देश मेरा रंगरेज
(व्यंग्य संग्रह)
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम – देश मेरा रंगरेज
लेखक – प्रीति ‘अज्ञात’
प्रकाशक – प्रखर गूँज, एच ३/२, सेक्टर- १८, रोहिणी, दिल्ली -११००८९,
दूरभाष – ०११-४२६३५०७७, ७९८२७१०५७१, ७८३८५०५८९९
मूल्य- २५० रुपए
हमारे अध्यात्म का आसव है – आनंद! जब अस्तित्व (सत) में चेतना (चित) खिल उठे तो अंतर्भूत आनंद का आविर्भाव होता है। इसे ही सच्चिदानंद की स्थिति कहते हैं। इस स्थिति को प्राप्त होने का सौभाग्य प्राणी जगत में मात्र मनुष्य योनि को ही प्राप्त है। ऐसा हो भी क्यों नहीं! विवेक और भाव की जुगलबंदी तथा तदनुरूप माँसपेशियों की हरकत अर्थात मन की मुस्कान के साथ होठों के संपुट खुलकर दाँतों का हठात् चीयर जाना मनुष्य होने की एकमात्र कसौटी है। मुस्कानविहीन मुख ख़ालिस मुर्दानिगी है । अक्सर कोई बड़ी सहजता से कुछ बात कह जाता है। उसकी बात अंतस के तार को गहरे में जाकर यूँ छेड़ देती है कि मुख पर एक सहज मुस्कुराहट और उस मुस्कुराहट के हर हर्फ़ में बातों की गंभीरता का मिसरा बिखरा रहता है। उस मुस्कुराहट से न केवल मन का पोर-पोर भीग जाता है बल्कि कभी कभी तो नयनों के कोर तक भी नम हो जाते हैं। कथन या लेखन की इसी विधा को व्यंग्य कहते हैं जहाँ अन्योक्ति और वक्रोक्ति से उसके सीधे सपाट अर्थ ऐसे लहालोट हो जाते हैं कि पाठक या श्रोता का मन आनंद से अचानक चिंहुक उठता है। बातों का तीर अपने लक्ष्य को चीरते हुए निकल जाता है। बातों के मर्म को पकड़े पाठक का अकबकाया मन तो कभी-कभी साँप-छछून्दर की दशा प्राप्त कर लेता है। और, लहजे में यदि मुहावरों को दाख़िला मिल जाय तो फिर कहना ही क्या! न केवल व्यंग्य के ये प्रखर बाण विसंगतियों को छलनी कर देते हैं बल्कि दमघोंटू वातावरण में समाज को प्राण वायु भी सूँघा जाते हैं। प्रीति ‘अज्ञात' का व्यंग्य-संग्रह ‘देश मेरा रंगरेज’ भी बहुत कुछ ऐसा ही है।
ऋग्वेद में इंद्र और अहल्या के कथित संवाद व्यंग्यालाप के अद्भुत नमूने हैं। पिता के बंजर सिर पर बाल, आश्रम की बंजर भूमि और अपनी बंजर कोख में हरियाली की माँग! इंद्रप्रस्थ में द्रौपदी का दुर्योधन पर व्यंग्य महाभारत रच जाता है। गोपियों की उलाहना में घुले व्यंग्य के प्रहार से उद्धव के ज्ञान का दंभ भरभरा कर धूल चाटने लगता है। देखिए न, ‘मृछकटिकम’ में जनेऊ को शुद्रक ने क़सम खाने और चोरी करने के लिए दीवार लाँघने में काम आने वाले एक उपयोगी उपकरण के रूप में माना है। अपने मायके पर शिव के व्यंग्य से बिफरी पार्वती विद्यापति के मुख से महादेव को भली भाँति धो देती हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मालवीय जी से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक जनाब सैयद अहमद साहब की तुलना करते हुए अकबर इलाहाबादी के शब्दों की धार देखिए :
“शैख़ ने गो लाख बढ़ाई सन की सी
मगर वह बात कहाँ मालवी मदन की सी।“
‘दांते’ के ‘डिवाइन कॉमेडी’ में व्यवस्था के मज़ाक़ की गूँज सुनायी देती है। भारतेंदु, अकबर इलाहाबादी, क्रिशन चंदर, काका हाथरसी, सुदर्शन, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, बालेन्दु शेखर तिवारी, श्री लाल शुक्ल, रविंद्र त्यागी, सुरेश आचार्य, के पी सक्सेना, लतीफ़ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी, विवेकरंजन श्रीवास्तव, हरिमोहन झा, गोपेश जसवाल, के के अस्थाना आदि अनेक नाम ऐसे हैं जिनकी लेखनी ने लेखन की इस विधा में अपने-अपने रंग भरे हैं। किसी भी समाज, समुदाय या साहित्य में हास्य-व्यंग्य तत्व की उपथिति की प्रचुरता उसकी प्रगतिवादी, विकसीत, आधुनिक और सुसंस्कृत सोच को दर्शाती है। व्यंग्य बाणों को उदारता से देखना एक उर्वर आध्यात्मिक दृष्टि का लक्षण है। जैसे हास्य-विहीन जीवन शमशान-तुल्य है वैसे ही व्यंग्य के प्रति उदारता और स्वस्थ दृष्टिकोण का अभाव एक मृत समाज का भग्नावशेष है। समय-समय पर ये तत्व हममें ख़ुद पर हँसने की चेतना भरते हैं और आत्म-निरीक्षण हेतु तैयार करते हैं।
वैदिक युग से अद्यतन भारतीय साहित्य में हास्य-व्यंग्य के तत्वों की एक समृद्ध परम्परा का अनवरत प्रवाह होता रहा है। इस प्रवाह की चिरंतनता को गति देने की दिशा में प्रीति ‘अज्ञात’ रचित ‘देश मेरा रंगरेज’ एक महत्वपूर्ण और सशक्त कृति बनकर उभरी है। हमारे देश की लोकजीवन-शैली ने हमारी राष्ट्रीयता को नित-नित नए रंगों में रंगने की अपनी कला को शाश्वत बनाए रखा है। उन रंगों को प्रीति जी ने एक प्रखर समाज सचेतक की भाँति सहेजकर बड़ी कुशलता से अपनी कूँची में भरा है। उनके कैन्वस का वितान अत्यंत विस्तृत है। व्यवस्था की त्रुटियाँ, सामाजिक कुरीतियाँ, फ़ैशन परस्ती, जीवन शैली की विद्रूपता, गिरते सामाजिक मूल्य, बढ़ता भ्रष्टाचार, भौतिक विकास से चोटिल सामाजिक जीवन, नागरिक मूल्यों का निरंतर क्षरण, साहित्य में जुगाड़ तंत्र, लेखकों की दयनीय दशा, मुँहज़ोर मुँह के जुमलों का ज़ोर, समय के सफ़र में स्पेस में घुलता ज़हर, कमर तोड़ती महँगाई, कुर्सी पर क़ब्ज़े की क़वायद, रिश्तों की चुहलबाज़ी, बीते दिनों के स्कूली दिनों की मर्मांतक किंतु आज गुदगुदाती गाथाएँ, बचपन के पिता की ख़ौफ़नाक तस्वीर, ‘मर्द का दर्द’, कोरोना काल का समाजशास्त्र, मास्कपरस्ती का मनोविज्ञान, आशिक़ों के अगणितीय समीकरण – इन तमाम वर्णों को अत्यंत बलखाती मोहक वर्णमाला में अपने चित्रपट पर उन्होंने पसार दिया है। भावों के हास्य-तत्व से उनके शब्द गलबहियाँ करते दिखते हैं। अनूठे शब्दों के औज़ार से उनके व्यंग्य की तीव्रता मारक बन जाती है। शब्दों की छटा का अवलोकन कीजिए – ‘खिलंदड़पना’, ‘परवरिशपंती’, ‘जलीलत्व’, ‘सेल्फ़ियाने’, ‘इश्कियाहट’, घिघियावस्था आदि, आदि! उनके बतरस में समकालीन समाज की बोली की पांडुलिपि का रूह-अफ़जा है।
उनके कुछ वाक्यों की धार देखिए, “अच्छा! गिरे हुए इंसान (जमीन पर, ज़मीर से नहीं) को चोट से अधिक चिंता और दुःख पहले इस बात का होता है कि उसे किसी ने गिरते हुए तो नहीं देखा!”, “छरहरा होना राष्ट्रीय स्वप्न है”, “वो तो अच्छा है कि प्रश्वास के समय कार्बन डाई आक्सायड निकलती है। कहीं हाइड्रोजन निकलती तो वायुमण्डलीय ऑक्सिजन से मिलकर सब किए-कराए पर पानी फेर देती।“, “जी, हाँ अतृप्त लेखकीय आत्मा प्रायः पुस्तक मेले में भटकती पायी जाती है।“, “पर, जो मान जाए तो वह कवि ही क्या!”, “दुर्गति वही, जगह नयी।“, “ये टीवी का अकेला चैनल तब सबको जोड़ता था। आज सैकड़ों चैनल मिलकर एकता स्थापित नहीं कर पा रहे।“, “चाय में डूबा बिस्कुट और प्यार में डूबा दोस्त किसी काम के नहीं रहते।“, उस दिन आपके नसीब से वो रायता/गुलाबजामुन ऐसे उड़ जाता था जैसे कि ग़रीबों के घर से शिक्षा, नेताओं से नैतिकता और समाज से मानवता उड़ चुकी है।“, “विकास तो हो रहा है बस ज़रा दिशा बदल गयी है।“, होता क्या है कि जैसे बहू गृहप्रवेश के साथ ही घर संभालने लगती है, इसके ठीक उलट दामाद जी के चरण पड़ते ही पूरा घर उन्हें संभालने लगता है।“, “आज के ज़माने में जहाँ लोग घर के अंदर से ही बाय कर मुँह पर दरवाज़ा बंद कर देते हैं वहाँ यह ‘कुत्ता’ ही है जो आपको स्पीड के साथ गंतव्य तक छोड़कर आता है।“ इस तरह के लज़ीज़ ‘व्यंजनों’ से यह पूरी पुस्तक पटी हुई है।
नवपरम्परावाद की चाशनी में पगे समाज का स्वाद प्रीति की लेखनी के हास्य-तत्व को एक अप्रतिम कलेवर देता है। पुस्तक की कथावस्तु के केंद्र में पिछली सदी के आठवें दशक से आजतक अर्थात पिछले तीस चालीस वर्षों के भारतीय समाज का जीवन चरित है। यही वह कालखंड है जब विज्ञान और तकनीकी उपलब्धियों पर आरूढ़ एक पीढ़ी हौले-हौले अपने बचपन की चुहलबाज पगडंडियों पर उछलते-कूदते कैशोर्य के राजमार्ग होकर यौवन के इक्स्प्रेस्वे पर पहुँच जाती है। किंतु पगडंडी की धीमी गति की मिठास के आगे इक्स्प्रेसवे की द्रुत गति बड़ी ठूँठ-बाड़ और अराजक-सी लगती है। व्यंग्य के इस कुशल चितेरे ने उन मनभावन यादों से अपनी ‘प्रीति’ को ‘अज्ञात’ नहीं होने दिया है। स्मृतियों को सहेजना ही बुद्धि और विवेक की चिरंजीविता के लक्षण हैं। जैसा कि गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है, “स्मृति भ्रंशात बुद्धि नाश:, बुद्धि नाशात प्रणश्यति ।“ अतीत की स्मृतियों के आलोक में वर्तमान की विसंगतियों पर अचूक निशाना साधने में प्रीति अत्यंत खरी उतरी हैं। उनकी लेखनी की प्रांजलता, विचारों का प्रवाह, चिरयौवना भाषा का अल्हड़पन, शब्दों का टटकापन, भावों की मिठास, हास्य का सुघड़पन, व्यंग्य की धार और दृष्टि की तीव्रता किताब की छपाई के फीकेपन को पूरी तरह तोप देती है और पाठक शुरू से अंत तक प्रीति के बंधन से बँधा रह जाता है।
--------- विश्वमोहन