जीव-जगत-जंजाल भंवर में,
छल-प्रपंच, माया गह्वर में.
आसक्ति की शर-शय्या पर,
दिशा-भ्रम में भटकू मैं दर-दर.
हर लौं, मन की पीड़ा
गुरुजी, तू भृंगी, मैं कीड़ा!
ईश-ज्योति दे दे जीवन में,
’सोअहं’ भर दे तू मन में.
निरहंकार, चैतन्य बना दे,
शिशु अबोध मैं, तू अपना ले.
पिता, आ खेलें ज्ञान की क्रीड़ा,
गुरुजी, तू भृंगी, मैं कीड़ा!
छवि तेरी नयनों में भासे,
‘सर्वस्व’ चरणों पर अर्पित.
ज्ञान-सुधा की निर्झरिणी में,
दिव्य पुनीत, मैं अधम-पतित.
मैनें आज उठायो बीड़ा,
गुरुजी, तू भृंगी, मैं कीड़ा!
सृष्टि, पालन और संहार,
ज्ञान-जनक, तू सबके पार.
ले गोद में मुझे चला चल,
बहे मोक्ष की गंगा कलकल.
गये जहां कबीर और मीरा,
गुरुजी, तू भृंगी, मैं कीड़ा!