मानव सभ्यता की कथा उस पांडुलिपि के समान है जिसके शुरुआती पन्ने खो गये
हैं. सभी धर्मों के दर्शन ने उन खोये पन्नों को अपने अपने ढ़ंग से सहेजने का प्रयास
किया है. कौन थे पहले मानव युगल. कहाँ से सृष्टि ने अपना आगाज़ किया.जल थल या नभ!
हिन्दु धर्म में दशावतारों की अवधारणा ने भी बड़े रोचक ढ़ंग से सृष्टि के उद्भव और
क्रमिक विकास को रेखांकित किया है. मीन अवतार जल में सृजन के प्रथम चरण की ओर
इंगित करता है. कुर्मावतार जीव के जल से थल की ओर यात्रा के चरण की ओर संकेत करता
है. वाराह अवतार जीव के धरती पर स्थापित होने का काल है. नृसिन्ह अवतार जीव के
मानव सा आकार ग्रहण करने का विकास क्रम है. इस काल में सभ्यता अपने आदिम पाश्विक
स्वरुप में ही विद्यमान रही. नख हमले के औज़ार के रुप में प्रयोग होता था.
नख से धत्विक हथियारों में संक्रमण का काल परशुराम अवतार का समय है जहां पाश्विक
क्रोध भंगिमा और हाथों मे लोहे का परशु धारण किये परशुराम एक महत्वपूर्ण काल सेतु
पर खड़े दिखते हैं. अंग के रुप में प्रायोगिक रुप से हाथों के उद्भव का काल है यह. परशु का कुशल
प्रयोग करने में परशुराम की हाथें सिद्धहस्त हैं.
राम अवतार सृष्टि क्रम का वह महत्वपूर्ण पड़ाव प्रतीत होता है जहां मानव
स्वरुप में विकास के साथ साथ मानवीय मूल्य आकार लेना शुरु करते हैं. मनुष्य
प्रजाति का अधिकांश अभी जंगलों में ही रहता है आदिवासी रुप में. किंतु मानवीय
संस्थायें अपने उद्भव की यात्रा यहीं से शुरु करती प्रतीत होती हैं.
इंसानियत, मानवीय मूल्य और मनुष्य जीवन की मर्यादायों को परिभाषित करने और
उनकी स्थापना का यह काल है. आसुरी वृत्तियों को पराजित कर सदाचार की मान्यतायें
अपनी विजय पताका लहराती हैं. इस यज्ञ मे मनुष्य के साथ चौपाये भी कदम से कदम
मिलाकर चलते प्रतीत होते हैं मानों मनुष्य ही नहीं बल्कि समस्त जीव जगत के लिये
सामाजिक जीवन का विधान रचा जा रहा हो. जीवन का अधिकांश यहाँ भी नदियों के किनारे,
जंगलों, पहाड़ों, कन्दराओं और गुफाओं में ही मिलता है. नगर और नागरिक व्यवस्था का
उद्गम संगठित रुप लेता यहाँ से दिखायी देता है.
कृष्ण अवतार तक आते आते मानव सभ्यता अपने उन्नयन बिन्दु का स्पर्श कर लेती
है. इस काल के मानवीय व्यवहार का गहरायी से अवलोकन करे तो हम पाते हैं कि तब से अब
तक इसके मौलिक तत्व में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ है.
बुद्ध अवतार वैचारिक और तत्व मीमांसा के स्तर पर मानव विकास यात्रा का चरम
बिन्दु है.
यह तो हुई विकास क्रम की एक सरल रेखा. अब प्रश्न उठता है कि कौन थे पहले
मानव युग्म! या, अलग अलग जगहों पर और काल क्रम के कमोवेश थोड़े अंतर पर मानवीय शक्ल
में अलग अलग स्तर के प्राणी युगलों ने सृष्टि के क्रमिक विकास-यज्ञ का स्वतंत्र
उन्मेष किया. प्रजनन के स्तर पर प्रारभ में जंतुओं में कोई भेद न रहा हो. बाद में
समय के प्रवाह में जैविक विकास के साथ साथ व्यावहारिक स्तर पर भी सुधार और विकास
का क्रमिक विकास जारी रहा और विकास की यह प्रक्रिया कमोवेश मर्यादा स्थापना काल
में अपने पूर्ण आकार में आ गयी.
दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात कि सृजन क्रिया नारी के बिना तो असम्भव है. फिर,
मानव रूप में आदि नारी का आगमन तो तय है. तो, मानव रुप में पुरुष पक्ष का
प्रतिनिधित्व पहले पहल कब हुआ, यह भी उन खोयी पाण्डुलिपियों के गर्भ में ही छुपा
हुआ है.यह भी सुनिश्चित है कि प्रथम गर्भ को उस आदि माता ने ढोया होगा और प्रथम
प्रसव वेदना का भोग भी उसी के हिस्से आया होगा. माँ की ममता का पहला सोता भी तभी
फूटा होगा. उसका पुरुष सहचर सिवा मूक दर्शक बने अपने कोतुहल को अपने हाव भाव में
समेटे बैठने के और भला कर ही क्या पाया होगा. कुल मिलाकर कुछ इसी तरह सृजन की पहली
लीला उसके सामने से गुजरी होगी.
संभवतः पहली बार उस हिंसक आदिम द्विपादी जीव ने उस शिशु काया को गोद में
लेकर उसकी कोमल मुखाकृति में अपनी प्रतिछवि देखी होगी तथा स्पर्श सुख में धड़कने
वाली अपनी छाती की धुकधुकी के मानवीय सुर सुने होंगे. नवजात शिशु को चुमते ही
वात्सल्य की पहली लता पनपी होगी. अपनापन के भाव आये होंगे. शिशु के मुस्कान में माता
और पिता साथ साथ नहाए होंगे और साहचर्य तथा संवेदना का स्वाद चखा होगा. दाम्पत्य
की दामिनी चमकी होगी. दो जोड़ी आँखे पहली बार जिम्मेदारी के अह्सास से मिली होंगी. नीरव
वन प्रांतर में पहली बार बाल किलकारी गूँजी होगी. पशु, पक्षी, जंतु, वनस्पति एक
अद्भुत खुशी के अह्सास में झुमे होंगे. माता ने अपने हर क्षण नवजात की सेवा में
निछावर किये होंगे और पिता इशारे मात्र पर आवश्यक सामग्री जुटाने को दौड़ पड़ता
होगा.
मानवीय संस्कृति और आचरण की सभ्यता की पहली किरण तभी फूटी होगी. आगे की हर
घड़ी सभ्यता के इतिहास का रचनात्मक क्षण रहा होगा. सुख, दुख, प्रेम, मिलन, विरह,
प्रणय-भाव, करुणा, ममता, मोह, वात्सल्य,
दया, क्षमा और वे तमाम श्रृंगारिक चेष्टायें जो मनुष्य को अन्य प्राणियों से विलग
करती हैं अंकुरित हुए होंगे. चेहरे पर हाव भाव एवं हास परिहास की भाव मुद्राओं ने
तभी अपनी लय पकड़ी होगी. माँ और शिशु के भावनाओं के आलाप की भाषा ने अपना स्वरुप गढना
शुरु किया होगा. सबसे पहली भाषा का जन्म ध्वन्यात्मक रुप में माँ औए शिशु के
पारस्परिक संवाद में ही हुआ होगा. किसी खास लय में ध्वनि, इशारा और इंगित वस्तु के
संयोग से भाषा का उद्भव हुआ होगा. यहीं से मानव सभ्यता को पर लगे, संस्कृति की
संरचना का श्री गणेष हुआ होगा और इतर जंतु मनुष्य से पीछे छूटते चले गये. मनुष्य
के सोचने समझने की प्रकृति प्रदत्त क्षमता ने सभ्यता और संस्कृति के प्रवाह को
ऊर्जा और आवेग प्रदान किया.
पहले परिवार के आस्तित्व में आते ही उन तमाम आवश्यकताओं का उन्मेष होने लगा जो
परिवार की गाड़ी को आगे बढ़ाते. नये दम्पति, नया शिशु, नया परिवार और अब नयी
आवश्यकतायें! फिर तो आवश्यकताओं ने आविष्कार को जन्म दिया. जितनी आवश्यकतायें,
उतने आविष्कार. हथियार, आग, पहिये, पुल, भोजन, वस्त्र, आवास जैसे मील के पत्थरों
को वह पार करता रहा. अब खानाबदोशी का जीवन स्थिरता में ठहरा. कृषि कर्म का
सूत्रपात हुआ. स्त्री और पुरुष का श्रम विभाजन हुआ. उत्पादन की अवधारणा का जन्म
हुआ. परिवार से झुण्ड और झुण्डों से कबीले बने. फिर संपत्ति और स्वामित्व का काल
आया. सम्पत्ति और स्वामित्व की कोख से ही वैमनस्य, ईर्ष्या, डाह, टकराव, शीत युद्ध
और अनंतर दुष्ट भावों के विकराल वृक्ष का उद्भव हुआ. सभ्यता फैलती गयी और संस्कृति
सिकुड़ने लगी. सभ्यताओं की श्रेष्ठता को लेकर संघर्ष होने लगा.तकनीकि, विज्ञान और
प्राद्योगिकी नये हथियार बने. अथैव, एक लंबे काल और स्थान की यात्रा करता मनुष्य
अपने विकास क्रम के वर्तमान बिन्दु तक पहूँचा है. यह यात्रा अनवरत जारी है.
पांडुलिपि के प्रारम्भिक पृष्टों की तरह इसका उपसंहार भी काल के गर्भ में अज्ञात
है.