दौड़ रहा है सरपट सूरज
समेटने अपनी बिखरी रश्मियों को.
घुला रही हैं अपने नयन-नीर से,
नदियाँ अपने ही तीर को.
खेल रही हैं हारा-बाजी टहनियाँ
अपनी पत्तियों से ही.
फूंक मार रही हैं हवाएं,
जोर जोर से अपने ही शोर को.
जला रही है बाती,
तिल-तिल कर अपने ही तेल को.
दहाड़ रहा है सिंह सिहुर-सिहुर कर,
अपनी ही प्रतिध्वनि पर.
लील रही है धरोहर, धरती
काँप-काँपकर अपनी ही कोख की.
पेट सपाट-सा सांपिन ने,
फूला लिया है खाकर अपने ही संपोलो को.
चकरा रही है चील, लगाये टकटकी,
अपनी ही लाश पर.
सहमा-सिसका है साये में इंसान,
आतंक के, अपने ही साये
के.
और फुद्फुदा रही है फद्गुदी,
चोंच मारकर अपनी ही परछाहीं पर!