(1)
डेरा डाले पलकों में
पल-पल तुम्हारी,
गिनूँ थरथराहट
पुतलियों की,
गोल-चन्द्राकार-पनैला,
तैरूँ, नील गगन में !
अगणित सपनों के मोती.
डूबते,तैरते,उतराते
और बन्ध जाते
ख्वाहिशों के रेशमी सूत में.
(2)
निमिष मात्र भी नहीं
ठहरती पुतलियाँ
अपनी जगह पर,
उठती गिरती
जैसे सपनों का
उठना और ढ़हना,
और फिर
बह जाना
निःशेष!
आँखों के पानी में.
(3)
उतरा जल नीचे
धरती की छाती का.
कलमुँहे सुरज ने सोखा
पानी, कमर से
छरहरी नदी का.
समेटे सारे शर्मो हया
व ज़िन्दगी की रवानी
तू अनवरत रोती
और ढ़ोती
आँखों में पानी !
(4)
नयन नीर से तुम्हारे
उझक उझक झाँकती
नारी की लज्जा
सदियों से संचित,
उसी में घुलता
नंगा, निर्लज्ज !
नरपशु समाज !!
और अगोरती अस्मिता
तुम, फिर भी दाबे
उन्हीं पलकों में !