Saturday, 20 January 2018

फिर! बवाल न हो?

सरकी परते धरती की
फटी माटी परती की
और भूचाल न हो।
फिर! बवाल न हो?

ज्वार गिरते  हो भाटा में
सागर सिसके सन्नाटा में
और लहरे विकराल न हो।
फिर! बवाल न हो?

जठर में क्षुधा ज्वाला हो
कुशासन कृत्य काला हो
और क्रांति काल न हो।
फिर! बवाल न हो?

मुंसिफ उलझे अदालत के
चिहुँके सुर बगावत के
इंसाफ बेहाल न हो।
फिर! बवाल न हो?

कर्म भी भक्ति से भिड़े
ज्ञान भ्रम में जा गिरे
और कृष्ण वाचाल न हो।
फिर! बवाल न हो?

 आडम्बर लोकतंत्र का
आलोचक अणुवीक्षण यंत्र सा
मीडिया बजता गाल न हो।
फिर! बवाल न हो?


कचड़ा पेट में नदियों की
खो-दी सभ्यता सदियों की
और जंगल फटेहाल न हो।
फिर! बवाल न हो?

'हलचल' हो विवाद की
'जन तंत्र-संवादकी
साहित्य खुशहाल न हो।
फिर! बवाल न हो?



1 comment:

  1. Kusum Kothari: अद्भुत!!
    फिर भी बवाल न हो।
    Vishwa Mohan: आभार!!!

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