दौड़ रहा है सरपट सूरज
समेटने अपनी बिखरी रश्मियों को.
घुला रही हैं अपने नयन-नीर से,
नदियाँ अपने ही तीर को.
खेल रही हैं हारा-बाजी टहनियाँ
अपनी पत्तियों से ही.
फूंक मार रही हैं हवाएं,
जोर जोर से अपने ही शोर को.
जला रही है बाती,
तिल-तिल कर अपने ही तेल को.
दहाड़ रहा है सिंह सिहुर-सिहुर कर,
अपनी ही प्रतिध्वनि पर.
लील रही है धरोहर, धरती
काँप-काँपकर अपनी ही कोख की.
पेट सपाट-सा सांपिन ने,
फूला लिया है खाकर अपने ही संपोलो को.
चकरा रही है चील, लगाये टकटकी,
अपनी ही लाश पर.
सहमा-सिसका है साये में इंसान,
आतंक के, अपने ही साये
के.
और फुद्फुदा रही है फद्गुदी,
चोंच मारकर अपनी ही परछाहीं पर!
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (11-03-2019) को "लोकसभा के चुनाव घोषित हो गए " (चर्चा अंक-3270) (चर्चा अंक-3264) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी, अत्यंत आभार आपका.
Deleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/03/2019 की बुलेटिन, " एक कहानी - मानवाधिकार बनाम कुत्ताधिकार “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका.
Deleteलील रही है धरोहर, धरती
ReplyDeleteकाँप-काँपकर अपनी ही कोख की.
बहुत खूब...... हमेशा की तरह ,सादर नमन
जी, अत्यंत आभार आपका.
Deleteवाह
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका.
Deleteबहुत सुंदर रचना, विश्वमोहन जी।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका.
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका.
Deleteशानदार आदरणीय
ReplyDeleteसादर
जी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteआपके अंदाज़ से ज़रा हटकर,समसामयिक,सारगर्भित, भावपूर्ण, बेहद प्रभावशाली सृजन विश्वमोहन जी।
ReplyDeleteबधाई आम जनमानस के मन को टटोलती रचना के लिए।
सादर।
जी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteबहुत बहुत बधाई एक और सुंंदर प्रभावशाली रचना के लिए
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteबहुत सार्थक सृजन। सभी विषय ज्वलन्त और विचारणीय। उलटबांसी सरीखी शैली और अनुप्रास से रचना और प्रभावी हो गई है। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteवाह अद्भुत ¡
ReplyDeleteकाट रहा हर शख्स उसी डाली को
बैठा है जिस डाली पर चढ़।
घुला रही हैं अपने नयन-नीर से,
ReplyDeleteनदियाँ अपने ही तीर को.
बहुत ही उत्कृष्ट एवं लाजवाब सृजन.......
वाह!!!
सहमा-सिसका है साये में इंसान,
ReplyDeleteआतंक के, अपने ही साये के.
बहुत सही कहा आपने। बहुत बढ़िया। सार्थक सृजन के लिए आपको बधाई। सादर।
जी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति, विश्वमोहन जी।
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteवाह..... लाजवाब सृजन आदरणीय
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteबहुत सुंदर रचना....आप को होली की शुभकामनाएं...
ReplyDeleteजी, अत्यंत आभार आपका।
Deleteलाज़वाब और सटीक अभिव्यक्ति...
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