सरकी परते
धरती की
फटी माटी परती
की
और भूचाल न
हो।
फिर! बवाल न
हो?
ज्वार गिरते हो भाटा में
सागर सिसके
सन्नाटा में
और लहरे
विकराल न हो।
फिर! बवाल न
हो?
जठर में
क्षुधा ज्वाला हो
कुशासन कृत्य
काला हो
और क्रांति काल
न हो।
फिर! बवाल न
हो?
मुंसिफ उलझे
अदालत के
चिहुँके सुर
बगावत के
इंसाफ बेहाल न
हो।
फिर! बवाल न
हो?
कर्म भी भक्ति
से भिड़े
ज्ञान भ्रम
में जा गिरे
और कृष्ण
वाचाल न हो।
फिर! बवाल न
हो?
आडम्बर लोकतंत्र का
आलोचक
अणुवीक्षण यंत्र सा
मीडिया बजता
गाल न हो।
फिर! बवाल न
हो?
कचड़ा पेट में
नदियों की
खो-दी सभ्यता
सदियों की
और जंगल
फटेहाल न हो।
फिर! बवाल न
हो?
'हलचल' हो विवाद की
'जन तंत्र-संवाद' की
साहित्य खुशहाल
न हो।
फिर! बवाल न
हो?
Kusum Kothari: अद्भुत!!
ReplyDeleteफिर भी बवाल न हो।
Vishwa Mohan: आभार!!!