Tuesday 26 December 2017

यूँ समय सरकता जाता है!

कल बीता काल, कल नया साल!
यूँ समय सरकता जाता है।

श्वेत-श्वेत-से सात अश्व-से!
सुसज्जित ये समय शकट है।
घिरनी से घूमते पहिये पर,
घटता घड़ी-घड़ी जीवन घट है।

निशा-दिवा का नयन-मटक्का,
अंजोर-अन्हार की अठखेली।
ठिठुर-ठिठक कर ठहर गई है,
हर्ष-विषाद की अबूझ पहेली।

चाहे सम्मुख दुख हो, सुख हो
समय थाल भला थमता है?
तप्त तुषार तरल जल बहकर,
शीत समय संग फिर जमता है।

हिम तरल का, तरल हिम् का,
जग परिवर्तन का अंकुर है।
मोह-जाल में जकड़े जीव को,
स्वयं काल भी क्षण-भंगुर है।

भ्रूण-भोर से यम-यामिनी,
यातना योनि-दर-योनि।
विषय-वासना, कनक-कामना,
केंचुल में कोमल मृगछौनि।

है संघर्ष पाश से मुक्ति का,
जीव ब्रह्म-योग की युक्ति का।
सतचित-आनंद के आंगन में,
चिर योग जगा अंतर्मन में।

काल बंध के भंजन में
स्थितप्रज्ञ से मंथन में
माया मत्सर मोह महल
सुभीत दरकता जाता है

कल बीता काल, कल नया साल!
यूँ समय सरकता जाता है।





Saturday 9 December 2017

तुम्हारे हहराते प्यार की हलकार में

तुम्हारे हहराते प्यार की हलकार में
मेरे अहंकार की हूंकार हार जाती है
यूँ जैसे असीम आसमान में अपनी अस्मिता
आहिस्ते आहिस्ते हाशिये पर पसार कर
धीरे धीरे धूमिल हो जाती है
श्वेत वर्णी चांदी सी चमकती
चटकीली सरल रेखीयधूम्ररेखा
गरजते रॉकेट की लमरती पूंछ माफिक
आसमान को पोंछती हुई!
सोचता हूँ
तुम्हारे प्यार का गरजता उपग्रह
स्थिर हो जाएगा किसी की
अनुराग-कक्षा में
प्रशांत, स्थिर!
सदा के लिए छोड़कर पीछे
मुझे अनंत में विलीन होते!

गुम होता !

मेरा क्या?
बिंदु था,
न लंबाई
न चौड़ाई
न मोटाई
न गहराई
 भौतिकीय शून्य!
पर नापने से थोड़ा 'कुछ'!
बस उसी थोड़े 'कुछ'
गणितीय अहंकार के
सुरसा से फैलते
 एंट्रॉपी में कुलबुला
मैं बनता बुलबुला
और फैलने की जिद
और न रुकने की जद में
फट गया।
देख रहा हूँ
अब तेरे ब्रह्मांड के
विस्फार और विस्तार को।
प्रणव के टंकार से
बिष्फोटित बिंदु के
अनवरत प्रसार को।
असंख्य आकाशगंगाओं
के केन्द्रापसार को!
डरता हूँ
फट न जाये
यह महा विस्तार!
पर सकून है
यह सोचकर
मिलेंगे हम दुबारा
नव सृष्टि के नए विहान में
नव इंद्रियोत्थान में