मुझे अक्सर ये भास होता है कि जीवन का जो भी टुकड़ा हम जी रहे हैं वह
हमारी चेतना उद्भूत अनुभूतियों के स्तर पर है. या, यूँ कहें कि जितने अंश तक हमारी
चेतना अपनी भिन्न भिन्न कलाओं में विचरण करती है उसी अंश तक हम इस जीवन का अनुभव
कर रहे हैं. ऐसे विचारणा की पारंपरिक परिपाटी में हम यह मानते हैं कि पहले जड़-तत्व
का प्रादुर्भाव हुआ, उसमे प्राण-तत्व का आरोपण हुआ, फिर मनस-तत्व के मेल से उसमे
सजीव प्राणी के सृजन की सुगबुगाहट हुई. जड़-तत्व पदार्थ है, प्राण-तत्व ऊर्जा है और
मनस-तत्व चेतना है.
किन्तु, इसके ठीक उलट मेरा यह मानना है कि पहले मनस-तत्व जागृत होता
है. वह प्राण-तत्व को उद्वेलित करता है जिसे अपनी मनोमयी चेतना के अनुरूप किसी जड़-तत्व
में आरोपित कर नयी रचना का निर्माण करता है. हम अपने भौतिक आस्तित्व में निष्प्राण
जड़ पदार्थ मात्र हैं, यदि उनमे प्राण की ऊर्जा न हो. अब यदि किसी पदार्थ को उर्जा
मिलकर उसमे हरकत या गति पैदा कर दें तो वह जीवंत थोड़े ही हो जाता है ! ठीक वैसे ही, जैसे विद्युत् उर्जा के समावेश से
यदि पंखा नाचने लगे तो पंखे को आप जीवित प्राणी थोड़े कहेंगे ! अभी भी, वह एक गतिशील प्राकृतिक उपादान मात्र
है. यहीं पर सृष्टि में प्रकृति और पुरुष के समागम स्वरुप का आभास मिलता है.
प्रकृति जड़ तत्व और ऊर्जा का समुच्चय है. यह पुरुष का ही संयोग है जो उसे चेतनशील
प्राणी में परिवर्तित करता है. तो, मेरी सोच की धारा उलटे इस अर्थ में है कि
निष्क्रिय सा समझा जानेवाला पुरुष वास्तव में सक्रिय है और सक्रिय सी समझी
जानेवाली प्रकृति वास्तव में निष्क्रिय है. पुरुष कर्ता है, प्रकृति करण और सृजन
कर्म! सृजन की इच्छा शक्ति सक्रिय चेतन तत्व में ही हो सकती है.
बिंदु का 'बिग बैंग' विष्फोट उद्वेलित प्राण-तत्व के एक बिन्दुवत जड़-तत्व
में आरोपण की घटना ही तो है. विराट ऊर्जा का यह प्रणव महाटंकार प्राण-तत्व में
निश्चय ही किसी चेतन मनस-तत्व के जागरण से परिचालित हुआ होगा जो इस ब्रह्माण्ड की
रचना का बुनियादी वैज्ञानिक कारण माना जाता है. और फिर, मैं इस बात को दुहराऊंगा
कि 'बिना इच्छा के मनस-तत्व की चेतना जागृत नहीं होती'. अलबता, हम फिलहाल उन
इच्छाओं के कारण की पड़ताल में नहीं जायेंगे लेकिन कार्य कारण के अमोघ वैज्ञानिक
सिद्धांत से मुंह भी नहीं मोडेंगे. यहीं पर मुझे
महान वैज्ञानिक स्टीफेन हव्किंस अपना पल्ला छुडाते दीखते हैं जब इस महा
विष्फोट को वह एक अकारण घटना घोषित कर देते हैं और "एक्सपेंशन थ्योरी के
एन्ट्रापी' की अराजकता में इस ब्रह्माण्ड को एक निरुद्देश्य यात्रा के विनाश गर्त
में धकेल देते हैं. 'कार्य-कारण-सिद्धांत'
का उनका यह अस्वीकार हमें स्वीकार नहीं .
आप यह ये भी नहीं समझे कि इसी की बिना पर मैं उनकी नास्तिकता पर कोई चुटकी ले रहा
हूँ, या प्रकारांतर में ईश्वर की सार्वभौमिक सत्ता का मैं कोई शंख नाद कर रहा हूँ.
मैं तो केवल यह कह रहा हूँ कि 'बिना इच्छा के मनस-तत्व की चेतना जागृत नहीं होती',
'बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता' और 'सृजन की इच्छा शक्ति केवल और केवल चेतन-तत्व
में ही हो सकती है'.
हाँ, चेतना के स्तर एवं उसकी
कलाएं शोध का विषय हो सकती हैं. इसको जानने के लिए आप दार्शनिक जटिलताओं की
दुर्गम दुरुह्ताओं में दर दर भटकने के बजाय यदि सीधे-सादे किन्तु सधे ढंग से अपने इर्द गिर्द
की लौकिक घटनाओं पर नज़र डालें तो चेतना के भिन्न भिन्न स्तरों का अवलोकन बड़ी आसानी
से कर सकते हैं. आप अपने आसपास की चीजों पर नज़र डालते हैं तो उन वस्तुओं का एक
समग्र चित्र आपके चेतन मन में स्थापित होता है. यह चित्र आपकी मौलिक परिव्यापक
चेतना का प्रतिफलन है जिसमे सरसरी तौर पर उन वस्तुओं के रूप, रंग, गुण अपने
वास्तविक प्रतिरूप में आपके चेतन मन में व्यवस्थित हो जाते हैं. यह मनसतत्व के
चेतन व्यापार की प्रक्रिया का पहला चरण है.
अब उन चीजों में से कोई एक ऐसी चीज मिल जाती है जो आपको भा जाए, जिस
पर आपकी नज़रें टिक जाय और जिसे आपका चेतन मन एक विषय वस्तु के रूप में धारण कर
उससे अपना सम्बन्ध बनाने को उत्सुक हो जाय और प्रबोधात्मक स्तर पर अपने
विश्लेषण-संश्लेषण ज्ञान से उसे अधिकार में लेने लायक मान लें. यह चेतन व्यापार की
प्रक्रिया का दूसरा चरण है.
फिर तो उस वस्तु के साथ अनुभूति के स्तर पर आप अपना राग स्थापित कर
लें और उसे तत्व रूप में अपने मन में बसा लें. ध्यान दें, दूसरा चरण उस वस्तु से
आपके जुडाव की चेतना की बहिर्गति थी जबकि अब आपमें प्रबोधात्मक चेतना की
अन्तर्वाहिनी गति प्रवाहित हो रही है जिसने विषय को अपने अन्दर संनिविष्ट कर लिया
है. चेतन व्यापार की प्रक्रिया का यह तीसरा चरण है.
अब तो चेतना उस प्रतिरूप पर विराजती है जिससे वह उसे अपनी शक्ति से
ग्रहण कर सके और अपने अधिकार में लेकर उसे परिचालित कर सके. यह चौथा चरण है. मनस-तत्व
के ये चार आवश्यक कार्य है जिसे उपनिषदों में क्रमशः 'विज्ञान', 'प्रज्ञान',
'संज्ञान' और 'आज्ञान' नाम से अभिहित किया गया है. मेरा मतलब मात्र इतना है कि
मनसतत्व अपनी इन चैतन्य क्रियाओं से प्राण तत्व की उर्जा को जड़ तत्व पर आरोपित
करती है.
यदि एक प्रजनन-युग्म को अपने जड़-तत्व रूप में साथ रख दे तो उनमे जीव-निषेचन प्रक्रिया में उद्धत होने के लिए
प्राण-तत्व की उर्जा का उछाह तबतक नहीं आयेगा जब तक कि मनस-तत्व की चेतना जागृत न
हो. 'कामायनी' के 'श्रद्धा' सर्ग में मनस-तत्व
के सृजन की इसी चेतना के जागरण की भूमिका में श्रद्धा मनु से निवेदित करती प्रतीत
होती है:-
" ..... हार बैठे जीवन का दाव, मरकर जीतते जिसको वीर "
और, अब प्रश्न उठता है कि सृजन की चेतना के उत्स इस मनस-तत्व की
इच्छा का मूल क्या है? कौन है जो इस मनस-तत्व को धारण करता है?
-- " केनेषितं पतति प्रेषितं मनः........"
इस शंका का समाधान भी केनोपनिषद ही करता है:-
-- " केनेषितं पतति प्रेषितं मनः........"
इस शंका का समाधान भी केनोपनिषद ही करता है:-
" यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम| तदेव ब्रह्म त्वम् विद्धि
नेदं यदिदमुपासते||५|| "
अर्थात, ' वह ' जो मन के
द्वारा मनन नहीं करता (या जिसका व्यक्ति मन के द्वारा चिंतन नहीं करता है) ' वह '
जिसके द्वारा मन स्वयं मनन का विषय बन जाता है, ' उसे ' ही तुम ' ब्रह्म ' जानो न
कि इसे जिसकी मनुष्य यहाँ उपासना करते हैं.