(भाग - १७ से आगे)
ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - (ण)
(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)
(हिंदी-प्रस्तुति – विश्वमोहन)
प्राणी और वनस्पति जगत के नामों के साक्ष्य
प्रोटो-भारोपीय भाषाओं के मूल स्थान से संबंधित भाषायी गवेषणाओं और शास्त्रार्थों में वनस्पति एवं जीव-जंतुओं के समाविष्ट स्वरूप की चर्चा एक विशेष स्थान रखती है। मल्लोरी और ऐडम्ज़ का विचार है कि “अमूमन हाथ में शब्दकोश थामकर भारोपीय मूलभूमि की तलाश में निकले लोग प्राणी और वनष्पति जगत से मिले सबूतों पर ही अमल करते हैं।“ [मल्लोरी-ऐडम्ज़ :२००६:१३१]
इन सबूतों की जाँच हम नीचे करेंगे :
१ – शीतोष्ण बनाम ऊष्ण- कटिबंधीय क्षेत्र
२ – ऋग्वेद और वैदिक ग्रंथों में वर्णित पूर्वी बनाम पश्चिमी क्षेत्र
३ – पश्चिमोत्तर और उसके आगे का प्रोटो(प्राक/आद्य) भारोपीय क्षेत्र
४ – सोम का सबूत
५ – शहद का सबूत
६ – सुरा और जंगली भैंसों का सबूत
७ – घोड़ों का सबूत
८ – गायों का सबूत
[तलगेरी जी की पुस्तक ‘हाथी और आद्य-भारोपीय मूलभूमि (The elephant and the Proto Indo-European Homeland)’ में उपरोक्त सबूतों का वृतांत विस्तार में मिलता है।]
१- शीतोष्ण बनाम ऊष्ण- कटिबंधीय क्षेत्र
शीतोष्ण क्षेत्र का प्राणी और वनष्पति जगत
साधारण तौर पर यह दलील दी जाती है कि प्राणियों और पेड़-पौधों के नाम पर आधारित सबूत यहीं स्थापित करते हैं कि भारोपीय भाषाओं का मूल-स्थान भारत के बाहर के मैदानी भाग हैं। इसका कारण यह है कि भारोपीय परिवार की भिन्न-भिन्न शाखाओं में जीव-जंतुओं और पौधों के वही एक तरह के नाम हैं जो शीतोष्ण क्षेत्रों के नाम हैं न कि भारत जैसे ऊष्ण-कटिबंधीय या उप-ऊष्ण-कटिबंधीय क्षेत्रों वाले नाम।
उदाहरण स्वरूप हम विजेल की इन बातों का स्मरण कर सकते हैं कि “सामान्यतया, आद्य-भारोपीय प्राणी-जगत और पौधों का संसार शीतोष्ण जलवायु का है [विजेल २००५:३७२] और ऋग्वेद में ‘भेड़िये’ और ‘बर्फ़’ के लिए आने वाले शब्द ठंडी आबोहवा की भाषायी यादों की ओर इशारा करते हैं [विजेल २००५ :३७३]
विजेल और आगे बढ़कर यह भी जोड़ते हैं कि ‘चाहे वह पड़ोस में सटा पुराना इरान हो या पूर्वी या पश्चिमी यूरोप का कोई क्षेत्र, दक्षिण एशिया से बाहर कोई भी पुराना खाँटी भारतीय शब्द हमें कहीं नहीं मिलता है। आर्यों के भारत से बाहर जाने के परिदृश्य में आम धारणा यह ज़रूर बनती है कि शेर, बाघ, हाथी, चीता, कमल, बाँस और स्थानीय भारतीय वृक्षों के लिए भारतीय शब्दों में कम-से-कम कुछ तो यहाँ भी बचे रहते [विजेल २००५:३६४-३६५]। अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए विजेल कहते हैं, ‘पश्चिम में कमल, बाँस और अन्य भारतीय पौधों के भारतीय नाम (अश्वत्थ, बिल्व, जंबु आदि) को खोजने पर कुछ भी हाथ नहीं लगता। ये नाम तो क्या, अन्य अर्थों में भी ऐसे नाम वहाँ कदापि नहीं मिलते।‘
इस बात में इस तथ्य को बिलकुल नज़र अन्दाज़ कर दिया गया है कि अधिकांश भाषाएँ सामान्य तौर पर उन्हीं जंतुओं और पौधों के नाम को बचा कर रखती हैं जो उसी भाषायी क्षेत्र में पाये जाते हैं। उन प्राणियों या पौधों के नाम वे संरक्षित नहीं कर पाती जो उनके क्षेत्र में नहीं पाए जाते या फिर बाहर के क्षेत्रों में पाए जाते हैं। संक्षेप में हम यह भी कह सकते हैं कि दक्षिणी रूस के मैदानी भाग में पाए जाने वाले या फिर भारतीय भूभाग में नहीं पाए जाने वाले किसी भी प्राणी या पौधों के नाम भारतीय आर्य भाषाओं में नहीं पाए जाते। विजेल की बातों को हम दूसरे रूप में ऐसे भी व्यक्त कर सकते हैं कि ‘भारत में स्टेपी (दक्षिणी रूस के मैदानी भाग) के प्राणियों या पौधों के नाम खोजने पर कुछ भी हाथ नहीं लगता। ये नाम तो क्या, अन्य अर्थों में भी ऐसे नाम यहाँ कदापि नहीं मिलते।‘
अब जहाँ तक भेड़ियों और बर्फ़ का सवाल है, तो यह बात भी उतना ही सच है कि ये दोनों भारत के एक बड़े भूभाग में उतने ही स्थानीय और देसी हैं जितना उन मैदानी भागों की ठंडी आबोहवा वाले क्षेत्रों में। रुडयार्ड किप्लिंग ने अपनी किताब ‘जंगल-बुक’ में जब एक बच्चे का भेड़ियों के द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किए जाने की कहानी लिखी तो उनका संदर्भ भारतीय बालक, भारत का जंगल और भारतीय भेड़िया था न कि उनकी भाषायी स्मृतियों में संचित कोई ब्रितानी भेड़िया। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि किप्लिंग वास्तव में ब्रिटेन के निवासी थे।
बर्फ़ का भी वजूद भारत में भी उतना ही है जितना पश्चिम में। ‘इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ के अनुसार ध्रुवीय क्षेत्रों से बाहर स्थित यदि कोई ऐसा भूभाग है जिसका अधिकतम क्षेत्र स्थायी रूप से बर्फ़ से आच्छादित रहता है, तो वह है भारत का हिमालय। ऐसे भी ‘बर्फ़’ ऋग्वेद में अतीत की किसी भाषायी स्मृति के चिर प्रतिबिम्ब के रूप में चित्रित नहीं है। यह शब्द इसके नए मंडलों में मात्र एक या दो बार आता है जब वैदिक आर्य अपनी मूल भूमि हरियाणा से पश्चिम की ओर पंजाब होते हुए पशिमोत्तर में हिमालय का स्पर्श करते हुए अफ़ग़ानिस्तान की ओर बढ़ते हैं। ‘हिम’ शब्द ऋग्वेद के दस सूक्तों में जाड़े के मौसम के रूप में आया है। ये दस सूक्त १/३४/१, १/६४/१४, १/११६/८, १/११९/६, २/३३/२, ५/५४/१५, ६/४८/८, ८/७३/३, १०/३७/१० और १०/६८/१० है। जाड़े की ऋतु भारत के सभी भागों में आती है। मराठी में इसके लिए ‘हिवाला’ शब्द है। अतः ‘जाड़ा’ भी कोई ऐसा शब्द नहीं है जिसे हम ख़ास अर्थों में किसी भाषायी स्मृति के रूप में मान लें। उसमें भी ऊपर के दस सूक्तिय संदर्भों से चार में तो इसका वर्णन भीषण गरमी से निजात दिलाने वाले मौसम के रूप में आया है न कि किसी सर्द मौसम की याद के रूप में! तीन सबसे पुराने मंडलों में तो बस एक ही जगह ६/४८/८ में यह शब्द आया है, जो कि पुनर्संशोधित मंडल है। इसका अत्यंत अर्वाचीन संदर्भ १०/१२१/४ में है, जहाँ इसका मतलब बर्फ़ है जो पश्चिमोत्तर में हिमालय की चोटियों को चादर की तरह लपेटे हुए हैं। नए मंडल में ८/३२/२६ में इस शब्द का एक और विवरण मिलता है जो बर्फ़ से बने हथियार के अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।
अब आइए हम विजेल द्वारा प्रस्तुत तर्कों की तनिक छानबीन कर लें :
विजेल का कहना है कि ‘भारतीय जंतुओं और फूल-पौधों के नाम भारत के बाहर की किसी भारोपीय भाषा में नहीं मिलते हैं। इसलिए, यह बात ख़ारिज हो जाती है कि इन भारोपीय भाषाओं का उद्गम स्थल भारत था।‘ दूसरी ओर वह यह भी कहते हैं कि ‘भारत के बाहर के किसी भी भारोपीय प्राणी या पौधों के नाम भारत में नहीं मिलते।‘ लेकिन, यहाँ इसका कारण वह ढूँढ लेते हैं कि इन नामों का प्रयोग नहीं होने के कारण इस भारत भूमि से ये नाम लुप्त हो गए। फिर तो, इसी कारण को अपने पहले वक्तव्य में न लागू करने के पीछे उनका पूर्वाग्रही कुतर्क ही दिखायी पड़ता है। हम अब यह भी देखेंगे कि कुछ भारतीय जंतुओं यथा – सिंह, हाथी, चीता, लंगूर के नाम बाहर की भाषाओं में भी पाए जाते हैं। कहीं-कहीं तो विजेल का तर्क अत्यंत हास्यास्पद हो जाता है। वह कहते हैं कि ‘ख़ानाबदोश जिप्सी लोगों ने बहुत हद तक भारतीय-आर्य भाषा के काफ़ी शब्दों (फ़राल ‘ब्रदर’, पानी ‘वाटर’, करल ‘वह करता है’ आदि) को पिछले हज़ार सालों से संजो कर रखा है। इस दौरान वह पूर्वोत्तर, उत्तरी अफ़्रीका और यूरोप में भटकते रहे (विजेल २००५:३६६)। भारत के काफ़ी भीतरी हिस्से से निकलकर जिप्सी हज़ारों साल पहले बाहर चले गए और उनकी भाषा, रोमानी, एक भारतीय आर्य भाषा है। अब यहाँ तक कि यदि रोमानी भाषा अपने सारे शब्दों को बचा कर नहीं रख पायी, तो भला भारोपीय परिवार की उन अन्य ग्यारह शाखाओं से, जो अपनी पश्चिमोत्तर भारत की बाहरी छोर की भूमि छोड़कर काफ़ी हज़ार साल पहले बाहर चली गयीं, कैसे आशा की जा सकती है कि वे अपने सारे शब्दों को संजो कर रखें!
भारोपीय भाषाओं को बोलने वाले अलग-अलग समुदाय अपने जंतुओं और पेड़-पौधों के उन्ही नामों को संजो पाए जो उनके अपने मौलिक और भौगोलिक आवास में पाए जाते थे। वहाँ से बाहर के नामों को बचाए रखने में वे असमर्थ थे। इसीलिए, सामान्य तौर पर सिर्फ़ प्राणियों और वनस्पति जगत के नामों के विश्लेषण के आधार पर हम भारोपीय भाषाओं की मूल जन्मभूमि का निर्धारण नहीं कर सकते।
शीतोष्ण क्षेत्र में पाए जाने वाले जानवरों के नाम (भेड़िया, भालू, बनबिलाव, लोमड़ी, गीदड़, हिरन, मृग, साँड़, गाय, ख़रगोश, चमगादड़, ऊद, ऊदबिलाव, मूषक, हंस, बत्तख़, कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा, भेड़, सुअर आदि) भारतीय-आर्य और भारोपीय दोनों भाषाओं में एक जैसे ही हैं। इसका एक कारण तो यह है कि इसमें से सभी जानवर भारतीय भूभाग में पाए जाते हैं। दूसरी बात यह है कि जो जानवर (या नाम) यदि भारतीय भूभाग में नहीं पाए जाते तो वे निश्चित तौर पर भारत के उन पश्चिमोत्तर प्रांतों में तो अवश्य ही पाए जाते हैं जिन्हें पूरी तरह से भारतीय संस्कृति का ही गुरुत्व-क्षेत्र कहा जा सकता है। साथ ही इन पश्चिमोत्तर क्षेत्रों के साथ यह भी उतना ही सच है कि भारत से बाहर निकलने वाले समुदाय इसी रास्ते अपने नए ठिकानों की ओर प्रस्थान किए थे।
इस विषय में डाइन्स (Dyens) की बातें भी ध्यान आकर्षित करती हैं, “प्रोटो-भारोपीय भाषाओं के बोले जाने वाली जगहों के बारे में पर्याप्त संकेत भारोपीय भाषाओं में प्राणी जगत एवं वानस्पतिक जगत के नामों के लिए प्रयुक्त शब्दों में मिल जाते हैं। जानवरों में ‘भालू’ और वृक्षों में ‘बीच’ के पेड़ इसके सुपरिचित उदाहरण हैं। औषधीय महत्व वाले पौधों के प्राकृतिक पर्यावास का वानस्पतिक मानचित्र खींचने के उपरांत भाषाविदों ने यह साबित कर दिया है कि इन पौधों की क़ुदरती पैदाइश और असली रिहाईश शीतोष्ण आबोहवा की ज़मीन ही है। (ड़ाइंस १९८८:४)”
अब इस वक्तव्य में चर्चित उदाहरण ‘बीच’ के पेड़ और ‘भालू’ पर विचार करें जिनका मूल आवास शीतोष्ण क्षेत्र बताया गया है :
१ – ‘बीच’ का पेड़ केवल यूरोप में पाया जाता है और ‘इसके लिए तथाकथित प्रोटो-भारोपीय शब्द भी सिर्फ़ यूरोप में ही पाया जाता है!’ मात्र पाँच ही ऐसी यूरोपीय भाषाएँ (इटालिक, सेल्टिक, जर्मन, बाल्टिक और स्लावी) हैं, जिसमें ‘बीच’ के सजातीय और इसके यूरोपीय अपभ्रंश ‘बा:को’ से बने शब्दों का प्रचलन मिलता है। यहाँ तक कि इसके लिये प्रयुक्त बाल्टिक और स्लावी भाषाओं के शब्द भी जर्मन से ही लिए गए लगते हैं (गमक्रेलिज १९९५ :५३४)। ग्रीक और अल्बानी भाषा में ‘बीच’ के लिए अलग शब्द हैं। वे शब्द भी जो अपभ्रंश ‘बा:को’ से व्युत्पन्न प्रतीत होते हैं, उनका मतलब ‘ओक’ के वृक्ष से है। एशियायी शाखाओं की अनाटोलियन, टोकारियन, अर्मेनियायी, ईरानी और भारतीय-आर्य भाषाओं में ऐसे शब्द की कोई आहट मात्र भी नहीं है। फिर भी, ‘बीच’ के वृक्ष और शीतोष्ण जलवायु को आधार बनाकर यह दलील सदियों से दी जाती रही है कि यूरोप ही भाषाओं की मूलभूमि है।
२ – शीतोष्ण जलवायु को भाषाओं की मूलभूमि होने के तर्क के समर्थन में ‘भालू’ को भी खड़ा किया जाता रहा है। मूल तथ्य यह है कि:
क – इस संसार में भालुओं की आठ प्रजातियाँ हैं। उसमें तीन तो अपनी ऐतिहासिक भारोपीय मूलभूमि से बाहर के क्षेत्रों तक ही सीमित हैं। और, पाँच भारत में रहने वाले। भूमंडल में इन सभी प्रजातियों की बसावट को इस सारणी से समझा जा सकता है :
ख – साथ ही, ‘भालू’ के सजातीय शब्दों की व्युत्पति के जो साझे स्त्रोत हैं वे बाक़ी की ग्यारह शाखाओं में नहीं पाये जाते हैं।
(क्रमशः )