डर भ्रम मात्र अवचेतन का,
शासित संशय स्पंदन
का।
जब जीव जगत है
क्षणभंगुर,
फिर, जीना क्या और मरना क्या!
चल पथिक, अभय अथक पथ पर,
मन में घर डर यूँ
करना क्या!
करते गर्जन घन सघन
गगन,
होता धरती का
व्याकुल मन।
आकुल अंधड़ प्रचंड
पवन,
नीड़ बनना और बिखरना
क्या!
चल पथिक, अभय अथक पथ पर,
मन में घर डर यूँ
करना क्या!
करे वारिद वार धरा
उर पर,
तड़ित ताप, अहके
अम्बर।
आँखों में आँसू अवनि के
निर्झर का झर झर झरना क्या!
चल पथिक अभय अथक पथ पर,
मन में घर डर यूँ करना क्या!
दह दहक दीया, दिल बाती का
तिल जले तेल, सूख छाती का।
शमा हो खुद, बुझने को भुक भुक,
परवाने पतंग का मरना क्या!
चल पथिक अभय अथक पथ पर
मन में घर डर यूँ करना क्या!
जीवन चेतन जीव का खेल
प्रकृति से पुरुष का मेल।
भसम भूत ये पञ्च तत्व में,
सजना क्या, सँवरना क्या!
चल पथिक अभय अथक पथ पर,
मन में घर डर यूँ करना क्या!
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ReplyDeleteNITU THAKUR
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आप तो शब्दों के जादूगर है
शब्दों को ख़ूबसूरती से सजाकर
एक सुन्दर संदेश देती आप की रचना लाजवाब ही होती है।
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Vishwa Mohan
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+NITU THAKUR अत्यंत आभार आपका!!!
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Meena Gulyani
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bahut sunder
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Vishwa Mohan
आभार!!!
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Meena Gulyani
+1
welcome
Aaj to chala diya aapne 🙏🏼 Sabina
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपके इस अनुपम आशीष का।🙏🙏
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