भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी पर गहराई से नज़र डालें तो इस बात का स्पष्ट आभास मिलता है कि यह संघर्ष यात्रा भी पूरी तरह इस देश के सनातन माटी के संस्कार से सिक्त होकर ही निकली है।वैचारिक विभिन्नताओं की अनगिनत धाराओं का अद्भुत समागम है- हमारी आज़ादी की प्राप्ति यात्रा। कोई नरम, कोई गरम। कोई उदार, कोई उग्र। कोई दाम, कोई वाम। कोई नेशनल, कोई सोशलिस्ट। कोई स्वराजी, कोई इम्पेरिअलिस्ट। कोई पूंजीवादी, कोई मार्क्सिस्ट। तो कोई गांधियन मार्क्सिस्ट। कोई धर्म निरपेक्ष, तो कोई कम्युनल। कोई सेक्युलर, तो कोई वर्नाकुलर! मुझे तो लगता है कि इस दुनिया में विचारो की जितनी लताएं पनपी हैं, सबका 'क्रॉस-सेक्शन स्टडी' यदि करना है तो हिंदुस्तान की आज़ादी की गाथा के माइक्रोस्कोप में झांकिए। इन सारी वैचारिक धाराओं के समवेत दर्शन होंगे, पूरे सनातनी तेवर में।
भाई, मेरे शब्द ' सनातनी तेवर' को अपनी ओछी सांप्रदायिक नज़र मत लगाइये। सनातनी तेवर इसलिए कि हिमालय के आंगन इस आर्यावर्त की जीवन यात्रा भी सांस्कारिक स्तर पर सनातन ही है।
न जाने कितने विचार, कितने दर्शन, कितने आध्यात्म, कितने संप्रदाय, जीवन के कितने रंग इस संस्कृति में पनपे, पले, लड़े, बिछुड़े, गले मिले, पर साथ साथ ही चले। विचारों का शास्त्रार्थ हुआ। शस्त्रार्थ नहीं। ज्ञानमार्गी, भक्तिमार्गी,हठयोगी, सिद्धपंथी, नाथपंथी,कबीरपंथी, दैववादी, कर्मयोगी, द्वैतवादी, अद्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी, सगुण, निर्गुण,सूफी, वहाबी - पर मूल में सभी एक ही सत्य के अन्वेषक। सबका उद्देश्य एक। उस परम सत्य को पाना। विचारों की आज़ादी। आत्मा की मुक्ति। वाजश्रवा को नचिकेता की चुनौती। सर्वदर्शानाम एकमेव लक्ष्य- मुक्ति। मुक्तोअहं।
ठीक वैसे ही स्वतंत्रता संग्राम में भी, चाहे 'नरम' या ' 'गरम', 'गाँधी' या 'भगत', उद्देश्य एक ही- 'आज़ाद' होना। हम आजाद ही जनमे हैं, आज़ाद ही मरेंगे।
इसी का नाम सनातन संस्कार है जो सर्वसमावेशी है। और इसीलिए हम संसार के सबसे प्राचीन ,सर्वकालीन सहिष्णु, सबसे कामयाब और सबसे टिकाऊ लोकतंत्र हैं।' सर्वे भवन्तु सुखिनः' और 'वसुधैव कुटुम्बकम' यही भारतीय राष्ट्रवाद की आत्मा है। इसकी स्वतंत्रता सनातन है। थी, है और रहेगी।
ऐसे, 'स्वतंत्रता' से ज्यादा सटीक शब्द ' स्वाधीनता ' प्रतीत होता है. अंग्रेजी के आत्म- निर्भरता का भाव लेकर 'स्वतंत्रता' शब्द अपने राजनीतिक अर्थ और स्वरुप मात्र को परिलक्षित करता है. दूसरी ओर भारतीयता के कलेवर में स्वाधीनता आत्म-सत्ता का पर्याय है. ऐसी आत्मा जो अज है, नित्य है, चिरंतन है, अविकार है, न जलती है, न भींगती है, न सुखती है,अबध्य है, न जनमती है, न मरती है, न मारती है और वह अक्षय परमाणु बीज है जो असीम विराट के महा विस्तार का अविच्छिन्न अंश है.
तंत्र, मन्त्र और यंत्र ! तन को नियंत्रित करने की विधा तंत्र. मन को नियंत्रित करने की विधि मन्त्र. और , यत्न को नियंत्रित करने की युक्ति यंत्र. यानि तन , मन और यतन (उपाय) को परिचालित , संचालित और काबू में रखने की भारतीय प्रावैधिकी हैं- तंत्र, मन्त्र और यंत्र. जहां इन तीनो की लगाम आ जाए हाथो में - वही सच्ची स्वाधीनता है. वही आत्मा की सत्ता प्रतिष्ठित होती है और ज्ञान का आलोक फूटता है. चेतना के चिन्मय आलोक में प्रकाशमान आत्मा जब चलायमान हो, तब वह मुक्तावस्था के शाश्वत श्रृंगार से सजती है. यही योनी भ्रमण के कीचक पथ में धंसे जीव की मोक्ष उत्कंठा का पान्चजन्य उद्घोष है. इस दृश्य जगत के समस्त चर अचर के परिचालन का नियंत्रण ज्ञान दीप्त आत्मा के हाथों ही होता है जहाँ योग की साधना से मन अनुशासित होता है और तन नियंत्रित! इस अवस्था को पा लेना ही सत्य से साक्षात्कार है और इस साक्षात्कार के उपरांत ही आहार, विचार और आचार में स्वाधीनता का समाहार होता है. अपने इर्द गिर्द के चतुर्दिक वातावरण से उपयुक्त अवयवों का आहरण ही हमारे मन में पुष्ट विचारों का ताना बाना बुनता है . उसकी पोषक छाया में हमारे निर्मल आचरण का विकास होता है और हम इस जीव जगत के अन्तर्द्वन्द्वो के उदघाटन में तल्लीन होते हैं . स्वाधीन आत्मा मुक्तोंमुखता को सचेष्ट रहती है. जब सारे बाह्य कारकों का आग्रह निष्क्रिय हो जाए, बल- प्रतिबलों, एवं क्रिया-प्रतिक्रियायों का आरोप निष्फल हो जाय और अपने से इतर किसी अन्य आकर्षण-विकर्षण का लेश मात्र भी प्रभाव न हो तो आत्मा स्वयं आत्मा में ही स्थित हो जाती है. इसे गीता में स्थित प्रज्ञता की स्थिति कहा गया है. स्थित प्रज्ञ मनुष्य ही स्वाधीन आत्मा का उपभोक्ता होता है. स्वाधीन आत्मा और परम स्वाधीन उपभोक्ता! परम चैतन्य! स्वाधीनता की सम्पूर्णता! स्वावलंबन का चरमोत्कर्ष! 'स्व' के स्वरुप का शाश्वत सत्य से समीकरण! तुम वहीं 'वह' हो. "तत त्वम् असि"!
कहीं कुछ ऐसे ही विचारों से प्रभावित होकर राजनैतिक पराधीन भारत में स्वाधीन विवेकानंद ने वेदान्त दर्शन का अलख तो नहीं जगाया ? या फिर, आज़ादी के आन्दोलन के समर वीर महर्षि अरविंद स्वाधीनता की इसी आध्यात्मिक सुरभि से सराबोर तो नहीं हो गए? या फिर, मोहनदास करमचंद गांधी की रूह में सत्याग्रही महात्मा का यहीं दर्शन तो समा नहीं गया? क्यों न हम भी अपनी स्वाधीन आत्मा को सत्य के इसी आलोक में टटोलें!