इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विमान पत्तन के टर्मिनल टी- 1 की हवाई पट्टी जब धीरे धीरे पीछे की ओर सरकने लगी तो मेरा पूरा परिवार एक सुखद एहसास से आंदोलित हो उठा । मन में उठने गिरने वाली कल्पनाएं विमान के डैने पर सवार हो गयी । सघन जलद दल को पराजित करता जहाज हवा से बातें करने लगा । बादल पीछे छूटने लगे और नीचे समतल परती धीरे धीरे पसरने लगी । थोडी ही देर बाद हिमाच्छादित पर्वतशिखरों से परावर्तित किरणें आंखों को चौंधियाने लगी । पहाड़ों को लांघकर जहाज अब घाटी के उपर आ गया था । विमान की प्रच्छाया और उपच्छाया धीरे धीरे धरती पर गहराने लगी थी । व्योम बाला की इठलाती बोली ने विमान के श्रीनगर में धरा-स्पर्श की उद्घोषणा की । और अब हम सपरिवार मुदित मन से बाहर निकल रहे थे । निकास द्वार पर आगवानी करने वालों की कतार में एक व्यक्ति के हाथों में तख्ती पर सुडौल अक्षरों मे लिखा था – ‘जोकहा’। हिंदुस्तान के माथे पर अपने गांव का नाम पढ़कर मेरी खुशी का पारावार न रहा । मेजबान मित्र शांतमनु की इस मीठी मोहक अदा से मन मेरा महुआ हो गया । अपनेपन के इस अप्रत्याशित आगोश में अभिव्यक्तियां नि:शब्द हो गयी । प्रेम का पाग पसर गया । गंतव्य विसर गया और मित्र-मिलन की उत्कंठा प्रबल हो उठी ।
शांतमनु के आवास में प्रवेश करते ही सामीप्य के अहसास की मृदुलता गढ़िया गयी । ‘कब के बिछुड़े हुए हम आ के यहां ऐसे मिले…. ‘की भाव गंगा में हम अभिषिक्त हो रहे थे । बातचीत का अंतहीन सिलसिला शुरु हो चला था । बातों से बातें जुडती जा रही थी । परिवार का सह-सदस्य ‘टफी’ इस जुड़ाव को देखकर अपने ईर्ष्या भाव को दबा न पा रहा था । रह रह कर वह अपनी खीझ अपनी भौंक में ध्वनित कर देता । मेरी पुत्री के चेहरे पर अवतरित भय का भाव टफी को गौरवोन्नत कर देता और अपने विजय उल्लास को वह अपनी घनी पूंछो की थिरकन में प्रदर्शित कर देता । धीरे धीरे हम सभी उस वातावरण में ऐसे घुल मिल गये कि उस दीर्घ आवासीय प्रांगण के कण-कण ने हमे अपना लिया ।
मेरी यात्रा की जनमपत्री शांतमनु के हाथों में थी । खाना खाने के उपरांत हम श्रीनगर शहर के दर्शनीय स्थलों को देखने निकल गये । निशात, शलमार, चश्मे-शाही और डल झील के मनोहारी सौंदर्य का हमने भरपूर रसपान किया ।
निशात अर्थात ‘परमानंद-वाटिका’ । यह बाग मनोरम डल झील के किनारे अवस्थित सबसे बड़े मुगल उद्यानों में एक है । इसकी प्रकल्पना नुरजहां के भाई आसफ खान ने सन 1633 ईस्वी में की थी । बाग का पृष्ठ भाग ज़बरवां के पहाड़ों में मिल जाता है । पिछले भाग में ही गोपी तीर्थ नामक एक लघु निर्झर है जो इस गुलिश्ते को जल आपुर्ति करता है । कतिपय मुगल कालीन अवशेष भी यहां दृष्टिगोचर होते हैं ।
शालिमार बाग डल झील के पुर्वोत्तर छोर पर अवस्थित एक सुंदर उद्यान है । छठी शताब्दी में प्रवरसेना द्वीतीय द्वारा निर्मित यह उद्यान पहले हिंदुओं का पवित्र स्थान था । बाद में इस उद्यान को निखारने में जहाँगीर, ज़फर खान और महाराजा हरि सिंह ने अपने अपने समय मे अपना योगदान दिया । शल मार यानि ‘मुहब्बत का आशियाना’ । अपने परिणय के रजत काल में अपनी परिणीता व पुत्रियों के संग मुहब्बत के इस आशियाने में आना एक सुखद एह्सास था । डल झील के पश्चिम में भाष्कर अपनी रश्मियॉ समेट रहे थे । पूनम अम्बर के आंचल में अपनी प्रणय रंजित रजत चांदनी का चंदवा बिछा रही थी । अंतरिक्ष से ताल के वक्ष तक रजनीश ने दूधिया आभा का विस्तार कर दिया था । नीचे चिड़ियों की चहचहाहट थी । उपर नीलांक में निहारिकायें हिमांशु से आंखमिचौनी खेल रही थी । पुन्नो की चांदनी से सरोवर सराबोर था । ‘ शल मार ’ का प्रत्येक परमाणु राग विलास की चरम समाधि में था । पुनम की स्निग्ध प्रेम सुधा से सिंचित विश्व विमोहित था । सौंदर्य का यह चिरंतन दृश्य चिरकाल तक मेरी स्मृति को सम्मोहित करता रहेगा ।
चश्मे-शाही वीथिका और युथिका को काफी भाया । जलधारा सीढ़ीनुमा ढ़लान पर अनुशासित ढ़ंग से ढ़लक रही थी । बच्चे उसके इर्द गिर्द मचल रहे थे । वीथिका ने कश्मीरी परिधान में तस्वीरें खिंचवायी । पुनम के संग हमने शीतल जल का स्पर्श सुख लिया । रोशनियां जगमगने लगी थी । सामने डल झील के प्रशस्त पटल पर प्रकाश की परत पसर रही थी और अब हम डल झील के किनारे किनारे अपने वाहन से वापस चल दिये ।
घूमते-घूमते घड़ी की सुइयां भी कब का घूम के दस बजा चुकी थी, पता ही ना चला । श्रीनगर में पश्चिम का क्षितिज थोडा विलम्बित ताल में लाल रहता है । फिर, रात के कजरौटे को पोंछकर तडके भिनसार ही अरुणिमा अपनी शरारत का अभिसार करती है । शनैः शनैः तंद्रिल प्रकृति के अलसाये शांत मनु को गुदगुदाती उसकी चपलता किसलय के आंचल मे चिन्मय चेतना का अक्षत छीटती है ।
अगले दिन हम गुलमर्ग को निकले । गुलमर्ग में बर्फीली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरी सपाट भूमि में मानो सोलहों श्रृंगार रचकर प्रकृति लेट गयी हो । कोंडोला में लटककर इस्पाती रस्सी पर विद्युत शक्ति से सरककर हम खिलनमर्ग पहूंचे । वहां से उपर का रज्जुमार्ग बंद था । परिवार के चतुर चतुष्टयों ने चार चौपयों का सशुल्क सहारा लिया । हम घोडे से बरफ के पास पहूंचे । स्लेज गाडी की सवारी और स्की-इंग का लुत्फ उठाये । दूसरों को बर्फ पर फिसलते और गिरते देखकर बहुत मज़ा आता । पर जब अपनी बारी आती तो सारा मज़ा किरकिरा हो जाता । फिर हम दूसरों के मनोविनोद का माध्यम बन जाते । हंसना-हंसाना ही जिंदगी है । यहां हमें अपने गरम कपड़ों में लिपटना पड़ा । इस हिमानी प्रदेश में नव संस्कृति के भोज्य परिवार के कुलदीपक ‘ मैगी-नुडल्स ’ को उदरस्थ कर हमने अपनी भूख शांत की और अवरोहण को उधत हुए । रात्रि विश्राम गुलमर्ग में सघन वन की गोद में काष्ठ-निर्मित एक सुंदर और सुविधा-सम्पन्न कुटिया में था । यह शांतमनुजी का आयोजन था । मै पहले ही बता चुका हूं कि हमारी कश्मीर यात्रा के निर्माता , निदेशक एवं संचालक सब कुछ वहीं थे । उस नीरभ्र नीरव वनकुटिर में हमने निशा-निमंत्रण स्वीकार किया । उस विश्राम गृह के केयरटेकर अकबरजी से हम पारिवारिक स्तर तक घुलमिल चुके थे । वह भी प्यारी पुत्रियों के पिता थे और उनकी शिक्षा के प्रति समर्पित थे । मेरी पत्नी के मिलनसार स्वभाव का जादू यहां भी चल गया था । हमसे पहले वहां ठहर चुके अनेक देशी और विदेशी सैलानियों की रोचक कथायें अकबरजी ने हमें सुनायी । उन्होने बताया कि आस्ट्रेलिया और न्युजीलैंड के सैलानी दिसम्बर महीने में आकर दो तीन महीने रुकते हैं । तब पूरा इलाका बर्फ की मोटी चादर में ढ़का होता है । उस समय ठंड से निजात पाने के लिये बुखारे का इंतज़ाम किया जाता है । हमारी पुत्रियों ने बडे मनोयोग से बुखारे की वास्तुकला और तकनीकी संरचना का सांगोपांग श्रवण किया । अकबरजी से बातचीत में हमने कश्मीर के सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन के दर्शन किये । बातों की मिठास में चलभास क्रमांक की अदला बदली हुई और हम पहलगांव के लिये सस्नेह विदा हुए ।
गुलमर्ग से पहलगांव जाने में श्रीनगर को पार करना होता है । श्रीनगर से बाहर निकलते समय थोड़ी दूर तक यातायात व्यवस्था दम तोड़ती नज़र आती है । यह शासक दल के विजयी चुनावी क्षेत्र का हिस्सा था । शायद इसी वजह व्यवधान के कारणों पर विजय पाने में प्रशासन पंगु हो जाता है । खैर, हम झेलम की ताल पर पवन प्रकम्पित पत्तों का क्रीड़ानाद सुनते आगे बढ़े । सेव बगान की स्मृति कैमरे में कैद की । पहलगांव पहुँचकर पहले पेट पूजा की । फिर, काले हिरणों के सुरम्य अभयारण्य के रास्ते उरु घाटी पहुंचे । ऊपर पहाड़ी पर पैदल ही चढ़े ।
नीचे का दृश्य नयनाभिराम था । उत्तर दिशा के पहाड़ बेवजह घनघोर घटाओं से उलझ पड़े । हमारी उपस्थिति से उत्साहित श्याम घन उत्तेजना में घनीभूत होने लगे और अपनी रणभेरी की पहली फुहार नीचे फेंकी । चेतन नयन , मुग्ध मसृण मन , शिथिल तन और उपर कजरारे गगन से श्याम घन का जल आक्रमण । हम आधे सुखे आधे भींगे नीचे दुकान में भागे । बरखा की रिमझिम में पेटों को रशद पूर्ति की । वापस पहलगांव को चले । नीचे अभयारण्य का निर्जन एकांत था । घनघोर घटा की श्यामल छटा फैली थी । शीतल बयार किशोर वय शांत पेड़ों को छेड़ रही थी । झेलम की धारा बरसाती यौवन में मदमत्त अपनी प्रणय कलाओं का विस्तार कर रही थी । बयार उन्मादित किशोर तरु उझक उझक कर नीचे प्रणयोन्मत्त चंचल सरिता में समाने का साहस बटोर रहे थे । फिर हम कैसे दबा पाते अपने अनुरागी चित्त को ! ग़ाड़ी रोककर दौड़ पड़े उस प्रेम पीयूष परिपूर्ण प्रवाह का पाणिग्रहण करने । हम पानी, पवन, पहाड़ और पेड़ की इस प्रेम पंगत में पूरी तरह पगे और अपनी रूहानी प्यास बुझायी । वही बैठे बैठे कुछ स्थानीय लोगों तथा एक बिहारी फोकचा विक्रेता से काफी आत्मीय बातें हुई । क्षेत्रीय सूचनायें काफी मिली । संवैधानिक प्रावधान, राजनीतिक प्रपंच , प्रशासनिक संशय , सैन्य बल बर्बरता और आतंकी क्रूरता ; इन सबके आगोश में अकुलाती इस मनोहारी प्रांत की सामाजिक संरचना --- मन में ऐसी सुगबुगाहट छोड़ गयी जिसकी आहट मेरी इतर रचनाओं मे शायद सुनायी दे । इस प्रांतर में प्रकृति ने विविध प्रकारांतरों में अपने अप्रतिम सौंदर्य के अगणित राज खोल रखे थे – “ ज्यों ज्यों डुबे श्याम रंग ,त्यों त्यों उज्जल होय “ । हर अगली जगह पिछले पड़ाव को अपनी विलक्षणता से पछाड़ने को तत्पर थी । बॉबी हट जैसे बहुचर्चित स्थलों को निहारते देर रात हम अपने मित्र के निर्मल निवास पहूंचे जहां अपनेपन का अजस्त्र प्रवाह था ।
हमारा परिवार अब अगले दिन विश्राम का मन बना रहा था लेकिन शांतमनु का मन क्यों शांत बैठने दे ? अरुणिमा की आभा का आस्वाद शांतमनु के प्रशांत चित्त को विलक्षण विचारों से प्रदीप्त कर देता था । उसी प्रदीपन के आलोक में उसने हमारी सोनमर्ग यात्रा का शंख बजा दिया । उस समय तो हमारे शिथिल- तंद्रिल तन ने बुझे मन से उसका उद्घोष सुना किंतु जब हम सोनमर्ग से लौटे तो मन ही मन उसे अपनी यात्रा विजय का पाञ्चजन्य नाद माना । मैं पहले ही बता चुका हूं कि प्रत्येक परवर्ती गंतव्य पूर्ववर्ती पड़ाव को अपने प्रतिमानो से पराजित कर देता था । सोनमर्ग भी पर्यटन की इस प्रतिष्ठित परम्परा का अपवाद न रहा । सिंध के समानांतर करगिल को जाती सड़क के किनारे स्थित है सुरम्य सोनमर्ग । वहां से कुछ आगे ही अमरनाथजी की पवनहंस यात्रा का उद्गम है । वाहन चालक जो अबतक हमारे परिवार का अभिन्न सदस्य बन चुके थे, हमे वहां से भी आगे ले गये जहां हम पर्वतशिखर से नि:सृत, वसुधा को आद्योपांत आलिंगन में लिये, ग्लेशियर में परिणत चश्मों के चश्मदीद बने । सोनमर्ग में भोजन करने के उपरांत हमने लगभग एकाध घंटे की सघन घुड़सवारी की, बरफ तक पहूंचने के लिये । ये घुड़सवारी रोचक और रोमांचक थी । हमारे पथ प्रदर्शक अश्वपाल ने घोड़े के सीधी ऊंचाई पर चढ़ने और नीची ढ़लान पर उतरते समय बरते जानेवाले एहतियातों और अश्वारोहण की अन्य बरीकियों से बखूबी रु-ब-रु किया । विज्ञान का छात्र होने के कारण गुरुत्व क्रेद्र और संतुलन के समीकरण की इस प्रयोगशाला में अनायास ही प्रशिक्षित हो गया । हमारे अश्वपाल बडे व्यवहारकुशल और सहृदय इंसान थे । उनमे से एक ने गुजरात और बिहार का भ्रमण भी किया था । वह बडे कौतुहल से अपने परदेस प्रवास के संस्मरण सुनाकर हमारे संस्मरण को सिंचित कर रहा था । गुजरात में गार्ड की ड्युटी बजाने के क्रम में आये संकट का शूरतापूर्ण सामना करने की उसकी कहानी वीर रस से ओत प्रोत थी । उसकी बिहार वंदना से भी हम फूले न समाये । कश्मीरियों का दिल सैलानियों के लिये मुहब्बत से लबरेज़ होता है । उसने कई ऐसे मुकाम भी दिखाये जहाँ फिल्मी उल्फतें कैमरों में परवान चढी थी । मैं और मेरी छोटी बेटी, वीथिका, बहुत आगे तक पैदल भी गये । विदित हुआ कि उतर पश्चिम दिशा में खडे हिममंडित शैल शिखर के पीछे ही अमरनाथजी की पहाड़ियां प्रारम्भ हो जाती हैं और पास में बहने वाली शीतल जलधारा का उत्स भी उन्ही पहाड़ियों में है । अत्यंत श्रद्धा भाव से मैंने उस पवित्र जल से अपना मुख प्रक्षालन किया । सुरज देव अस्ताचल जा चुके थे । संध्या रानी रजनी-अभिनंदन हेतु प्रस्तुत थी । बादल दल-बल सस्वर हलचल मचा रहे थे । बर्फ के प्रशस्त परत चांदी की तरह चमक रहे थे । हल्की हवा सिहर रही थी । मौसम में सर्दी घुलती जा रही थी । लघु सरिता का शीतल जल कल कल छल छल कर मचल रहा था । विधाता ने मानो नैसर्गिक सौंदर्य की सारी कलाओं को एक साथ उड़ेल दिया था और मेरी हृदयहारिणी अर्धांगिनी, पुनम, सम्पूर्ण तन्मयता से प्रकृति की इस चिरंतन चित्रकला का रसपान कर रही थी । मेरी बडी पुत्री, यूथिका , ने इस अद्भुत दर्शन का सेहरा शांतमनु अंकल के सिर बांधा जिनकी पहल पर हम यहां के लिये प्रस्थान किये थे । हम घोड़ों से वापस अपने वाहन के पास पहुँचे और श्रीनगर के लिये लौट चले । हमारे संग बरखा की रिम झिम फुहार और हवा की सिहरती सीत्कार भी रास्ते भर हमजोली बन कर चले । वायु पर तैरते जलकण गाड़ी से निकले प्रकाश पुंज में छितराये पारद पुंज का बिम्ब बन आलोकित हो रहे थे । मैं और मेरी पत्नी इस चर्चा में रस ले रहे थे कि आते वक्त ढ़ाबे में खाकर बिना भुगतान किये आगे बढ़ जाने की घटना को किसकी भुल्लक्कड़ प्रवृति का परिणाम माना जाय । यह परिणाम परम्परा के प्रतिकूल मेरे पाले आया । खैर, वापसी में पुनः हम उस ढ़ाबे में गये और पैसे अदा किये । दूकानदार इसलिये गदगद था कि उसे भी याद नही था । प्रसन्नचित्त हम घर लौटे ।
उस रात हमारी गपशप गोष्ठी में शांतमनु के मौसाजी और मौसीजी भी शामिल हुए । बातचीत के बडे आत्मीय क्षण थे । अगर कोई एक प्राणी इस वाग्विलास में समग्र तल्लीनता से अपनी उपस्थिति का अहसास करा रहा था तो वह टफी था । अपने सुनहरे शरीर को फर्श पर फैलाये आंखों को मंद-मंद मूंदे बातों के बतरस में डुबने का सरस अभिनय कर रहा था । बीच-बीच मे चतुर श्रोता की भांति अपने श्वान सुलभ मुखमंडल को घ्राण मुद्रा में उपर उठाता । उसकी चौकन्नी निगाहें मेरे मन में भय का संचार करती । हम जड़वत स्थिर रहते । उससे हमारी नज़रें बिना किसी प्रयास के हट जातीं । वह चतुर चौपाया हमारी बेबसी ताड़ जाता । अपनी कष्टदायक क्रीड़ा से हमारे मन को पीड़ा देता और फिर आत्मगौरव से अपनी आंखे मुंद लेता । तब जाकर मुझे होश आता । मैं भी चतुराई से इस धारावहिक को किसी के समक्ष प्रकट नहीं होने देता । अक्सर अपना ध्यान हटाने हेतु मैं विगत रात की कवि चर्चा में खो जाता । शांतमनु ने अपनी कुछ चुनींदा कविताओं का पाठ किया था । सांसारिकता की कड़ाही में पकी एवं आध्यात्म की चाशनी में पगी इन सुस्वादु रचनाओं में कर्म ज्ञान और भक्ति की त्रिवेणी के सुदर्शन होते । आध्यात्म के इस अध्येता ने अपनी कविताओं में जीवन के दर्शन का आख्यान सुनाया । उसके आग्रह को मैं पूरा नहीं कर पाया क्योंकि मन के गीत को कागज पर उतारते ही मेरे मस्तिष्क का उनसे नाता टूट जाता है। मैंने वादा किया कि अपनी रचनाएं उसे प्रेषित कर दूंगा । उनकी अर्धांगिनी, अरुणिमा, आर्ट ऑफ लिविंग की उपदेष्टा तो हैं ही; उनकी पुत्री ,भार्गवी, में भी आध्यात्मिक संस्कारों के बीज दिखे । इस अल्प वय में शिव-साहित्य से सान्निध्य शुभ लक्षण हैं । पुत्र, शिवम, गायन कला में निष्णात हैं । उनकी माताजी की वटवृक्ष छाया का भी वरदान इस परिवार को प्राप्त है । लोकगीतों की वह मृदुल गायिका हैं तथा ब्रह्मकुमारी परम्परा में शिव की उपासना करती है । इस मंडली का साहचर्य मानों सरस्वती की वीणा से निःसृत सप्तक से साक्षात्कार है ।
अब तक टफी को कारावास मिल चुका था । हम अपने शयन कक्ष को प्रयाण किये । बतियाने का क्रम वहां भी चलता रहा ।
अगली सुबह हम सपरिवार नहा-धोकर किंतु बिना खाये पीये शंकराचार्य पर्वत स्थित महादेव के मंदिर के दर्शनार्थ निकल गये । ग्यारह सौ फीट ऊंचाई पर अवस्थित देवों के देव महादेव का यह मंदिर राजा गोपादित्य द्वारा (371 ई.पू.) स्थापित किया गया था । मंदिर तक पहुंचने के लिये सीढियों का निर्माण डोगरा राजा गुलाब सिंह ने करवाया था । इसे ‘पास-पहाड़’ या ‘ज्येष्ठेश्वर मंदिर’ भी कहते हैं । ‘तख्त-ए-सुलेमन’ के नाम से भी इसे जाना जाता है । भारतीय दर्शन में कश्मीरी शैव दर्शन की अपनी अलग पहचान है । इस सुरम्य स्थान से सम्पूर्ण श्रीनगर के विहंगम और मनोरम दृश्य के दर्शन होते हैं । नीलकण्ठ के दर्शन कर हमने जलपान किया और फिर हज़रत बल को देखने चल दिये ।
डल झील के किनारे सफेद संगमरमर से बना हज़रत बल मस्ज़िद कश्मीरी और मुगल स्थापत्य शैली का अद्भुत मिश्रण है । 1623 ईस्वी में इसका निर्माण सादिक़ खान ने पैगम्बर मोहम्मद मोई-ए-मुक्कादस के सम्मान में करवाया था । इसे अस्सार-ए-शरीफ, मादिनात-अस-सेनी और दरगाह शरीफ के नाम से भी जाना जाता है । हज़रत का अर्थ होता है – ‘पवित्र’ या ‘राजसी’ और बल का अर्थ होता है ‘बाल’ । पैगम्बर की दाढ़ी के बाल ‘मोइ-ए-मुक्कादस’ के नाम से यहां रखे हुए हैं । ईद-ए-मिलाद औए मेराज़-उन-नबी के मौके पर इस पवित्र बाल के दर्शन एक सप्ताह तक दिन में पांच बार कराने की परम्परा है । कुछ इतिहासकारों का ये भी मत है कि पैगम्बर के वंशज सैय्यद अब्दुल्ला नामक व्यक्ति इस बाल को मदीना से भारत लाये थे । उनके पुत्र सैय्यद हमीद से नुर-उद-दीन एशाई नामक एक कश्मीरी व्यापारी ने इसे खरीद लिया था । औरंगजेब ने इस बाल को जब्त कर अजमेर शरीफ में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरागाह में रखवा दिया और एशाई को लाहौर जेल में । बाद में औरंगजेब को अपने किये पर पश्चाताप हुआ और उसने एशाई को बाल लौटाने का निर्णय लिया । तब तक एशाई का इंतकाल हो चुका था । अंततः 1699 ईस्वी में एशाई की पुत्री इनायत बेगम अपने पिता के शव और बाल दोनों लेकर कश्मीर आयी और उसे यहां दफनाकर इस बाल को भी यहीं सुरक्षित रख दिया ।. तब से, यह पवित्र राजसी बाल यहीं सुरक्षित है । मेरा अभिप्राय किसी ऐतिहासिक मत की प्रामाणिकता का उद्बोधन करना नही है, क्योकि मेरी निगाह में सबसे प्रामाणिक है तो केवल एक ही तथ्य! और वो, कि ऐसा कोई भी विषय जो भिन्न भिन्न ‘वाद’ के खेमों में बंटकर अपनी वस्तुनिष्ठता से वंचित हो गया हो और स्वार्थप्रेरित आत्मनिष्ठता से संक्रमित हो गया हो, अपनी प्रासंगिकता खो देता है ।
उसके बाद हमारी पुत्रियों ने कश्मीर विश्वविद्यालय की तरफ गाड़ी मोड़वा दी । अद्भुत सौंदर्य को समेटे इस विश्वविद्यालय का मनोरम प्रांगण भी एक दर्शनीय स्थान ही साबित हुआ । योजनाबद्ध ढ़ंग से बने विभागीय भवन खंड, चिरहरित चिनाररचित उद्यान और परिसर में पसरी कमसीन कश्मीरी किल्लोलें मन को बरबस मोह रहे थे । विश्वविद्यालय के ‘अमर सिंह बाग’ परिसर की जमीन इसके दूसरे कुलाधिपति रह चुके डा० कर्ण सिंह से दान में मिली थी । 1948 में, सर्वप्रथम,राज्य सरकार ने परीक्षाओं के संचालन के लिये एक संस्था की स्थापना की जिसके मानद कुलपति बनाये गये न्यायमूर्त्ति जे एन वज़ीर । 1956 में यहीं संस्था विश्वविद्यालय के रुप में परिवर्तित हो गयी और ज़नाब ए ए फैज़ी इसके प्रथम पूर्णकालिक कुलपति बने ।
सूरज तीसरे पहर में दस्तक दे चुका था । मेरी अर्धांगिनी कश्मीरी हस्तशिल्प की दुकान में बड़ी सुरुचिपूर्ण निगाहों से शिल्प चयन कर रही थी । उनकी कलाप्रियता का मैं कायल हो रहा था । हांलाकि सामग्रियों के मूल्य अदा करते समय आर्थिक रुप से घायल महसूस कर रहा था । बात जो भी हो, कश्मीरी कसीदागिरी अपनी उम्दा बारीकी के लिये बेनज़ीर है ।
हम घर सूरज ढ़लने के पहले पहूंच गये. निशा विहार का आयोजन शांतमनु ने नौका निवास में किया था । हमें अगली सुबह हाउसबोट से सीधे दिल्ली के लिये वापस लौट जाना था । उसी गणित के आधार पर हमने अपनी तैयारी का समीकरण हल किया था । हम दल बल सुसज्जित शिकारे में सवार हुए । हम डल झील की कुंतल लहर लतिकाओं में उदयाचल रजनीश की हिलती लास्य लीलाओं का अवलोकन करते हौले हौले अपने तैरते आशियाने की ओर तिरते जा रहे थे । प्रकृति ने अद्भुत दृश्य परोस दिया था । दूर क्षितिज पर नीलाकाश डल की चंचल लहरों पर डोल रहा था । चिनार की विटपावली के शीर्ष पर रजत-धवल-तुषार की गगनचुम्बी स्पर्श रेखा, उससे शनैः शनैः ढ़लकती पसरती अंधियारे की रोशनाई, झील के तल पर लेटी गुल्म लताओं से लहरों की गलबाहीं, हवाओं का आमोदपूर्ण शोर; मानों पुरुष अपने चैतन्य की पराकाष्ठा पर हो और प्रकृति रानी अपनी रोमांचकता के चरमोत्कर्ष पर । प्रकृति से आत्मसात होने का यह अद्भुत क्षण था । रात्री निवास के वे क्षण अत्यंत मधुर और अविस्मरणीय थे । सभी अंतेवासियों ने अपनी निष्णात गायन कला से मन मोह लिया । अपनी सहचरी संग गाये मेरे युगल गीत को उन्होने धैर्यपूर्वक पूरा सुनने का जो सम्मान दिया, वह मेरे जीवन की अद्वितीय उप्लब्धि थी । क्योंकि, यह पहला क्षण था जब मेरे शास्त्रीय स्वर के श्रवण के लिये न केवल हामी भरी गयी,प्रत्युत उस संगीत-सुधी-कला-प्रवण समाज ने उसे सराहा भी ! हमारी कला-मर्मज्ञ-मंडली ने हमारी यात्रा के उपसंहार को यादगार बना दिया ।
रजनी का रथ अविराम गति से उषा आलिंगन को तत्पर था । विभावरी विदा हुई । हमारी विदाई की वेला आई । हमने अपना सामान समेटा । मित्र परिवार की स्नेहिल भावनाओं से सिक्त होकर सिकारे में सपरिवार आसीन हुए । हम वापस किनारे की ओर चले । डल झील अलसायी मुद्रा में शांत गम्भीर भाव से कश्मीर के इतिहास का गवाह बने अपनी प्रशस्तता में पसरा पड़ा था ।
पौराणिक,ऐतिहासिक और भूगर्भीय सभी तथ्य इस विषय पर एकमत हैं कि प्राचीन काल में यह समूचा प्रदेश जलमग्न था । नीलमत पुराण के अनुसार ‘का’ अर्थात जल के ‘समीर’ अर्थात हवा के द्वारा ‘शिमिर’ अर्थात रिक्त किये जाने के कारण यह प्रदेश कश्मीर कहलाया । अन्य कारणों में इस नाम का साम्य ‘कश्यप-मेरु’ (कश्यप पर्वत), या ‘कश्यप-मीर’ (कश्यप झील) या ‘कश्यप-मार’ (कछूये की झील) से बिठाया जाता है । प्राकृत भाषा में ‘कास’ जलमार्ग का द्योतक है । राजतरंगिणी में ऐसा प्रसंग उल्लिखित है कि इस जलमग्न प्रदेश में ‘देवोद्भव’ नामक नाग जाति के असुर का निवास था । उसके अत्याचार से मुक्ति हेतु मरीची पुत्र कश्यप ने भगवान विष्णु की तपस्या की । विष्णु ने वाराह बनकर असुर का संहार किया । तदोपरांत वाराह ने अपने घर्षण से पर्वत को काटकर सारा जल बहा दिया । उस पर्वत को ‘वाराह-मुल’ के अपभ्रंश स्वरुप ‘बारामुला’ के नाम से जानते हैं । ऐतिहासिक विचारकों का संकेत इस ओर है कि सेमीटिक जन-जाति की ‘काश’ प्रजाति के लोगों का निवास होने के कारण यह प्रदेश कश्मीर कहलाया । भूगर्भीय शोधों पर आधारित वैज्ञानिक मत है कि करीब दस करोड़ वर्ष पहले यह शीत प्रदेश सैकड़ों फीट गहराई तक जलमग्न था । पश्चिमी छोर पर अवस्थित बलुआही पत्थर से निर्मित पर्वतों में अनवरत भू-क्षरण की प्रक्रिया और भुकम्पिय जलजलों से पर्वत मे दरार बनी जिससे जल बह गया और कालांतर में मौसम के अनुकूल होने पर खानाबदोश प्रजातियों ने इस भू खंड को अपना आशियाना बना लिया ।
सारी मान्यताओं का मूल इस पौराणिक मान्यता से अकाट्य मेल खाता है कि अपनी मूलभुत अवस्था में यह विशाल जलराशि का प्रशस्त सरोवर था और यहां महादेव शिव की सहचरी सती निवास करती थी । अतः पुरा काल में इसे ‘सतीसर’ के नाम से जाना जाता था जो काल प्रवाह में कश्मीर में परिवर्तित हो गया.
“ प्रचंडं , प्रकृष्ठं , प्रगल्भं, परेशं । अखंडं, अजं, भानुकोटिप्रकाशं ।।” के विराट स्वरूप की आभा से सम्पन्न डल झील अपने अद्भुत मनोहारी रुप में सम्मुख फैला हुआ था । सतीसर का यह सरोवर शिवांगी सती की सुषमा से तर-ब-तर था । आदिशक्ति के इस प्रकट सौंदर्यरुप की अकथ्य अनुभूति से मेरा चित्त अनुप्राणित हो उठा । अपने गंतव्य को लक्षित नौका विहार में समाधिस्थप्राय, मैं, सरोवर में उठने गिरने वाली छोटी-छोटी तरंगों में अपने जीवन का शाश्वत प्रमाण ढूंढने लगा, पंतजी की पंक्तियों को गुनगुनाते हुए-
ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार
उर में आलोकित शत विचार
इस धारा-सा ही जग का क्रम,
शाश्वत इस जीवन का उद्गम,
शाश्वत है गति,शाश्वत संगम.
शाश्वत नभ का नीला विकास,
शाश्वत शशि का यह रजत हास,
शाश्वत लघु-लहरों का विकास.
हे जग-जीवन के कर्णधार!
चिर जन्म-मरण के आर-पार,
शाश्वत जीवन नौका-विहार.
मैं भूल गया अस्तित्व-ज्ञान,
जीवन का यह शाश्वत प्रमाण
करता मुझको अमरत्व-दान .
------------------- विश्वमोहन