पाच : पंच- (२५), पस- (३५), पंचे- (४५), पंचा- (५५), पा- (६५), पंच्या- (७५, ८५, ९५)

६ सहा : सव- (२६), छत- (३६), सेहे- (४६), छप- (५६), सहा- (६६), शहा- (७६, ८६, ९६)

७ सात : सत्ता- (२७, ५७), सड़- (३७), सत्ते- (४७), सड़ु- (६७), सत्तया- (७७, ८७, ९७)

८ आठ : अट्ठा- (२८, ५८), अड़- (३८), अट्ठे- (४८), अड़ु- (६८), अट्ठया- (७८, ८८, ९८)

९ नौ : एकोन- (२९, ३९, ४९, ५९, ६९, ७९, ८९), नव्वया- (९९)


गुजराती 

१-९ : एक, बे, त्रन, चार, पाँच, छ, सात, आठ, नव 

११-१९ : अग्यारअ , बारअ , तेरअ, चौदा, पंधरा, सोला, सतरा, अठरा, एकोनिश 

दहाई १०-१०० : दहा, वीस, तीस, चालीस, पन्नास, साठ, सत्तर, अईसी, नव्वद, शम्भर 

बाक़ी संख्यायों का गठन इकाई और दहाई के संयोग से होता है। जैसे – २१ : एक +वीस = एक-वीस।

अब २१-९९ तक की संख्यायों के इकाई और दहाई रूपों के गठन में होने वाले परिवर्तन पर हम थोड़ी दृष्टि डाल लें :

दहाई रूप   

२० वीस : -ईस (२५), -वीस (२१, २२, २३, २४, २६, २७, २८)

३० त्रीस : -त्रीस (२९, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८)

४० चालीस : -तालीस (४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८), -चालीस (३९), -आलीस (४४)

५० पचास : -पचास (४९), -वन (५१, ५२, ५५, ५७, ५८), -पन (५३, ५४, ५६)

६० साठ  : -साठ (५९), -सठ (६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८)

७० सित्तर : -सित्तर (६९), -ओतेर (७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८)

८० ईसी : -ईसी (७९), -आसी (८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८८, ८९)

९० नेवु : -नु (९१, ९२, ९३, ९४, ९५, ९७, ९८, ९९), -न्नु (९६)


इकाई रूप 

१ एक : एक्- (२१, ४१, ६१, ७१), एक- (३१), एका- (५१, ९१), एकी- (८१)

२ बे : बा- (२२, ५२, ६२, ७२), ब- (३२), बे- (४२), ब् - (७२), बय- (८२)

३ त्रन : ते- (२३, ३३), तरे- (४३, ५३, ६३), तय- (८३), त्- (७३), तरा- (९३)

४ चार :  चो- (२४, ३४, ५४, ६४), चम- (४४, ७४), चोरय- (८४), चोरा- (९४)

५ पांच : पच्च- (२५), पा- (३५, ६५), पिस- (४५), पंच- (७५, ८५), पंचा- (५५, ९५)

६ छ: : छ- (२६, ३६, ९६), छे- (४६), छप- (५६), छा- (६६), छय- (८६), छ्- (७६)

७ सात : सत्ता- (२७, ५७, ९७), सद- (३७), सुड- (४७), सड़- (४७), सित्य- (७७, ८७)

८ आठ : अट्ठा- (२८, ५८, ९८), अड़- (४८, ६८), अड़ा- (३८), इठ्य- (७८, ८८)

९ नव : ओगण- (२९, ३९, ४९, ५९), अगणो- (६९), ओगणा- (७९), नेवय- (८९), नव्वा- (८९) 


२१ से ९९ तक की संख्यायों के लिए शब्दों के गठन में इसी तरह की अनियमितता और लचीलेपन की जटिलता से उत्तर भारत की सारी आर्य-भाषाएँ संक्रमित हैं। यह स्थिति सुदूर उत्तर की कश्मीरी भाषाओं में तो है ही, पश्चिम में अफगनिस्तान की ‘पश्तो’ भाषा भी इस लक्षण से अछूती नहीं है जबकि पश्तो भाषा ‘ईरानी-शाखा’ की भाषा है। किंतु साथ ही ध्यान देने वाली बात यह है कि इस तरह का कोई भी लक्षण भारत से बाहर की किसी भाषा में नहीं मिलता है। यह बात भी उतनी ही उल्लेखनीय है कि शब्दों के संयोजन की एक भारतीय-आर्य भाषा की शैली दूसरी भारतीय-आर्य भाषा की शैली से किंचित मेल नहीं खाती है।  उदाहरण के तौर पर २१, ३१ और ६१ में मराठी में १ के लिए एक ही रूप ‘एक-‘ है। हिंदी में इनके लिए तीन अलग-अलग रूप हैं। २१(इक्कीस) के लिए ‘इक्क-‘, ३१(इकतीस) के लिए ‘इकत-‘ और ६१(इकसठ) के लिए ‘इक-‘ शब्दों के रूप हैं। गुजराती में दो शब्द-रूप आते हैं। ‘एक्-‘ (२१ और ६१) में  तथा ‘एक-‘ (३१) में। उसी तरह पाँच के लिए:

हिंदी में एक रूप ‘पै-‘ ३५ (पैंतीस), ४५ (पैतालीस) और ६५ (पैसठ) के लिए।

गुजराती में दो रूप – ‘पा-’ ३५ और ६५ में  तथा ‘पिस-‘ ४५ में। और 

मराठी में तीन रूप – ‘पस-’ ३५ में, ‘पंचे-‘ ४५ में तथा ‘पा-‘ ६५ में।

हमने इन तीन भारतीय आर्य भाषाओं में २१ से ९९ तक की संख्यायों के लिए शब्द-रूपों गठन को ऊपर की सारणियों में दर्शाया है। लेकिन इन शब्दों को प्रयोग हेतु याद रखने के लिए इन सारणियों से कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हैं और इन्हें रटने के सिवा और कोई चारा भी नहीं है। दुनिया की बाक़ी भाषाओं में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। वहाँ ज़्यादा से ज़्यादा १ से १० या १९ और दहाई संख्यायों (२०, ३०, ४०, ५०, ६०, ७०, ८०, ९०) को बस हृदयंगम करने की ज़रूरत है। इनकी ही  सहायता से संयोजन के कुछ ख़ास तरीक़ों से २१ से ९९ तक की बाक़ी संख्याएँ अपने आप दिमाग़ में घुस जाती हैं। यह बात बाहर की भाषाओं के साथ-साथ भारत के अंदर की ग़ैर भारोपीय भाषाओं ( द्रविड़, औस्ट्रिक, चीनी-तिब्बती, बुरूशासकी) पर भी लागू होती है। अंडमान की भाषाओं में तो ३ और ५ के अलावा कोई शब्द ही नहीं है। भारत के बाहर बोली जाने वाली आभारतीय आभारोपीय भाषाओं और यहाँ तक कि भारतीय-आर्य परिवार की ही सिंहली भाषा का भी यही हाल है।

भारोपीय भाषाओं के भारत की भूमि में उद्भव होने की अवधारणा के संदर्भ में निस्संदिग्ध तौर पर निनलिखित बातें स्पष्ट होती हैं : 

१ – मौलिक प्रोटो (प्राक) भारोपीय भाषाओं का प्राचीनतम स्वरूप दशमलव-पद्धति के विकास की पहली अवस्था का है। दशमलव के विकास की दूसरी अवस्था नहीं आने तक हमारे पास इस बात के साफ़-साफ़ सबूत नहीं हैं कि १० के बाद की संख्याएँ वजूद में कैसे आयीं।

२ – निश्चित तौर पर दशमलव के विकास की दूसरी अवस्था में ही पहली दो शाखाओं ने अपनी मूलभूमि को छोड़ा होगा। अनाटोलियन (हित्ती) भाषा में १० से ऊपर की संख्यायों के हमारे पास कोई प्रामाणिक अभिलेख मौजूद नहीं है, लेकिन टोकारियन बी भाषा में इसके प्रमाण उपलब्ध हैं। प्राचीनतम भारतीय-आर्य भाषा संस्कृत और बोल-चाल की सिंहली भाषा में भी हमारे पास लिखित प्रमाण मौजूद हैं। बताते चले कि सिंहली भी अत्यंत प्राचीन भारतीय-आर्य भाषा है जिसने ‘वाटर’ के लिए ‘वतुर’ शब्द को अभी तक बचाए रखा है जबकि संस्कृत से इस शब्द का लोप हो गया है।

३ – बाक़ी सभी नौ भारोपीय शाखाएँ (इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक, स्लावी, अल्बानियायी, ग्रीक, अर्मेनियायी और ईरानी) तथा भारत भूमि से बाहर निकलने वाली सिंहली भाषा  दशमलव-विकास की तीसरी अवस्था में पहुँच गयी। यहाँ पर यह बताना उचित होगा कि दक्षिण-पश्चिम यूरोप में सेल्टिक भाषा ने बास्क-भाषा के प्रभाव में आकर विंशमलव पद्धति को अपना लिया।  इससे एक बात साफ़ होती है कि संस्कृत के मानक रूप प्राप्त कर लेने के बाद और दशमलव-विकास की दूसरी अवस्था में हित्ती और टोकारियन भाषा के बाहर निकल जाने के बाद इन सारी नवों भारोपीय शाखाओं और सिंहली भाषा के उद्भव की उत्तरोत्तर प्रक्रिया साथ-साथ दशमलव विकास के तीसरे चरण में जारी रही।

४ – अपनी ख़ुद की भारतीय-आर्य भाषा सिंहली के साथ-साथ अन्य ग्यारहों  शाखाओं के भारतीय ज़मीन छोड़ देने के बाद यहाँ बची रह  गयी।  भारतीय आर्य भाषा ने अब दशमलव के विकास की चौथी अवस्था में प्रवेश कर लिया है।


संख्या ‘१’ पर कुछ ख़ास बात  

भारोपीय भाषाओं की पहली संख्या ‘१’ पर हम थोड़ी नज़रें गड़ाएँ और देखें कि इसके साथ जुड़ी कुछ ख़ास बातें क्या हैं। भारोपीय भाषाओं में ‘१’ के लिए प्रयुक्त शब्दों में अधिकांश की उत्पत्ति का मूल दो संयोजित प्रोटो भारोपीय शब्द हैं – ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’! ये दोनों शब्द ग़ैर-भारतीय-ईरानी और भारतीय-ईरानी, दोनों शाखाओं, में क्रमशः समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। इन दो शब्द-विभाजनों पर भाषाशास्त्रियों ने ‘प्राचीन भारोपीय’ शब्दों की पड़ताल करने के लिए ज़्यादा ज़ोर दिया है। भारतीय-ईरानी शाखा में ‘ओई-नो’ शब्द के प्रतिनिधित्व का कोई नामो-निशान नहीं है। उसी तरह ग़ैर-भारतीय-ईरानी शाखा में भी ‘ओई-को’ शब्द का कोई अस्तित्व नहीं है (जबतक कि अर्मेनियायी शब्द ‘मेक’ को हम प्रतिनिधि शब्द न मान लें)। 

किंतु, एक भाषा ऐसी है जिसमें इन दोनों, ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’ की तुलना में वैकल्पिक शब्द-रूप मौजूद हैं। यह अभारोपीय भाषा बुरूशासकी है जो उत्तर में पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में बोली जाती है। बुरूशासकी में ‘वन’ = ‘हिन’ (या हेन) और ‘हिक’। ‘ओई-नो’ से मिलता जुलते शब्द द्रविड़-शाखाओं में पायी जाती है जैसे – तमिल में ‘ओन-रु’, मलयालम में ‘ओन-नु’ और कन्नड़ में ‘ओन-डु’। दूसरी ओर तेलगु में ‘’ओक-टी’ शब्द पाया जाता है। कहने का अर्थ यह है कि इन दोनों  शब्द-युग्मों ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’ की उपस्थिति की साफ़-साफ़ आहट  आज भी भारत की भूमि में सुनायी दे रही है।  कहीं यह इस बात का प्रमाण तो नहीं कि वह क्षेत्र जहाँ से ग़ैर भारतीय-ईरानी और भारतीय ईरानी शाखाएँ क्रमशः अपना ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’ साथ लेकर एक दूसरे से बिछुड़ गयीं, वह यही भारत की भूमि है। 

कुछ ऐसी भी भारोपीय भाषाएँ हैं जिनमें ‘वन’ शब्द की व्युत्पति में ‘ओई-नो’ और ‘ओई-को’ का कोई योगदान नहीं है। परंतु, ये सभी भाषाएँ इस शब्द के लिए संस्कृत के शब्द ‘सम’ और ‘एव’  से किसी-न-किसी रूप में जुड़ी हैं। इन दोनों शब्दों का अर्थ ‘वही/वहीं (अंग्रेज़ी में सेम) होता है। कश्मीर के उत्तर की टोकारियन ए भाषा में ‘सस’ (पुल्लिंग) और ‘साम’ (स्त्रीलिंग) शब्द आते हैं। टोकारियन बी भाषा में दोनों लिंगों के लिए एक ही शब्द ‘से’ आता है। यूनानी पूलिंग शब्द ‘हेस’ तो टोकारियन शब्द ‘सेंस’ का सपिंडी ही है। भारत से पश्चिम अवेस्ता में ‘एव’ और प्राचीन पारसी भाषा में ‘ऐव’ शब्द है। कुछ अत्याधुनिक ईरानी भाषाओं और दारदी/दर्दु/पिसाच भाषाओं ( यह भाषा मुख्य रूप से उत्तरी पाकिस्तान के गिलगित, बालतिस्तान, खाइबर पख़्तूनखवाँ, उत्तर भारत की कश्मीर घाटी और पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान की चेनब घाटी में बोली जाती है) में ‘एव’ शब्द पाया जाता है और ईरानी पश्तो भाषा में ‘यव’ शब्द पाया जाता है। हालाँकि आधुनिक पारसी भाषा सहित अत्याधुनिक ईरानी और दारदी भाषाओं के शब्द ‘यक’, बलूचि शब्द ‘यक’ तजिक शब्द ‘यक’, कर्दिस शब्द ‘येक’ और कश्मीरी शब्द ‘अख’, ये सभी व्युत्पति में ‘ओई-को’ स्वरूप वाले ही हैं। इन सब बातों की पड़ताल करने के उपरांत सारे सबूत तो भारत के ही मूलभूमि होने की ओर संकेत करते हैं। 

दो और शब्द हैं जो हमारा ध्यान खिंचते हैं। पहला शब्द है – ‘मिअ’ जो यूनानी अर्थात ग्रीक भाषा का है। और दूसरा शब्द अर्मेनियायी भाषा का ‘मी’ या ‘मेक’ है। अब इन दोनों शब्दों की तुलना हम औस्ट्रिक परिवार की इन भाषाओं में ‘१’ के लिए आने वाले शब्दों से करें। संथाली में ‘मित’, मुंडारी में ‘मी’, कोरकु में ‘मीअ’, खरिया में ‘मोइ’, सवारा में ‘मि’, जुआंग में ‘मिन’ और गड़बा में ‘मुइरो’। कहीं ग्रीक और अर्मेनियायी भाषा के ये  समानार्थक शब्द औस्ट्रिक परिवार से ही व्युत्पन्न तो नहीं हैं?  जहाँ तक औस्ट्रिक परिवार के शब्दों की मौलिकता का प्रश्न है, तो उनकी निर्विवादता की पुष्टि इस बात से भी मिलती है कि उनका सपिंडी शब्द ‘मोत’ औस्ट्रिक परिवार की वियतनामी भाषा और ‘मुएय’ ख्मेर कंबोडियायी भाषा में मिलता है।