रविभूषण राय जी नहीं रहे। इस सृष्टि में आने-जाने की सनातन परम्परा का उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया। चाहते तो कर सकते थे। ऐसा उनका जीवंत उत्साह, कर्मठता और जीवन में कभी भी हार नहीं मानने वाले आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों तरह की देह-काठी देखकर लगता था। लेकिन गांधी को महात्मा बनाने वाले राजकुमार शुक्ल के नाती भला विरासत से प्राप्त सत्य और अहिंसा के रास्ते को क्यों छोड़ते! और, उन्होंने जीवन के इस परम ‘सत्य’ को बड़े ‘अहिंसक’ अन्दाज़ में स्वीकार किया। शुक्ल जी के ‘गांधी-यज्ञ’ की सुरभि को उन्होंने कस्तूरी की तरह महकाया और इसे चतुर्दिक फैलाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। मौरिशस के हाई कमिश्नर से राष्ट्रपति भवन तक, राजघाट से भितिहरवा तक और वर्धा से साबरमती तक वह निरंतर भटकते रहे। हम बार-बार उनपर चुटकी लेते कि नानाजी नाती में अपनी आत्मा छोड़ गए!
दूरदर्शन पर शुक्लजी की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में हम उनके सह वार्ताकार रहे। भैरव लाल दास जी की पुस्तक के दिल्ली में विमोचन हेतु उन्होंने हमसे कितनी लंबी वार्ताएँ की। शुक्ल जी पर कोई वेबिनार हो, दो महीना पहले से ही घूरियाने लगते थे। तक़ादा पर तक़ादा! ‘देखिए। अमुक तारीख को अमुक बजे है। ध्यान रखिएगा। कहीं नहीं जाना है।…….आपकी समीक्षा अमुक पत्रिका में छप गयी है। संपादक जी का नम्बर आपको वहट्सप कर दिया है। उनको धन्यवाद ज़रूर दे दीजिएगा……का हुआ? संपादक जी से बात हुई? ………चलिए ठीक है। अब किताब लिखने वाला काम शुरू कीजिए। परनाम।’
आज एक बात बहुत कचोट रही है। उन्होंने सामग्रियों की बौछार कर दी हमारे घर में। पटना से बदली हो जाने पर भी दिल्ली आवास तक ये सामग्रियाँ पहुँचाते रहे। बस एक ही रट! ‘शुक्ल जी पर आपकी लिखी किताब देखना चाहता हूँ। आप बस पांडुलिपि दे दीजिए। बाक़ी सारा भार हमारा!’ एक दिन तो झल्लाकर बोल दिए ‘ ए विश्वमोहनजी! देखिए, आप महटिया रहे हैं। हम अपने मरने से पहले आपकी लिखी किताब पढ़ना चाहते हैं, शुक्ल जी पर!’ हम हँसकर बोले, ‘तब त आपको दीर्घजीवी बनाए रखने के लिए जेतना देर से लिखें, उतना अच्छा!’ वह खिलखिला उठे। उनकी यह अक्षत खिलखिलाहट अब हमारी स्मृतियों की पारिजात-सुरभि बन सुरक्षित रहेगी।
विश्वमोहन जी प्रणाम, स्मृतियां धूमिल हो सकती हैं परंतु आपने रविभूषण राय जी को बहुत मार्मिक ढंग से याद किया है
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteनमन
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
Deleteना सिद्धि की खुशी न असिद्धि का गम ------ऐसा जीवन जीने वाले , चंपारण सत्याग्रह के प्रणेता जननायक राजकुमार शुक्ल जी के नाती रविभूषण राय का असमय चले जाना बहुत दुखद है। अपने नाना जी के लिए उनका श्रद्धाभाव और उनकी यादों को संजो उनके इतिहास को समेटने की उनकी जिद और साध का अधूरा रह जाना बहुत मर्मान्तक है। उनके द्वारा संजोए गए ऐतहासिक तथ्यों के आधार पर , शुक्ल जी के जीवन को पुस्तक रुप में रूप में सहेजना उनके जीवन काल में न हो सका, ये बहुत खेदजनक है। उनके सपने को पूरा करना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। दिवंगत आत्मा की पुण्य स्मृति को सादर नमन। बहुत ही आत्मीयता से रवि भूषण जी की यादों को संजोया है आपने जिसके लिए 👌 साधुवाद 🙏🙏 वीडियो के जरिए उनके विचारों से एक बार फिर रूबरू होने का अवसर मिला। और शुक्ल जी के बारे में बहुत कुछ जाना🙏🙏
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार!!!
DeleteYou have managed to bring out Sri Ravi Bhushan Rai ji`s personality so well, despite the brevity of your blog.
ReplyDeleteShradhanjali to him.
जी, अत्यंत आभार।
Deleteयादें अक्सर बीते वक्त में ले जाती हैं और फिर से यादों को उभार देती हैं ...
ReplyDeleteनाम कर जाती हैं आँखें ...
स्मृतियां ही है जो किसी को भी हमेशा जीवित रखती हैं । बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआलेख ।
सुंदर स्मृतियों का सिलसिला या पुंज कभी विस्मृत नहीं होता, लोगों को छोड़ सकते हैं या लोग छूट सकते हैं, पर स्मृतियां नहीं । वही तो जीवन में अनुभूति करती रहती हैं,सार्थक आलेख 👌👌
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार।!!
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ReplyDeleteआभार!!!
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